कभी-कभी सोचता हूं...
(इतना काफी है मानने के लिए कि ज़िंदा हूं)
कि आकाश तक जाने का कोई पुल होता तो हम छोड़ देते धरती
किसी अमावस की रात में...
और मुझे मालूम है कि,
पिता नहीं, वो तो खर्राटे भर रहे होंगे..
मां भी नहीं, वो थक कर अभी चूर हुई होगी...
तुम ही मुझे आधे रास्ते से उतार लाओगी
कान पकड़े किसी हेडमास्टर की तरह...
जबकि चांद एक सीढ़ी भर दूर बचेगा...
अंधी रात को क्या मालूम उसे तुमने नीरस किया है।
तुम्हारी तेज़ कलाई जब देखी थी आखिरी बार,
मुझे नहीं आता था बुखार नापना...
मेरी धड़कनों में वही रफ्तार है अभी...
इस वक्त जब ले रहा हूं सांसें...
और हर सांस में डर है मरने का...
तुम्हें भूलने का इससे भी बड़ा...
ये बचपना नहीं तो और क्या
कि जिस चौराहे से गुज़रिए वहां भगवान मिलते हैं
इस आधार पर मान लिया जाए,
कि बचपन की हर चीज़ वहम थी...
मौत के डर से हमने बनाए भगवान,
जिन्हें मरने का शौक होता है,
वो बार-बार प्यार करते हैं...
जबकि, प्यार कहीं भी, कभी भी हो सकता है...
छत पर खड़े हुए तो सूखे कपड़ों के बीच में..
और जब सबसे बुरे लगते हैं हम आईने में, तब भी...
तो सुनो, कि मैं सोचने लगा हूं अब..
तुमने चांद से सीढ़ी भर दूर मुझे मौत दी थी...
और सो गयी थीं गहरी नींद में...
वो प्यार नहीं था,
प्यार कोई इतवार की अलसाई सुबह तो नहीं,
कि इसे सोकर बिता दिया जाए
निखिल आनंद गिरि