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बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

लो टाइड थी...

तुमने जो इक सागर जैसा दुख सौंपा था

अनजाने में...
खूब हिलोरें मार रहा है,

बहुत दिनों तक
दिल के सबसे भीतर के खाने में
जज़्ब किया था इस सागर को,
बहलाया भी...
बाहर बहुत उदासी है,
तुम मन के भीतर रहना सागर...

सब कुछ ठीक था,
मगर अचानक,
इक पूनम की चांद रात में
मैंने ये महसूस किया था
मन के भीतर टूटा था कुछ,
लो टाइड थी...
सब्र बांध का टूट गया था...
सागर रस्ता मांग रहा था...
होठों, आंखों के रस्ते से...

मुझको सब मालूम है साथी,
मेरे  होठों का खारापन,
आंखों में कुछ नमक के ढेले...
मुझको सब मालूम है साथी

जब भी तुम ऐसा कहती हो,
मेरी बातों में तल्खी है,
मेरी नज़र में पानी कम है...
तुमने जो इक सागर जैसा दुख सौंपा था..
छलक रहा है,
बरस रहा है...

देखो ना-
हम दोनों ने जो दुख बोया था
कितना बड़ा हुआ है आज....

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

रोटियों के नक्शे बिगड़ जाते होंगे

न चाहते हुए भी,
जब से मासूम पीठों पर,
किताबों का गट्ठर लदा होगा.....
मासूम चेहरों ने बना ली होगी,
बस्ते में अलबम रखने की जगह....

कई बार कच्चे रास्तों पर,
ढेला खाती होगी
आम की फुनगी,
और गिरते टिकोले बढ़ाते होंगे,
प्यार का वज़न...

बिना किसी वजह के,
जब डांट खाते होंगे
बड़े होते बेटे,
प्यार का अहसास,
पहली बार देता होगा थपकी.....

जब नहीं हुआ करते थे मोबाईल,
नहीं पढे जाते थे झटपट संदेश,
आंखें तब भी पढ़ लेती होंगी,
कि किससे होना है दो-चार...
और हो जाता होगा मौन प्यार

ये भी संभव है कि,
अनपढ़ मांएं या बेबस बहनें,
अक्सर याद करती होंगी चेहरा,
तो रोटियों के नक्शे बिगड़ जाते होंगे...

या फिर दाढ़ी बनाते पिता ही,
पानी या तौलिया मांगते वक्त,
अनजाने में पुकारते होंगे कोई ऐसा नाम,
जो शुरु नहीं होता,
मां के पहले अक्षर से....

एक सहज प्रक्रिया के लिए रची गयी रोज़ नयी तरकीबें,
प्यार ने पैदा किये हैं कितने वैज्ञानिक...

ये सरासर ग़लत है कि,
कवि,शायर या चित्रकार ही,
प्यार की बेहतर समझ रखते हैं.....

दरअसल,
जिसके पास मीठी उपमाएं नहीं होतीं
वो भी कर रहा होता है प्यार,
चुपके-चपके....

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

दे दो न इसको आवाज़ साथी...

उम्र की कच्ची सड़कों पर जब, हम-तुम अल्हड़ मस्त चाल में;
सब कुछ पीछे छोड़ बढ़े थे...
तुमको भी सब याद ही होगा...

नर्म ज़ुबां में भोली नज़्में,
मैं गढ़ता था, तुम सुनती थीं..
एक नज़्म जो अटक गई थी,
नटखट थोड़ी, नकचढ़ी सी...
उम्र की सीढ़ी पर चुपके से...
मैंने तुम्हारे रस्ते में रख छोड़ी थी...
रिश्तों की पोशाक ओढ़ाकर.
थोड़ा-सा बहला फुसलाकर
तुमको भी सब याद ही होगा...

बहकी-बहकी नज़्म को तुमने,
ठोकर मारी और गुज़र गए...
अल्हड़, अगड़ाई लेती नज़्म वो
रिश्तों की पोशाक लपेटे,
सुबक-सुबक कर, कहीं दुबक कर...
उम्र के रस्ते में खोई थी...
तुमको भी सब याद ही होगा...

