जिस तरह गांधीगिरी पर संजय दत्त का कॉपीराइट है, परफेक्शन वाली भूमिकाओं पर
आमिर खान का, हाथों के विस्तार से प्रेम रचने पर शाहरूख ख़ान का, उसी तरह बेसिरपैर की फिल्मों का
कॉपीराइट सिर्फ और सिर्फ सलमान खान पर है। आप दबंग देख लें, दबंग-2 देख लें या कोई
भी सलमान की फिल्म, बंदे को यक़ीन है कि फिल्म में कहानी का लेवल गिरता जाएगा और
दर्शक झक मार कर आते रहेंगे।
तो इस तरह ‘ट्यूबलाइट’
सलमान के यक़ीन की फिल्म है, जिसे इस बार ईद तो क्या नरेंद्र मोदी
भी फ्लॉप होने से नहीं बचा पाएंगे, ऐसा मेरा यक़ीन है। फ्लॉप-हिट तो ख़ैर अपनी जगह
है, फिल्म में बेवकूफी का भी एक लॉजिक होता है, जो सलमान की फिल्मों में नहीं है।
अच्छा हुआ कि वो इस फिल्म के प्रोड्यूसर ही बने, निर्देशक नहीं वरना एकाध अच्छे
गाने और सुंदर कैमरा भी दर्शकों को नसीब नहीं होता।
फिल्म की कहानी कुछ नहीं है। आप सलमान को देखने जा रहे हैं और आधे घंटे में ही
फिल्म में शाहरूख खान नज़र आने लगते हैं। फिर
शाहरूख एक बोतल को लेकर अटक जाते हैं कि सलमान की फिल्म है तो वो इस बोतल को भी
नचा सकता है। जब तक बोतल नहीं नाचती, शाहरूख फिल्म से जाते ही नहीं। फिल्म में
गांधीजी भी आ जाते हैं। वो फिल्म से अंत तक नहीं जाते। सलमान ने उनकी कही बातों की
चिट बना ली है और वो गांधी जी के नाम पर दर्शकों के साथ वही करता है जो देश की हर
बड़ी हस्ती आम लोगों के साथ करती आई है। गांधी के नाम पर उल्लू बनाने के क्रम में सलमान
ख़ान इतनी बार ‘भारत माता की जय’ चिल्लाता है कि दोबारा भी अगर हिरण को मारने का मुकदमा चले तो वो
बाइज्ज़त बरी कर दिया जाए।
अब आते हैं फिल्म की बची-खुची कहानी पर। 1962 के दौरान भारत-चीन के बीच जंग में कुमाऊं के एक पहाड़ी गांव से
भरत सिंह बिष्ट सेना में शामिल होकर लड़ने जाता है। उसका भाई, यानी सलमान खान, जो
दिमाग से थोड़ा कमज़ोर है, अपने भाई के लौटने का इंतज़ार करता है। इस बीच एक चीनी
मूल के मां-बेटे उसी गांव में रहने आ जाते हैं। सलमान को उनमें दुश्मन दिखते हैं,
मगर ओम पुरी गांधी के पक्के चेले हैं, सो सलमान को ‘चीनी
दुश्मन’ में भी दोस्त देखने पर यक़ीन करवाते हैं। यहां पर
मुझे जितेंद्र की एक फिल्म ‘हातिमताई’ याद
आती है, जिसमें राजकुमार हातिम सात सवालों की खोज में निकलता है और एक-एक सवाल को
डीकोड करते हुए एक परी को मुक्त करता जाता है। यहां सलमान वो ‘ट्यूबलाइट’ हातिम है और गांधी जी के वचन को डीकोड
करता जाता है।
‘FAITH
MOVES MOUNTAINS’ जैसी कहावत की बत्ती बनाती हुई सलमान की इस फिल्म
में दिखाया गया है कि अगर कुंग फू वाले पोज़ में कोई पहाड़ों की तरफ घूर कर देखता
रहे तो भूकंप भी ला सकता है। और तो और पूरब दिशा की तरफ इसी पोज़ में देखते रहने
की वजह ही भारत-चीन की जंग भी ख़त्म हुई थी। यक़ीन न हो तो 1962 के दैनिक जागरण का
कुमाऊं संस्करण देख लीजिए। मुझे यकीन है इसी दैनिक जागरण में ख़बर छपेगी कि एक दिन
किसी हिंदू हृदय सम्राट ने सलमान वाले पोज़ में संसद की छत पर खड़े होकर भारत को
हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया है।
सलमान खान जब फिल्म के अंत में एक भावुक सीन में रोते हैं तो इस नादान दर्शक
को भी रोना आता है। मगर वो खुशी के आंसू हैं कि जैसे-तैसे ये फिल्म ख़त्म तो हुई। मुझे
यक़ीन है कि इसी फिल्म में काम करने की वजह से ओम पुरी को दिल का दौरा पड़ा और वो
फिल्मी ही नहीं पूरी दुनिया को छोड़ गए।
अंत में मैं उस प्रोमोकोड का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं जिसकी वजह से इस
फिल्म को देखने के लिए कम पैसे देने पड़े।
निखिल आनंद गिरि
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