मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

कीमोथेरेपी - दस कविताएं

1. 

यह आराम कुर्सी है जहां 
न मन को आराम है, न तन को
यहां ज़हर धीमे धीमे नसों में उतरेगा
न सो सकेंगे, न जागने की इच्छा होगी
अगल बगल सब इसी कुर्सी पर आराम से
मरने की तैयारी में हैं
सारी दुनिया ने अपना बीमा करवा रखा है।

2.

यह पुराना मरीज़ है
वह नई नर्स है
उसे ढूंढने पर भी नस नहीं मिलती
वह यहां वहां सुई के सहारे
ढूंढ रही है सही जगह
उसे आदमी या बीमारी से कोई मतलब नहीं
उसे एक नस चाहिए
दवा का नाम कुछ भी हो
तकलीफ़ एक जैसी है
नर्स की मुस्कुराहट भी।

3. 

वह भली औरत है 
गांव से बीमारी लेकर आई है
कीमो या मोमो उसके लिए एक समान है
वह किसी संबंधी से पूछती है
कीमोथेरेपी को हिंदी में क्या कहते हैं
इसका जवाब किसी के पास नहीं है
यह बीमारी हमारी भाषा में
बदल जाती है एक राशि में
और इलाज एक अंतहीन उदासी में।

4. 

यहां मृत्यु की बोली लगती है -
"कुछ दिन
कुछ हफ्ते
महीने या कभी कभी एकाध साल"

डॉक्टर की आंखें सबसे झूठी आंखें हैं
वहां दिलासा है, कोई आशा नहीं।
वह बताएगा सच्ची झूठी कहानी
कि कैसे कोई मरीज़ दो हफ्ते की उम्मीद पर आया
और दो साल तक चला।

आप इस उम्मीद पर निसार होकर
अपनी दो साल पुरानी ब्याहता को
कीमो की तरफ ले चल पड़ेंगे।

5. 

सभी मरीज़ टीवी पर कोई कॉमेडी फिल्म देख रहे हैं
फिर "गुड न्यूज़" टुडे
फिर "लाइफ ओके"
यह विडंबनाओं का वेटिंग रूम है
जहां से आप अपने बाईसवें, चालीसवें या पचासवें
कीमो के लिए कतार में हैं।
शुक्र मनाइए कि अब भी संसार में हैं।

6.

सब रिश्तेदार वहां जल्दी में हैं
पार्किंग, बिल, टेस्ट, ओपीडी, सर्जरी..
कुछ देर के लिए भूलना होता है स्वजन का चेहरा
लाइन में खड़े खड़े छिपाने होते हैं आंसू

सबकी आंखें वहां भीगी हुई हैं
हाल चाल कोई नहीं पूछता
सब गीली आंखों से पूछते हैं
"कितना समय बाकी है?"

7. 

मैं एक शानदार केयरटेकर रहा
उछल उछल कर कभी इस फ्लोर
कभी उस फ्लोर
डॉक्टर के गेट पर खड़ा लड़का मेरे गांव का निकला
ओटी में फाइल ले जाने वाला जात का

हर जगह मेरी चालाकियों ने समय बचाया
हम कीमो के बाद लौटा थोड़ा और जल्दी घर
जहां चार साल की बेटी
बासी भात और चिप्स के सहारे
करती रही लौटने का इंतज़ार ।

8. 

गूगल न ग्राम देवता थे, न कुल देवता
फिर भी हर प्रार्थना
मैंने गूगल के सहारे की
कोरोना बड़ी बीमारी या कैंसर?
कौन से स्टेज तक बीमारी में उम्मीद बाक़ी?

जब देश में होगा लॉकडाउन
तब यही गूगल बताएगा
कीमोथेरेपी के लिए सुरक्षित
पहुंचने के रास्ते

फिर एक दिन गूगल ने बताया
वह जानकारी दे सकता है, जीवन नहीं।

9. 