आज अचानक किसी गली में,
वक्त के लब पर...
वही नज़्म फिर से,
मुझे दिख पड़ी है...
मिसरे वही हैं, बहर भी वही है...
रिश्तों की पोशाक ज़रा-सी रफू हुई है...

वही शरारत, नज़्म में अब भी...
भोलापन, अंगड़ाई वही है...
तुम्हारी ठोकर से जो एक रिश्ता
हौले-हौले सुबक रहा था,
उम्र की कच्ची सड़कों पर,
बरसों से दुबक रहा था...

उन्हीं लबों की इसे फिर तलब है....
दे दो न इसको आवाज़ साथी....

निखिल आनंद गिरि

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बुधवार, 8 दिसंबर 2010

जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे...

जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....


अभी वक्त की मारामारी है,

कुछ सपनों की लाचारी है,

जगती आंखों के सपने हैं...

राशन, पानी के, कुर्सी के...

पल कहां हैं मातमपुर्सी के....

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे.....


अभी वक्त पे काई जमी हुई,

अपनों में लड़ाई जमी हुई,

पानी तो नहीं पर प्यास बहुत,

ला ख़ून के छींटे, मुंह धो लूं,

इक लाश का तकिया दे, सो लूं,....

जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे.....


उम्र का क्या है, बढ़नी है,

चेहरे पे झुर्रियां चढ़नी हैं...

घर में मां अकेली पड़नी है,

बाबूजी का क़द घटना है,

सोचूं तो कलेजा फटना है,

इक दिन टूटेगा......


उसने हद तक गद्दारी की,

हमने भी बेहद यारी की,

हंस-हंस कर पीछे वार किया,

हम हाथ थाम कर चलते रहे,

जिन-जिनका, वो ही छलते रहे....

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...


जब तक रिश्ता बोझिल न हुआ,

सर्वस्व समर्पण करते रहे,

तुम मोल समझ पाए ही नहीं,

ख़ामोश इबादत जारी है,

हर सांस में याद तुम्हारी है...

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...


अभी और बदलना है ख़ुद को,

दुनिया में बने रहने के लिए,

अभी जड़ तक खोदी जानी है,

पहचान न बचने पाए कहीं,

आईना सच न दिखाए कहीं!

जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे....


अभी रोज़ चिता में जलना है,

सब उम्र हवाले करनी है,

चकमक बाज़ार के सेठों को,

नज़रों से टटोला जाना है,

सिक्कों में तोला जाना है...

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे....


इक दिन नीले आकाश तले,

हम घंटों साथ बिताएंगे,

बचपन की सूनी गलियों में,

हम मीलों चलते जाएंगे,

अभी वक्त की खिल्ली सहने दे...

जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे..


मां की पथरायी आंखों में,

इक उम्र जो तन्हा गुज़री है,

मेरे आने की आस लिए..

उस उम्र का हर पल बोलेगा....


टूटे चावल को चुनती मां,

बिन बांह का स्वेटर बुनती मां,

दिन भर का सारा बोझ उठा,

सूना कमरा, सिर धुनती मां....


टूटे ऐनक की लौटेगी

रौनक, जिस दिन घर लौटूंगा...

मां तेरे आंचल में सिर रख,

मैं चैन से उस दिन सोऊंगा,

मैं जी भर कर तब रोऊंगा.....


तू चूमेगी, पुचकारेगी,

तू मुझको खूब दुलारेगी...

इस झूठी जगमग से रौशन,

उस बोझिल प्यार से भी पावन,

जन्नत होगी, आंचल होगा....

मां! कितना सुनहरा कल होगा.....


इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे....

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बुधवार, 1 दिसंबर 2010

इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी...

वहां हम छोड़ आए थे चिकनी परतें गालों की

वहीं कहीं ड्रेसिंग टेबल के आसपास

एक कंघी, एक ठुड्डी, एक मां...

गौर से ढूंढने पर मिल भी सकते हैं...

एक कटोरी हुआ करती थी,

जो कभी खत्म नहीं होती....

पीछे लिखा था लाल रंग का कोई नाम...

