कोई गोत्र, कुल या नक्षत्र
तय होने से भी पहले
उनका महान होना तय था।
जंगल के जंगल काट दिए गए
उनका पलना बनाने में जुट गए गांव
जिन गांवों में बने उनके मुकुट
फुदने औऱ खिलौने भी
वहां आग लगा दी गई काम के बाद
और एक महल तैयार हुआ
गांव की राख पर।
तब दूध के दांत भी उगे नहीं थे
जब घर में आ गई थी गाय
और बहने लगी थी दूध-मलाई
जब वो बड़े हो रहे थे
तब तक तय हो चुका था
कोल्हू कौन होगा, बैल कौन?
पुट्ठे पर मलेगा तेल कौन?
तमाम किताबों पर उंगली फिरा दी उन्होंने
और उन्हें मान लिया गया,
ज्ञानी-ध्यानी, प्रकांड, छुट्टा सांड।
उनके मुंह से दुर्गंध आई,
तो वायु प्रदूषण एक गंभीर मुद्दा मान लिया गया
ऐसे तैयार हुए वो जीने के लिए,
न उन्हें किसी दुकान से आटा लेना था
न बस का नंबर पता करना था कभी
ख़ास तरह से तराशे गए कुछ लोग
जिनका पसीना तहख़ानों में रखा जाना था।
जिनके सफेद बालों पर शोध लिखे जाने थे
इस ग्रह पर सिर्फ राज करने के लिए आए थे।
उनके ज़बान पर नमक की तरह
चटा दिया गया विकास नाम का शब्द
और वो करते रहे जुगाली विकास की
अपनी पीठ घुमाकर ख़ुद ही देते रहे थपकी
घूमते रहे अमेठी, गुजरात से दिल्ली तक।
झूठ को इतना चिल्लाकर कहा,
इतना कलफ लगाकर,
कुतुब मीनार जितनी ऊंचाई से
कि सच ने ख़ुदकुशी कर ली।
निखिल आनंद गिरि
(पत्रिका 'पहल' के 98वें अंक में प्रकाशत)
तय होने से भी पहले
उनका महान होना तय था।
जंगल के जंगल काट दिए गए
उनका पलना बनाने में जुट गए गांव
जिन गांवों में बने उनके मुकुट
फुदने औऱ खिलौने भी
वहां आग लगा दी गई काम के बाद
और एक महल तैयार हुआ
गांव की राख पर।
तब दूध के दांत भी उगे नहीं थे
जब घर में आ गई थी गाय
और बहने लगी थी दूध-मलाई
जब वो बड़े हो रहे थे
तब तक तय हो चुका था
कोल्हू कौन होगा, बैल कौन?
पुट्ठे पर मलेगा तेल कौन?
तमाम किताबों पर उंगली फिरा दी उन्होंने
और उन्हें मान लिया गया,
ज्ञानी-ध्यानी, प्रकांड, छुट्टा सांड।
उनके मुंह से दुर्गंध आई,
तो वायु प्रदूषण एक गंभीर मुद्दा मान लिया गया
ऐसे तैयार हुए वो जीने के लिए,
न उन्हें किसी दुकान से आटा लेना था
न बस का नंबर पता करना था कभी
ख़ास तरह से तराशे गए कुछ लोग
जिनका पसीना तहख़ानों में रखा जाना था।
जिनके सफेद बालों पर शोध लिखे जाने थे
इस ग्रह पर सिर्फ राज करने के लिए आए थे।
उनके ज़बान पर नमक की तरह
चटा दिया गया विकास नाम का शब्द
और वो करते रहे जुगाली विकास की
अपनी पीठ घुमाकर ख़ुद ही देते रहे थपकी
घूमते रहे अमेठी, गुजरात से दिल्ली तक।
झूठ को इतना चिल्लाकर कहा,
इतना कलफ लगाकर,
कुतुब मीनार जितनी ऊंचाई से
कि सच ने ख़ुदकुशी कर ली।
निखिल आनंद गिरि
(पत्रिका 'पहल' के 98वें अंक में प्रकाशत)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
इस पोस्ट पर कुछ कहिए प्लीज़