नवंबर 2012 का 'नया ज्ञानोदय' हाथ में है। इस अंक में जितेंद्र भाटिया ने नोबेल विजेता साहित्यकार मो यान की कहानी का अनुवाद किया है। कहानी इतनी बेहतरीन है कि अनुवाद की ख़बसूरती पर ध्यान बाद में जाता है। वर्तनी पर और बाद में। मगर 'नया ज्ञानोदय' में इतनी ज़्यादा अशुद्धियां हो तो सिर्फ कहानी पढ़कर संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। ऐसी पत्रिकाओं से उम्मीद रहती है कि वो भाषा का ज्ञान बढ़ाने में मदद करेंगी। मगर, नुक़्ते ने सारा खेल ख़राब किया है। या तो नुक़्ते लगाने ही नहीं थे और लगाने थे तो दोबारा फिल्टर किया जाना चाहिए था।
अब कहानी का शीर्षक ही देखिए। मज़ाक की भी हद होती है, शिफू! जब 'ज़' वाला एक नुक्ता लग सकता है तो 'क' को तो अफसोस रह ही जाएगा ना। और फिर दो नुक़्ते लगा देने में कितनी रोशनाई ही ख़र्च हो जाती। नुक़्ते को लेकर ऐसी ग़लतियां इस लंबी कहानी में कई जगह है।
उसे काम मिला एक कारख़ाने में, जहां देखा जाए तो उसकी 'जिन्दगी' किसी किसान से बुरी नहीं थी। इस 'ख़ुशक़िस्मती' के लिए डिंग अपने समाज का शुकग्रुज़ार था...(पेज 22)
अगर ख़ुशक़िस्मती में सही-सही नुक़्ते लग सकते हैं, तो 'ज़िंदगी' से नुक़्ता क्यों ग़ायब है?
इसी पन्ने पर 'फ़ौज़ी' शब्द में एक नुक़्ता बेवजह डाल दिया गया है। नुक़्ता प्रयोग न करना भूल है, मगर ग़लत जगह नुक़्ता लगा देना अपराध की तरह है।
भीड़ के समूचे शोर के बीच अंडे देते वक़्त 'मुर्गियों' की कुड़कुड़ाहट की तरह कुछ औरतों के स्वर साफ़ सुने जा सकते थे। (पेज 23)
जब नुक़्ता लगाना ही है तो 'मुर्ग़ियां' भी इसकी हक़दार हैं। और अगले पैरा में 'कारख़ाना' भी।
छंटनी की पहली ख़बरों के फैलते ही वह 'कारखाने' के मैनेजर से मिलने गया था।
इसी पेज पर एक और लाइन है - 'उसी वक़्त एक सफ़ेद रंग की आधुनिक चिरोकी जीप हॉर्न बजाती हुई गेट के भीतर 'दाखिल' हुई'। यहां भी जीप को नुक़्ते के साथ 'दाख़िल' होना चाहिए था। ख़ैर...