रंग मिट गया, साबुत रही कटोरी...


कूड़ेदानों पर कभी नहीं लिखी गई कविता

जिन्होंने कई बार समेटी मेरी उतरन

ये अपराधबोध नहीं, सहज होना है...


एक डलिया जिसमें हम बटोरते थे चोरी के फूल,

अड़हुल, कनैल और चमेली भी...

दीदी गूंथती थी बिना मुंह धोए..

और पिता चढ़ाते थे मूर्तियों पर....

और हमें आंखे मूंदे खड़े होना पड़ा....

भगवान होने में कितना बचपना था...


एक छत हुआ करती थी,

जहां से दिखते थे,

हरे-उजले रंग में पुते,

चारा घोटाले वाले मकान...

जहां घाम में बालों से

दीदी निकालती थी ढील....

जूं नहीं ढील,

धूप नहीं घाम....

और सूखता था कोने में पड़ा...

अचार का बोइयाम...


एक उम्र जिसे हम छोड़ आए,

ज़िल्द वाली किताबों में...

मुरझाए फूल की तरह सूख चुकी होगी...

और ट्रेन में चढ़ गए लेकर दूसरी उम्र....

छोड़कर कंघी, छोड़कर ठुड्डी, छोड़कर खुशबू,

छोड़कर मां और बूढ़े होते पिता...


आगे की कविता कही नहीं जा सकती.....

वो शहर की बेचैनी में भुला दी गई

और उसका रंग भी काला है...

इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी,

मगर पिता बूढ़े होने लगें,

तो प्रेमिकाओं को जाना होता है....


निखिल आनंद गिरि

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गुरुवार, 25 नवंबर 2010

रात, चांद और आलपिन....

अभी बाक़ी हैं रात के कई पहर,


अभी नहीं आया है सही वक्त

थकान के साथ नींद में बतियाने का....

उसने बर्तन रख दिए हैं किचन में,

धो-पोंछ कर...

(आ रही है आवाज़....)

अब वो मां के घुटनों पर करेगी मालिश,

जब तक मां को नींद न आ जाए..

अच्छी बहू को मारनी पड़ती हैं इच्छाएं...

चांदनी रातों में भी...

कमरे में दो बार पढ़ा जा चुका है अखबार....

उफ्फ! ये चांदनी, तन्हाई और ऊब...


पत्नी आती है दबे पांव,

कि कहीं सो न गए हों परमेश्वर...

पति सोया नहीं है,

तिरछी आंखों से कर रहा है इंतज़ार,

कि चांदनी भर जाएगी बांहों में....

थोड़ी देर में..

वो मुंह से पसीना पोंछती है,

खोलती है जूड़े के पेंच,

एक आलपिन फंस गई है कहीं,

वो जैसे-तैसे छुड़ाती है सब गांठें

और देखती है पति सो चुका है..

अब चुभी है आलपिन चांदनी में...

ये रात दर्द से बिलबिला उठी है....


सुबह जब अलार्म से उठेगा पति,

और पत्नी बनाकर लाएगी चाय,

रखेगी बैग में टिफिन (और उम्मीद)

एक मुस्कुराहट का भी वक्त नहीं होगा...


फिर भी, उसे रुकना है एक पल को,

इसलिए नहीं कि निहार रही है पत्नी,

खुल गए हैं फीते, चौखट पर..

वो झुंझला कर बांधेगा जूते...

और पत्नी को देखे बगैर,

भाग जाएगा धुआं फांकने..


आप कहते हैं शादी स्वर्ग है...

मैं कहता हूं जूता ज़रूरी है...

और रात में आलपिन...


निखिल आनंद गिरि

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सोमवार, 22 नवंबर 2010

तुम्हारा चेहरा मुझे ग्लोब-सा लगता है...

तुम कैसे हो?
दिल्ली में ठंड कैसी है?
....?

ये सवाल तुम डेली रूटीन की तरह करती हो,
मेरा मन होता है कह दूं-
कोई अखबार पढ लो..
शहर का मौसम वहां छपता है
और राशिफल भी....

