दिल्ली मेट्रो में वैशाली स्टेशन से लेकर द्वारका या द्वारका से नोएडा सिटी सेंटर स्टेशन तक का सफर कर लिया तो समझिए मिनी-भारत यात्रा कर ली। पर्यटकों के लिए चार्टर्ड बसों में यही यात्रा ज़्यादा पैसे देकर होती है, मेट्रो में 20-25 रुपये में। वैशाली से जब मेट्रो खुलती है (दिल्ली में ट्रेन 'खुलती' है बोलिए तो लोग समझ जाते हैं कि सामने वाला बिहार से है, यहां ट्रेन चलती है !) तो लगता है बिहार से चली है। झोरा, (झोला) बोरा, पेटी बक्सा, कार्टून सब के साथ पैसेंजर चढ़ता है। ठसाठस।
चारों तरफ फोन बजता रहता है।
रिंगटोन 1 - चाल चले ली मतवाली बगलवाली....
आवाज़ एकदम तेज़, पूरी बोगी मुड़कर देखने लगती है तो रिंगटोन को साइलेंट पर लेकर नंबर देखा जाता है, फिर बात शुरू....
'हां, पहुंच गेली' ,
'टाइमे से पहुंचा दिया ट्रेन'
'आवाज झरझरा रहा है, पहुंच के फोन करइछी....'
'पहुंच के फोन करते हैं फेरु...'
रिंगटोन 2- शुरू हो रही है प्रेम कहानी..
फिर शोर की हद तक गाना बजता है। सुबह-सुबह आधी नींद में बैठे यात्री अचानक रिंगटोन को घूरने लगते हैं। रिंगटोन अचानक चुप हो जाती है।
फिर एक 'बिग बॉस' नुमा आवाज़ गूंजती है...
''मेट्रो में अनजान लोगों से दोस्ती न करें.....'
मैं अपने पर्स पर हाथ डालता हूं, देखता हूं वो सही जगह पर ही है। मुझे सुकून होता है। सब एक-दूसरे को शक की निगाह से देखते हैं, संतुष्ट होते हैं। मेट्रो तुम कितनी अच्छी हो। शिष्टाचार से लेकर अच्छे-बुरे की पहचान का सारा ठेका तुम्हारा है। तुमने हमें दान करना सिखाया है। रक्तदान, जीवनदान, ये दान, वो दान के बाद अब 'सीट' दान। कहीं लिखा नहीं मगर हम जानते हैं..ज़रूरतमंद की सहायता करना हमारा धर्म है। .सीट देकर पुण्य के भागी बनें । बूढ़ी निगाहें युवा आंखों में झांककर कहती हैं 'तुम हमें सीट दो, हम तुम्हें थैंक्यू कहेगे'...ओह मेरी मेट्रो, तुम कितनी अच्छी हो।
मेट्रो से नीचे एक अलग ही दुनिया दिखती है। सड़कों पर कारों का मैराथन जैसा दिखता है। सामने एक सरकारी स्कूल भी है, बच्चे खेल रहे हैं। कल ये बच्चे इन्हीं कारों में आ जाएंगे। फिर इनके बच्चे इन स्कूलों में नहीं जाएंगे। मेट्रो के भीतर भी बच्चे खेल रहे हैं। मेट्रो की डंडी पकड़कर से गोल-गोल घूंम रहे हैं। बच्चों के चेहरे बदल जाते हैं, मगर वो घूमते एक ही तरह से हैं। एक बड़़ी-सी होटलनुमा बिल्डिंग दिखती है। फिर सामने उतना ही बड़ा नाला। नाले में बिल्डिंग ख़ूबसूरत लगती है। मेट्रो चली जाती है। पहला डिब्बा लेडीज़ का है। दूसरा डिब्बा भी लेडीज़ एक्सटेंशन बना हुआ है। कोई विरोध नहीं है। सब मज़े में हैं।
राजीव चौक से द्वारका की तरफ आते-आते मेट्रो का बिहार 'पंजाब' में तब्दील होने लगता है।
अगला स्टेशन शादीपुर है...कृपया सावधानी से उतरें। ये शादीपुर स्टेशन सचमुच डरावना लगता है।यहां कितनी शादियां होती होंगी, सोचता हूं। बड़ा मजबूर, लटका हुआ सा स्टेशन होगा ये शादीपुर। मुझे इस स्टेशन पर नहीं उतरना। मेट्रो, काश तुम असल ज़िंदगी में भी ऐसे ही सावधान कर पातीं।
फिर कीर्तिनगर, मोतीनगर, रमेशनगर। कोई रमेश नाम का आम आदमी यहां रहता होगा, जिसे मेट्रो ने सेलिब्रिटी बना दिया है। फिर जनकपुरी से लेकर सेक्टरमय द्वारका सब एक ही ट्रिप में दर्शन देते हैं। 'वैशाली' से खुलकर ट्रेन 'नवादा' पहुंच गई है। घूम-घूमकर बिहार, पंजाब सब दिखते हैं मेट्रो में, बस दिल्ली नहीं दिखती। ये दिल्ली अभी बहुत दूर है। कहीं खो गई है मेट्रो की भीड़ में। जैसे सौ साल की कोई बुढ़िया मेले में खो जाती होगी। 'बिग बॉस' , तुमने इस बुढ़िया को सावधान नहीं किया था क्या....
