फिल्म के बारे में मेरी
राय जानने से पहले इस बात के लिए दाद देनी चाहिए कि समस्तीपुर जैसे शहर में अपने
घरवालों को ‘बताकर’ सिनेमा ह़ॉल गया। इससे बड़ी दाद इस बात के लिए कि शहर के तीन बड़े
सिनेमाघरों में से सिर्फ एक में ही ‘पीके’ लगी थी और वहां लगभग
पांच किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ा। फिल्म के पोस्टर पर कहीं भी शो का समय नहीं
लिखा था मगर भला हो सुरेश जी पानवाले का जो मेरे बगल की सीट पर थे और बिना पूछे ही बता दिया कि मैं जो पांच मिनट लेट
पहुंचा हूं, उसमें ‘कोई मिल गया’ टाइप कोई जादू धरती पर उतरा है। मैं समस्तीपुर के
अनुरूप टॉकीज के मालिक से अनुरोध करता हूं कि शो की टाइमिंग भी पोस्टर पर ज़रूर
दिया करें कि मुझ-सा कोई एलियन भी आपके हॉल में बिना किसी पूर्व सूचना के टपक सकता
है। अब बात पीके की..
एलियन कथाएं अचानक से ही
बॉलीवुड की फेवरेट रेसिपी बन गई हैं, मगर आमिर खान भी इसमें कूद पड़ेंगे, उम्मीद नहीं
थी। आप आमिर खान को ‘मिस्टर परफेक्शनिस्ट’ होने के लिए बेशक ‘भारत रत्न’ दे डालिए मगर सच कहूं तो वो कहीं से इस रोल में जंचते नहीं
हैं। अच्छा तो ये होता कि रणबीर कपूर ही शुरू में ‘जादू’ की गाड़ी से उतरते और
अनु्ष्का से प्यार कर डालते मगर आमिर खान पता नहीं कैसे इस चक्कर में पड़ गए। जैसे
संजय दत्त काम भर आए और चले गए। ‘सत्यमेव जयते’ के हैंगओवर से आमिर जितनी जल्दी बाहर आ जाते ठीक था। पूरी
फिल्म देखकर यही लगा कि वो सत्यमेव जयते का ही कोई अगला एपिसोड कर रहे हों जिसमें
नाटक थोड़ा ज़्यादा था और तथ्य बिलकुल कम। इतने लंबे प्रवचननुमा डायलॉग कि सुरेश
जी पानवाले मेरे लिए बाहर से एक मीठा पान बनाकर ले आए और फिल्म वहीं की वहीं रही।
विश्व सिनेमा की एक बड़ी
फिल्म है ‘BICYCLE THIEF’. इसमें नायक की साइकिल चोरी हो जाती है और पूरी फिल्म इस
खोने की त्रासदी को लेकर ऐसी बनी कि मास्टरपीस बन गई। मगर इधर हिरानी एंड कंपनी को
इतनी हड़बड़ी थी कि प्रेरणा लेने के लिए वो मास्टरपीस की तरफ न जाकर नाग-नागिन
कथाओं की तरफ चले गए। एक एलियन किसी अनजान गोले (ग्रह) से उतरता है और उसका भी ‘रिमोट’ कंट्रोल कही खो
जाता है। इसके बाद की जो कॉमिक ट्रैजडी हम देखते हैं, वो पीके है। पागलों या
बेवकूफों जैसी हरकतें और कान-मुंह लंबे करके एलियन बन जाना होता तो कपिल शर्मा से
लेकर हनी सिंह सब एलियन होते। दिल्ली, भोजपुर या दुनिया का कोई ऐसा इलाका मुझे
नहीं मिला जहां किसी बेवकूफ को झुंझलाकर ‘पीके’ कहते हों। कम से कम दर्शक तो एलियन नहीं है, बेवकूफ तो
बिल्कुल नहीं। एक एलियन आपका हाथ पकड़ेगा तो आपकी भाषा उसके ‘मेमरी कार्ड’ में उतर जाएगी, जैसे हिंदी सिनेमा का नाग आपकी आंखों में
