कुछ
फिल्में ऐसी होती हैं जिन पर लिखा जाना ज़रूरी नहीं होता, फिर भी लिखा जाता है।
कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन्हें देखा जाना ज़रूरी नहीं होता, फिर भी देखना पड़ता
है। ‘डॉली की डोली’ देखने की वजह भी फिल्म से ज़्यादा फिल्म के लेखक उमाशंकर
सिंह थे जिन्हें मेरे अलावा हिंदी सर्किल का हर साथी ठीक से जानता है। वो फेसबुक
पर मेरे दोस्त हैं और उनकी कुछ कहानियां भी मैंने पढ़ी हैं। एक ‘युवा’
हिंदी साहित्यकार की लिखी पहली हिंदी
फिल्म देखना उसे गुपचुप सम्मान देने जैसा था। इससे ज़्यादा कुछ नहीं। ‘फन’
सिनेमा में मेरे अलावा सिर्फ सात लोग बैठे थे और ये समझ आ गया था कि फिल्म ने क्या
बिजनेस किया है।
‘डॉली की डोली’ जैसी फिल्म 1970 में भी रिलीज़ होती तो भी मूल कहानी
में कोई फर्क नहीं आता। डॉली एक ‘लुटेरी
दुल्हन’ है जो अमीर लड़के फंसाकर शादियां
करती है और पहली ही सुबह ससुराल वालों को नशीला दूध पिलाकर सारा माल उड़ा लेती है।
यह कहानी फिल्म के पहले बीस मिनट दर्शक को पता नहीं होती, तब तक दर्शक मज़े लेकर
फिल्म देखता है। फिर डॉली और उसके गैंग की चालाक एक्टिंग पर आगे की पूरी फिल्म
टिकी थी। मगर अफसोस, सोनम कपूर न तो रानी मुखर्जी हैं और न ही विद्या बालन। हम एक
बोरिंग होती फिल्म के ख़त्म होने का इंतज़ार करते हैं। दो-चार आइटम नंबर सुनते
हैं, तालियां बजने लायक डायलॉग भी, मगर फिल्म कहीं छूट जाती है।
अगर
ये किसी किताब में छपी होती तो एक अच्छी कहानी कही जाती। मगर पर्दे पर निर्देशक असल
लेखक होता है। फिल्म का स्क्रीनप्ले कई जगह बनावटी, बोवजह, लंबा और बोरिंग भी है।
कुल मिलाकर एक ऐसी फॉर्मूला कॉमेडी फिल्म जिसमें सारे मसाले तो हैं, मगर वो बहुत
बार चखे जा चुके हैं। डॉली की ख़ासियत है कि उसकी शादियों में उसकी फोटो किसी के
पास नहीं आती। दिल्ली जैसे पिद्दी शहर को 10 लाख सीसीटीवी देने वाली राजनैतिक
घोषणाओं के युग में बिना कैमरे की शादी बिल्कुल हजम नहीं होती। फिल्म का
क्लाइमैक्स बेहद फिल्मी है। जो पुलिस अफसर डॉली और उसके गैंग को पकड़ने में जुटा
है, वो डॉली का पहला प्रेमी होता है। मगर डॉली आखिर में उसे भी छोड़ देती है। इसे
एक औरत की आत्मनिर्भर और आज़ाद उड़ान के तौर पर भी देखा जा सकता था, मगर ‘डॉली एक
बार दे देती यार..’, ‘शादियों के बाद बीवियां
तो लूटती ही हैं’ जैसे कई डायलॉग फिल्म
की नीयत वैसी बनने नहीं देते।
अच्छी
बात ये है कि इस फिल्म में एक-एक पात्र को पूरा समय दिया गया है। वो किसी लिखी गई कहानी
की तरह पूरे-पूरे डायलॉग कहता है और थियेटर की तरह अगले कैरेक्टर के बोलने का
इंतज़ार करता है। एडिटर कट लगाना भूल गया
है, मगर ऐसे में पूरी फिल्म में बहुत ज़्यादा उतार-चढ़ाव नहीं हो पाता और हम ऊबने
लगते हैं।
इससे ज़्यादा फिल्म पर
लिखना ठीक नहीं है। डॉली आखिर में मुंबई की तरफ गई है और उसके हाथ में सलमान खान
की फोटो है। मेरी दुआ है कि सलमान को वो सचमुच कंगाल कर डाले ताकि हम कुछ फूहड़
सिनेमा बॉलीवुड से कम कर सकें।
निखिल आनंद गिरि