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रविवार, 17 मई 2015

अपने समय के बारे में

आप जब कहते हैं,

कि यह एक ख़राब समय है
तब आप कोस रहे होते हैं सिर्फ वर्तमान को

अतीत के पक्षपाती चश्मे से,
संभव है आपकी ख़राब घड़ी भर ही ख़राब हो समय।

दरअसल वह एक ख़राब समय था जो,

वीर्य की तरह बहता चला आया वर्तमान की नसों में।



जिस क़ातिल की सज़ा बदली सज़ा-ए-मौत में

(इसे रिहाई भी समझा जा सकता है)

उसने अतीत में झोंकी थी एक औरत तंदूर में।

समय तंदूर में झुलसा था तब

और आप अब काला बता रहे हैं।

अंधेरा पैदा करने के लिए

बहुत से धुंधले उजाले भी काफी हैं।


जिन चेलों ने आज बटोरे प्रशस्ति पत्र

उनके पत्रों पर कहीं दर्ज नहीं

कहां और कितने गुरुओं को बांटी थी कल कौन-सी बोतलें।


संभव यह भी है कि अच्छा समय ढंक दिया गया हो

किसी लोकतांत्रिक ढक्कन से।

जैसे आप खिड़कियां ढंकते हैं कमरों की,

और सुरक्षित महसूस करते हैं

आपकी बच्चियां लूडो खेलती हैं आराम से।

ठीक उसी लोकतांत्रिक समय खिड़की के बाहर,

जहां जब बच्चियां पैदा हुईं

तो मांओं ने छातियां ढंक दी उनकी

और आसमान की तरफ अश्लील और डरावनी संभावनाओं से देखा।


दरअसल यह एक अश्लील समय है,

हत्या की खबरों में सिबाका गीतमाला की तरह

दलित नरसंहार में सवर्णों की सकुशल रिहाई जैसे

दिल्ली में दम तोड़ता उत्तर-पूर्व जैसे

पृथ्वी की छाती पर उग आए मकान जैसे

बकरों की जगह उल्टे लटके मुसलमान जैसे।


इस वक्त आपके रंगीन चश्मे के भीतर

अगर दिख रहा है सच जैसा कुछ

तो सबसे अश्लील है भगवान
जिसे पसंद है समय का नंगा नाच।।


('पहल' पत्रिका (98वें अंक) में प्रकाशित
निखिल आनंद गिरि

रविवार, 14 दिसंबर 2014

नई प्रेमिका के लिए

1) संसार की सबसे मुलायम तस्वीर मेरे हाथ में है, 
बाइस प्रेमिकाओं का आकर्षण है उसमें,
कोई आग्रह नहीं फिर भी
मैं रात भर उसके करवट बदलने का इंतज़ार करता हूं
वो सरसों के तकिये पर आसमान से बतियाती है
एक निर्दोष हंसी हंसती है मुझ पर
कि उसे दे पाया नरक-सी ही दुनिया
अपनी पवित्र अंगुलियों से कोई रेखाचित्र बनाती है हवाओं में
शायद काट रही है दुनिया का घिसा-पिटा नक्शा
रच रही है अपनी अलग दुनिया
जिसे पढ़ने के लिए बरसों-बरस करनी होगी साधना
बरसों-बरस डूबना होगा प्रेम में

2) अथाह दर्द को चीरकर
यह मेरा ख़ून है जो शक्ल लेता है
दुनिया को निर्दोष, अबोध शक्ल देता
कोई अलौकिक घटना नहीं यह
होता आया सदियों से
फिर भी लगता है
अभी-अभी जीवन को महसूस किया है
अपनी हथेली पर
अगर हम आज से पहले जी रहे थे तो यह सरासर झूठ था
जीवन जितना मुलायम सुना
अभी-अभी देखा है एकदम पहली बार

3) रात के आखिरी पहर
दो बजकर सैंतीस मिनट पर
देवता करते हैं रखवाली रातों की
जो सो रहे होते हैं
मीठे सपने घोलते उनकी नींदो में
जगती आंखों में उम्मीद भरते शायद
और अंधेरी रातों में जो भूल चुके होते हैं रोशनी का चेहरा 
हमारी-तुम्हारी जैसी आंखों में नया उजाला भरते
यह उजाला सांस लेता है
जैसे सृष्टि ऊर्जा भरती हो धमनियों में
इस उजाले की आंखें हैं
जैसे रातों के देवता गूंथ गये हों मणि अपनी
इस उजाले को एक नाम दूंगा दीये-सा
टिमटिमाता रहे हर अंधेरे कोने में
अथाह संभावनाएं लिए


4)  मैं नही
  तुम नही
  जीवन नही
 जो था
 जीवन का भ्रम था
  दुनिया नही
  दुनिया का भ्रम था
  प्रेम नही
  प्रेम का भ्रम था