मुझे तुम पर हंसी आती है,
खुद पर भी..
पहले किस पर हंसू,
मैं रोज़ ये पूछना चाहता हूं
मगर तुम्हारी बातें सुनकर जीभ फिसल जाती है,
इतनी चिकनाई क्यूं है तुम्हारी बातों में...
रिश्तों पर परत जमने लगी है..

अब मुझे ये रिश्ता निगला नहीं जाता...
मुझे उबकाई आ रही है...
मेरा माथा सहला दो ना,
शायद आराम हो जाये...
कुछ भी हो,
मैं इस रिश्ते को प्रेम नहीं कह सकता...

अब नहीं लिखी जातीं
बेतुकी मगर सच्ची कविताएं...
तुम्हारा चेहरा मुझे ग्लोब-सा लगने लगा है,
या किसी पेपरवेट-सा....
मेरे कागज़ों से शब्द उड़ न जाएं,
चाहता हूं कि दबी रहें पेपरवेट से कविताएं....

उफ्फ! तुम्हारे बोझ से शब्दों की रीढ़ टेढी होने लगी है....
मैं शब्दों की कलाई छूकर देखता हूं,
कागज़ के माथे को टटोलता हूं,
तपिश बढ-सी गयी लगती है...

तुम्हारी यादों की ठंडी पट्टी
कई बार कागज़ को देनी पड़ी है....
अब जाके लगता है इक नज़्म आखिर,
कच्ची-सी करवट बदलने लगी है...
नींद में डूबी नज्म बहुत भोली लगती है....

जी करता है नींद से नज़्म कभी ना जागे,
होश भरी नज़्मों के मतलब,
अक्सर ग़लत गढे जाते हैं....

निखिल आनंद गिरि...
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शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

लाशों के शहर में...

कभी-कभी लगता है
फट जाएंगी नसें...
सिकुड़ जाएगा शरीर,
खून उतर आएगा आंखों में...

हम पड़े होंगे निढ़ाल,
अपने-अपने कमरों में...
कोई नहीं आएगा रोने,
हमारे लाशों की सड़ांध पर,
अगल-बगल पड़ी होंगी
अनगिनत लाशें....

शहरों के नाम नहीं होंगे तब,
लाशों के शहर होंगे सब
फिर हम बिकेंगे महंगे दामों पर,
हम माने, हमारी लाशें...
नंगे, निढ़ाल  शरीर की
लगेंगी बोलियां...

हमारी चमड़ी से अमेरिका पहनेगा जूते..
हमारी आंखों से दुनिया देखेगा चीन...
किसी प्रयोगशाला में पड़े होंगे अंग
वैज्ञानिक की जिज्ञासा बनकर...
तुम देखना,
कितनी महंगी होगी मौत...
इस ज़िंदगी से कहीं बेहतर...
दो कौड़ी की ज़िंदगी....
तुम्हारे बिन.....

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

तुम नहीं हो तो हर खुशी फीकी...

प्यास इतनी कि ज़िन्दगी फीकी,
तुम नहीं हो तो हर खुशी फीकी..
एक माहताब-ए-हुस्न के आगे,
चाँद की सारी रौशनी फीकी..
चन्द अल्फ़ाज़ ने ही कर डाली,
उम्र भर की ही दोस्ती फीकी..
दर्द की सीढियाँ न खत्म हुईं,
आँसुओं की पड़ी नदी फीकी..
जिस्म रिश्ते के दरमियां आया,
लम्स की ताज़गी हुई फीकी...
शहर की रौनकें न कर डालें,
मां के आँचल की ज्योत ही फीकी....

लम्स-छुअन
निखिल आनन्द गिरि 
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बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

आइनों ने कर लिया, मेरा ही अपहरण....


कौड़ियों के भाव बिका, जब से अंतःकरण,
अनगिन मुखौटे हैं, सैकड़ों हैं आवरण...
मदमस्त होकर जो झूमती हैं पीढियां,
लड़खड़ा न जाएँ कहीं सभ्यताओं के चरण...
ठिठका-सा चाँद है, गुम भी, खामोश भी,
जुगनुओं को रात ने दी है जब से शरण...
गुमशुदा-सा फिरता हूँ, अपनों के शहर में,
आइनों ने कर लिया, मेरा ही अपहरण....
मौन की देहरी जब तुमने भी लाँघ दी,
टूट गए रिश्तों के सारे समीकरण...
पीड़ा के शब्द-शब्द मीत को समर्पित हों,
आंसुओं की लय में हो, गुंजित जीवन-मरण...
माँ ने तो सिखलाया जीने का ककहरा,
दुनिया से सीखे हैं, नित नए व्याकरण...

