सोमवार, 23 जून 2025

एक आईने का ख़त

काश…
कभी तुमसे कह पाती सुलेखा
कितना चाहता है कनु तुम्हें
इतनी बातें हैं दिल में
पर तुम्हारे सिवा किसे सुनाऊँ?

याद है मुझे वो जन्मदिन तुम्हारा
जब तुम्हारी एक छोटी सी ख्वाहिश पूरी करने को
कनु शहर भर की गलियाँ छान आया था—
शाखा पोला की तलाश में

और जब तुम्हें पहनाया
तुम रो पड़ीं थी…उसे गले लगाकर
मन हुआ उस पल
अपने मासूम से कनु को गले लगा कर खूब रोऊं 

कभी बताना चाहा था तुम्हें
एक दिन हम यूँ ही रास्ते से गुज़र रहे थे,
अचानक कनु ने गाड़ी रोकी
एक रेहड़ी के सामने
अमरूद सजे थे उस पर।

उनकी एक झलक से ही
उसकी आँखों में चमक आ गई
बोला “सुलेखा को अमरूद बहुत पसंद हैं"
और मेरे पास छुट्टे होने पर भी
अपने पैसों से ज़िद कर खरीदे उसने सिर्फ तुम्हारे लिए 

उस दिन लगा
कि अपना सब कुछ वार दूँ उस कनु पर

कितने ही इल्ज़ामों, तानों, और खामोशियों के बाद भी
वो तुम्हें… बस तुम्हें
बेइंतहा चाहता रहा

वो गिरा, टूटा, बिखरा,
पर कभी तुमसे दूर नहीं हुआ

तुम्हारे हज़ारों षड्यंत्र
लोगों के तानों की बौछार
कोर्ट कचहरी
और हर कोने में पसरी बदनामी की धार

फिर भी
ज़िंदा लाश की तरह
हज़ारों अकेले दिन कभी सड़कों पर, 
कभी हॉस्टल और कभी
वाराणसी की गलियों में पड़ा रहा मेरा कनु 

हर पल हर साँस…
बस तुम्हारी ही फ़िक्र रही उसे
तुमसे प्रेम करता रहा
बिना किसी शिकायत बिना किसी शर्त

सभी रिश्तों की दीवारों के खिलाफ
अडिग खड़ा रहा
ऐसे जिया मेरा कनु तुम्हारे लिए सुलेखा

और एक वो दिन
सर्दी की सुबह
छोटी सी किसी बात पर तकरार हुई थी तुम दोनों में 
शब्द कम चुप्पी ज़्यादा बोली थी उस दिन 

तब कैसे गुमसुम सा
जमा पड़ा रहा था मेरा कनु गाड़ी में…घंटों…
बिना सुध बुध
बिना शिकायत
बस जैसे भीतर कुछ टूटकर जम गया हो।

मैं देखती रही बेबस अपने चूल्हे
पर रोटियां सेंकते हुए 
जानती थी कि 
उसकी चुप्पी भी प्रेम का एक रूप थी।

और फिर एक आख़िरी बार
कैसे आग का दरिया पार कर
पहुंच गया था मेरा कनु
तुमसे मिलने ईद के रोज़ 
इतनी इच्छाओं के साथ 
कि इस बार
तुम्हें अपने साथ ले जाएगा
नए शहर में इलाज करवाने को

हर मोड़ पर उम्मीद थी उसे
हर साँस में भरोसा
कि शायद अब की बार
सब ठीक हो जाएगा

पर उस मासूम को क्या पता था
कि वो मुलाकात
आख़िरी निकलेगी।

जो हर दर्द सहकर भी
सिर्फ मोहब्बत करता रहा
पूरी ताक़त से
पूरी सच्चाई से

अब भी खिड़की से बाहर झांकता है 
तो ढूंढता है "जीवन" को 
जो निरंतर विस्तार पर है अब भी दूर कहीं

जब भी जाता है गांव 
तो ढूंढता है तुम्हें उस घर की दीवारों में,
आंगन में जो तुमने अपने हाथों से बनाया था .

कभी कभी बहुत मन होता है
तुमसे लड़ने का सुलेखा 
कि तुम कैसे नहीं देख पाई इतना प्रेम मेरे कनु का ..
काश तुम देख पातीं मेरे इस कनु को
तो सब कुछ कितना बेहतर होता…

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 22 जून 2025

भयानक अंधेरे में दीवार टटोलते कवि का संग्रह है – ‘गीली मिट्टी पर पंजों के निशान’

फ़रीद ख़ां अपने कविता संग्रह गीली मिट्टी पर पंजों के निशान की भूमिका में पहले पन्ने पर ही स्पष्ट करते हैं कि इस संग्रह की सभी संकलित कविताएं वर्ष 2010 से 2020 के बीच लिखी गई हैं। फिर यह भी कि इन कविताओ की जड़ें उनके बचपन और उनके शहर पटना तक जाती हैं। यह एक ईमानदार बयान तो है लेकिन अंतिम सत्य नहीं। यही इस संग्रह को पठनीय बनाता है।

इस संग्रह की कविताएँ सिर्फ अतीत की मीठी गोलियां ही नहीं, अतीत की बुनियाद पर वर्तमान में खड़े कवि और उसके भविष्य की शंकाएँ भी बताती हैं। एक छोटी कविता है, जो इस संग्रह की दूसरी कविता है - वह’, देखिए -

वह गली नुक्कड़ पर तनकर खड़ा था।

लोग आते जाते सिर नवाते चद्दर चढ़ाते उसको।

 

दीमक ने अपना महल बना लिया था, अंदर ही अंदर उसके।

मैंने जब वरदान मांगा तो वह ढह गया। (कविता – वह)

 

दीमक का महल बना लेना एक दिन की प्रक्रिया नहीं होती। लंबा समय लगता है। दीमक जहां घर बना ले, उस जगह को छोड़ देना ही बेहतर होता है। एक कवि अगर इस ख़तरे को पहचानता है तो उसे पढ़ा जाना चाहिए। उस कवि ने अपने समय में, इन कविताओं के रचना काल के लिहाज़ से देखें तो पंद्रह सालों के दौरान, इस दीमक को महल बनाते देखा है और उसमें एक कवि का डर यह है कि वह इन दीमकों से बचकर कहीं नहीं जा सकता। यह बचपन या डर की मीठी स्मृतियां कवि के डर की निर्मिति और प्रवेश भी कविताओं के ज़रिए बताती है।

यह डर सिर्फ मनुष्य के भीतर पनप रहा डर नहीं है। वह हर तरफ से आता है, हर तरफ़ पसरता है। एक बाघ जो शिकारियों से घिर चुका है, वह पलटकर कहता है – मैं तुम्हारे बच्चों के लिए बहुत ज़रूरी हूं, मुझे मत मारो

बाघ फ़रीद की कई कविताओं में कई तरह से आता है। मां ने बाघ के आकार वाली रोटी अपने बच्चे को खाने में दी, नानी के चश्मे से बच्चे बाघ की तरह दिखते हैं।

बाघ से याद आया कि इस कविता के आवरण पृष्ठ पर उदय प्रकाश की टिप्पणी है, जो उन्होंने एक और बाघ’ कविता की तारीफ़ में कही थी। यह कविता अंधेरे में कंदील की तरह है, हाशिये में पड़ी एक ऐसी कविता जो हिंदी कविता में एक प्रस्थान बिंदु की तरह है और आकस्मिक है। यह टिप्पणियां कविता संग्रह के शुरू में नहीं देनी चाहिए वरना रणजी ट्रॉफी में विराट कोहली के खेलने से पैदा हुई अश्लील भव्यता जैसा ख़तरा रहता है। बहरहाल..  

जिन कविताओं में शहर, डर, भविष्य, ख़तरा जैसे तत्त्व एक साथ गुंथकर आते हैं, कविता मारक बनकर उभरती है।

मैंने पूछा उससे केवल एक ही सवाल

जिसने उठा रखा था हथियार क्रांतिकारी के वेश में,

बस एक ही सवाल,

कि अगर सौंप दी गई देश की बागडोर तुम्हें,

तो पहला काम क्या होगा जो तुम करोगे?

हमारा पक्ष चाहिए तो देना होगा जवाब!!!