 मैं शर्तिया कहता हू
 ये घनी अंधेरी रात नही
 रात का भ्रम है
 ये दरअसल उजाले की शुरुआत है
 जो मेरी आँखों में साफ पढ़ा जा सकता है
 हथेलियों पर महसूस किया जा सकता है
 सब कुछ ख़त्म हो चुका है
 या हो रहा है
यह भी एक भ्रम था
इस नन्हे समय के टुकड़े के साथ
जिया जा सकता है पूरा जीवन



निखिल आनंद गिरि

रविवार, 2 मार्च 2014

बहुरूपिये पिताओं के बारे में

उम्र के उस किनारे
किसी विशाल और सजीव मूरत की तरह
खड़ा है जैसे कोई सदियों से।
मैं समंदर की तरह बहता हूं
और पांव छूकर लौट आता हूं।
पूछूंगा कभी उन पांवों से
भीतर तक महसूस हुआ कि नहीं।

सबसे अधिक बातें करना चाहता हूं पिता से
असंख्य तारों से भी ज़्यादा
उन-उन भाषाओं में जो गढ़ी नहीं गईं
उन लिपियों में जिनका नाम तक नहीं मालूम
ऐसे ही संभव हैं कुछ बातें
तुम्हारी आंखों में धंसे दुख के बारे में
जो उतर आता है मेरी नसों में भी
बिना किसी मुहूर्त के
मेरे माथे पर उग आती हैं
तुम्हारे चेहरे की सब झुर्रियां।


मिलना चाहता हूं उन सब पिताओं से

जो दिखते हैं मुझमें
प्रेमिकाओं की आंखों से।
मैं पिता से प्रेमिकाओं की तरह मिलना चाहता हूं
देवताओं की तरह नहीं।

गले में कसकर हाथ डाले
बीच सड़क पर किसी नई फिल्म का
गाना गाते, भूलते बीच-बीच में।
सर्दियों में ज़बरदस्ती आइसक्रीम खिलाते
सबसे असभ्य गालियां बकते
सबसे सभ्य दिखते लोगों को
झट खड़े हो जाते मेट्रो में
किसी पिता जैसे चेहरे को देखकर
उम्र के सब मचान लांघते
तुम्हारे बेहद क़रीब आना चाहता हूं।

तुम्हारी बांहों में मछलियां नहीं हैं
फिर कैसे लड़ लेते हो हम सबके लिए
तुम्हारी आंखों में पावर वाला चश्मा है
फिर कैसे देख लेते हो सबसे दूर तक
तुम कोई बहुरूपिए हो पिता
एक सच्चे मिथक की तरह
तुम शक्तिपुंज हो पिता मेरे लिए

किसी मैग्निफआइंग लेंस के सहारे
सहेज लूंगा तुम्हारी सब ऊर्जा
जो एक दिन जला देगी देखना
संसार के सब दुख, छल और नकलीपन।

निखिल आनंद गिरि
(पिता के जन्मदिन पर..
)

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

नई पीढ़ी



हम पूर्णविराम के बाद अपनी बात शुरू करेंगे

चुटकुलों में कहेंगे सबसे गंभीर बातें,

एक कटिंग चाय के सहारे

हमें सुनने का हुनर ख़रीद लीजिए कहीं से।

 

हम कहेंगे कद्दू

तो आप समझ लीजिएगा

यह भी व्यवस्था के लिए एक लोकतांत्रिक मुहावरा है।

हम कहेंगे सियारों की राजधानी है कहीं

जंगल से बहुत दूर।

जहां लोग हेडफोन लगाते हैं,

मूंछें मुंडवाते हैं

और हुआं-हुआं करते हैं।

 

सिगरेट के धुएं में उड़ती फिक्र पढ़िए हमारी,

हमारी प्रेमिकाओं से बातें कीजिए थोड़ी देर

अंग्रेज़ी को हिंदी की तरह समझिए।

 

सत्ता सिर्फ आपको नहीं कचोटती,

मेट्रो की पीली लाइन के उस तरफ अनुशासित खड़ी हैं कुछ गालियां

उन्हें दरवाज़े के भीतर लाद नहीं पाए हम।

 

आपको ऐतराज़ है कि हमारे सपने रंगीन हैं,

मगर सच हो जाते हैं यूं भी सपने कभी।

ये मज़ाक में ही कही थी सपने वाली बात

कि संविधान की किताब को कुतरने लगे हैं चूहे

और खालीपन आ गया है कहीं।

 

जहां-जहां खालीपन है,

वहां संभावना थी कभी

संभावनाएं होती हैं खालीपन में भी,

देखिए कौन कर रहा हत्याएं

संभावनाओं की।
(यह कविता 'आउटलुक' के फरवरी 2014 अंक में प्रकाशित हुई है)
निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

मांएं डरने के लिए जीती हैं..