- निखिल आनंद गिरि 


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सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

जिस्म की गिरहें....

कुछ लम्हे बेहद शातिर थे,
रिश्तों में दरारें कर डाली...
छीन ली नज़रों की नरमी,
मुस्कान वही पहले वाली....

मैं लाख छिपाता फिरता हूं,
इक सच का लम्हा आंखों में..
सब पढ़ लेते हैं चुपके से
इक गुस्ताखी तारीखों की...
मैं रुह समेटे लौटा था

वो आंसू का सैलाब ही था,
मैं जैसे-तैसे बच निकला,
इक सिलवट तब भी चुपके से,
मैं साथ ही लाया था....
चांद-सितारे सब चुप थे...
उन लम्हों की खामोशी में,,,

वो लम्हे चीख रहे हैं अब,
वो सिलवट तड़प रही है अब....
शातिर लम्हे, नटखट सिलवट...
रिश्तों में घुटन फैलाने लगे...

मैं बेबस आखिर क्या करता,
रोया, चीखा, चिल्लाने लगा...
मजबूरी थी, गुस्ताखी नहीं...
तुम इक ना इक दिन समझोगे,
उस लम्हे की सच्चाई को...
मैं रुह उठाकर ले आया....
पर जिस्म की गिरहें खुल न सकीं...

इस उम्र के रस्ते पर साथी,
ये जिस्म ही मील का पत्थर है...
आओ न मिटा दें सब दूरी,
है रूह की मंज़िल दूर बहुत...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

इतना नीरस होगा समय....

जब रात से निचोड़ लिए जाएंगे अंधेरे

और उगने लगेगा सूरज दोनों तरफ से..

जिन पेड़ों को तुम देखते हो रोमांस से,

उन्हें देखना सौभाग्य समझा जाएगा...

मिटा दिए जाएंगे रेगिस्तानों से पदचिह्न

और बाक़ी रहेंगे सिर्फ रुपये जैसे सरकारी निशान...

वर्जित क्षेत्रों में पूजे जाने के लिए....


इतना नीरस होगा समय कि,

दम घोंटकर कई बार मरना चाहेगी दुनिया...

समर्थ लोगों की बेबस दुनिया....

जब थोड़ी-सी प्यास और पसीना फेंटकर,

प्रयोगशालाओं में जन्म लेंगी कविताएं...

जैविक कूड़ा समझकर उड़ेल दिया जाएगा अकेलापन...

सूख चुके समुद्रों में....


लगातार युद्धों से थक चुके होंगे योद्धा...

खून का रंग उतना ही परिचित होगा,

जितनी मां....

चांद पर मिलेंगे ज़मीन के मुआवज़े

और कहीं नहीं होगा आकाश...


इतिहास ऊब चुका होगा बेईमान किस्सों से,

तब बड़े चाव से लिखी जाएंगी बेवकूफियां..

कि कैसे हम चौंके थे, बिना प्रलय के...

जब पहली बार हमने चखा था चुंबन का स्वाद...

या फिर भूख लगने पर बांट लिए थे शरीर....

 
निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

मैं ज़िंदा हूं अभी...

मुझे टटोलिए,
हिलाइए-डुलाइए,
झकझोरिए ज़रा...
लगता है कि मैं ज़िंदा हूं अभी...

चुप्पी मौत नहीं है,
चीख नहीं है जीवन,
मैं अंधेरे में चुप हूं ज़रा,
भूला नहीं हूं उजाला...
ये शहर कुछ भी भूलने नहीं देगा...

नौ घंटे की बेबसी,
दुम हिलाने की....
फिर चेहरा उतारकर
गुज़ारते रहिए घंटे...

