सोमवार, 25 मार्च 2013

घर में पधारो 'योयो' जी..

हनी सिंह का रैपर अंश
हिमाचल-पंजाब से लेकर बिहार-झारखंड तक के शादी समारोहों में दो चीज़ें ज़रूर होती हैं। एक तो वीडियो कैमरा और दूसरा डीजे। कैमरे का स्तर तो बहुत ज़्यादा नहीं बदला मगर डीजे का ज़रूर बदल गया है। शहनाई की धुन वाले समारोह मैंने देखे नहीं। 'आज मेरे यार की शादी है', 'बाबुल की दुआएं लेती जा'' का दौर अब पूरी तरह बीत चुका है। 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' फिल्म में शारदा सिन्हा का गाया गीत 'तार बिजली से पतले हमारे पिया' भी नया तो है, मगर नए ज़माने का नहीं है। नए ज़माने में तो बस हनी सिंह हैं। हनी सिंह को जानना हो तो गूगल नहीं दिल्ली की गलियों में घूमना चाहिेए।

द्वारका क्षेत्र का बहुत पुराना गांव है ककरौला। जाट इतिहास से जुड़ी कई नामी हस्तियां इस इलाके से रहीं। एक स्थानीय जाट लेखक के बुलावे पर उनके भतीजे की शादी में शिरकत करने का मौका मिला। ऊपर से नीचे तक सफेद कमीज़ और पैंट में छोटे-बड़े तमाम लोग कमाल के लग रहे थे। औरतें साड़ियों में थीं और बच्चे रंग-बिरंगे परिधानों में। शादी के लिए तैयार किए गए शामियाने के ठीक बीच में हुक्के की महफिल लगी हुई थी। खाने में तंदूरी रोटी के साथ गांव का शुद्ध देसी घी भी एक बर्तन में रखा हुआ था।  इन सबके बीच कैमरे और डीजे का इंतज़ाम भी था। गाने वही जो बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश की शादी वाले डीजे में बज रहे थे। कुछ फिल्मी आइटम गीत और बहुत कुछ हनी सिंह। मैंने अपने लेखक 'अंकल' से कहा, बाक़ी सब तो ठीक है, मगर ये डीजे ककरौला गांव के देसी घी की तरह असली नहीं है। मुझे तो ठेठ जाट अंदाज़ वाली शादी देखने का मन था। उन्होंने कहा, 'गांव के लोग हैं, इन्हें असली-नकली की इतनी समझ नहीं, शहर में जो लोकप्रिय है, गांव तक आ ही जाता है।'

इसके कुछ दिन बाद ही दिल्ली के कई कॉलेजों में चल रहे फेस्ट में जाने का मौक़ा मिला। हर जगह ककरौला मेरे साथ ही रहा। सफेद लिबास और देसी घी वाला ककरौला नहीं, डीजे वाला ककरौला। हनी सिंह के गानों पर झूमता ककरौला। हनी सिंह हर कार्यक्रम में खु़द नहीं आए तो उनकी टीम के रैपर (मुख्य गवैये) पधारे और माहौल हनीमय कर दिया। समस्तीपुर और रांची की शादियों में भी कुछ गाने हनी सिंह के थे। हनी सिंह के बारे में मेरी जानकारी इतनी ही है जितनी मनमोहन सिंह के रसोइये के बारे में। मगर मेरी जानकारी के स्तर से हनी सिंह का क़द मत मापिए। हनी सिंह को समझना हो तो दिल्ली के कॉलेजों में हो रहे रंगारंग कार्यक्रमों की रिकॉर्डिंग कहीं से देखिए। हनी सिंह के गीत मंच पर शुरू होते नहीं कि होंठ से होंठ मिलाकर नौजवान उन गीतों पर झूमते-थिरकने लगते। ऐसा कंठस्थ वातावरण मैंने सिर्फ आरती के वक्त मंदिरों में ही साक्षात देखा है।