हमारा बचपन ऐसा नहीं कि
गाया जा सके उदास रातों में...
हमारे नसीब में नहीं थे सितारे,
जिन्हें तोड़कर टांक सकें स्याह रातों में
उम्र बढ़नी थी, कोई रास्ता नहीं था....
वरना उस एक मोड़ पर रोक लेते खुद को,
कि जहां से ज़िंदगी सबसे उबाऊ और मजबूर रास्ते लेती है..

पूछो अपनी मांओं से,
पूछो पिताओं से....
कि जब कोई रास्ता नहीं रहा होगा....
तो मजबूरी में करनी पड़ी होगी शादी...
और फिर शाकाहारी पत्नियां मांजती रही होंगी बर्तन,
और परोसती रही होंगी मांस अपने पतियों को...

और फिर बेटे हुए होंगे,
बंटी होंगी मिलावटी मिठाईयां..
और बेटियां होने पर सास ने बकी होगी गालियां...
पत्नियां खून का घूंट पीकर रह जाती होंगी...
और पति चश्मा इधर-उधर करते हुए...
पतिव्रता पत्नियां फ़रेब के किस्सों से ज़्यादा कुछ भी नहीं...

बड़े होते बेटों से रहती होगी उम्मीद,
कि उनकी एक हुंकार से सिहर उठेगी दुनिया,
जबकि असल में वो इतना डरपोक थे कि
कूकर की सीटी से भी लगता रहा डर,
कहीं फट न पड़े टाइम बम की तरह...
दीवार पर छिपकली आने भर से..
मूत देते थे सुकुमार लाडले...

और समझिए ऐसे दोगले समय में,
गूंथी हुई चोटियां हथेली में लेकर,
कैसे किया होगा हमने प्यार...
और समझो कितनी सारी हिम्मत जुटानी पड़ी होगी,
ये कहने के लिए, बिन पिए...
कि तुम्हारी नंगी पीठ पर एक बार फिराकर उंगलियां....
लिखना चाहता हूं अपना नाम

हालांकि एक मर्द है मेरे भीतर,                                                            
जो कर सकता है हर किसी से नफरत..
गुस्से में मां को भी माफ नहीं करता
हालांकि ये भी सच है कि...
मांएं डरने के लिए ही जीती हैं,
पहले मजबूर पिताओं से,
फिर मर्द होते बेटों से..

निखिल आनंद गिरि
(पाखी के दिसंबर 2013 अंक मेंप्रकाशित)

बुधवार, 11 सितंबर 2013

करवट..

वो सभी रिश्ते समाज से,
बेदख़ल कर दिए जाएं,
जिनमें रत्ती भर भी ईमानदारी हो.
उस भीड़ को दफ्न कर दिया जाए
जिसके पास मीठी तालियां हों बस..

तेज़ आंच में झुलसा दी जाएं,
वो तमाम बातें..
जो कही गईं
चांद के नाम पर,
प्यार की मजबूरी में,
नरम हों, ठंडी हों..

वो आंखें नोच ली जाएं,
जिन्हें देखकर लगता हो..
कि ख़ुदा है..
अब भी कहीं..

उस ज़िंदगी से मौत बेहतर,
जिसे ठोकरें तक नसीब नहीं..
एक करवट बदलनेे के लिए..

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

मौसम

मुझे् एक बारिश याद है
जो मुझसे थोड़े फासले पर हो रही थी
और मैं जहां खड़ा था
वहां धूप के शामियाने थे

हालांकि मुझे भीगना था बारिश में
मगर धूप ख़ुद चलकर आई थी
मेरे पास..
तो मैंने थोड़ी देर धूप में भीगना चाहा

धूप गई थोड़ी देर में
तो चप्पलें छूट गईं उसकी
अचानक बारिश आईं
और बहा ले गई चप्पलें

मैं थोड़ी देर पहले ही धूप में भीगा था
फिर भी बारिश में भीगा
मैं बारिश में बारिश के पीछे भागा
धूप की चप्पलों के लिए

अचानक बारिश ने बदल लिया मन
मौसम ने बदल लिए शामियाने
धूप और बारिश में भीगा मैं..
अब बदल रहा हूं मौसम के हिसाब से..

 निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 29 जून 2012

सच भी सुनिए कभी...

इस शहर की सब आबोहवा,
धूल-मिट्टी और ख़ून के रंग का पसीना
सब आपकी देन है, सब कुछ....

हमें कोई ऐतराज़ नहीं इस बात पर
कि बच्चों के स्कूल में आप ही आए
हर बार सम्मानित अतिथि बनकर..
मासूम तालियों के सब तिलिस्म आपके...
और हमारे लिए सब सूनापन,
अथाह शोर और घमासान के बीच...

हमें तेल की पहचान तो है,
मगर मालिश करने का तरीका नहीं मालूम
इसीलिए फिसल जाता है नसीब...