उसने चला दी गोली, और मैं मारा गया सरेआम!!!! (कविता – मारा गया मैं)

इस तरह से देखें तो यह संग्रह फ़रीद ख़ां की स्मृति, शहर और डर की सूक्ष्म पहचान और उसमें भविष्य के ख़तरे पहचानने का संग्रह है। वर्तमान का डर और भविष्य का ख़तरा इतना अधिक है कि मजबूरी में स्मृतियों के सहारे ख़ुद को पुचकारने की कोशिश की गई है। जैसे फिल्म थ्री इडियट्स में ख़तरे को ‘’ ALL IS WELL” कहकर टरकाता नायक। असलियत यह है कि फ़रीद ख़ां नाम के कवि के पास वर्तमान में मीठी स्मृतियां बस लॉलीपॉप की तरह ही हैं, और इस व्यवस्था या सत्ता में कुछ मीठा सोचने को नहीं है।

पटना की स्मृति में छठ का आना (कविता – छठ की याद में) या गंगा के पानी का मस्जिद को लात मारकर छेड़कर कहना कि अबे मुसलमान, कभी मेरे पानी स नहा भी लिया कर (कविता – गंगा मस्जिद) अनायास नहीं है। यह एक इंसानियत का सपना संजोते हिंदुस्तानी कवि का बारीकी से कविता में राजनैतिक दख़ल है। कविता गंगा की छेड़छाड़ से अठारह साल बाद उस मीनार पर पहुंचकर देखती है कि सरकार ने अब वुज़ू के लिए साफ पानी की सप्लाई करवा दी है। गंगा कवि को देखती है, कवि गंगा को मगर मस्जिद किसी और तरफ़ देख रही है।

जिस रिदम में यह आलेख लिख रहा हूं, उसमें कवि की प्रेम कविताओं का ज़िक्र न किया जाना ही लाज़िम है। कुछ अच्छे मुहावरे हैं (तुमने मुझे सेंका और पकाया है), मेटाफ़र हैं, मगर यह कवि का मूल स्वर नहीं है।

फ़रीद की कविताओं में किस्सागोई बहुत है। लगभग हर कविता कहानी से शुरू होकर कविता बन जाती है। डर की कहानी है। बाघ की कहानी है। लकड़ सुंघवा की कहानी है। दादाजी साइकिल वाले की कहानी है जो इंदिरा गांधी की हत्या पर गुरु नानक की तरह सिर झुकाए निर्विकार से बैठे थे। कंस्ट्रक्शन साइट पर रोटी सेंक रही आदिवासी औरत, व्यवस्था से तंग आकर मजबूरी में नक्सली बने आम आदमी की कहानी है, हत्यारे तक की कहानी है।

कुछ कविताओं के विषय या कहानियां अच्छी हैं, मगर कविता नहीं। कविता की शुरुआत ही एक अच्छी पंक्ति या सूक्ति से होती है और फिर पूरी कविता अपने पूरा होने की औपचारिकता ढोती है। कई बार यह सूक्ति भी अपने आप में एक मुकम्मल कविता या हिंदी काव्य पंक्तियों में पैराडाइम शिफ्ट की तरह हैं –

उसकी बीवी ने अपनी जान बचाने कि लिए आत्महत्या कर ली (कविता – सोने की खान)

वह पंजा ही है जो बाघ और साहित्यकार को बनाता है समकक्ष।

दोनों ही निशान छोड़ते हैं।

मारे जाते हैं। (कविता – बाघ के पंजे)

 

देश को ज़रूरत है सच के प्रशिक्षण की। (कविता – इंसाफ़)

 

अब अख़बार पढ़ने से ज़्यादा बेचने के काम आते हैं (कविता -बिक रहे हैं अख़बार)

 

हिंसा का इतिहास पुरुषों का इतिहास रहा है। (कविता - अपमान की परम्परा का इतिहास)

 

आज़ान की आवाज़ नहीं थी मेरे कान में पहली आवाज़। वह मां की चीख़ थी। (कविता – मैं काफ़िर हूं)

 

कुछ कविताए इस कसौटी पर भी अद्भुत हैं जैसे – क्यों लगता है ऐसा

पता नहीं क्यों हर बार लगता है,

रेल पर सफ़र करते हुए कि टीटी आएगा और टिकट देखकर कहेगा

कि आपका टिकट ग़लत है

या आप ग़लत गाड़ी में चढ़ गए हैं...

 

संग्रह में शिल्प के लिहाज़ से अच्छी और अनुभव की दृष्टि से साहसी कविताओं की कमी नहीं – जैसे मुस्कुराहटें, अल्लाह मियां, चांद, पिटने वाली औरतें, धोखा, मादक और सारहीन।

इस तरह से कुछ ख़राब कविताओं का ज़िक्र भी यहां किया जा सकता था, मगर पंक्तियों के बीच बहुत कुछ छोड़ देना भी ज़रूरी होता है।


कविता संग्रह - गीली मिट्टी पर पंजों के निशान

मूल्य - 260/- रुपए

प्रकाशक - सेतु प्रकाशन

कुल पृष्ठ - 144


निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

आख़िरी मुलाक़ात

वो टोटो पर बैठकर प्रेमगीत लिखने के दिन थे
जब इस पृथ्वी पर आखिरी बार हम मिले थे
तब भी अनार का भाव सौ रुपए से ऊपर था
और अंगूर भी खट्टे लेकिन महंगे थे
और संतरे अभी अभी बाज़ार में आए ही थे
और जेब में पैसे कम थे
एटीएम कार्ड ज़्यादा।

हम पहली बार की तरह ही आख़िरी बार मिले
थोड़ी देर हंसने का अभिनय करते हुए
लड़ते रहे मुख़्तसर सी मुलाकात में।
हम किन बातों के लिए लड़े थे!
कि मेरा फोन तीन बार नहीं उठाया गया
कि मुझे अब भी उसकी बीमारी से अधिक फ़िक्र 
उसकी ज़िद से थी
कि उसे हवाई जहाज़ में घूमना है।

हमारे बीच एक रेंगता हुआ समय था
जो अचानक अपने कदमों पर उठ खड़ा हुआ था
यह हमारी आख़िरी मुलाकात थी
और मैं पहली बार ज़मीन चाटते हुए 
अपने बच्चे से मिला था।
वह युद्ध की मार झेलकर भूखा नहीं था
बीमार मां की लाचारी में भूखा था
फिर भी मुस्कुरा रहा था।

वह ईद की सुबह थी जब हम मिले
मालदा के इलाके में तब इतना दंगा नहीं था
राजा महंगे कपड़े पहने इतना नंगा नहीं था।
वह बीमार थी और कहीं भी अस्पताल नहीं थे
उसकी आंखों में अब कोई सवाल नहीं थे।
उसे मेरे साथ आना था
मगर मेरे पास कोई और बहाना था।

उस आखिरी मुलाकात की याद जाती नहीं
किसी बारिश में धुलती नहीं
कोई गर्मी उसे सुखाती नहीं।
क्या संसार की सब अंतिम मुलाकातें 
इतनी ही अधूरी, इतनी ही उदास होती हैं

वह धरती पर नहीं है, 
यह दुख कम बड़ा है
दुख वो ज़ालिम याद है, 
जिसमें मेरे पास सबसे ख़राब पैसेंजर ट्रेन में लौटने के सौ बहाने हैं
और कोई बीमार, पूरी नाउम्मीदी में भी
हाथ बांधे खड़ा है।
निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

मौन रहिए

वो तीन में भी हैं
और तेरह में भी
शाम में भी
सवेरे में भी

आप कहिए कि एक नई किताब लिखनी है
वो कहेंगे किताबे तो हमने कई लिखी
इतनी लिखी कि नाम भी याद नहीं सबके

कहिए कि अख़बार में छपी है फलाने की फोटो
तो बोलेंगे कि ये सब कब का छोड़ दिया हमने
एक पेज मेरी ही तस्वीरों से छपा करते थे अख़बार 
पूछिए किस नाम का था अख़बार 
तो कहेंगे बताएंगे अगली बार

आप कहिए कि भोपाल एक अच्छा शहर है 
पहली बार गया मैं
कहेंगे पहली बार तो मैं गया था भोपाल
गया से थी मेरी ट्रेन
जब जाते ही झीलें भर गई थीं बारिश से
फल्गू नदी तभी पहली बार सूखी 
या फिर बशीर बद्र ने फलां शायरी उन्हीं के स्वागत में लिखी थी

कहिए कि मुझे सीने में दर्द की शिकायत है
वो कहेंगे सीने में दर्द क्या होता है
अजी इस युवा जीवन में तीन बार दिल का दौरा पड़ा
खड़ा हूं अब तक अपने पैरों पर
ये खड़प्पन है मेरा।

आप कहिए
कहिए मत कहने के लिए सांस भी लीजिए
तो कहेंगे सांस तो हम..

