आपबीती
दिल से बेहतर कोई किताब नहीं
मंगलवार, 4 मार्च 2025
गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025
मौन रहिए
शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025
बसंत का शोकगीत
शनिवार, 1 फ़रवरी 2025
ठंडी प्रेम कथाएं
रविवार, 26 जनवरी 2025
शोर करने वालों से सावधान
गुरुवार, 9 जनवरी 2025
डायपर
मंगलवार, 7 जनवरी 2025
मर्दानगी
मंगलवार, 31 दिसंबर 2024
कीमोथेरेपी - दस कविताएं
रविवार, 29 दिसंबर 2024
आने लगी हैं इन दिनों हिचकियां बहुत
शनिवार, 28 दिसंबर 2024
दिल्ली मेट्रो - मेरा मेट्रो
निखिल आनंद गिरि
शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024
नन्हें नानक के लिए डायरी
रविवार, 1 दिसंबर 2024
राष्ट्रपति
मंगलवार, 5 नवंबर 2024
भोजपुरी सिनेमा के चौथे युग की शुरुआत है पहली साइंस फिक्शन फिल्म "मद्धिम"
बहुत सम्मान करने लायक बात है। कोई फूहड़ दृश्य या गाना या संवाद पूरी फिल्म में कहीं नहीं मिलेगा।
रविवार, 20 अक्टूबर 2024
स्त्री 2 - सरकटे से डर नहीं लगता साहब, फ़ालतू कॉमेडी से लगता है
शुक्रवार, 6 सितंबर 2024
मैं लौटता हूं
प्रिय दुनिया,
बहुत दिनों तक भुलाए रखने का शुक्रिया!
मैं इतने दिन कहां रहा
कैसे बचा रहा
यह बताना ज़रूरी नहीं
मगर सब कुछ बचाते बचाते
खुद न बचने का डर वापस लाया है।
इस बीच एक लंबी रात थी
जो शायद अब भी है
मगर अंधेरे में दिखने लग जाता है
लंबी रातों में।
एक बार उदासी कुछ यूं थी कि
मैंने किसी गिलास को पकड़ने के बजाय
एक औरत की गर्दन पकड़ ली
बहुत देर बाद मालूम हुआ
अंधेरा कितना खतरनाक,
कितना अंधेरा हो सकता है।
मुझे अंधेरे में कई हाथ दिखते हैं
कई गर्दनें दिखती हैं
संभव है ज्यादातर औरतों की गर्दनें हों
मुझे लगता है कि जब देखूंगा
उजाले में उन हाथों को
क्या उनके हाथ में उजाले की गर्दन भी होगी?
इन भुलाए गए बहुत दिनों में
मैं एक बंद कमरे को दुनिया समझता रहा
ऐसा कई लोग करते हैं अपने उदास दिनों में
मगर कहने की हिम्मत नहीं करते।
इसी बीच कुछ प्यार करने का मन हुआ
तो मैंने अपनी चीख से प्यार किया
उस लड़की का चेहरा भी दिमाग में आया
जिसे कभी किसी से प्यार की उम्मीद नहीं रही।
मैं कई बार लड़ा अपने डर से
दवाईयों से, घर से
कई बार तो डॉक्टर से।
तो मैं कहना चाहता हूं जो
सिर्फ इसी भाषा में संभव है
कि दुनिया में कुछ भी इतना प्यारा नहीं
जितना भुलाए जाने का डर।
मैं लौटता हूं
अपने तमाम डर के साथ
कविता की तरह नहीं
बरसों बाद लौटी चीख की तरह।
निखिल आनंद गिरि
शनिवार, 17 अगस्त 2024
बेस्टसेलर होने के पीछे की अंधेरी दास्तान है "टिप टिप बरसा पानी"
शुक्रवार, 9 अगस्त 2024
चालीस की सड़क
बुधवार, 31 जुलाई 2024
रिंगटोन
बुधवार, 17 जुलाई 2024
पुकार
शुक्रवार, 24 मई 2024
याद का आखिरी पत्ता
मरने की फुरसत
बुधवार, 24 अप्रैल 2024
जाना
तुम गईं..
जैसे रेलवे के
सफर में
बिछड़ जाते हैं
कुछ लोग
कभी न मिलने के
लिए
जैसे सबसे ज़रूरी
किसी दिन आखिरी मेट्रो
जैसे नए परिंदों
से घोंसले
जैसे लोग जाते
रहे
अपने-अपने समय
में
अपनी-अपनी माटी
से
और कहलाते रहे
रिफ्यूजी
जैसे चला जाता है
समय
दीवार पर अटकी
घड़ी से
जैसे चली जाती है
हंसी
बेटियों की विदाई
के बाद
पिता के चेहरे से
तुम गईं
जैसे होली के
रोज़ दादी
नए साल के रोज़
बाबा
जैसे कोई अपना
छोड़ जाता है
अपनी जगह
आंखों में आंसू
शनिवार, 13 अप्रैल 2024
नदी तुम धीमे बहते जाना
निखिल आनंद गिरि
गुरुवार, 4 अप्रैल 2024
प्रेतशिला
मंगलवार, 20 फ़रवरी 2024
मृत्यु की याद में
गुरुवार, 25 जनवरी 2024
चालीस की ओर
गुरुवार, 18 जनवरी 2024
दुख का रुमाल
रविवार, 31 दिसंबर 2023
अब विदा लेता हूं
शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023
दिसंबर में मई की याद
शनिवार, 23 दिसंबर 2023
दिसंबर के नाम एक ख़त
बुधवार, 13 दिसंबर 2023
पटना पुस्तक मेला - कवियों से पटी हुई भू है, पहचान कहां इसमें तू है!