हमारे रहनुमाओं की कोठियों के आगे बड़े-बड़े दरवाज़े
लोहे की मज़बूत दीवारें ऊंची-ऊंची..
जैसे सबसे ज़्यादा डर आम आदमी से हो....
कभी जाइए उन्हें देखने की हसरत लिए
हाथ में पिस्तौल लेकर संतरी करेंगे स्वागत
लोकतंत्र किसी बंदूक की नली पर जमी धूल की तरह है...

घर-गली के तमाम चेहरे...
अख़बार वाले का नाम और गांव का पिन कोड
भूल जाना सब कुछ
नियम है शहर का..

जिन पेड़ों को आपने रोपे हैं अपने गमले में
वो सिर्फ छुईमुई हैं अफसोस...
जो पेड़ बच गए हैं शहर की सांस के वास्ते...
उनके नाम तक नहीं पता किसी को...

और सुनिए, जब आपको नागरिक सम्मान देने के लिए
पुकारा गया था नाम ज़ोर-ज़ोर से...
तब आप भी टीवी देखने में व्यस्त थे
और ये ख़बर आई थी कि...
छह महीने भूख और दुख से बेहाल...
एक कमरे में मर गईं दो अकेली बहनें

सच कहिए वो आपका मोहल्ला नहीं था?

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 23 जून 2012

कल सपने में आई थी पुलिस...

इधर कुछ दिनों से..
डरावनी हो गईं है मेरी सुबहें...

कल सपने में अचानक बज उठा सायरन,
और मैंने देखा सुबह मेरे घर पुलिस आई थी
मुझे ठीक तरह से याद नहीं
कितनी ज़मानत देकर छूटा था मैं सपने में...

वो बरसों पुराना लिफाफा था कोई,
जिन्हें कभी पहुंचना नहीं था मेरे पास
एक डाकिया आया था कल रात सपने में
सपने में ही आते हैं ख़त आजकल...

कल सपने मे मुझे डांटने का मन हुआ
बूढ़े होते पिता को...
और मैं सुबह से सोचता रहा
मुझे मौत कब आएगी..

अचानक सपने में कोई मर रहा था प्यास से
और मैंने उसे दिखाए समंदर
जिनका रंग ख़ून की तरह लाल था...
मगर फिर भी वो प्यास बुझाकर खुश था...

हां, एक सपना भूख की शक्ल का भी था
जब तुमने इत्मीनान से पकाई थी खिचड़ी
और आधा ही खाकर आ गई मुझे नींद...
मैं भूख से इतना खुश पहले कभी नहीं हुआ,

मैं सच कहता हूं, एकदम सच...
मुझे रात भर नींद नहीं आती आजकल
मगर सपने आते हैं बेहिसाब
सपनों में रोज़ आती है पुलिस
रोज़ आते हैं पिता
और रोज़ आती है प्यास
जिसका रंग लाल है...

वो दफ्तर जहां मेरे पिता जाते हैं हर साल
ये साबित करने कि वो ज़िंदा हैं..
सुना किसी अफसर से लड़ गया था कोई आम आदमी
तब से हर किसी की तलाशी लेता है बेचारा गार्ड

यहां कवियों की भी तलाशी ली जाती है
और इसी बात पर मन करता है
कि अगर नहीं छूटती मुल्क से गुलामी
तो क्यों ने छोड़ दिया जाए मुल्क ही
और उड़ कर भाग जाएं सिंगापुर...
जब जेब में हों इत्ते भर पैसे...
कि भागकर लौटा न जा सके...

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

रिश्तों की तरह होती हैं कुछ कविताएं...

हमारी चुप्पियों के बीच पुल की तरह था मुस्कुराना....
जिस पर आराम से तैरता रहा एक रिश्ता...
तुम किसी सूरज की तरह,
उग आती आधी रात में भी...
और मेरी सुबह थोड़ी लंबी हो जाती...
जैसे कुछ कविताएं अधूरी हैं तो सिर्फ इसीलिए,
कि भूल जाता हूं कई बार तुम्हारे नाम का मतलब
वैसे ही कई रातें इसीलिए अधूरी...
कि उगा ही नहीं मेरा सूरज...

वो धुन याद ही होगी,
जो आधी रात में ट्रेन हमें सुनाकर गुज़र जाती..
और तुम खिड़कियां बंद कर लेतीं...
हम जागते देर तक नींद में...

समंदर की लहरों ने नहीं देखी समंदर की गहराई,
मगर एक रिश्ता तो है...
सूरज की किरणों ने सूरज के सीने में झांककर भी नहीं देखा...
मगर तपिश है
गुनगुनी धूप है धरती पर...