आप कहेंगे आंख
वो रतौंधी
नाक
तो नकसीर
आप कहेंगे पेट
वो कहेंगे बवासीर

बेहतर है आप कुछ न कहिए 
मौन रहिए
क्योंकि उन्होंने सिर्फ शोर करना सीखा है
मौन की भाषा में निरक्षर हैं
वह नहीं जानते कि समय शोर करने वालों का नहीं
समय आने पर बोलने वालों का ही होता है।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025

बसंत का शोकगीत

हर बसंत
जब पत्ते खुश दिखते हैं
पेड़ खुश दिखते हैं
हवा संगीत बनकर कानों तक पहुंचती है
पुरवा पछुआ एक साथ दोनों कानों से
आत्मा के तार को छूते हैं 
मैं तुम्हारी यादों के साथ बसंत को उदास करता हूं

किसी को उदास करना ठीक नहीं 
जानता हूं मगर
इस दुनिया ने ठीक वही किया मेरे साथ
उस बसंत जब एक पीली साड़ी वाली लड़की
मेरा मौसम बदलने आई थी
और उसने कहा था हम हर बसंत इसी तरह खिलखिलाएंगे

जैसे दो बच्चे आपस में हंसते हैं
जैसे चिड़िया चावल के दाने पाकर चहचहाती है
जैसे मेरी बूढ़ी दादी, जो बीड़ी को, खुराकी कहती थी
मेरी डांट के साथ बीड़ी का बंडल पा चहक उठती थी

मेरे जीवन का बसंत अब सूना है
मेरी हंसी के पत्ते 
अस्पतालों के चक्कर खा कर बिखर गए
मेरी उम्मीदों के पेड़ की जड़ें
जिसके नीचे 
दो प्राणी गरम जिलेबी खाकर मिलते थे
कीमो की दवाओं से नष्ट हो गईं।

वह लड़की जो पीली साड़ी में मेरे साथ
मेट्रो की सीढ़ियों पर भी चढ़ने से कतराती थी
अकेले बहुत दूर जा चुकी है
कुछ दूर कंधों पर
फिर ढुलमुल करते ट्रैक्टर पर
फिर ज़मीन पर लकड़ियों की एक गाड़ी
जिसमें आग लगी
फिर पानी की गाड़ी पर अनंत यात्रा

यह दुनिया जिसने हमें आशीष दिया था 
उसी ने लकड़ियों से धकेल कर 
उसे स्त्री से राख बना डाला 

पुरवा हवाओं से भरी दुनिया में 
जीना तो चाहता हूं 
दुनिया से नज़रें मिलाना नहीं चाहता

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

ठंडी प्रेम कथाएं

लड़की जितनी सुंदर है, लड़के की ख़िदमत में उससे कहीं ज़्यादा सुंदर महसूस कर रही है। इस ठंड में लड़की ने इतने कपड़े पहने हैं जैसे पूरे महीने की ठंड से एक साथ लड़ रही हो। 

लड़का बस उसकी हथेली पकड़े हुआ है और पैर में चप्पल है। शर्ट के दो बटन खुले हैं और मफलर टोपी के बिना सदियों से जीता आ रहा है। लड़की मुस्कुरा रही है, यानी उसे भूख लगी है।

लड़के ने एक चिप्स का पैकेट पास कर दिया है।
मजाल है कि लड़के को एक दाना भी नसीब हो। 

लड़की आखिर में फिर मुस्कुराती है और लड़के को ख़ाली रैपर पकड़ा देती है। लड़का उसे अपने दिल के पास वाले पैकेट में रख चुका है।

लड़की अब लड़के में नहीं, मोबाइल में व्यस्त है। मुस्कुरा रही है

निखिल आनंद गिरि


रविवार, 26 जनवरी 2025

शोर करने वालों से सावधान

वो तीन में भी हैं
और तेरह में भी
शाम में भी
सवेरे में भी

आप कहिए कि एक नई किताब लिखनी है
वो कहेंगे किताबे तो हमने कई लिखी
इतनी लिखी कि नाम भी याद नहीं सबके

कहिए कि अख़बार में छपी है फलाने की फोटो
तो बोलेंगे कि ये सब कब का छोड़ दिया हमने
एक पेज मेरी ही तस्वीरों से छपा करते थे अख़बार 
पूछिए किस नाम का था अख़बार 
तो कहेंगे बताएंगे अगली बार

आप कहिए कि भोपाल एक अच्छा शहर है 
पहली बार गया मैं
कहेंगे पहली बार तो मैं गया था भोपाल
गया से थी मेरी ट्रेन
जब जाते ही झीलें भर गई थीं बारिश से
फल्गू नदी तभी पहली बार सूखी 
या फिर बशीर बद्र ने फलां शायरी उन्हीं के स्वागत में लिखी थी

कहिए कि मुझे सीने में दर्द की शिकायत है
वो कहेंगे सीने में दर्द क्या होता है
अजी इस युवा जीवन में तीन बार दिल का दौरा पड़ा
खड़ा हूं अब तक अपने पैरों पर
ये खड़प्पन है मेरा।

आप कहिए
कहिए मत कहने के लिए सांस भी लीजिए
तो कहेंगे सांस तो हम..

आप कहेंगे आंख
वो रतौंधी
नाक
तो नकसीर
आप कहेंगे पेट
वो कहेंगे बवासीर

बेहतर है आप कुछ न कहिए 
मौन रहिए
क्योंकि उन्होंने सिर्फ शोर करना सीखा है
मौन की भाषा में निरक्षर हैं
वह नहीं जानते कि समय शोर करने वालों का नहीं
समय आने पर बोलने वालों का ही होता है।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 9 जनवरी 2025

डायपर

नींद न आने की कई वजहें हो सकती हैं
किसी प्रिय का वियोग 
बुढ़ापे का कोई रोग
या आदतन नहीं सोने वाले लोग

नवजात बच्चों के बारे में सोचिए
मां न भी हो तो पिता सुला लेगा
जैसे तैसे थपकी देकर
थोड़ा भीतर का पुरुष पोंछ कर 
कोई आधी याद की लोरी के साथ

अगर ईश्वर है तो किसी बच्चे को
नींद न आने की कोई वजह न दे
अगर नहीं आ सकता ईश्वर
हर बच्चे की थपकी से पहले
तो कम से कम कोई रत्न
या मिथकों में पढ़ा कोई कवच ही दे दे

डायपर! क्या तुम ईश्वर का बनाया कवच हो
जिसकी मियाद कुछ घंटों की होती है
जिसमें बच्चा ले सके पूरी नींद
और बतिया सके ईश्वर से?

नहीं, तुम ईश्वर का अंश नहीं हो सकते
होते तो तुम्हें बिना कीमत होना चाहिए था
सर्वसुलभ
यत्र यत्र सर्वत्र।


निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 7 जनवरी 2025

मर्दानगी

मेरे भीतर एक मर्द है
जो गुस्से में मां को भी माफ नहीं करता ।
एक मर्द है जो दिन भर अभिनय करता है
मर्द होने का।

बेटी को पुचकारता है 
हंसता खेलता है
और फटकारता है
अपने भीतर के मर्द को और संवारता है।

वह दिन भर पसीना बहाता है
पैसे कमाता है
गाड़ी चलाता है 
ज़िम्मेदार मर्द होने का फ़र्ज़ निभाता है।

उसे चाय गरम चाहिए
पत्नी या प्रेमिका का 
स्वभाव नरम चाहिए।
वह मर्द है हर घड़ी
इसका भरम चाहिए।

रात के आखिरी पहर
वह बिस्तर पर जाता है
मर्द का केंचुआ उतारकर
एक अंधेरी सुरंग में छिप जाता है

वहां कुछ अनजान चेहरे हैं
जहां वह मन लगाता है
फिर अचानक आईने में 
अपना चेहरा देख डर जाता है

अब वह एक नकली पुतला है
अपनी ही परछाई का जला है
न चेहरे पर जादू है, न कोई चमत्कार है
अपनी ही मर्दानगी का भयानक शिकार है 

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

कीमोथेरेपी - दस कविताएं

1. 