दुनिया जब लहराते बालों में नायक ढूंढती थी
यहां तक कि सफेद दाढ़ी में भी
कवि जब लहराती जुल्फों में ढूंढते थे
प्यार की असीम संभावनाएं

कीमोथेरेपी ने सिखाया
उखड़ते नाखून, पिचकते गाल
झड़ते हुए बालों में भी सुंदर है जीवन

10. 

दुनिया कहां से कहां चली गई
सरकारें पलक झपकते बदलीं,
एक और नया कथावाचक मिला हिंदुओं को
गोलियां चली गाय के नाम पर
एक नायक की फिल्म पिट गई
मेट्रो ट्रेन भी देरी से पहुंची

समय से हुआ तो बस एक के बाद
दूसरा चक्र कीमोथेरेपी का 

आज दवा उर्फ़ ज़हर चढ़ेगा
परसों बुखार आएगा, फिर सुई लगेगी
प्लेटलेट गिरेंगे, मरीज़ भी कभी कभी
फिर आ जायेगा अगले कीमो का नंबर

दुनिया एक कीमो से दूसरी कीमो साइकिल तक
पहुंची एक अंधी सुरंग से ज़्यादा कुछ नहीं।


निखिल आनंद गिरि

रविवार, 29 दिसंबर 2024

आने लगी हैं इन दिनों हिचकियां बहुत

कोई भरे है मेरे लिए सिसकियां बहुत
आने लगी हैं इन दिनों हिचकियां बहुत

आपका ही क़द मुझे मुझसे बड़ा मिला 
वरना तो मिलता ही रही हस्तियां बहुत

जब से असल में शेर की दहाड़ देख ली
गदहे भी ले रहे हैं अब मुरकियां बहुत

वो आंसुओं की ओस में भीगते मौसम
ये तन्हा, बेसुवाद, अजब सर्दियां बहुत

ये कौन है जो शहर को वीरान कर गया
हिलती रही हवाओं से भी खिड़कियां बहुत

जोकर तो हंसाता रहा वोट मांग कर
बस्ती में कैसे उठ रही चिंगारियां बहुत


निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 28 दिसंबर 2024

दिल्ली मेट्रो - मेरा मेट्रो

मैंने अपने मीडिया के करियर में कम से कम नौ नौकरियां बदली हैं। दो साल से ज़्यादा कहीं टिक पाया तो वो संस्थान था दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन लिमिटेड। एक कार्यकर्ता के तौर पर आपने संस्थान को क्या दिया, इसे मापना हो तो आप ये देखें कि संस्थान आपके जाने के बाद भी आपको किस तरह याद करता है।

पिछले साल निजी कारणों से दिल्ली मेट्रो छोड़ने के बाद दिल्ली शहर भी छूट गया। बिहार में पटना की एक यूनिवर्सिटी में नई नौकरी शुरू हुई, जो पिछली सब नौकरियों से अलग थी। डेढ़ दो साल में एक भी दिन ऐसा नहीं आया जब मैने दिल्ली मेट्रो के वर्क कल्चर को याद न किया हो। देश के बहुत कम ऐसे संस्थान हैं, जहां पंक्चुअलिटी (समयबद्धता) एक धर्म की तरह वहां काम करने वालों की नसों में बहता हो। ये कमी मुझे बाकी सब संस्थानों में खली, बेहतरीन नेशनल ज्योग्राफिक चैनल में भी जहां शाम 6 बजे के बाद कोई न कोई मीटिंग शुरू होती थी।

दिल्ली मेट्रो में कई कार्यक्रमों का मंच संचालन करने के भरपूर मौके मिले। दुनिया के कई देशों के अतिथियों को मेट्रो घुमाने का मौका भी मिला, उनसे बहुत कुछ सीखने का भी। जब मेट्रो से नौकरी छूटी तो लगा ये सब नए सिरे से शुरू करना होगा।

इसी मेट्रो में रहते हुए पत्नी को कैंसर हुआ, तब भी मेट्रो ने मेरा भरपूर साथ दिया। पत्नी को बचाया नहीं जा सका लेकिन मेट्रो का साथ देना ज़िंदगी भर याद रहेगा। जितने स्टेशन थे, मेरे लगभग उतने घर थे। चूंकि काम बहुत व्यस्तता भरा था, तो पत्नी को डॉक्टर के पास ले जाना हो या कीमो का सेशन हो, जिसे कहा वो दोस्त की तरह सेवा में हाज़िर हो गया ।