दिल्ली में जगह जगह पर सस्ती किताबों के ठेले लगते हैं। सौ से अधिक लोग तो किसी ख़ाली दिन किताबें पलटने के लिए जुटे ही रहते हैं। आम तौर पर इन सस्ती जगहों पर भी अंग्रेज़ी की किताबें महंगी मिलती हैं। हिंदी की या तो नहीं मिलती या बेहद कम दाम में मिलती हैं। मैंने कई पुराने हिंदी उपन्यास इन्हीं सस्ते मेलों से खरीदे हैं।
मंगलवार, 12 दिसंबर 2023
जीवन दुख का विस्तार है
सोमवार, 30 अक्टूबर 2023
मैं अब खाता भी हूं आधा निवाला छोड़कर
मंगलवार, 22 अगस्त 2023
तुम तक जाने का कोई गूगल मैप नहीं
शुक्रवार, 23 जून 2023
आधा-अधूरा
अर्थ नहीं मिला लेकिन
तुमने जितना लिखा
उतना ही पढ़ा गया मैं
आधा-अधूरा
निखिल आनंद गिरि
गुरुवार, 22 जून 2023
कैसे कटेगा जीवन, बोलो?
गुरुवार, 1 जून 2023
घर पर कोई नहीं है
सोमवार, 29 मई 2023
अचानक नदी में उतरी लड़की के लिए
शुक्रवार, 26 मई 2023
चिट्ठी जो हरदम अधूरी पढ़ी जाएगी
सोमवार, 22 मई 2023
मालदा से लौटकर
नीचे गमछा
पीठ पर अमेरिकन टूरिस्टर का रफ़ू किया बैग।
दृश्य में वह आदमी
खेत की मेड़ पर उसी तरह बैठा है
जैसा बीस-पच्चीस साल पहले बैठा था।
जलकुंभियां उतनी ही स्थिर।
लड़कियां हैं पसीने से लथपथ
पढ़ाई कर लौटतीं
गोद में बच्चा लिए
निर्दोष आंखे लिए।
भैंसे लड़ रहे बीच सड़क पर
आदमी शांति से प्रतीक्षा में हैं
गाड़ियों के हैंंडल थामे
उन्हें कोई जल्दी नहीं।
लड़ाईयों के ख़त्म होने की प्रार्थना में
इसी तरह रहा जा सकता है
बिनी किसी हड़बड़ी।
एक सड़क है
जो कच्ची से पक्की हुई है
बैंक खुले हैं कई
कर्ज़ लेने वाले बढ़े हैं बहुत
और हॉर्न वाली मोटर साइकिलें
जहां सदियों का इंतज़ार है
ट्रेन के गुज़र जाने का।
गीत गाते बाउल भिक्षु हैं
बिना सुने खुदरा देते भले लोग
कानों में इयरफोन हैं।
हिंदुओं से ज़्यादा मुसलमान हैं
कहीं कोई आतंक नहीं फिर भी
ये ज़मीन अगर सदियों से है
तो हमारे मुल्क के नक्शे में
सबसे ज़्यादा दिखाई क्यूं नहीं देती।
कोई मेरी सरकार को पावर वाला चश्मा दे दो
या कागज़ वाला रेल टिकट।
निखिल आनंद गिरि
शुक्रवार, 19 मई 2023
बिहार का सिनेमा कैसा होना चाहिए?




ये पोस्ट कुछ ख़ास है
-
कौ न कहता है कि बालेश्वर यादव गुज़र गए....बलेसर अब जाके ज़िंदा हुए हैं....इतना ज़िंदा कभी नहीं थे मन में जितना अब हैं....मन करता है रोज़ ...
-
छ ठ के मौके पर बिहार के समस्तीपुर से दिल्ली लौटते वक्त इस बार जयपुर वाली ट्रेन में रिज़र्वेशन मिली जो दिल्ली होकर गुज़रती है। मालूम पड़...
-
हिंदी सिनेमा में आखिरी बार आपने कटा हुआ सिर हाथ में लेकर डराने वाला विलेन कब देखा था। मेरा जवाब है "कभी नहीं"। ये 2024 है, जहां दे...