निखिल आनंद गिरि
ek baar raajev chaouk se gurgaon chale aao metro se dilli mil jaayegi ...poore style ke saath
जवाब देंहटाएंहम तो वैशाली को जानते हैं... जिसका नाम जितनी बार बोला जाता है... बुद्ध के वैशाली की याद आती है.. सरसों से पेट हरे पीले खेत याद आते हैं.. और इनके बीच भावनाओं का अतिक्रमण करती जापान सरकार के पैसो से बनी काली सड़क.... यह मेट्रो भी जापान सरकार की मदद से बन रही है....
जवाब देंहटाएंसोनल जी ,
जवाब देंहटाएंआप कभी उस रूट पर बुलाती ही नहीं...
हम तो वैशाली को जानते हैं... जिसका नाम जितनी बार बोला जाता है... बुद्ध के वैशाली की याद आती है.. सरसों से पेट हरे पीले खेत याद आते हैं.. और इनके बीच भावनाओं का अतिक्रमण करती जापान सरकार के पैसो से बनी काली सड़क.... यह मेट्रो भी जापान सरकार की मदद से बन रही है....
जवाब देंहटाएंकल 16/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
अच्छा गद्य लिखते हैं आप। कविता की तरह।
जवाब देंहटाएंमेट्रो, काश तुम असल ज़िंदगी में भी ऐसे ही सावधान कर पातीं। .... उफ़्फ़.... टीस......
जवाब देंहटाएंकल ये बच्चे इन्हीं कारों में आ जाएंगे। फिर इनके बच्चे इन स्कूलों में नहीं जाएंगे। ... सच्चाई... दर्दीली सच्चाई
वैसे हम थोड़ा कन्फ़्य़ुजिया गए हैं ,क्या सच में "वैशाली" और "नवादा" नाम के स्टॆशन हैं दिल्ली में?
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जवाब देंहटाएंहै और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे ,
जवाब देंहटाएंकहते है कि निखिल का है अंदाज़-ऐ-बयां और।
बेहद खूबसूरत रचना, मेट्रो का personification लाजवाब है..
मेट्रो, काश तुम असल ज़िंदगी में भी ऐसे ही सावधान कर पातीं। .... उफ़्फ़.... टीस......
जवाब देंहटाएंकल ये बच्चे इन्हीं कारों में आ जाएंगे। फिर इनके बच्चे इन स्कूलों में नहीं जाएंगे। ... सच्चाई... दर्दीली सच्चाई
वैसे हम थोड़ा कन्फ़्य़ुजिया गए हैं ,क्या सच में "वैशाली" और "नवादा" नाम के स्टॆशन हैं दिल्ली में?
वीडी भाई,
जवाब देंहटाएंअगली बार आइए दिल्ली तब घुमाएंगे आपको वैशाली से लेकर नवादा सब...'गुड़'गांव भी, जहां गुड़ कहीं नहीं मिलता...:)
बहुत रोचक प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंसुन्दर रुचिकर लेखन...
जवाब देंहटाएंसादर बधाई...
अत्यंत ही रोचक सस्मरण ..बहुत खूब...शुभ कामनाएं
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लेख ..पड़ने मे आनंद आया
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