रविवार, 4 दिसंबर 2011

हर शरीफ आदमी को 'डर्टी पिक्चर' ज़रूर देखनी चाहिए...

क्या इत्तेफाक है कि 'रॉकस्टार' और 'द डर्टी पिक्चर' के रिलीज़ होने की तारीखें लगभग अगल-बगल थीं। रॉकस्टॉर जहां छूटती है, 'डर्टी पिक्चर' उसी दर्शन (फिलॉसफी) को ठीक से पकड़ लेती है। रॉकस्टार के जनार्दन (रणबीर) को ज्ञान मिलता है कि ज़िंदगी में रॉकस्टार बनना है, बड़ा बनना है तो दर्द पैदा करो, ट्रैजडी से ही मिलेगी कामयाबी। फिर रणबीर जैसे-तैसे एक ट्रैजडी ढूंढ पाते हैं और रॉकस्टॉर बनते हैं। इधर डर्टी पिक्चर में रेशमा (विद्या बालन) को ट्रैजडी ढूंढनी नहीं पड़ती। वो ख़ुद ही एक ट्रैजडी है क्योंकि वो एक औरत है। ग़रीब है, ख़ूबसूरत भी नहीं है और सपने बड़े हैं। रेशमा को मालूम है कि इस 'मर्दाना' समाज की जन्नत अगर है तो औरत के कपड़ों के भीतर है तो वो अपनी ट्रैजडी का जश्न कपड़े उतारकर मनाना शुरू करती है। वो फिल्मी दुनिया के सबसे बड़े सुपरस्टार(नसीरुद्दीन शाह) को साफ कहती है कि अब तक आपने 500 लड़कियों के साथ 'ट्यूनिंग' की होगी, मैं अकेली आपके साथ पांच सौ बार 'ट्यूनिंग' करने को तैयार हूं। फिर रेशमा को सिल्क बनने से कौन रोक सकता है। सिल्क यानी फिल्मी पर्दे पर 'सेक्स की देवी' जिसके दर्शन करने के लिए लोग टिकट ख़रीदते हैं और बाकी फिल्म को उसके हाल पर छोड़ जाते हैं। इंटरवल से पहले तक फिल्म एक तरह से देह का उत्सव है। बगावत का वो फॉर्मूला जो पूरी दुनिया हर दौर में अलग-अलग तरीकों से अपनाती रही है।
इंटरवल से पहले आप उस रेशमा को सिल्क बनते बार-बार देखना चाहेंगे क्योंकि वो एक गहरे दलदल में धंसकर भी कमल की तरह साफ लगती है। वो जो करती है, पूरी ठसक के साथ। मर्दानगी को मुंह चिढ़ाती हुई। जब फिल्म कहती है कि बड़े-बड़ों ने मुंह काला कर के ही नाम कमाया है, तो लगता है ये सिर्फ 80 के किसी संघर्ष की ग्लैमरस दास्तान नहीं, हर दौर का सच है। नैतिकता (MORALITY)के मुंह पर कालिख पोतती हुई फिल्म आगे बढती रहती है। नैतिकता का नारा बुलंद करते एक जुलूस का हिस्सा बनी एक औरत के हाथ में पोस्टर है CINEMA'S LOWEST LOW..और इसका इल्जाम भी एक औरत सिल्क पर! फिल्म का बेहतरीन दृश्य। ऐसे कई सीन हैं, जहां आप लंबी सांसे भरकर फिल्म को आगे बढ़ने देते हैं और यकीन मानिए वो सीन बिस्तर पर फिल्माए नहीं गए।