देखकर नागिन के कातिल का आधार कार्ड देख लेता था। ये हमारे समय के सिनेमा की Sci-fi फिल्म है और आमिर
खान जैसे महान अभिनेता उसके नायक हैं! और एलियन ने भाषा
भी सीखी तो क्या, मुंबई मिक्स भोजपुरी जिसका दूर-दूर तक बिहार या भोजपुरी की माटी
से कोई संबंध नहीं। इतनी बुरी रिसर्च कि एक अंग्रेज़ी शब्द WASTE को बिगाड़कर ‘भेस्ट’ कर दिया और पूरा
गाना फिल्मा दिया। हमारे यहां V को ‘भ’ (जैसे ‘VIRUS’ को भायरस या FACEBOOK TRAVELS को ‘ट्रैभल्स’) चलता है मगर W को ज़्यादा से
ज़्यादा ‘ब’ किया जा सकता था। कहां-कहां तक इस एलियन कॉमेडी पर हंसा जाए। पीके एक ऐसी
कॉमेडी फिल्म (आमिर इसे सीरियस फिल्म कहें तो अलग बात) है जिसे देखने के बाद ही
हंसी आती है। भोजपुरी इलाके का इतना भद्दा मज़ाक कि जिस सेक्स वर्कर से बिस्तर पर
ये एलियन उसकी भाषा सीखता है उसे सुबह ‘सिस्टर’ कहता है। हमारे यहां प्रेम करने का
कॉमन सेंस तो होता ही है सर।
दरअसल, मीडिया, न्यूज़
चैनल, एनजीओ, फेसबुक स्टेटस और आमिर खान टाइप समाज सुधारकों ने देश का भला करने के
नाम पर इतना प्रवचन पहले ही दे दिया है कि इस पर कोई ओवरडोज़ प्रवचन करती फिल्म
किसी मंचीय कविता जैसी लगती है। इस तरह की फिल्मों से जितना हो सके बचा जना चाहिए।
कम से कम भगवान पर भरोसा करने वालों का मज़ाक उड़ाती ’ओ माई गॉड’ इस पीके से बेहतर
इस मायने में थी कि फिल्म ईश्वर-अल्लाह से होते हुए भारत-पाकिस्तान की लव स्टोरी
बनकर ख़त्म नहीं होती। ख़ुद भगवान पर इतना भरोसा करने वाली यह फिल्म दरअसल बाबाओं
और मंदिरो-मस्जिदों से उनकी फैंचाइज़ी छीनकर ख़ुद हथियाना चाहती है।
जब कोई फिल्म तीन घंटे
में ही सब कुछ पा लेना चाहती है तो या तो डायरेक्टर दर्शक को ‘लुल’ (पीके से उधार
लिया शब्द) समझता है या फिर वो अपने हैंगओवर से बाहर नहीं आ सकने की बीमारी से
ग्रस्त है। इस उपदेशात्मक फिल्म को अगर बच्चों की फिल्म कहकर प्रोमोट किया जाता तो
‘तारे ज़मीन पर’ के दीवाने बच्चे ज़रूर हॉल तक आ जाते मगर आपको तो राजस्थान के
बीहड़ से लेकर दिल्ली की सड़कों तक डांसिंग कार (कार के भीतर लगे प्रेमी जोड़े) भी
दिखानी है और इसे एक एडल्ट कॉमेडी बना देनी है। एलियन को सिर्फ उन्हीं कारों से
कपड़े चुराने हैं। जिस मीडिया की गोद में बैठकर ज़रिए ये एलियन इन बाबाओं की खटिया
खड़ी कर देता है, उस मीडिया पर भी सवाल उठाए होते तो मैं दोबारा पांच किलोमीटर
चलकर आमिर खान साहब को देखने आता। चैनलों से पूछा जाता कि इन आसाराम-रामपाल-राम-रहीम
बाबाओं का बिज़नेस आखिर जमाया किसने है। किसी सियावर रामचंद्र ने आशीर्वाद दिया है
या ‘बाज़ार देवता’ की एजेंट मीडिया ने ही। मगर नहीं, पीके उर्फ आमिर खान को तो तीन घंटे में
