इन दिनों जिस पीड़ा और हताशा से गुज़र रहा हूंं, उसे कोई बिना कहे ठीकठीक समझ सकता था, तो वो प्रेम भारद्वाज ही थे। अपनी सेहत के सबसे बुरे दिनों में भी वो मुझे फोन करके हिम्मत देना नहीं भूलते थे। नोएडा के मेट्रो अस्पताल में जब उनके कैंसर का पता चला तो बड़े मस्त अंदाज़ में बोले - 'बंधु, गांंठ शरीर में हो या मन में, अच्छी नहीं होती।'
सच कहूं तो हम समझ चुके थे कि हमारा साथ बहुत लंबा नहीं रहने वाला है, मगर एक-दूसरे से ऐसा कहने से डरते थे।
मैं कोई दावा नहीं करता कि उन्हें सबसे बेहतर समझता था मगर ये दावा है कि मुझ पर आंख मूंदकर वो यकीन करते थे। अपनी कमज़ोरियों पर इतना खुलकर बात करते थे कि मुझे डर लगता था कि ये भरोसा कितना रख पाऊंगा। उनके आसपास उन्हें इत्मीनान से सुनने वाला कोई नहीं था। न घर में, न बाहर। जितना भी समय हम साथ गुज़ारते, वो खुलकर बोलते जाते। मुझे उनको सुनना अच्छा लगता था। इस बातचीत में साहित्यिक बातचीत, उनके आसपास के मौकापरस्त लोगों पर कम ही चर्चा होती। कभी-कभी हंसने का मन होता तो मैं ही चुटकी लेने के लिए कोई नाम छोड़ देता। हमारे पास कई बेहतर बातें होतीं। जैसे कोई स्कूल या कॉलेज के बिछड़े दोस्त आपस में किया करते हैं। मुझे लगता है वो जिस किसी से मिलते होंगे, इसी अपनेपन से मिलते होंगे।
जब भी अपनी खटारा कार में मुझसे कहीं भी मिलते, थोड़ी देर रोकते, कार का दरवाज़ा खोलते और 'पाखी' की कॉपी या कोई और मैगज़ीन या किताब ज़रूर पकड़ा देते।कम लिखने और ज़्यादा पढ़ने के लिए हमेशा उकसाते रहते।
लता जी (उनकी पत्नी) के जाने के बाद वो बहुत अकेले हो गए थे। उन्होंने बहुत दिनों बाद बताया था कि लता जी की अस्थियां चुराकर उन्होंने अपने घर की दराज़ में छिपा ली थीं। उनका प्रेम ऐसा ही था। अतिभावुक, अति निश्छल। लता जी के जाने के बाद कई महिलाएं भी उनके क़रीब आईं। अधिकतर छपास की उम्मीद में। प्रेम जी सब समझते थे। कहते ज़्यादा नहीं थे।
लता जी (उनकी पत्नी) के जाने के बाद वो बहुत अकेले हो गए थे। उन्होंने बहुत दिनों बाद बताया था कि लता जी की अस्थियां चुराकर उन्होंने अपने घर की दराज़ में छिपा ली थीं। उनका प्रेम ऐसा ही था। अतिभावुक, अति निश्छल। लता जी के जाने के बाद कई महिलाएं भी उनके क़रीब आईं। अधिकतर छपास की उम्मीद में। प्रेम जी सब समझते थे। कहते ज़्यादा नहीं थे।
पाखी में वो लंबे समय तक रहे, मगर आखिरी कुछ महीनों ने उन्हें बहुत दुख दिया। अपूर्व जोशी को उन्होंने कभी अश्लील तरीके सेे नहीं कोसा। हरदम एक दोस्त की तरह याद किया जिसने अपने माथे पर अचानक ;शुभ-लाभ' पोत लिया।लाइलाज बीमारी में कष्ट झेलते रहने से बेहतर शरीर की मुक्ति है। मुझे उनकी मौत पर बहुत अफसोस नहीं है। उनके अकेलेपन पर जीते-जी ही बहुत अफसोस रहा। उन्हें सब लोगों ने थोड़ा-थोड़ा पहले ही मार दिया था।
सुना कि आपकी याद में शोकसभाएं हो गईं। लोगों ने तरह-तरह से आपको याद किया। आपको बहुत अच्छा इंसान बताया होगा।
मुझे अब भी अभी यक़ीन नहीं है कि आप चले गए हैं। जब यकीन होगा तो फूटकर रोऊंगा। ऐसे बुरे दिनों में आपसे लिपटकर रोने का मन था। मगर इस शहर में लिपटकर रोने की सख्त मनाही है।
अलविदा 'बंधु' !(बंधु-यही उनका संबोधन हुआ करता था)
निखिल आनंद गिरि
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