यह आराम कुर्सी है जहां 
न मन को आराम है, न तन को
यहां ज़हर धीमे धीमे नसों में उतरेगा
न सो सकेंगे, न जागने की इच्छा होगी
अगल बगल सब इसी कुर्सी पर आराम से
मरने की तैयारी में हैं
सारी दुनिया ने अपना बीमा करवा रखा है।

2.

यह पुराना मरीज़ है
वह नई नर्स है
उसे ढूंढने पर भी नस नहीं मिलती
वह यहां वहां सुई के सहारे
ढूंढ रही है सही जगह
उसे आदमी या बीमारी से कोई मतलब नहीं
उसे एक नस चाहिए
दवा का नाम कुछ भी हो
तकलीफ़ एक जैसी है
नर्स की मुस्कुराहट भी।

3. 

वह भली औरत है 
गांव से बीमारी लेकर आई है
कीमो या मोमो उसके लिए एक समान है
वह किसी संबंधी से पूछती है
कीमोथेरेपी को हिंदी में क्या कहते हैं
इसका जवाब किसी के पास नहीं है
यह बीमारी हमारी भाषा में
बदल जाती है एक राशि में
और इलाज एक अंतहीन उदासी में।

4. 

यहां मृत्यु की बोली लगती है -
"कुछ दिन
कुछ हफ्ते
महीने या कभी कभी एकाध साल"

डॉक्टर की आंखें सबसे झूठी आंखें हैं
वहां दिलासा है, कोई आशा नहीं।
वह बताएगा सच्ची झूठी कहानी
कि कैसे कोई मरीज़ दो हफ्ते की उम्मीद पर आया
और दो साल तक चला।

आप इस उम्मीद पर निसार होकर
अपनी दो साल पुरानी ब्याहता को
कीमो की तरफ ले चल पड़ेंगे।

5. 

सभी मरीज़ टीवी पर कोई कॉमेडी फिल्म देख रहे हैं
फिर "गुड न्यूज़" टुडे
फिर "लाइफ ओके"
यह विडंबनाओं का वेटिंग रूम है
जहां से आप अपने बाईसवें, चालीसवें या पचासवें
कीमो के लिए कतार में हैं।
शुक्र मनाइए कि अब भी संसार में हैं।

6.

सब रिश्तेदार वहां जल्दी में हैं
पार्किंग, बिल, टेस्ट, ओपीडी, सर्जरी..
कुछ देर के लिए भूलना होता है स्वजन का चेहरा
लाइन में खड़े खड़े छिपाने होते हैं आंसू

सबकी आंखें वहां भीगी हुई हैं
हाल चाल कोई नहीं पूछता
सब गीली आंखों से पूछते हैं
"कितना समय बाकी है?"

7. 

मैं एक शानदार केयरटेकर रहा
उछल उछल कर कभी इस फ्लोर
कभी उस फ्लोर
डॉक्टर के गेट पर खड़ा लड़का मेरे गांव का निकला
ओटी में फाइल ले जाने वाला जात का

हर जगह मेरी चालाकियों ने समय बचाया
हम कीमो के बाद लौटा थोड़ा और जल्दी घर
जहां चार साल की बेटी
बासी भात और चिप्स के सहारे
करती रही लौटने का इंतज़ार ।

8. 

गूगल न ग्राम देवता थे, न कुल देवता
फिर भी हर प्रार्थना
मैंने गूगल के सहारे की
कोरोना बड़ी बीमारी या कैंसर?
कौन से स्टेज तक बीमारी में उम्मीद बाक़ी?

जब देश में होगा लॉकडाउन
तब यही गूगल बताएगा
कीमोथेरेपी के लिए सुरक्षित
पहुंचने के रास्ते

फिर एक दिन गूगल ने बताया
वह जानकारी दे सकता है, जीवन नहीं।

9. 

दुनिया जब लहराते बालों में नायक ढूंढती थी
यहां तक कि सफेद दाढ़ी में भी
कवि जब लहराती जुल्फों में ढूंढते थे
प्यार की असीम संभावनाएं

कीमोथेरेपी ने सिखाया
उखड़ते नाखून, पिचकते गाल
झड़ते हुए बालों में भी सुंदर है जीवन

10. 

दुनिया कहां से कहां चली गई
सरकारें पलक झपकते बदलीं,
एक और नया कथावाचक मिला हिंदुओं को
गोलियां चली गाय के नाम पर
एक नायक की फिल्म पिट गई
मेट्रो ट्रेन भी देरी से पहुंची

समय से हुआ तो बस एक के बाद
दूसरा चक्र कीमोथेरेपी का 

आज दवा उर्फ़ ज़हर चढ़ेगा
परसों बुखार आएगा, फिर सुई लगेगी
प्लेटलेट गिरेंगे, मरीज़ भी कभी कभी
फिर आ जायेगा अगले कीमो का नंबर

दुनिया एक कीमो से दूसरी कीमो साइकिल तक
पहुंची एक अंधी सुरंग से ज़्यादा कुछ नहीं।


निखिल आनंद गिरि

रविवार, 29 दिसंबर 2024

आने लगी हैं इन दिनों हिचकियां बहुत

कोई भरे है मेरे लिए सिसकियां बहुत
आने लगी हैं इन दिनों हिचकियां बहुत

आपका ही क़द मुझे मुझसे बड़ा मिला 
वरना तो मिलता ही रही हस्तियां बहुत

जब से असल में शेर की दहाड़ देख ली
गदहे भी ले रहे हैं अब मुरकियां बहुत

वो आंसुओं की ओस में भीगते मौसम
ये तन्हा, बेसुवाद, अजब सर्दियां बहुत

ये कौन है जो शहर को वीरान कर गया
हिलती रही हवाओं से भी खिड़कियां बहुत

जोकर तो हंसाता रहा वोट मांग कर
बस्ती में कैसे उठ रही चिंगारियां बहुत


निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 28 दिसंबर 2024

दिल्ली मेट्रो - मेरा मेट्रो

मैंने अपने मीडिया के करियर में कम से कम नौ नौकरियां बदली हैं। दो साल से ज़्यादा कहीं टिक पाया तो वो संस्थान था दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन लिमिटेड। एक कार्यकर्ता के तौर पर आपने संस्थान को क्या दिया, इसे मापना हो तो आप ये देखें कि संस्थान आपके जाने के बाद भी आपको किस तरह याद करता है।

पिछले साल निजी कारणों से दिल्ली मेट्रो छोड़ने के बाद दिल्ली शहर भी छूट गया। बिहार में पटना की एक यूनिवर्सिटी में नई नौकरी शुरू हुई, जो पिछली सब नौकरियों से अलग थी। डेढ़ दो साल में एक भी दिन ऐसा नहीं आया जब मैने दिल्ली मेट्रो के वर्क कल्चर को याद न किया हो। देश के बहुत कम ऐसे संस्थान हैं, जहां पंक्चुअलिटी (समयबद्धता) एक धर्म की तरह वहां काम करने वालों की नसों में बहता हो। ये कमी मुझे बाकी सब संस्थानों में खली, बेहतरीन नेशनल ज्योग्राफिक चैनल में भी जहां शाम 6 बजे के बाद कोई न कोई मीटिंग शुरू होती थी।

दिल्ली मेट्रो में कई कार्यक्रमों का मंच संचालन करने के भरपूर मौके मिले। दुनिया के कई देशों के अतिथियों को मेट्रो घुमाने का मौका भी मिला, उनसे बहुत कुछ सीखने का भी। जब मेट्रो से नौकरी छूटी तो लगा ये सब नए सिरे से शुरू करना होगा।

इसी मेट्रो में रहते हुए पत्नी को कैंसर हुआ, तब भी मेट्रो ने मेरा भरपूर साथ दिया। पत्नी को बचाया नहीं जा सका लेकिन मेट्रो का साथ देना ज़िंदगी भर याद रहेगा। जितने स्टेशन थे, मेरे लगभग उतने घर थे। चूंकि काम बहुत व्यस्तता भरा था, तो पत्नी को डॉक्टर के पास ले जाना हो या कीमो का सेशन हो, जिसे कहा वो दोस्त की तरह सेवा में हाज़िर हो गया ।