अपनी इमेज बनानी है, इंटरवल में स्वच्छता अभियान का एक विज्ञापन भी करना है और
दर्शकों को ‘लुल’ बनाना है।
फिल्म के कुछ हिस्से बेहद
अच्छे हैं मगर फिल्म कोई नींबू तो है नहीं कि निचोड़ कर रस निकाल लें और तरोताज़ा
हो जाएं। जहां मर्ज़ी गाना लगा दीजिए,
कहीं बम ब्लास्ट करा दीजिए तो पब्लिक तो कनफ्यूजियाएगी ना कि हंसना किस पर है और
सीरियस कहां होना है। हमारे हॉल में तो बम ब्लास्ट पर लोग हसते थे और हंसने वाली
जगहों पर शांत रहते थे। दिल्ली पुलिस को इस फिल्म पर पांच सौ रुपये की मानहानि का
केस ठोंक देना चाहिए। वो बिकती है मगर 2014 की किसी फिल्म की कहानी में इतने सस्ते
में!! छी.. अगर किसी दूसरे ग्रह से कोई एलियन इस लेख
को पढ़ रहा हो तो उसे पीके की पूरी टीम पर मानहानि का केस कर देना चाहिए। वहां
लोगों को पहनने के लिए आज भी कपड़े नहीं हैं मगर डिप्रेशन दूर भगाने के लिए लोग
बॉलीवुड के ही स्टेप्स फॉलो करते हैं! देखिए न, फिल्म तब देखी और हंसी अब आ रही है। सारे कपड़े
उतारने का मन कर रहा है। मैं कहीं एलियन न हो जाऊं।
नोट – जब फिल्म के क्लाइमैक्स में कोई ‘जग्गू साहनी’ अपनी कहानी सुनाए
और बगल से कोई दर्शक पूछे- ‘ई साहनी कौन जात भेल’ (ये साहनी कौन-सी जात हुई) तो समझ लीजिए बिहार में फिल्म
देखना् सफल हो गया।
निखिल आनंद गिरि
:D :D बिलकुल सही कहा आपनें.. मुझे भी कुछ कुछ ऐसा ही लगा था....
जवाब देंहटाएंआनंदगिरि चूके हुए हैं, आपका चश्मा सामाजिक था। आप फिल्म देख रहे हैं। आत्मकथा नहीं। और कथाकार अपनी बात कहने के लिए किसी न किसी आधार बनाता है। जैसे पुरातन कथाओं में चिडियों का सहारा लिया जाता था, कुछ कहानियों में। फिल्म का संदेश देती है। हालांकि बिजनस को ध्यान में रखकर बनाई गई है।
जवाब देंहटाएंकुलवंत जी, फिल्म मेरे लिए समाज का हिस्सा ही है. इसी चश्मे से देखता हूं सारी फिल्में. मुझे फिल्म की मंशा पर कोई शक नहीं मगर जहां-जहां लगा आलोचना करनी चाहिए, की. हो सकता है उसका वज़न ज़्यादा हो तो एकतरफा लग रहा है.
हटाएंमैं आपको 11 रुपये दूंगा ,,,,, प्लीज आईंदा किसी दूसरी किसी फिल्म की विवेचना प्रस्तुत न करें ! जिसका काम उसी को साजे ,,, और करे तो डंडा बाजे ! मैंने इससे ज्यादा सतही समीक्षा आज तक नहीं पढ़ी ! फ़िल्म देखना अलग बात है और उसे समझना एकदम अलग बात है ,,,,,,,,,,,, आपके बस की बात नहीं कि ऐसी फ़िल्म पे आप बात कर सकें ! आप दबंग देखिये !
जवाब देंहटाएंहाहाहा.प्रकाश गोविंद जी, आपने तो फतवा ही जारी कर दिया भाई. इतना निराश नहीं होते.
हटाएंऔर देना ही है तो 211 रुपये दीजिए. 11 रुपये में दबंग भी नहीं देख पाऊंगा.
ब्लॉग पर आते रहिए. यहां और भी 'फालतू' चीज़ें लिखता हूं.