नसीरुद्दीन साहब जैसे बेहतरीन अभिनेता के लिए एक साधारण फिल्म में भी हमेशा कुछ न कुछ बचा ही रहता है। वो न होते तो विद्या बालन अकेले ही फिल्म की सारी वाहवाही लूट जातीं। विद्या बालन इस दौर की एक ऐसी खोज हैं जिसे हिंदी सिनेमा कई बार इस्तेमाल करना चाहेगा। क्या कमाल की एक्टिंग है। बेशक आप इंटरवल के बाद उठकर चले आइएगा, लेकिन विद्या के लिए ये फिल्म ज़रूर देखें। बिस्तर पर पड़ी सिल्क नसीरुद्दीन शाह के साथ 'ट्यूनिंग' कर रही है और अचानक दरवाज़े पर उनकी बीवी दस्तक देती है। नसीर सिल्क को छिप जाने के लिए कहते हैं। फिर बीवी अंदर आती है। फिर बाथरूम में छिपी सिल्क दरवाज़े के सुराख से झांककर देखती है कि कैसे एक मर्द तुरंत पति बन जाता है और नैतिकता (morality) भोलेपन से बिस्तर पर पड़ी रहती है। 'गंदी' सिल्क के पास अब दुनिया में वापस दाखिल होने के लिए बस एक चोर दरवाज़ा ही होता है। ख़ुद की 'असलियत' पहली बार उस छोटी सी रोशनी से साफ दिखती है और फिर आखिर तक दिखती है। उस अमीर कार के काले शीशे पर भी जब वो एक पॉर्न फिल्म से  बचते-बचाते भाग रही होती है या या फिर जब एक तरफ सिल्क के पीछे पूरा हुजूम होता है और दूसरी तरफ आधे खुले दरवाज़े पर खड़ी मां। सिल्क को भीड़ नहीं मां का प्यार चाहिए, मगर उसे मां नहीं मिलती, सिर्फ भीड़ मिलती है।
ले जाओ सब ये शोहरतें, ये भीड़, ये चमक
रोने के वक्त, हंसने की बेचारगी न हो....
इंटरवल के बाद फिल्म में इमरान हाशमी एक साफ-सुथरे कुएं में भांग की तरह हैं। पूरी फिल्म का ज़ायका ख़राब कर देते हैं। फिर अचानक आपको होश आता है कि धत तेरे की, हम एकता कपूर से किसी मास्टरपीस की उम्मीद कैसे करने लगे थे। इमरान हाशमी 'अच्छी, साफ-सुथरी' फिल्में बनाने वाले डायरेक्टर की भूमिका में वैसे ही लगते हैं जैसे कोई आपसे सरदारों वाला मज़ाक करे और आपको हंसी भी न आए। ऐसा लगता है जैसे इंटरवल के बाद और पहले की फिल्में दो अलग-अलग फिल्में हैं। जैसे फिल्म बनाने वालों को अब भी ये भरोसा नहीं था विद्या और नसीर जो जादू कर चुके हैं, उतना एक फिल्म को हिट करने के लिए काफी होगा। उन्हें अब भी विद्या से ज़्यादा इमरान पर भरोसा है। इस भरोसे से हिंदी सिनेमा जितनी जल्दी उबरेगा, हम एक मुकम्मल फिल्म की उम्मीद कर सकेंगे।

रजत अरोड़ा को आप ONCE UPON A TIME IN MUMBAI में सुन चुके हैं। डायलॉग्स का वही जादू यहां भी होलसेल में मिलता है। आप कौन सा डायलॉग अपने साथ घर लेकर जाएं, समझ नहीं आता। ''जब शराफत अपने कपड़े उतारती है तो सबसे ज़्यादा मज़ा शरीफों को ही आता है।'' हालांकि, रजत को भी अपनी अच्छी कलम पर भरोसा नहीं है, इसीलिए वो 'अगर सिल्क दुनिया की आखिरी लड़की होती, तो मैं नसबंदी करा लेता' जैसे फूहड़ डायलॉग्स का भी सहारा लेते हैं।

पता नहीं हाल की कुछ फिल्मों को क्या हो गया है। वो शुरु होते-होते बहुत ठीकठाक लगती हैं और फिर ख़ुद में ऐसे उलझ जाती हैं कि आखिरी घंटा झेलना मुश्किल हो जाता है। हम सिल्क को 'जीतते' हुए देखना ज़्यादा पसंद करते। ठीक है कि फिल्म किसी पुरानी एक्ट्रेस 'सिल्क स्मिता' की कहानी पर आधारित है जिसने आखिर में खुदकुशी ही की थी। लेकिन क्या हम फिल्म की आज़ादी का इस्तेमाल कर सिल्क को एक औरत की तरह नहीं देख सकते, जिसके लिए खुदकुशी से भी बेहतर रास्ते होते। ग्लैमर क्या हर बार ग्लानि पर ही ख़त्म होता है। क्या सचमुच ये चमचमाती रौशनियां उसी मोड़ पर ले जाकर छोड़ती है जहां सिर्फ मायूसी है और ज़िंदगी महसूसने का आखिरी मौका। सिल्क को फिल्म के ज़रिए एक बेहतर ज़िंदगी मिलती तो शायद ज़्यादा अच्छा लगता। शायद मर्लिन मुनरो, मीना कुमारी, परवीन बाबी, विवेका बाबाजी जैसी कई दर्द भरी कहानियों पर मरहम जैसा असर करतीं।