करीब दो साल के बाद अचानक मेरे बॉस अनुज दयाल का फोन आया कि दिल्ली मेट्रो में एक दो दिनों का सांस्कृतिक कार्यक्रम है, और हमें तुम्हारे बाद कोई ढंग का एंकर नहीं मिल पा रहा जो "समां" बांध सके। जल्दी फ्लाइट लो और दिल्ली चले आओ। जितना सुख अनुज सर के बुलाने का था, उससे ज़्यादा ये कि आपका किया हुआ अच्छा काम दो साल बाद भी लोग नहीं भूलते। ये एक ऐसा एहसास था, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता था।

जब मंच संचालन को दिल्ली पहुंचा तो एक एक मेट्रो कर्मी से ऐसे प्यार मिला कि उसे बयां नहीं किया जा सकता। यह इस साल के सबसे अच्छे दो दिन थे। 
शुक्रिया दिल्ली मेट्रो। 



























निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

नन्हें नानक के लिए डायरी

जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है।

ये पोस्ट मेरे दो साल के बेटे को देखकर मन में जगी। क्या उसे याद भी रहेगा कि जैसे उसके उठने से लेकर सोने तक उसकी 70 साल की दादी उसके साथ बच्चा बनी फिरती है।

कैसे उसके 76 साल के दादा, नहीं चल पाने की तमाम मजबूरियों के बीच भी उसके साथ थोड़ी देर ज़रूर चलना चाहते हैं। 

मेरे होने को लेकर वो इतना खुश होता है कि दुआ करने का मन होता है कि उसे कभी मां की कमी खले ही नहीं। सोना, रोना, रूठना, मान जाना सब मुझ पर आकर ख़त्म हो जाता है।

पूरे घर के अकेलेपन को उसने अपनी किलकारियों से भर दिया है। वो कहता है कि कबूतर थूकता है तो हमें लगता है ये क्या पारखी नज़र से अपनी भाषा और समझ गढ़ रहा है। वो अपनी साइकिल को चलाता नहीं, उसमें खड़ा होकर सब कमरों का सफर करता है तो लगता है साइकिल चलाने का सिर यही तरीका हो सकता था।

लोई, जो उससे कम से कम आठ साल बड़ी है, उसके बाल वो इस हक़ से खींचता है कि डांटते हुए भी प्यार आता है। जब डांटा तो कहेगा अब नहीं खींचेगा,जैसे ही डर गया फिर आकर कहेगा "खींचूंगा"। परेशान लोई भी उसकी इस अदा पर हंस पड़ती है।
ये डायरी इसीलिए ज़रूरी है कि समय की आपाधापी में जब हम ये लम्हे भूलने लगें तो पलट कर देखने से लगे कि दुनिया कितनी मासूम होकर भी जी जा सकती है।


निखिल आनंद गिरि

रविवार, 1 दिसंबर 2024

राष्ट्रपति

'हम घर के लिए चुनते हैं 
पैर पोंछने की चटाई
तब भी गिन-परख कर पोंछते हैं।

ककरी ख़रीदने पर भी देखते हैं
ज़रा-सा चख कर
कोई तीतापन तो नहीं आ गया झोले में।

बेकार चीज़ों को घर से दूर
फेंक आते हैं कहीं।

नदी में जहां ज़रा-भी मैला हो पानी
हथेली से दूर कर देते हैं
उतरने से पहले।

और राष्ट्रपति ऐसे चुनते हैं 
जैसे बकरीद पर चांपने के लिए 
पालते-पोसते हों बकरी।

जैसे चुनते हों कान साफ करने के लिए
सबसे कमज़ोर लकड़ी।
सुनो जनगण सुनो'

(यहां 'राष्ट्रपति' की जगह 'वाईस चांसलर' या राज्यपाल या कोई और लाभ का पद भी पढ़ सकते हैं)


निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 5 नवंबर 2024

भोजपुरी सिनेमा के चौथे युग की शुरुआत है पहली साइंस फिक्शन फिल्म "मद्धिम"

हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि - कथाकार विमल चंद्र पांडेय की भोजपुरी फिल्म "मद्धिम" शानदार थ्रिलर है। 

वरिष्ठ पत्रकार अविजित घोष की "सिनेमा भोजपुरी" किताब में भोजपुरी सिनेमा के अलग अलग दशकों को कंटेंट के लिहाज़ से तीन युगों में बांटा गया था। उसके बाद भोजपुरी सिनेमा में कुछ बहुत नया या उल्लेखनीय हुआ, याद नहीं आ रहा।
चूंकि यह भोजपुरी की पहली साइंस फिक्शन फिल्म बताई जा रही है। इस लिहाज से हम इसे भोजपुरी सिनेमा का नया या चौथा युग भी कह सकते हैं। 

एकदम कसी हुई कहानी, अफसोस ये कि सिर्फ 47 मिनट में ख़त्म हो जाती है। कहीं से नहीं लगता कि ये निर्देशक की पहली भोजपुरी फिल्म है। कास्टिंग और एक्टिंग दोनों बहुत सधी हुई। 
निर्देशक विमल जी ने बातचीत में बताया कि इस साइंस कल्पना का आधार बचपन में पढ़ी गई "विज्ञान प्रगति" जैसी पत्रिका है तो और अच्छा लगा कि हमारे समकालीन भोजपुरी निर्देशकों को पढ़ने लिखने का महत्व समझना चाहिए। 
ये मर्डर मिस्ट्री किसी भी भाषा में बनती तो इसका असर कम नहीं होता। मगर विमल ने इसे अपनी बोली भोजपुरी में बनाने का साहस दिखाया, ये भोजपुरी सिनेमा के लिए

बहुत सम्मान करने लायक बात है। कोई फूहड़ दृश्य या गाना या संवाद पूरी फिल्म में कहीं नहीं मिलेगा।
क्लाइमैक्स में एक झोल लगा कि पुलिस अपनी तफ़्तीश के सबसे तनावपूर्ण मौक़े पर संदिग्धों के साथ कब मीटिंग रखती है, वो भी बिना हथकड़ी या बंदिश के। ख़ैर, थोड़ा बहुत चलता है, "मद्धिम" को ज़ोर से बधाई।
इसी फिल्म से एक स्क्रीनशॉट, जिसमें निर्देशक ने ख़ुद को पर्दे पर लाने का मोह नहीं छोड़ा है।
ज़िंदाबाद

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 20 अक्टूबर 2024

स्त्री 2 - सरकटे से डर नहीं लगता साहब, फ़ालतू कॉमेडी से लगता है



हिंदी सिनेमा में आखिरी बार आपने कटा हुआ सिर हाथ में लेकर डराने वाला विलेन कब देखा था। मेरा जवाब है "कभी नहीं"। ये 2024 है, जहां देश का प्रधानमंत्री इतना शक्तिशाली है कि चीन अमरीका सबके प्रधानमंत्री मिलते ही गले लग लेते हैं और आप मानकर चल रहे हैं कि इस फिल्म में आपको डरने जाना है, भले ही वो कुछ भी दिखाते रहें। 

अगर आप ऊबकर अपना सर सिनेमा हॉल में दाएं बाएं घुमाएंगे तो देखेंगे कि हर तरफ कोई सरकटा सीट के किनारों में बैठा है और कोई न कोई स्त्री उसके "चंगुल" में बैठी हुई है। शायद खुशी खुशी। दुविधा ये है कि आप मल्टीप्लेक्स की गुफ़ा में ख़ुद शहर के रक्षक बनकर सभी स्त्रियों को देखेंगे या असली फिल्म में हॉरर के नाम पर जो कॉमेडी हो रही है, वह भी देखेंगे। 

फिल्म वाला सरकटा थोड़ी देर और करता तो मेरे बगल वाली सीट पर बैठा पुरुष अपने साथ लाई स्त्री को तीसरी बार भी अपनी जांघ पर बिठा लेता।  लेकिन मैं यू सब आपको क्यूं बता रहा हूं, मुझे तो फिल्म पर बात करनी थी। चलिए शुरू करते हैं - 
यह फिल्म नहीं, आग उगलते लावा में अपने पैसे फेंक कर जला देने का आत्मघाती प्रयास है।

