कोई कहीं दौड़ता नहीं
फिर भी हारता कई बार।
कई बार दौड़ते कुछ लोग
पहुंच जाते किसी और रेस में
मैदान हरे-भरे, कंक्रीट के।
आसमान से कोई दागता गोली,
दौड़ पड़ते सब
जो लाशें बचतीं
जीत जातीं।
जीत ख़बर बनती
पदक बंटते लाशों को।
खोते जाते मैदानों में कुछ
लोग
मिलते आपस में,
नई दौड़ के लिए।
हारे हुए लोगों की रेस चलती
अनवरत
अंतरिक्ष के मैदानों तक
हार जाने के लिए।
विलुप्त होते रहे
थक कर बैठे
सुस्ताते लोग
ख़बर नहीं बन सके
थके-हारे लोगों को
प्याऊ का पानी पिलाते लोग।
पहले पानी लुप्त हुआ
समुद्रों से
फिर गहराई का नाता टूटा
पृथ्वी से
जैसे छत्तीसवीं मंजिल का
रिश्ता
अपार्टमेंट के ग्राउंड
फ्लोर से।
निखिल आनंद गिरि
(पाखी के 'मई 2015' अंक में प्रकाशित)