मगर नही, फिल्म बनाने के लिए जिन तीन चीज़ों की ज़रूरत है, वो ज़रूरत पूरी की जा चुकी है। और वो ज़रूरत है Entertainment, Entertainment और Entertainment। फिल्म बनाने वालों को लगता है कि सिल्क की कहानी में इतना दिमाग खुजाने की ज़रूरत ही क्या है, जब पब्लिक कहीं और खुजाना चाहती है।

निखिल आनंद गिरि

13 टिप्‍पणियां:

  1. शरीफ क्या! हमको भी देखने की इच्छा हो गई आपकी पोस्ट पढ़कर।:-)

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  2. बहुत दिनों से बहुत से चैनलों पर विद्या बालन ख़ुद को दिखा रहीं हैं।
    अब उन्हें देखने जाना है या नहीं तय नहीं कर पाए गैं।

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  3. jabardast...jo main kahna cahta tha aapne kah diya aur behtr lafzon me...sachchai ye hai ki ab hamaare paas sirf aur sirf ek hi actress bachi hai, vidya baalan...baaki sab to photos hain. is maamale me film industry gareebi rekha ke neeche hai...

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  4. अनिरुद्ध जी,
    मुझे माही गिल से भी बहुत उम्मीदें रहती हैं...

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  5. बहुत अच्छी तरह लिखा है आपने -यही पढ़ कर आनन्दित हो गया....

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  6. koi mood nahin thaa film dekhne kaa...

    ab shaayad dekhani pade....

    aapne bahut tareeke se likhaa hai nikhil bhaai...

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  7. Kitna maza aata na agar Silk wapas sangharsh karne ko taiyaar ho jati..samiksha achchi hai lekin kya isme hum ye jod sakte hain ki Silk aakhir kin cheezon ki prateek ban kar ubhari thi..

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  8. koi mood nahin thaa film dekhne kaa...

    ab shaayad dekhani pade....

    aapne bahut tareeke se likhaa hai nikhil bhaai...

    manu betakhallus

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  9. बहुत अच्छी तरह लिखा है आपने -यही पढ़ कर आनन्दित हो गया....

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  10. बहुत दिनों से बहुत से चैनलों पर विद्या बालन ख़ुद को दिखा रहीं हैं।
    अब उन्हें देखने जाना है या नहीं तय नहीं कर पाए गैं।

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  11. रोहित,
    अगर असली ज़माने के सिल्क की बात कर रहे हो तो हम उस ज़माने में थे नहीं...हां..सुनी-सुनाई बातों के आधार पर इतना कह सकते हैं कि एक दौर थआ जब मॉर्निंग शोज़ सिल्क स्मिता के नाम से ही चला करते थे...ये ठीक वैसा ही है जैसे सड़क किनारे की किताबों में कुछ 'ख़ास' किताबों के खरीदार पक्के होते हैं और उन किताबों की 'अहमियत' कम नहीं आंकी जा सकती....बाद में लुगदी साहित्य या 'स्ट्रीट लिटरेचर' उसका थोड़ा सा बेहतर रूप बनकर उभरा...तो सिल्क, सिनेमा में एक ख़ास दर्शक वर्ग के लिए सुपरस्टार थी और उसकी अहमियत कम नहीं कही जा सकती...'किन चीज़ों' का प्रतीक बनने से ज़्यादा ज़रूरी मेरे लिए ये है कि वो भी एक प्रतीक बनकर उभरी थी...और इसीलिए उसे भी पढ़ा जाना, देखा जाना ज़रूरी है...

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  12. देखि आये। मस्त है। अंत में जीतना चाहिए था सिल्क को मगर का करे ई त सच्ची घटना पर आधारित फिल्म है न..।

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