2024 में मेरी उम्र इतनी हो चुकी है कि अब हॉरर से डर नहीं लगता साहब, ख़राब कॉमेडी से लगता है। इस फिल्म में कॉमेडी ऐसी है जिससे नहीं, जिसपर हंसी आती है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता याद होगी - "अगर आपके घर के एक कमरे में आग लगी हो, और दूसरे में आप चैन से सो रहे हों तो मुझे कुछ नहीं कहना"। यहां एक "राक्षस" औरतों को उठाकर ले जा रहा है और वहां उस लड़की का प्रेमी और उसके दोस्त कॉमेडी में व्यस्त है । वो दिल्ली से अपने दोस्त को खतरे के मुंह में झोंकने के लिए बुलाकर लाते हैं कि उसे अकेला छोड़ देंगे और भूत जब उसे मार डालेगा तो सबको मज़ा आएगा। ये हमारे समाज की कॉमेडी का स्तर है, तो फिर मुझे किसी से कुछ नहीं कहना।
कुछ दृश्य ज़रूर अच्छे हैं जैसे डर के मारे हाथी के पुतले में घुसकर उधर उधर रास्ता भटकते दोस्तों का परेशान होना।
और क्या कहा जाए। पंकज त्रिपाठी अभी भी कालीन भैया के टोन से बाहर नहीं आ सके हैं। लड़कियों को बचाने के लिए लड़कियों का क्या क्या नहीं बनवा दिया है फिल्म में। कॉमेडी और भूत(नी) के नाम पर कॉमेडी को याद करना हो तो "I M kalam" याद कीजिए, जब भाटी के यहां काम करने वाले लड़के छोटू को उसका बड़ा स्टाफ लपटन अपने कमरे में सोने नहीं देता और वो बाहर से डरावनी आवाज़ें निकालकर कैसे डराता है। डर वहां कॉमेडी की शक्ल में है और कितना सुंदर भी है।

स्त्री -2 में ऐसा कुछ भी नया नहीं, जिसे आपने पहले की भुतहा फिल्मों में न देखा हो। और तो और, जब भूत-भूतनियां आपको डरा नहीं पातीं  तो निर्देशक इस बार आपको अक्षय कुमार से डराएगा कि बेटा जी डर जाओ वरना ये कहीं भी किसी भी फिल्म में कुछ भी बनकर आ सकता है। अगली बार तो मुख्य किरदार बनकर आने वाला है।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

मैं लौटता हूं

 प्रिय दुनिया,
बहुत दिनों तक भुलाए रखने का शुक्रिया!
मैं इतने दिन कहां रहा
कैसे बचा रहा
यह बताना ज़रूरी नहीं
मगर सब कुछ बचाते बचाते
खुद न बचने का डर वापस लाया है।

इस बीच एक लंबी रात थी
जो शायद अब भी है
मगर अंधेरे में दिखने लग जाता है
लंबी रातों में।
एक बार उदासी कुछ यूं थी कि
मैंने किसी गिलास को पकड़ने के बजाय
एक औरत की गर्दन पकड़ ली
बहुत देर बाद मालूम हुआ
अंधेरा कितना खतरनाक,
कितना अंधेरा हो सकता है।

मुझे अंधेरे में कई हाथ दिखते हैं
कई गर्दनें दिखती हैं
संभव है ज्यादातर औरतों की गर्दनें हों
मुझे लगता है कि जब देखूंगा
उजाले में उन हाथों को
क्या उनके हाथ में उजाले की गर्दन भी होगी?

इन भुलाए गए बहुत दिनों में
मैं एक बंद कमरे को दुनिया समझता रहा
ऐसा कई लोग करते हैं अपने उदास दिनों में
मगर कहने की हिम्मत नहीं करते।

इसी बीच कुछ प्यार करने का मन हुआ
तो मैंने अपनी चीख से प्यार किया
उस लड़की का चेहरा भी दिमाग में आया
जिसे कभी किसी से प्यार की उम्मीद नहीं रही।
मैं कई बार लड़ा अपने डर से
दवाईयों से, घर से
कई बार तो डॉक्टर से।

तो मैं कहना चाहता हूं जो
सिर्फ इसी भाषा में संभव है
कि दुनिया में कुछ भी इतना प्यारा नहीं
जितना भुलाए जाने का डर।

मैं लौटता हूं
अपने तमाम डर के साथ
कविता की तरह नहीं
बरसों बाद लौटी चीख की तरह।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 17 अगस्त 2024

बेस्टसेलर होने के पीछे की अंधेरी दास्तान है "टिप टिप बरसा पानी"


आजकल फिल्मी गीतों या नामों पर हिंदी साहित्य में किताबों के नाम रखे जाने का ट्रेंड है। 

हाल ही में मैंने अपने साथी तोमोजित भट्टाचार्य की एक अंग्रेज़ी पुस्तक पढ़ी "Destination Delhi"। उसमें भी एक अनोखा प्रयोग ये था कि किताब के हर अध्याय का नाम हिंदी फिल्मी गानों का टाइटल था - जैसे "एक अकेला इस शहर में", "हम आए हैं यूपी बिहार लूटने", "वो शाम कुछ अजीब थी" आदि।

वरिष्ठ कवि व कथाकार अभिज्ञात के नए हिंदी उपन्यास का शीर्षक 'टिप टिप बरसा पानी' भी ' '90 के दशक की मशहूर फिल्म "मोहरा" से उठाया गया है, जो रवीना टंडन पर बेहद लुभावने अंदाज़ में फिल्माया गया था। सिर्फ शीर्षक ही नहीं, पूरा उपन्यास ही "मोहरा" की तरह नए-नए उतार चढ़ाव से भरा पड़ा है। 

इस उपन्यास का शीर्षक "मोहरा" भी रख देते तो शायद ज़्यादा सार्थक होता क्योंकि पूरी कहानी में हर पात्र किसी न किसी की बिसात पर बिछा मोहरा ही है। उपन्यास के लेखक की उम्र अगर न बताई जाए तो लगेगा कि नई वाली हिंदी के किसी अभी-अभी उगे लेखक ने बेस्टसेलर होने की जुगत में इस उपन्यास को लिखा है। सिर्फ भाषा ही नहीं, कच्ची उम्र के कुछ दृश्य भी ऐसी ताज़गी से रचे गए हैं कि आप एक साथ अनुभवी साहित्य में लुगदी का आनंद ले सकते हैं।

अभिज्ञात हिंदी साहित्य में लंबा अनुभव रखते हैं। इस कहानी में उन्होंने बड़ी चतुराई से अंग्रेज़ी साहित्य के भीतर का काला संसार रचा है और हिंदी वालों को क्षणिक क्लीन चिट दे दी है। मुख्य पात्र अंग्रेज़ी का एक बेस्टसेलर लेखक है, जिसका मुख्य काम शोहरत के लालच में किसी भी तरह से संपर्क साधना और अय्याशी के लिए इस्तेमाल करना है। अपने उपन्यास के प्लॉट के लिए वो अपने संपर्क में आए कुछ युवाओं को ऐसे जाल में फंसाता है कि आप अगर अपनी भाषा के लेखक हैं, तो आप अपनी मर्यादा का थर्मोमीटर ज़रूर चेक करने लगेंगे कि आपने बुलंदियों की सीढियां चढ़ने के लिए जाने अनजाने किसी का इस्तेमाल तो नहीं किया है।

शुरू में आपको लगता है कि आप ये साधारण भाषा वाली अति साधारण कहानी पूरी क्यूं पढ़ेंगे जबकि आपके पास अपने बाल कटाने, गाड़ी धुलवाने, बच्चों को खेलने-खिलाने जैसे कई अधूरे काम पूरे करने हैं, फिर अचानक एक मोड़ तक पढ़ चुकने के बाद ये कहानी आपको नहीं छोड़ती। हर पन्ने पर कहानी मीलों का सफ़र तय करती है। कोलकाता से अमरीका तक। और इस बीच में क्या-क्या नहीं होता।