कभी ट्रेन की खिड़की से दिख जाती हैं किताबें,
जिन्हें पढ़ नहीं पाते...
मगर याद रहती हैं तस्वीरें...
और हम सोचते रहते हैं यात्रा भर,
किताबों की लिखावट, मुलायम पन्ने वगैरह वगैरह....

रिश्तों की तरह होती हैं कुछ कविताएं...
मजबूरन ख़त्म करनी पड़ती है...
कविताओं की तरह होते हैं कुछ रिश्ते
बार-बार पढकर रुलाई आती है...

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह...



तस्वीर में मैं हूं और मेरे बचपन का साथी मेरा बैट....
ज भी उस मकान में रखा मिला,
जहां बचपन का बड़ा हिस्सा गुज़रा.
ऊपर की फोटो ईटीसी मैदान की है, मेरा फेवरेट मैदान
 मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

जहां पहाड़ के ऊपर बसा है एक मंदिर
एक पत्थर को दूध से नहलाती भली-सी लड़की
मैं उसकी कलाई पे हौले से हाथ रखता हूं
और पहुंच जाती है मेरी छुअन पत्थर तक !
मैं मुस्कुराता हूं उस अजनबी लड़की के साथ
जिसने पहुंचाए हैं पत्थर तक मेरे जज़्बात..

जहां पत्थरों से भी ख़ुदा का रिश्ता था...
मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

वो एक घर जहां पाये की ओट में अब भी
पड़े हैं बैट, विकेट मुद्दतों से, मुरझाए...
सफेद रंग की बूढ़ी-सी झड़ती दीवारें
ज़रा-सा छू भी दूं तो रंग हरा हो जाए
सभी के नाम फ़कत नाम नहीं, रिश्ते थे
दुआ की शक्ल में माथे पे कितने बोसे थे

जहां की छत भी गले लग के रोई बरसों...
मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

यहां शहर में कोई आदमी नहीं मिलता
वहां गली में कोई अजनबी नहीं मिलता
वो किसी और ही मिट्टी से तराशे गए लोग
ऐसी मिट्टी कि चढ़ता ही नहीं और कोई रंग
वो एक बोली जो मीठी थी बिना समझे भी
जहां बाक़ी है नज़रों में अब तलक ईमान

जहां महफूज़ है रूह मेरी बरसों से...
मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

(हाल ही में रांची से लौटकर लिखी गई नज़्म......)

सोमवार, 8 अगस्त 2011

ज़िंदगी क्या है इक अमावस है...

9 अगस्त की ही एक अमावस भरी रात थी जब इस ब्लॉग के सर्वेसर्वा यानी हम धरती पर आए थे.....हर साल इस रोज़ कविता बन ही आती है..इस बार पुरानी कविताओं को फिर से शेयर करने का जी चाहता है...आपका जी चाहे तो दाद और जन्मदिन की मुबारकबाद देते जाएं...

चांद छुट्टी पर रहा होगा उस रात...


तितर-बितर तारों के दम पर,


चमचम करता होगा रात का लश्कर,

चांद छुट्टी पर रहा होगा उस रात...


एक दो कमरों का घर रहा होगा,

एक दरवाज़ा जिसकी सांकल अटकती होगी,

अधखुले दरवाज़े के बाहर घूमते होंगे पिता

लंबे-लंबे क़दमों से....


हो सकता है पिता न भी हों,

गए हों किसी रोज़मर्रा के काम से

नौकरी करने....

छोड़ गए हों मां को किसी की देखरेख में...

दरवाज़ा फिर भी अधखुला ही होगा...


मां तड़पती होगी बिस्तर पर,

एक बुढ़िया बैठी होगी कलाइयां भींचे....

बाहर खड़ा आदमी चौंकता होगा,

मां की हर चीख पर...


यूं पैदा हुए हम,

जलते गोएठे की गंध में...

यूं खोली आंखे हमने

अमावस की गोद में...


नींद में होगी दीदी,

नींद में होगा भईया..

रतजगा कर रही होगी मां,

मेरे साथ.....चुपचाप।।

चमचम करती होगी रात।।।


नहीं छपा होगा,

मेरे जन्म का प्रमाण पत्र...

नहीं लिए होंगे नर्स ने सौ-दो सौ,

पिता जब अगली सुबह लौटे होंगे घर,

पसीने से तर-बतर,

मुस्कुराएं होंगे मां को देखकर,

मुझे देखा भी होगा कि नहीं,

पंडित के फेर में,

सतइसे के फेर में....


हमारे घर में नहीं है अलबम,

मेरे सतइसे का,

मुंहजुठी का,

या फिर दीदी के साथ पहले रक्षाबंधन का....

फोटो खिंचाने का सुख पता नहीं था मां-बाप को,

मां को जन्मतिथि भी नहीं मालूम अपनी,

मां को नहीं मालूम,

कि अमावस की इस रात में,

मैं चूम रहा हूं एक मां-जैसी लड़की को...

