रविवार, 27 फ़रवरी 2011

हम भला कौन सा मुद्दा रखते...

बड़े लोगों से ग़र वास्ता रखते,

आज हम भी कोई रूतबा रखते...

घर के भीतर ही अक्स दिख जाता,

काश! कमरे में आईना रखते...

तीरगी का सफ़र था, मुट्ठी में

एक अदना-सा सूरज का टुकड़ा रखते...

चांद को छूना कोई शर्त ना थी,

झुकी नज़रों से ही कोई रिश्ता रखते...

वक़्त के कटघरे में लोग अपने थे,

हम भला कौन-सा मुद्दा रखते....

दो किनारों की मोहब्बत थी "निखिल"

किसके बूते पर जिंदा रखते...

निखिल आनंद गिरि

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब ...शुभकामनायें आपको !!

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  2. निखिल सच्ची बताऊँ, यह गज़ल तो लगती नहीं, नज़्म है. और इस नज़्म पर पूरी म्हणत नहीं की गयी. बुरा न मन्ना दोस्त:

    सब्र मन में ज़रा ज़रा रखते
    नज़्म की जा पे आइना रखते

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  3. Comment with spelling corrections:
    निखिल सच्ची बताऊँ, यह गज़ल तो लगती नहीं, नज़्म है. और इस नज़्म पर पूरी महनत नहीं की गयी. बुरा न मानना दोस्त:

    सब्र मन में ज़रा ज़रा रखते
    नज़्म की जा पे आइना रखते

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  4. इतनी खुबसूरत रचना लगी की शब्दों मै कहना कम लग रहा बहुत खुबसूरत , लाजवाब |
    शब्दों का खुबसूरत ताना - बाना और हर पंक्ति का एक खुबसूरत अंदाज़ |
    बहुत - बहुत बधाई |

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  5. Prem Chand Sahajwala की बात को भी अन्यथा न लेना क्युकी इनके कहे शब्द आपको और बेहतर लिखने मै मदद करेंगे |
    शुभकामनायें दोस्त |

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  6. नज़्म ही समझ लीजिए प्रेम अंकल...ये तो स्कूल के ज़माने की है...अब बस मामूली फेरबदल के साथ पोस्ट की है....आजकल पुरानी नज़्मों से प्यार जग रहा है....कई दिनों से वही पोस्ट कर रहा हूं....मुझे लगता है कि उन्हें बार-बार पढ़ना चाहिए मुझे...

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  7. चांद को छूना कोई शर्त ना थी,
    झुकी नज़रों से ही कोई रिश्ता रखते...

    amazing lines

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  8. वाह! बहुत खूब।
    महाशय,हमारे शब्दोँ को भी थोडी मधुरता प्रदान करने की कृपा करेँगे?

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  9. achha likha hai. lekin ek behtreen ghazal ni mkehti ja skti.

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