पूरी क़िताब की बात ही छोड़ दीजिए, 21 पन्नों की इस लंबी और अनोखी कहानी में ही नुक़्ते से जुड़ी सैकड़ों ग़लतियां हैं। ध्यान दिलाना मुझे इस लिए ज़रूरी लगा क्योंकि मैंने इस क़िताब को राजधानी दिल्ली के सबसे मशहूर बुद्धिजीवियों से लेकर गांव के रेलवे स्टेशनों तक बिकते देखा है। सो, इसमें छपा हर शब्द भाषा की हर कसौटी पर माप-तौल कर बाहर आना चाहिए। वरना एक से बढ़कर एक पत्रिकाएं बिना किसी बड़े बैनर के भी शुद्ध वर्तनी के साथ छप-बिक रही हैं। यूं भी हिंदी में उर्दू और फ़ारसी के शब्दों के इस्तेमाल को लेकर कन्फ्यूज़न बहुत ज़्यादा है। अगर कन्फ्यूज़न दूर न किया जा सके तो बेहतर हो कि नुक़्ते लगाए ही न जाएं। कम से कम ग़लत जगह तो न ही लगाएं जाएं।
'नतीज़तन' (पेज 26), 'ख़ुशफहम' (पेज 28) , 'शिनाख्त' , 'फैक्टरी', 'मुसाफिरों', 'हरफनमौला', 'सख्त' (सभी पेज 29), 'तफरीह', 'तूफान', 'ज़ायकेदार' (सभी पेज 30), 'क़रतब', 'दिलक़श', 'फिकरे' (पेज 32), 'अक्स', 'ख़ुशमिजाज़ी' सिर्फ टाइपिंग की ग़लतियां नहीं कही जा सकतीं। और अगर सिर्फ टाइपिंग की ग़लतियां भी है तो मेरा ख़याल है टाइपराइटर बदल देना चाहिए।
माथे की बिंदी बाथरूम की दीवार पर चिपकी दिखे, तो न माथा ख़ूबसूरत दिखता है और न ही दीवार।
(लेखक ने हिंदी की क़िताबी पढ़ाई आठवीं में ही छोड़ दी थी। इसीलिए हिंदी को बेहतर करने के लिए ऐसी ही दो-चार क़िताबों का सहारा है। भावनाओं को समझिए।)
निखिल आनंद गिरि
अब कहानी का शीर्षक ही देखिए। मज़ाक की भी हद होती है, शिफू! जब 'ज़' वाला एक नुक्ता लग सकता है तो 'क' को तो अफसोस रह ही जाएगा ना। और फिर दो नुक़्ते लगा देने में कितनी रोशनाई ही ख़र्च हो जाती। नुक़्ते को लेकर ऐसी ग़लतियां इस लंबी कहानी में कई जगह है।
उसे काम मिला एक कारख़ाने में, जहां देखा जाए तो उसकी 'जिन्दगी' किसी किसान से बुरी नहीं थी। इस 'ख़ुशक़िस्मती' के लिए डिंग अपने समाज का शुकग्रुज़ार था...(पेज 22)
अगर ख़ुशक़िस्मती में सही-सही नुक़्ते लग सकते हैं, तो 'ज़िंदगी' से नुक़्ता क्यों ग़ायब है?
इसी पन्ने पर 'फ़ौज़ी' शब्द में एक नुक़्ता बेवजह डाल दिया गया है। नुक़्ता प्रयोग न करना भूल है, मगर ग़लत जगह नुक़्ता लगा देना अपराध की तरह है।
भीड़ के समूचे शोर के बीच अंडे देते वक़्त 'मुर्गियों' की कुड़कुड़ाहट की तरह कुछ औरतों के स्वर साफ़ सुने जा सकते थे। (पेज 23)
जब नुक़्ता लगाना ही है तो 'मुर्ग़ियां' भी इसकी हक़दार हैं। और अगले पैरा में 'कारख़ाना' भी।
छंटनी की पहली ख़बरों के फैलते ही वह 'कारखाने' के मैनेजर से मिलने गया था।
इसी पेज पर एक और लाइन है - 'उसी वक़्त एक सफ़ेद रंग की आधुनिक चिरोकी जीप हॉर्न बजाती हुई गेट के भीतर 'दाखिल' हुई'। यहां भी जीप को नुक़्ते के साथ 'दाख़िल' होना चाहिए था। ख़ैर...