उसकी हथेली मेरे कंधे पर है,

उसने पहन रखे है,

अधखुली बांह वाले कपड़े...

दिखती है उसकी बांह,

केहुनी से कांख तक,


एक टैटू भी है,

जो गुदवाया था उसने दिल्ली हाट में,

एक सौ पचास रुपए में,

ठीक उसी जगह,

मेरी बांह पर भी,

बड़े हो गए हैं जन्म वाले टीके के निशान,

मुझे या मां को नहीं मालूम,

टीके के दाम..



छत पर मैं हूँ और चाँद है...

आज न जाने जब से मेरी आँख खुली है,

दिन का ताना-बाना थोड़ा-सा बेढब है...

सूरज रूठे बच्चे जैसी शक्ल बनाकर,

आसमान के इक कोने में दुबक गया है...

कमरे के भीतर सन्नाटा-सा पसरा है...

कैलेंडर पर जानी-पहचानी सी तारीख दिखी है...

(जाना-पहचाना सा कुछ तो है कमरे में....)

नौ अगस्त....


नौ अगस्त...

बचपन में माँ ठुड्डी थामे कंघी करती थी बालों पर,

पापा हरदम गीला-सा आशीष पिन्हाते थे गालों पर,

बड़े हुए तो दूर अकेले-से कमरे में,

गीली-सी तारीख है,मैं हूँ,कोई नहीं है....


रिश्तों की कुछ मीठी फसलें,

बीच के बरसों में बोईं थीं,

वक्त के घुन ने जैसे सब कुछ निगल लिया है....


बढ़ते लैंप-पोस्ट और रौशनी की हिस्सेदारी के बीच,

लम्बी सड़कों पर सरपट दौड़ती साँसे,

जिंदगी को कितना पीछे छोड़ आई हैं,

अब ये भरम भी नहीं कि,

पीछे मुड़कर हाथ बढाओ तो

जिंदगी मेरी अंगुली थामकर चलने लगे....


एक शहर था,

जहाँ मेरी एक सिहरन,

तुम्हारे घर का पता ढूंढ लेती थी,

और फ़िर,

शोरगुल भरे शहर में,

तुम्हारे अहसास मैं आसानी से सुन पाता था...

एक शहर जहाँ जिस्म की दूरियां,

एहसास के रास्ते में कभी नहीं आयीं,

कभी नहीं.....


आज मुझे अहसास हुआ है,

उम्र का रस्ता तय करने में,

कुछ न कुछ तो छूट गया है...

कच्चे ख्वाब पाँव के नीचे,

नए ख्वाबो को लपक रहा हूँ....

हांफ रहा हूँ,


हाँफते-हाँफते अब अचानक मुझे,

याद आया है कि,पिछले मोड़ पर

नींद फिसल गई है "वॉलेट" से,

दिल धक् से बेचैन हुआ है....

इतनी लम्बी सड़क पे जाने किस कोने में,

बित्ते-भर की नींद किसी चक्के के नीचे,

अन्तिम साँसे गिनती होगी....

ख्वाब न जाने कहाँ मिलेंगे..


नौ अगस्त पूरे होने में

बीस मिनट अब भी बाकी हैं,

छत पर मैं हूँ और चाँद है...

(वो भी आधा, मैं भी आधा)


चाँद मेरे अहसास के चाकू से आधा है,

केक समझकर मैंने आज इसे काटा है,

आधा चाँद उसी शहर में पहुँचा होगा,

जहाँ कभी एहसास कि फसलें उग आई थीं,

जहाँ कभी मेरे गालों पर,

गीले-से रिश्ते उभरे थे....

..............................


ख़ास वक्त है, रोना मना है...


आओ इक तारीख सहेजें,

आओ रख दें धो-पोंछ कर,

ख़ास वक्त है....

कलफ़ लगाकर, कंघी कर दें...

आओ मीठी खीर खिलाएं,

झूमे-गाएं..

लोग बधाई बांट रहे हैं,

चूम रहे हैं,चाट रहे हैं...

किसी बात की खुशी है शायद,

खुश रहने की वजह भी तय है,

वक्त मुकर्रर

9 अगस्त,

घड़ियां तय हैं

24 घंटे...


हा हा ही ही

हो हो हो हो

हंसते रहिए,

ख़ास वक्त है,

रोना मना है...

खुसुर-फुसुर लम्हे करते हैं,

बीते कल की बातें,

पुर्ज़ा-पुर्ज़ा दिन बिखरे हैं,

रेशा-रेशा रातें....


उम्र की आड़ी-तिरछी गलियों का सूनापन,

बढ़ता है, बढ़ता जाता है...

एक गली की दीवारों पर नज़र रुकी है...

दीवारों पर चिपकी इक तारीख़ है ख़ास,

एक ख़ास तारीख पे कई पैबंद लगे हैं...