करीब दो साल के बाद अचानक मेरे बॉस अनुज दयाल का फोन आया कि दिल्ली मेट्रो में एक दो दिनों का सांस्कृतिक कार्यक्रम है, और हमें तुम्हारे बाद कोई ढंग का एंकर नहीं मिल पा रहा जो "समां" बांध सके। जल्दी फ्लाइट लो और दिल्ली चले आओ। जितना सुख अनुज सर के बुलाने का था, उससे ज़्यादा ये कि आपका किया हुआ अच्छा काम दो साल बाद भी लोग नहीं भूलते। ये एक ऐसा एहसास था, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता था।

जब मंच संचालन को दिल्ली पहुंचा तो एक एक मेट्रो कर्मी से ऐसे प्यार मिला कि उसे बयां नहीं किया जा सकता। यह इस साल के सबसे अच्छे दो दिन थे। 
शुक्रिया दिल्ली मेट्रो। 



























निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

नन्हें नानक के लिए डायरी

जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है।

ये पोस्ट मेरे दो साल के बेटे को देखकर मन में जगी। क्या उसे याद भी रहेगा कि जैसे उसके उठने से लेकर सोने तक उसकी 70 साल की दादी उसके साथ बच्चा बनी फिरती है।

कैसे उसके 76 साल के दादा, नहीं चल पाने की तमाम मजबूरियों के बीच भी उसके साथ थोड़ी देर ज़रूर चलना चाहते हैं। 

मेरे होने को लेकर वो इतना खुश होता है कि दुआ करने का मन होता है कि उसे कभी मां की कमी खले ही नहीं। सोना, रोना, रूठना, मान जाना सब मुझ पर आकर ख़त्म हो जाता है।

पूरे घर के अकेलेपन को उसने अपनी किलकारियों से भर दिया है। वो कहता है कि कबूतर थूकता है तो हमें लगता है ये क्या पारखी नज़र से अपनी भाषा और समझ गढ़ रहा है। वो अपनी साइकिल को चलाता नहीं, उसमें खड़ा होकर सब कमरों का सफर करता है तो लगता है साइकिल चलाने का सिर यही तरीका हो सकता था।

लोई, जो उससे कम से कम आठ साल बड़ी है, उसके बाल वो इस हक़ से खींचता है कि डांटते हुए भी प्यार आता है। जब डांटा तो कहेगा अब नहीं खींचेगा,जैसे ही डर गया फिर आकर कहेगा "खींचूंगा"। परेशान लोई भी उसकी इस अदा पर हंस पड़ती है।
ये डायरी इसीलिए ज़रूरी है कि समय की आपाधापी में जब हम ये लम्हे भूलने लगें तो पलट कर देखने से लगे कि दुनिया कितनी मासूम होकर भी जी जा सकती है।


निखिल आनंद गिरि

रविवार, 1 दिसंबर 2024

राष्ट्रपति

'हम घर के लिए चुनते हैं 
पैर पोंछने की चटाई
तब भी गिन-परख कर पोंछते हैं।

ककरी ख़रीदने पर भी देखते हैं
ज़रा-सा चख कर
कोई तीतापन तो नहीं आ गया झोले में।

बेकार चीज़ों को घर से दूर
फेंक आते हैं कहीं।

नदी में जहां ज़रा-भी मैला हो पानी
हथेली से दूर कर देते हैं
उतरने से पहले।

और राष्ट्रपति ऐसे चुनते हैं 
जैसे बकरीद पर चांपने के लिए 
पालते-पोसते हों बकरी।

जैसे चुनते हों कान साफ करने के लिए
सबसे कमज़ोर लकड़ी।
सुनो जनगण सुनो'

(यहां 'राष्ट्रपति' की जगह 'वाईस चांसलर' या राज्यपाल या कोई और लाभ का पद भी पढ़ सकते हैं)


निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

डायपर

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