आसान दिखती कहानी के पात्र बहुत कसाव के साथ एक दूसरे के साथ बंधे हुए हैं जो समय समय पर ज़रूरत के हिसाब से उग आते हैं। ऐसी कहानियों पर कोई फिल्म या आज के ज़माने में कोई वेबसीरीज बने तो ताज्जुब नहीं होगा। चूंकि उपन्यासकार अभिज्ञत अभिनेता भी हैं तो वेबसीरीज के नायक "अनिमेष" की भूमिका भी ख़ुद उन्हें ही निभानी चाहिए क्योंकि एक साहित्यिक यात्रा में जितने शेड्स लेखक की निजी ज़िंदगी में होते हैं, अभिज्ञात ने वो सब जिए ही होंगे। 

तो अगर आप नई वाली हिंदी के नाम पर भाषा की खिचड़ी के साथ कहानी का सूखा पापड़ नहीं खाना चाहते तो अभिज्ञात को पढ़िए। वो पुरानी वाली हिंदी के आदमी हैं, मगर उनकी रची प्रेम कहानी पढ़कर नए वाले लौंडे बहुत दिनों तक पानी भरेंगे।

(युगवार्ता में प्रकाशित)
निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

चालीस की सड़क

दुनिया अब बाज़ार में बदल गई है
दोस्त अब आत्महत्याओं में बदल गए हैं
मंच अब मंडियों में बदल गए हैं
कविताएं अब पंक्तियों में बदल गई हैं

तुम्हारी याद एक बच्चे की नींद में बदल गई है
मेरा रोना अब लोरियों में बदल रहा है।
इस वक्त जो मैं खड़ा हूं
चालीस की तरफ जाती एक सड़क पर
जिसका नाम जीवन है
और जो एक पीड़ा में बदल गया है - 

मैं बदलना चाहता था एक प्रेमी में
एक अकेले कुंठाग्रस्त कवि में बदलता जा रहा हूं

दुनिया बदल जाती केले के छिलके में 
तो कितना अच्छा होता
फिसल जाते हम सब।

दुनिया एक प्लेस्कूल में बदल गई है
जहां मेरे दो बच्चे पढ़ते हैं
चहचहाते हैं, नई भाषाएं सीखते हैं
दुनिया का नक्शा काटते हैं।
और मैं उनके लौटने का इंतज़ार 
करता हूं सड़क के उस पार

मैं एक भिक्षुक में बदलना चाहता था
जिसके कटोरे में मीठी स्मृतियां होतीं 
मगर मैं एक चौकीदार में 
बदलता जा रहा हूं
सावधान की मुद्रा में खड़े
उम्र के बुझते हुए लैंप पोस्ट के नीचे

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 31 जुलाई 2024

रिंगटोन

एक सस्ता फोन मां के पास है
जो चाह कर भी नहीं टूटता
पिता के पास भी है फोन
वह ख़ुद भी टैंपर्ड ग्लास की तरह
टूटने से बचाते हुए हमें
हमारी सुरक्षा के भ्रम में हैं।

एक लैंडलाइन अब तक है 
हमारे यहां जो कुछ दिन में
इतिहास बन जाएगी।

जितने लोग हैं दुनिया में
उनसे कहीं ज़्यादा हैं फोन
ग़लत नंबर वालों के कॉल सबसे ज़्यादा
कर्ज़ वालों के भी
थाई मसाज कराने के लिए भी 
कर लेता है कोई अजनबी संवाद।
कोई वोट मांगने के लिए भी
कर लेता है झूठमूठ याद। 

जो असल में याद आते हैं
बहुत प्रतीक्षा करने पर भी 
नहीं आता उनका कोई फोन कॉल

विज्ञान तुम आगे बढ़ो इतना कि
जीवन-मृत्यु के दो संसारों में 
बंट गए अभिन्न लोग
एक बार कॉल कर सकें एक-दूसरे को
या किसी रिंगटोन के सहारे ही
खोल दो उनकी अनंत नींद

कविता में याद करने की अपनी सीमाएं हैं।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 17 जुलाई 2024

पुकार


देखो मां!
तुमसे मिलने कौन आया है

मुझे गिराओ किसी पत्ते की लंगड़ी से
मैं चूमूंगा मिट्टी 
पत्ते फूल की तरह झड़ेंगे

मैं आंगन में अकेला टहलता हूं
एक बूढ़ी अलगनी है, 
एक उदास कुआं है
मिट्टी के चूल्हे में सिर्फ धुआं है
इस वीराने में रोऊंगा नहीं
जानता हूं
तुम यही छिपी हो कहीं

देखो ये किसके नन्हें पांव है
जो अपने पुरखों को गुदगुदी करते हैं

आओ खेलें लुकाछिपी
एक दो तीन चार
...
धप्पा करो एक बार

सुनो मेरी पुकार
ढूंढ रहा हूं अनंत तक तुम्हें।

                                                                          
निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 24 मई 2024

याद का आखिरी पत्ता

विजय
छल पर निश्छल की
कोलाहल पर शांति की
युद्ध पर विराम की
अनेक पर एक की
हंसी पर आंसू की 
मृत्यु
एक उपलब्धि है
जिस पर गर्व करना मुश्किल है

तुमने वह पा लिया मुझसे पहले
जिसके बाद कुछ पाने की इच्छा नहीं बचती
मृत्यु बुद्ध हो जाना है
रोना, कलपना, मिलना बिछड़ना
सब छोड़ शुद्ध हो जाना है

मन एक साथ इतनी आवाज़ें करता था
अब शांत है
स्मृतियां धीमे धीमे टहलती हैं

हमारी याद में एक नंबर पर चलती गाड़ी है 
एक फिरोज़ी रंग की नहीं खरीदी गई साड़ी है
एक रिसता हुआ नल है
सीलन वाली दीवार है
एक नहीं सुनी गई पुकार है
और कभी न खत्म होने वाला इंतजार है

उस पत्ते पर अब तुम्हारा चेहरा है
जो बोधिवृक्ष से टूट कर गिरा था
हमारी याद में एक पत्ता खड़कता है
और उसे छू लेने को
मुझ सा कोई अनंत तक लपकता है।

निखिल आनंद गिरि

मरने की फुरसत

गो कि यही चलन है मेरी दुनिया का
जीते जी भुला दिए जाते हैं लोग
अब तक तो तुम भूल चुकी होगी मुझको
गो कि मेरी यादों में तुम ज़िंदा हो

ख़ैर बताओ बातें अपनी दुनिया की
कुछ तो अलग दिखाई देता होगा सब
क्या वहां भी पैदल चलना पड़ता है
चलते चलते चप्पल टूट भी जाती है
क्या वहां भी मुझसा कोई हाथों में
टूटी चप्पल लेकर मीलों चलता है

क्या वहां भी छोटी मोटी अनबन पर
साथी यूं ही रूठ जाया करते हैं
या फिर जैसे तुम्हें थी जल्दी जाने की
वहां भी ऐसे हाथ छुड़ाया करते हैं
फिर सालों तक आंसू वाली रातों में
सपने बनकर आया जाया करते हैं?

वहां किताबें तो होंगी ना पढ़ने को
जिसमें कोई फूल की पत्ती रहती हो?
बाग बगीचे घुघू पाखी की चीचीं 
और नदी भी कोई धीमे बहती हो?
यहां नदी में उतरी थीं तो पार गईं 
वहां नदी से आने की ज़िद करती हो?

मेरा क्या है मैं तो जैसा तैसा हूं
तुम्हें ही ज़्यादा सर्दी गर्मी लगती थी
मीठी वाली गोली तुम्हें खिलाने को
मन बहलाने को रखनी ही पड़ती है
वहां की दुनिया में भी क्या बीमारी से
अच्छे भलों की दुनिया रोज़ उजड़ती है?

अब तक तो तुम भूल चुकी होगी मुझको
गो कि मेरी यादों में तुम ज़िंदा हो
इस दुनिया से उस दुनिया की दूरी का
कोई भी अंदाज़ा मुझको मिल जाता
तो मैं बच्चों के साथ कुछ ना कुछ करके
तुमसे मिलने ट्रेन पकड़ के आ जाता

ठीक से रहना, तुम्हें ठीक की आदत थी
मैं तो जैसे तैसे ठीक ही रहता था
तुमको जाने की जल्दी थी चली गईं
वक्त के आगे किसकी लेकिन चलती है
यहां तुम्हारी उम्र भी मुझको जीनी है
मरने की फुरसत ही नहीं निकलती है।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 24 अप्रैल 2024

जाना

तुम गईं..