हनी सिंह दिल्ली-पंजाब की डीजे जेनरेशन के ख़ुदा यूं ही नहीं लगते। 'श्री श्री' की तरह हनी सिंह भी अपने नाम के साथ 'यो यो' लिखते हैं। गूगल पर लाख ढूंढने के बावजूद कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिला कि 'यो यो' विशेषण लगाने से आदमी के नाम में कितने चांद लग जाते हैं। ख़ैर, यो यो की कुछ और ख़ासियतें भी हैं। एक तो ये कि एकदम नई पीढ़ी के बच्चों के नाम अब चीकू, मीकू, पीकू से योयो, जोजो, भोंभों होते जा रहे हैं। दूसरा, शाइरी अपने टूटे-फूटे रूप में भी ज़िंदा बची हुई है। 'बरसात का मौसम है, बरसात न होगी..तू नहीं आएगी तो क्या रात न  होगी' जैसे शेरों पर योयो के भक्त जब 'वंस मोर' का जयकारा लगाते हैं तो लगता है उनके चेहरे से पसीना नहीं, गंगा मैली होकर बह रही हो।

भद्दे गीतों पर झूमते योयो के दीवानों में सिर्फ लड़के ही नहीं, लड़कियां भी हैं। आप उन्हें बुरा-भला कह सकते हैं, मगर वो अपना बुरा-भला ख़ुद सोच-समझ सकने वाली पीढ़ी है। उन्हें पता है कि दिल्ली में कॉलेज के भीतर किस लेक्चरर का कितना लेक्चर सुनना है और किसका कितना संगीत सुनना है। योयो के माध्यम से वो अपनी ज़िंदगी जीने का तरीका चुन रहे हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। अब तो किसी योयो को ही किसी यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर बना देना चाहिए। कम से कम किसी कॉलेज का प्रिंसिपल तो ज़रूर ही। प्रोफेसर, डॉक्टर जैसे विशेषण से अब बुद्धिजीवी ऊबने लगे हैं। उनकी किताबी बातें आजकल किसी के पल्ले भी नहीं पड़तीं। तभी तो वो अपने बच्चों का दिल बहलाने के लिए लाखों का फंड खर्च करके योयो को न्योता भेजते हैं।  कॉलेज में क्लास के भीतर बहुत कम बच्चे होते हैं। योयो को सुनने पूरा कॉलेज आता है। योयो ही इस वक्त की मांग है।

लेकिन ऐसा क्यों हुआ है? हनी सिंह के गाए कुछ गीतों के शब्द और आशय पढ़ने के बाद दिल दहल जाता है। स्त्रियों के खिलाफ शायद इससे घिनौने लहजे में कुछ और नहीं कहा जा सकता। इसके बावजूद एक बड़ा तबका हनी सिंह को सुनकर क्यों दीवाना होता है? क्या वही गीत वह अपने घर की महिलाओं के बारे में सुनकर उसी भाव में झूमेगा? वहां उसकी 'मर्दानगी' कैसे रिएक्ट करेगी? एलीट स्कूल-कॉलेजों से निकली युवतियों को ये समझना क्यों मुश्किल हो रहा है कि हनी सिंह के गाये कुछ गीत  उन्हें किस अंधे कुएं में धकेल कर छोड़ रहे हैं। क्या हमारी पढ़ाई-लिखाई की ज़मीन इतनी खोखली है कि यह अपने ही सम्मान,गरिमा और अस्तित्व को अपमानित करने के कारकों को हमें पहचानने नहीं देती?

निखिल आनंद गिरि
(सभी तस्वीरें सस्ते मोबाइल से खींची गई हैं..)
(25 मार्च 2013 को 'जनसत्ता' अख़बार में प्रकाशित)

4 टिप्‍पणियां:

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  2. हाहाहा..इस एंगल से सोचा ही नहीं, न ही उनसे पूछा..शुक्रिया..

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  3. बहुत अच्छी लेख है निखिल जी. ये ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचनी चाहिए...यूँ तो ये "यो यो" टाइप से ही चिढ आती है मुझे तो हनी सिंह जी के बारे में आपके बराबर या शायद अब कुछ कम ही जानकारी मेरे पास भी है, मगर हाँ जब उन्हें पकड़ा गया था तो एक बार जिज्ञासा जागी थी कि आखिर लिरिक्स ऐसे भी क्या थे? और फिर जो पढने को मिला...उसके बाद तो अपने आप से घिन आई कि न ही पढता तो ज़ुल्म करता....

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  4. बहुत ही अच्छा वंय्ग था
    रचनात्मक सोच है


    सुरक्षित और रंग बिरँगी होली मनायें !
    कृपया दारू पी कर गाड़ी न चलायें .!!

    होली की ढेर सारी शुभकामनायें !!!!!

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