शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2025

पायल की झंकार

नंगे, दबे पाँव, धीरे से आई तेरी रहगुज़र में मैं
...उस डिबिया में बंद मैली कुचैली सी पड़ी थी मैं
जब बिटिया ने मुझे प्यार से उठाया,
सजाया खुद पर और मैं दमकने लगी

फिर हम दोनों, तेरे आलते से सजाए पाँवों से,
दौड़ते, भागते, हँसते, गाते, हाँफते,
छनछनाते घूमते रहे,
गूँज बनकर चहकते हुए 
तेरे आँगन में, कमरों में,
रसोईघर में और अनंत सी उस छत पर 

चिड़ई सी उड़ान भरते, उछलते, कूदते, फांदते , 
तुझ तक पहुंचने की जिद लिए उचकते 
..फिर बचपना छोड़ 
तेरी परिक्रमा करते...
कभी तुझे प्यार से निहारते,
कभी नोक झोंक करते,
तो कभी अपने बचपने पर 
तेरी डाँट-डपट खाते।

यह सब तेरे क़रीब आने की
तरकीब नहीं तो और क्या है

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 21 अक्टूबर 2025

अलिफ़ की तरह हूं, बिल्कुल अकेला

वो कहने को तो अनजाने बहुत हैं
मगर उनसे जुड़े अफ़साने बहुत हैं।

शहर ये नींद से जागे तो कैसे
तुम्हारे शहर में मयखाने बहुत हैं।

कभी छलकी, कभी पलकें बिछाई
तुम्हारे प्यार के पैमाने बहुत हैं।

शहर में शोर हैं, चीखें मुसलसल
हमारी छत पे वीराने बहुत हैं।

मुझे मालूम है अपनी हकीक़त 
शीशे मेरे सिरहाने बहुत हैं।

अलिफ़ की तरह, हूं बिल्कुल अकेला
शहर में यूं तो याराने बहुत हैं।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 14 अक्टूबर 2025

मैं बुरा था जब तलक ज़िंदा रहा

आईने ने जब से ठुकराया मुझे
हर कोई पुतला नज़र आया मुझे।

रौशनी ने कर दिया था बदगुमा,
शाम तक सूरज ने भरमाया मुझे।

ऊबती सुबहों के सच मालूम था,
रात भर ख़्वाबों ने बहलाया मुझे।

मैं बुरा था, जब तलक ज़िंदा रहा
' अच्छा था ' ये कहके दफ़नाया मुझे।

जब शहर के शोर ने पागल किया
खिलखिलाता चांद याद आया मुझे।

ख़्वाब टूटे, एक टुकड़ा चुभ गया
देर तक नज़्मों ने सहलाया मुझे।

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

पायल की झंकार

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