रविवार, 2 मार्च 2014

बहुरूपिये पिताओं के बारे में

उम्र के उस किनारे
किसी विशाल और सजीव मूरत की तरह
खड़ा है जैसे कोई सदियों से।
मैं समंदर की तरह बहता हूं
और पांव छूकर लौट आता हूं।
पूछूंगा कभी उन पांवों से
भीतर तक महसूस हुआ कि नहीं।

सबसे अधिक बातें करना चाहता हूं पिता से
असंख्य तारों से भी ज़्यादा
उन-उन भाषाओं में जो गढ़ी नहीं गईं
उन लिपियों में जिनका नाम तक नहीं मालूम
ऐसे ही संभव हैं कुछ बातें
तुम्हारी आंखों में धंसे दुख के बारे में
जो उतर आता है मेरी नसों में भी
बिना किसी मुहूर्त के
मेरे माथे पर उग आती हैं
तुम्हारे चेहरे की सब झुर्रियां।


मिलना चाहता हूं उन सब पिताओं से

जो दिखते हैं मुझमें
प्रेमिकाओं की आंखों से।
मैं पिता से प्रेमिकाओं की तरह मिलना चाहता हूं
देवताओं की तरह नहीं।

गले में कसकर हाथ डाले
बीच सड़क पर किसी नई फिल्म का
गाना गाते, भूलते बीच-बीच में।
सर्दियों में ज़बरदस्ती आइसक्रीम खिलाते
सबसे असभ्य गालियां बकते
सबसे सभ्य दिखते लोगों को
झट खड़े हो जाते मेट्रो में
किसी पिता जैसे चेहरे को देखकर
उम्र के सब मचान लांघते
तुम्हारे बेहद क़रीब आना चाहता हूं।

तुम्हारी बांहों में मछलियां नहीं हैं
फिर कैसे लड़ लेते हो हम सबके लिए
तुम्हारी आंखों में पावर वाला चश्मा है
फिर कैसे देख लेते हो सबसे दूर तक
तुम कोई बहुरूपिए हो पिता
एक सच्चे मिथक की तरह
तुम शक्तिपुंज हो पिता मेरे लिए

किसी मैग्निफआइंग लेंस के सहारे
सहेज लूंगा तुम्हारी सब ऊर्जा
जो एक दिन जला देगी देखना
संसार के सब दुख, छल और नकलीपन।

निखिल आनंद गिरि
(पिता के जन्मदिन पर..
)

शनिवार, 1 मार्च 2014

नकली इंद्रधनुष

अगर बाज़ार सचमुच आपकी जेब में है..
हमारे कमरे में थोड़ी घास भर दीजिए...
कि हमें सोना है आकाश तले..
हम अपनी प्रेमिकाओं संग मुस्कुराएंगे
उस नकली घास पर लेटकर
और ज़मीनें बिक जाने का दुख भूल जाएंगे

बस ज़रा और इंतज़ार कीजिए
हम आते हैं डिग्रियां ही डिग्रियां लेकर
आपको मालामाल कर देंगे एक दिन
बारह घंटे धूप में बैठकर
और अपने प्रेम छुपा लेंगे कहीं

हम छुपा लेंगे आपकी ख़ातिर,
तमाम सिलवटें बिस्तर की
आखिरी चुंबन छिपा लेंगे कहीं..
कोई तोहफा जो ख़रीदा ही नहीं

इस बोनस में ख़रीदेंगे तोहफे
मंदी से ठीक पहले
छंटनी से ठीक पहले
किसी डिब्बे मे लपेटकर दीजिए दिलासे
हम सौंपेंगे अपनी पीढियों को..

उन्हें नहीं बताएंगे कभी भगवान कसम,
कि जिन्हें टिमटिम करता देख
तुतलाते रहे वो उम्र भर
और गाते रहे कोई किताबी धुन

वो दरअसल तारे नहीं बारूद हैं
फट पड़ेंगे किसी रोज़
वैज्ञानिकों की मोहब्बत में.

किसी फीके धमाके में उड़ जाएं पीढ़ियां
इससे पहले हमें सौंपने हैं उन्हें आसमान
नकली इंद्रधनुषों वाले..
('दूसरी परंपरा' पत्रिका में प्रकाशित)

निखिल आनंद गिरि


गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

दुनिया अब रात-रात लगती है..

जो उन्हें क़ायनात लगती है,
मुझको तो वाहियात लगती है।
आपको चांद इश्क लगता है
हमको उसकी बिसात लगती है।
हमसे इक ज़िंदगी भी जी न गई,
आपको दाल-भात लगती है।


हम भी आंखों में ख़ुदा रखते थे,
अब तो बीती-सी बात लगती है।

एक ही रात लुट गया सब कुछ,,
दुनिया अब रात-रात लगती है।
उनके नारों में इनकलाब नहीं,
जलसे वाली जमात लगती है।

आप कहते हैं डेमोक्रेसी है,
हमको चमचों की जात लगती है।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

नई पीढ़ी



हम पूर्णविराम के बाद अपनी बात शुरू करेंगे

चुटकुलों में कहेंगे सबसे गंभीर बातें,

एक कटिंग चाय के सहारे

हमें सुनने का हुनर ख़रीद लीजिए कहीं से।

 

हम कहेंगे कद्दू

तो आप समझ लीजिएगा

यह भी व्यवस्था के लिए एक लोकतांत्रिक मुहावरा है।

हम कहेंगे सियारों की राजधानी है कहीं

जंगल से बहुत दूर।

जहां लोग हेडफोन लगाते हैं,

मूंछें मुंडवाते हैं

और हुआं-हुआं करते हैं।

 