हूक उठ रही दीवारों से,

उम्र की लंबी सड़क चीख से गूंज रही है...


जश्न में झूम रहे लोगों की की चीख है शायद,

जबरन हंसते होठों की मजबूरी भी है,

उघड़े रिश्ते,भोले चेहरों का आईना,

कभी सिमट ना पाई जो, इक दूरी भी है...



वक्त खास है,

आओ चीखें-चिल्लाएं हम...

जश्न का मातम गहरा कर दें...

इसको-उसको बहरा कर दें...

आओ ग़म की पिचकारी से होली खेलें,

फुलझड़ियां छोड़ें...

आओ ना, क्यों इतनी दूर खड़े हो साथी,

सब खुशियों में लगा पलीता,

हम-तुम वक्त की मटकी फोड़ें...


ख़ास वक्त है,

इसे हाथ से जाने न देंगे,

जिन घड़ियों ने जान-बूझकर

कर ली हैं आंखें बंद,

उनकी यादें भी भूले से

आने न देंगे...


सांझ ढले तो याद दिलाना

आधा चम्मच काला चांद,

वक्त की ठुड्डी पर हल्का-सा,

टीका करेंगे...

तन्हा चीखों का तीखापन,

फीका करेंगे....



हा हा ही ही

हो हो हो हो

हंसते रहिए,

ख़ास वक्त है,

रोना मना है...
 
 
निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

आखिरी यात्रा से पहले...

वो डिब्बों के साथ चलते हैं कुछ दूर तक,
कुछ शब्द और...
विदा से पहले..
कुछ प्यार और...
मुट्ठी भर किरणें सूरज की...

आंखों में अथाह अनुराग,
और लौटने की उम्मीद...
हाथ हाथ छूटने से ठीक पहले...
पलक भीगने से ठीक पहले,
गाड़ियों के शोर से ठीक पहले....

थोड़ी सी दही, थोड़ा-सा गुड़,
और थोड़ा-सा झुकना घुटनों तक,
बहुत-सा आशीष....

जो गए,
उस न लौटनेवाली दिशा में..
क्या पता आ भी जाएं एक बार...

भरोसा है बल खाती गाड़ियों पर,
वही लौटाएंगी एक दिन...
सारे बिछोह, सारे परिचित..
सारे प्रेम...
और बहुत-से सूरज...
आखिरी यात्रा से पहले....

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

आदमी नहीं चुटकुले हो गए हैं सब..

हम रोज़ाना चौंकने के लिए खरीदते हैं अखबार,
हम मुस्कुराते हैं एक-दूजे से मिलजुलकर,
पल भर को...
जैसे आदमी नहीं चुटकुले हो गए हैं सब...

सबसे निजी क्षणों को तोड़ने के लिए
हमने बनाई मीठी धुनें,
सबसे हसीन सपनों को उजाड़ दिया,
अलार्म घड़ी की कर्कश आवाज़ों ने...

जिन मुद्दों पर तुरंत लेने थे फैसले,
चाय की चुस्कियों से आगे नहीं बढ़े हम..

शोर में आंखें नहीं बन पाईं सूत्रधार,
नहीं लिखी गईं मौन की कुंठाएं,
नहीं लिखे गए पवित्र प्रेम के गीत,
इतना बतियाए, इतना बतियाए
अपनी प्रेमिकाओं से हम...

उन्हीं पीढ़ियों को देते रहे,
संसार की सबसे भद्दी गालियां,
जिनकी उपज थे हम...
जिन पीढ़ियों ने नहीं भोगा देह का सुख,
किसी कवच की मौजूदगी में...

ज़िंदगी भर की कमाई के बाद भी,
नहीं खरीद सके इतना समय,
कि जा पाते गांव...
बूढ़े होते मां-बाप के लिए,
हम नहीं बन सके पेड़ की छांव...

रात की नींद बेचकर,
हमने ढोया,
मालिकों की तरक्की का बोझ...
हम बनते रहे खच्चर...
एक पल को भी नहीं लगा,
कि हमने जिया हो इंसानों-सा जीवन....

जब तक जिए,
भीतर का रोबोट ज़िंदा रहा...
मर चुका देह की खोल में आदमी..
बहुत-बहुत साल पहले....

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

आइनों ने कर लिया, मेरा ही अपहरण....


कौड़ियों के भाव बिका, जब से अंतःकरण,
अनगिन मुखौटे हैं, सैकड़ों हैं आवरण...
मदमस्त होकर जो झूमती हैं पीढियां,
लड़खड़ा न जाएँ कहीं सभ्यताओं के चरण...
ठिठका-सा चाँद है, गुम भी, खामोश भी,
जुगनुओं को रात ने दी है जब से शरण...
गुमशुदा-सा फिरता हूँ, अपनों के शहर में,
आइनों ने कर लिया, मेरा ही अपहरण....
मौन की देहरी जब तुमने भी लाँघ दी,
टूट गए रिश्तों के सारे समीकरण...
पीड़ा के शब्द-शब्द मीत को समर्पित हों,
आंसुओं की लय में हो, गुंजित जीवन-मरण...
माँ ने तो सिखलाया जीने का ककहरा,
दुनिया से सीखे हैं, नित नए व्याकरण...

