शुक्रवार, 23 जून 2017

ज़िंदगी को दोबारा जीने का मौका मिलता तो भी मैं शायद इसी तरह जीता। इतनी ही बेतरतीब, इतनी ही उलझन भरी। जीने का शायद यही एक अंदाज़ मुझे पता है। जिसमें तुम हो, मुझे बार-बार ठुकराती हुई। मैं हूं, खुशी-खुशी ख़ारिज होता हुआ। और कुछ जीना भी होता है क्या।
मैंने चिट्ठियां लिखनी छो़ड़ दी हैं। चिट्ठियां आती भी नहीं। उम्मीद भी नहीं आती। अब तो तुम्हारा पता भी याद नहीं। जाने कौन-से शहर में तुम्हारी रौनके होंगी। अपना तो यहीं है। एक उदास कोना किसी कमरे का। शहर-दर-शहर यहीं से देखता रहा तुम्हें। सोचता रहा। मन मसोसता रहा।
मेरी एक बेटी है। कभी-कभी गुस्से में बात नहीं करती। तो मैं उसे देखकर मुस्कुरा उठता हूं। तुम भी जब रुठती थीं तो ऐसे ही रूठती थीं। हम घंटो बात नहीं करते थे। दो भले लोगों को रूठना बहुत बुरा होता है। बहुत ही बुरा।

जैसे आजकल हालात हैं ज़िंदगी मौत से ज़्यादा दिलचस्प हो गई है। ंमैं रोना भूल गया हूं। जैसे तुम मुझे। 

निखिल आनंद गिरि

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