पूरी क़िताब की बात ही छोड़ दीजिए, 21 पन्नों की इस लंबी और अनोखी कहानी में ही नुक़्ते से जुड़ी सैकड़ों ग़लतियां हैं। ध्यान दिलाना मुझे इस लिए ज़रूरी लगा क्योंकि मैंने इस क़िताब को राजधानी दिल्ली के सबसे मशहूर बुद्धिजीवियों से लेकर गांव के रेलवे स्टेशनों तक बिकते देखा है। सो, इसमें छपा हर शब्द भाषा की हर कसौटी पर माप-तौल कर बाहर आना चाहिए। वरना एक से बढ़कर एक पत्रिकाएं बिना किसी बड़े बैनर के भी शुद्ध वर्तनी के साथ छप-बिक रही हैं। यूं भी हिंदी में उर्दू और फ़ारसी के शब्दों के इस्तेमाल को लेकर कन्फ्यूज़न बहुत ज़्यादा है। अगर कन्फ्यूज़न दूर न किया जा सके तो बेहतर हो कि नुक़्ते लगाए ही न जाएं। कम से कम ग़लत जगह तो न ही लगाएं जाएं।
'नतीज़तन' (पेज 26), 'ख़ुशफहम' (पेज 28) , 'शिनाख्त' , 'फैक्टरी', 'मुसाफिरों', 'हरफनमौला', 'सख्त' (सभी पेज 29), 'तफरीह', 'तूफान', 'ज़ायकेदार' (सभी पेज 30), 'क़रतब', 'दिलक़श', 'फिकरे' (पेज 32), 'अक्स', 'ख़ुशमिजाज़ी' सिर्फ टाइपिंग की ग़लतियां नहीं कही जा सकतीं। और अगर सिर्फ टाइपिंग की ग़लतियां भी है तो मेरा ख़याल है टाइपराइटर बदल देना चाहिए।
माथे की बिंदी बाथरूम की दीवार पर चिपकी दिखे, तो न माथा ख़ूबसूरत दिखता है और न ही दीवार।
(लेखक ने हिंदी की क़िताबी पढ़ाई आठवीं में ही छोड़ दी थी। इसीलिए हिंदी को बेहतर करने के लिए ऐसी ही दो-चार क़िताबों का सहारा है। भावनाओं को समझिए।)
निखिल आनंद गिरि
आपका लेख देख जाना कि गलतियाँ तो अपुन भी ढ़ेर सारी करते है।
जवाब देंहटाएंकम से कम पत्र पत्रिकाओं में ऐसी गलतियां नही होनी चाहिए,,,,
जवाब देंहटाएंrecent post : समाधान समस्याओं का,
" माथे की बिंदी बाथरूम की दीवार पर चिपकी दिखे, तो न माथा ख़ूबसूरत दिखता है और न ही दीवार। " Nikhil, i liked this line so much......kya baat hai !
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंनिखिल थोड़े से नुक्ते कम होने पर इतने परेशां क्यों हो गए? जितने कम हैं उतने मैं dot dot dot लगा के पूरे कर दूं? दरअसल यह मज़ाक की बात नहीं है. कम्प्यूटर युग में कहीं नुक्ता लगाने की सुविधा रहती है कहीं नहीं. बहरहाल नुक्ते पर एक दिलचस्प बात याद आ गई. उर्दू में जुदा लिखते हैं तो बिंदी नीचे आती है और खुदा लिखते हैं तो बिंदी ऊपर आती है. बाकी अक्षर एक सा ही होता है. तो किसी ने खुदा लिखते समय गल्ती से बिंदी नीचे लगा दी. इस पर स्पेलिंग का ध्यान रखने वाले अक्सर यही कहते हैं : एक नुक्ते से खुदा से जुदा हो गए! मस्त रहा करो. नुक्ते कम हुए हैं, बिटिया की बिंदिया थोड़ेई गुम हुई हैं!
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद जी,
जवाब देंहटाएंहम तो कंप्यूटर युग के ही हैं सर..इसीलिए वो परेशानी समझते हैं...मगर, दिक्कत इस बात की है कि जहां नुक़्ते नहीं लगाने चाहिए, वहां लगे हुए हैं..अब ये तो ज़्यादती है ना...एकदम नहीं लगाते तो कोई क्यों कुछ कहता..