- निखिल आनंद गिरि 


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मंगलवार, 28 सितंबर 2010

मैं ज़िंदा हूं अभी...

मुझे टटोलिए,
हिलाइए-डुलाइए,
झकझोरिए ज़रा...
लगता है कि मैं ज़िंदा हूं अभी...

चुप्पी मौत नहीं है,
चीख नहीं है जीवन,
मैं अंधेरे में चुप हूं ज़रा,
भूला नहीं हूं उजाला...
ये शहर कुछ भी भूलने नहीं देगा...

नौ घंटे की बेबसी,
दुम हिलाने की....
फिर चेहरा उतारकर
गुज़ारते रहिए घंटे...

फोन पर मिमियाते रहिए प्रेमिका से,
उसे हर वाक्य के खत्म होते खुश होना है...
मां से बतियाने में ओढ लीजिए हंसी,
कितनी भी...
पकड़े जाएंगे दुख...

कुछ चेहरे हैं
जिनसे बरतनी है सावधानी...
कुछ नज़रें हैं..
जिन्हें पलट कर घूरना नहीं है..
दिन एक थके-मांदे आदमी की तरह है..
हांफ रहा है आपके साथ..
रात के आखिरी पहर तक...
बिस्तर पर लेटकर निहारते रहिए दीवारें..
क्या पता शून्य का आविष्कार,
इन्हीं क्षणों में हुआ हो..

26 साल की बेबस  उम्र
नींद की गोली पर टिकी है...
गटक जाइए गोली,
विश्राम लेंगे दुख...
बदलते रहिए केंचुल,
शर्त है जीने की...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 24 जनवरी 2010

फूल-सी लड़की के लिए...

वो बचपन की पहेली,
हम जिसे अब तक नहीं समझे..
तुम्हारा मुंह चिढ़ाती है,
ज़रा तुम भी चिढ़ाओ ना..
उठो, जल्दी से आओ ना...

वो एक तस्वीर अलबम की,
जिसमें मैं खड़ा आधा-अधूरा सा,
तुम्हें फुर्सत नहीं अपनी शरारत से...
तुम्हें तस्वीर का हिस्सा बनाने में,
मैं खींचता तो हूं...
मगर तस्वीर थोड़ा और पहले
खिंच ही जाती है....
मैं फिर खड़ा हूं,
सब खड़े हैं, हंसते चेहरे...
तुम कहां हो....
हथेली को बढ़ाओ ना...
उठो जल्दी से आओ ना...

मैं कितनी देर तक हंसता रहा था...
गुलाबी फ्रॉक वाली एक लड़की
लाल घूंघट में...
शरम से लाल होकर छिप रही थी..
मुस्कुराती थी....
...............

अचानक...
कौन था...जिसने की चोरी
सांसों की गठरी..
मैं कुछ क्यों कर नहीं पाया....
अचानक..
चार कंधों पर....
ये लंबी नींद की चादर.....
मैं कुछ क्यों कर नहीं पाया....

अभी गहरी उदासी में...
तुम्हें तो मुस्कुराना था...
अभी तो उम्र की कई सीढ़ियों के
पार जाना था...

मैं रोना चाहता हूं,
उस नए मेहमान की खातिर,
जिसे भरनी थी किलकारी
सभी की गोदियां चढ़कर...
खिलौने, दूध की बोतल
पटक कर तोड़ देनी थीं...
सुनाए कौन अब वो तोतली बोली,
दिल कैसे बहल जाए, बताओ ना...
उठो जल्दी से आओ ना...

अभी तो इक महकती
फूल-सी लड़की को
सारी रात जगकर...
मेरी आंखों में तकना था....
हंसना था, महकना था..
ज़िद तारों की करनी थी...
मेरे कंधे पे चढ़कर
चांद की ठुड्डी पकड़नी थी...
......................
मैं अब भी बंद आंखों से,
तुम्हारी राह तकता हूं...
मैं सोया हूं बहाने से....
ज़रा चुपके, सिरहाने से....
मेरा तकिया हिलाओ ना....
मैं सोया हूं, जगाओ ना...
मेरी छोटी बहन पूजा,
मेरी अच्छी बहन पूजा,
उठो जल्दी से आओ ना...
...................................

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

जाना

तुम गईं.. जैसे रेलवे के सफर में बिछड़ जाते हैं कुछ लोग कभी न मिलने के लिए   जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो जैसे नए परिंदों...

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