जैसे रेलवे के सफर में

बिछड़ जाते हैं कुछ लोग

कभी न मिलने के लिए

 

जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो

जैसे नए परिंदों से घोंसले

जैसे लोग जाते रहे

अपने-अपने समय में

अपनी-अपनी माटी से

और कहलाते रहे रिफ्यूजी

 

जैसे चला जाता है समय

दीवार पर अटकी घड़ी से

जैसे चली जाती है हंसी

बेटियों की विदाई के बाद 

पिता के चेहरे से


तुम गईं

जैसे होली के रोज़ दादी

नए साल के रोज़ बाबा

जैसे कोई अपना छोड़ जाता है

अपनी जगह 

आंखों में आंसू


निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 13 अप्रैल 2024

नदी तुम धीमे बहते जाना

नदी तुम धीमे बहती जाना 
मीत अकेला, बहता जाए
देस बड़ा वीराना रे
नदी तुम..

बिना बताए, इक दिन उसने
बीच भंवर में छोड़ दिया
सात जनम सांसों का रिश्ता
एक झटके में तोड़ दिया
एक नदी भरकर आंखों में
फिरता हूं दीवाना रे
नदी तुम.. 

वही पुरानी गलियां सारी
वही शहर के रस्ते हैं
वही फूल जो तुमने रोपे
मुझे देखकर हंसते हैं
किसे दिखाएं जीते जीते
घुट घुट कर मर जाना रे
नदी तुम..

उफनती लहरों से बचकर
मछलियों लेना उसको धर
बड़ा भोला है वो दिलबर
नदी तुम रहना मां बनकर
नदी वो लंबी नींद में होगी
उसको हौले से सुलाना रे
नदी तुम धीमे बहती जाना रे..



निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

प्रेतशिला

प्रिय जो छोड़ गया शरीर 
उसे जलाने के बाद
धूप में तपती सीढियां चढ़कर 
जलाने होते हैं तलवे
उसकी याद को छोड़ आना होता है 
सात सौ सीढ़ियों के उस पार
....
....
तब जाकर मुक्ति देती है प्रेतशिला

प्रेतशिला मुक्ति का द्वार है 
एक बार मुड़े तो
पीछे मुड़कर देखना तक मना है
छोड़नी होती हैं
मिलने की तमाम अधूरी इच्छाएं
रोते रोते छोड़नी होती हैं
हंसी खुशी बिताई तमाम स्मृतियां

अब उसे कितना बुखार?
किस मौसम में कैसा व्यवहार
कितने कपड़ों को साफ किया उसने
कितने बर्तन धोए जले जले
कितनी रातें तन्हा चांद तले!
सब कुछ छूट जायेगा

उतरती सीढियों में टकराती हैं निगाहें
ऊपर चढ़ते बिलखते नए चेहरों से
उनको हौसला भरकर झूठ कहना होता है
"बस कुछ सीढियां और"
कितनी सीढियां, कितने बिछोह!
किस किस से पूछा जाए
किसने कैसे साथ छोड़ा, ओह!

किसी की पत्नी जलकर मरी
किसी की डूबकर नदी में
किसी की पत्नी को लील गई
कम उम्र में ही बीमारी
सब सीढ़ियों पर रोएंगे

हर साल हर महीने हर हफ्ते हर घड़ी
कोई न कोई आएगा प्रेतशिला
अपने-अपने प्रिय प्रेतों के लिए 
नए कपड़े लेकर
प्रिय पकवान, कोई फोटो या कोई हंसती तस्वीर
रोते रोते लाएगा, छोड़ जायेगा
सशरीर

यह प्रेतशिला नहीं
आंसुओं का टीला है
जहां आंसुओ के आरपार
जीवन और मृत्यु के धागे उघड़ रहे हैं।

(प्रेतशिला गया के पास एक जगह है जहां अपने प्रिय की मृत्यु के बाद मुक्ति के लिए आने का रिवाज है)

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2024

मृत्यु की याद में

कोमल उंगलियों में बेजान उंगलियां उलझी थीं
जीवन वृक्ष पर आखिरी पत्ती की तरह 
लटकी थी देह
उधर लुढ़क गई।
मृत्यु को नज़दीक से देखा उसने
एक शरीर की मृत्यु को।

रोते हुए सगे संबंधियों के बीच
मैंने देखा वो एक चेहरा 
जिसके पास रोने को कोई उपयुक्त वजह नहीं थी।
वह उस औरत का दुधमुंहा शिशु था
जिसे दूध पिलाकर शरीर छूट गया मां का।

वह शिशु अब दूध के लिए रोता नहीं
उसने मृत्यु को समझा आठ महीने में
अब जीवन को समझेगा
निर्बाध।

वह अपनी बड़ी बहन को देखेगा तो मां याद आयेगी
बड़ी बहन उसे देखेगी तो मां याद आयेगी
दोनों पिता को देखेंगे तो मां याद आयेगी
पिता रोने की उपयुक्त जगह ढूंढकर
रोएंगे तो सब याद आएगा ।

कोई बस ख़ाली सी
कोई मंदिर सूना सा
कोई किताब चेहरे जितनी 
कोई पर्दा अकेला सा
कोई गली अनजानी सी
कोई समय अनमना सा
क्यों नहीं मिलता 
हंसते मज़बूत दिखते पिताओं को

पिताओं के पास रोने की जगह क्यूं नहीं होती 
दुनिया में?

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 25 जनवरी 2024

चालीस की ओर

मैंने एक डायरी खरीदी
कविताएं लिखने के लिए
फिर उसमें रोज़ का खर्चा लिखने लगा
मोटी डायरी थी
और खर्च करने को पैसे नहीं थे
प्रेम था थोड़ा बहुत
कविताएं उससे भी कम।

समय हमारी इच्छाओं से चलता हुआ घोड़ा नहीं
समय केले का छिलका है
फिसल रहे हैं हम सब
दुनिया प्रेमिका की तरह है
एक दिन भुला देगी।

पहले पिता फिसलेंगे या मां
यह डर इतना बड़ा है कि
सोचते सोचते मेरे पांव भी अब छिलके पर हैं
बच्चे सुरक्षित हैं फिलहाल
लेकिन बस मेरे खयालों में ही।

बच्चों के लिए क्या है दुनिया
सिवाय प्लेस्कूल के
शोर बहुत है और उसी से सीखना है।

चालीस की तरफ़ आते आते लगता है
जीवन में कोई ईशान कोण नहीं
सब दिशाओं में वास्तु का दोष है

जब दाढ़ी नहीं उगती थी
तो दाढ़ी उगना आख़िरी इच्छा की तरह थी 
अब दाढ़ी बनाने में 
सुबह का सबसे कीमती समय ज़ाया होता है।

तानाशाह की दाढ़ी सिर्फ बच्चा खींच सकता है
चालीस की ओर का कोई आदमी 
सिर्फ गोली खा सकता है
गोली या तो डॉक्टर लिखेगा
या विद्रोह में शामिल होने पर
कोई हमउम्र पुलिस अफ़सर

इस उम्र पर बहुत कुछ लिखा गया
मगर लिख देने से क्या होता है
मेरी प्रेमिका ये उम्र नहीं देख सकी

जब लगा मर जायेगी
बच गई
जब लगा बच जाएगी 
मर गई


निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 18 जनवरी 2024

दुख का रुमाल

इस सर्दी में कंबल ज़रा-सा सरका
तो सुन्न पड़ गया अंगूठा
हवा के साथ सुर्र से घुस आई
तुम्हारी याद दुख बनकर
कोई सुख ओढ़ाने नहीं आया।

लू वाली गर्मियों में
हाथ वाले पंखे की खड़-खड़ बन
बारिश के मौसम में
चप्पलों की छप छप बन
ऐसे ही आती रहेगी याद।

टिफिन में मीठे अचार का टुकड़ा बनकर भी 
याद आ सकती है
या अजनबी दिल्ली में पहली बार
ग़लत बस में चढ़ने की डांट बनकर

तुम्हारा जाना बड़ा दुख है
इससे बड़ा दुख है
तिल-तिल याद का आना

ज़िंदगी एक दुख भरे गाने की तरह है
जिसके रियाज़ में आते हैं आंसू
आ जाती है तुम्हारी याद भी
आंसू पोंछते हुए रुमाल की तरह

निखिल आनंद गिरि

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