फोन पर मिमियाते रहिए प्रेमिका से,
उसे हर वाक्य के खत्म होते खुश होना है...
मां से बतियाने में ओढ लीजिए हंसी,
कितनी भी...
पकड़े जाएंगे दुख...

कुछ चेहरे हैं
जिनसे बरतनी है सावधानी...
कुछ नज़रें हैं..
जिन्हें पलट कर घूरना नहीं है..
दिन एक थके-मांदे आदमी की तरह है..
हांफ रहा है आपके साथ..
रात के आखिरी पहर तक...
बिस्तर पर लेटकर निहारते रहिए दीवारें..
क्या पता शून्य का आविष्कार,
इन्हीं क्षणों में हुआ हो..

26 साल की बेबस  उम्र
नींद की गोली पर टिकी है...
गटक जाइए गोली,
विश्राम लेंगे दुख...
बदलते रहिए केंचुल,
शर्त है जीने की...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 26 सितंबर 2010

रौशनी ने कर दिया था बदगुमां...

आईने  ने जब से ठुकराया मुझे,
हर कोई पुतला नज़र आया मुझे...

रौशनी ने कर दिया था बदगुमां,
शाम तक सूरज ने भरमाया मुझे...

ऊबती सुबहों का सच मालूम था,
रात भर ख्वाबों ने बहलाया मुझे....

मैं बुरा था जब तलक ज़िंदा रहा,
'अच्छा था', ये कहके दफनाया मुझे...

जब शहर के शोर ने पागल किया,
एक भोला गांव याद आया मुझे....

ख्वाब टूटे, एक टुकड़ा चुभ गया,
देर तक नज़्मों ने सहलाया मुझे....

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

देखना तुम...

ये बदहवासी से ठीक पहले के क्षण हैं,

मेरी पीठ पर पटके जा रहे हैं कोड़े

कि मेरी रीढ़ टूट जाए...

वो मुझे सांप बना देना चाहते हैं,

कि मैं रेंगता रहूं उम्र भर...

उनकी बजाई बीन पर...

ये बदहवासी से ठीक पहले की घड़ी है..

मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने वाला है...

इस एक पल को जीना चाहता हूं मैं...

करना चाहता हूं सौ तरह की बातें तुमसे...

खोलना चहता हूं मौन की मोटी गठरी..

तुम कहां हो??

मैं चीख रहा हूं ज़ोर-ज़ोर से...

शायद आवाज़ कहीं पहुंचेगी...

कोड़े खाने के फायदे हैं बहुत..

ये चीख मुझे गूंगा कर देगी देखना.....

मेरे पांवों में बांध रखी हैं,

समय ने कस कर बेड़ियां...

मैं भूलने लगा हूं

अपने बूढ़े पिता का चेहरा...

ये बदहवासी के पहले की आखिरी घड़ी है....

मां याद है मुझे,

पसीना पोंछती मां,

बेटों की डांट खाती मां...

तुम कहां हो,

तुम्हें छूना चाहता हूं एक बार..

हाथ भूल गए हैं स्पर्श का स्वाद...

मैं पीछे मुड़कर दबोच लेना चाहता हूं कोड़ा,

मगर ऐसा कर नहीं सकता..

मैं बदहवास होने लगा हूं अब...

मुझ पर और कोड़े बरसाए जाएं..

मुझे प्यास लग रही है,

मैं चखना चाहता हूं आंसू का स्वाद..

ये बदहवासी के आंसू हैं...

रोप दिए जाएं सौ करोड़ लोगों की छाती में..

कि झुकने न पाए उनकी रीढ़

बीन बजाते संपेरों के आगे...

कहां-कहां ढूंढोगे मुझे..

मैं हर सीने में हूं..

दुआ करो कि खाद-पानी मिले मेरे आंसूओ को,

याद रखना संपेरों,

मेरे आंसू उग आए

तो निर्मूल हो जाओगे तुम....

…………………………………………………………..

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

जाना

तुम गईं.. जैसे रेलवे के सफर में बिछड़ जाते हैं कुछ लोग कभी न मिलने के लिए   जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो जैसे नए परिंदों...

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