सिगरेट के धुएं में उड़ती फिक्र पढ़िए हमारी,

हमारी प्रेमिकाओं से बातें कीजिए थोड़ी देर

अंग्रेज़ी को हिंदी की तरह समझिए।

 

सत्ता सिर्फ आपको नहीं कचोटती,

मेट्रो की पीली लाइन के उस तरफ अनुशासित खड़ी हैं कुछ गालियां

उन्हें दरवाज़े के भीतर लाद नहीं पाए हम।

 

आपको ऐतराज़ है कि हमारे सपने रंगीन हैं,

मगर सच हो जाते हैं यूं भी सपने कभी।

ये मज़ाक में ही कही थी सपने वाली बात

कि संविधान की किताब को कुतरने लगे हैं चूहे

और खालीपन आ गया है कहीं।

 

जहां-जहां खालीपन है,

वहां संभावना थी कभी

संभावनाएं होती हैं खालीपन में भी,

देखिए कौन कर रहा हत्याएं

संभावनाओं की।
(यह कविता 'आउटलुक' के फरवरी 2014 अंक में प्रकाशित हुई है)
निखिल आनंद गिरि

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

अपने सम्मान की रक्षा स्वयं करें

उत्तर प्रदेश की पुलिस कमाल की है। आज़म खान की सात भैंसे खो गईं तो पूरा पुलिस डिपार्टमेंट ऐसे सक्रिय हो गया जैसे मुलायम सिंह सपरिवार खो गए हैं। यूपी पुलिस को इतना चौकन्ना पहले कम ही देखा सुना है। टी.वी., रेडियो के दौर में भैंस भी प्रोग्रामिंग के लिए कितना ज़रूरी हो सकती हैं, ये आज़म खान की भैंसो ने ही समझाया। ब्रेकिंग न्यूज़ में भैंसें, स्पेशल रिपोर्ट में भैंसें। टी.वी., फेसबुक स्पेस पर क्रांति मचा चुकी आम आदमी (पार्टी) को सबसे बड़ी चुनौती किसी मोदी या राहुल से नहीं भैंसों से ही मिल रही है। गंठबंधन के दौर में कोई भरोसा नहीं कि कोई चैनल ये ख़बर ब्रेक कर डाले कि आजम खान की सात भैंसे मफलर ओढ़कर आम आदमी पार्टी ज्वाइन करने जा रही हैं।
बात घूम-फिरकर आम आदमी पार्टी आ ही जाती है। वो हर काम में नमक की तरह मौजूद हो गई है। बिन्नी जैसों को नमक थोड़ा स्वादानुसार नहीं लगता तो वो आम आदमी पार्टी के भीतर ही कोहराम मचाने पर तुले हुए हैँ। कोई भरोसा नहीं कि अपनी नौटंकी, नाराज़गी और धरने को मज़बूती देने के लिए वो अचानक दो भैंसों को तोड़कर अपनी ओर मिला लें और प्रेस कांफ्रेंस कर डालें। इस पूरे दौर में किसी का कोई भरोसा नहीं। अंग्रेज़ी चैनल अचानक हिंदी बोलने-समझने लगे हैं और हिंदी चैनल हिंदी समाज के बजाय हिंदी समाज की गाय-भैंसों पर ब्रेकिंग चलाने लगे हैं। क्या करें, राहुल गांधी पहला इंटरव्यू देने के लिए अंग्रेज़ी चैनल के अर्णब गोस्वामी को चुनते हैं तो हिंदी वालों को ही गाय-भैंसों से ही काम चलाना पड़ेगा। वैसे, राहुल अपना पहला इंटरव्यू किसी हिंदी चैनल को देते तो उनका ज़्यादा फायदा होता। आम आदमी का साथ हिंदी चैनलों के साथ है, जिसके राजकुमार बनने का सपना राहुल देखते हैं। ट्विटर और फेसबुक की बकैती के ज़रिए कुछ लोकसभा सीटें जीती जा सकती हैं, पीएम की कुर्सी नहीं मिल सकती।
मोदी एक गुब्बारे की तरह फूले-फैले जा रहे हैं। ऐसा लगता है एक ही तरह का भाषण कई-कई जगहों से सुनाई देता है। जगह का नाम बदल दीजिए तो हर जगह एक ही बात। मैं, मैं, विकास, गुजरात, मैडम सोनिया जी, शहज़ादा और चायवाला। इतनी भाषणबाज़ी उनके लिए कहीं से अच्छी नहीं है। जिस तरह उनके विरोधी गोधरा से आगे नहीं जा पाते, वैसे ही मोदी अपनी ही तारीफ से आगे नहीं निकल पाते। उनका बस चले तो ख़ुद को ही भारत रत्न दे डालें।
डेमोक्रेसी में सब अच्छे हैं तो बुरा कौन है। शायद 19 साल का नीडो जिसे लाजपतनगर में दिल्ली ने पीट-पीट कर मार डाला? सिर्फ इसीलिए कि उसके बालों पर मज़ाक बना और फिर उसने उनका विरोध किया। नीडो कोई पहला बाहरी नहीं है जिसे ये सब झेलना पड़ा है। मैं भी रोज़ झेलता हूं। नीडो जिस दिन मरा, उसी दिन मेट्रो में तीन-चार दिल्ली वाले एक प्रेमी जोड़े को लगातार घूरे जा रहे थे। भद्दे ताने दे रहे थे, गंदे गाने गा रहे थे। ताज्जुब ये था कि मज़ाक उड़ाने वाले लफंगों के साथ उनके परिवार की महिलाएं भी थीं। फिर भी जितना लफंगों को मज़ा आ रहा था, उतना ही उनके घर की लड़कियां भी हंस रही थीं। उनकी हिम्मत बढ़ती रही फिर वो अपने आसपास सबको घूरने लगे। मुझे भी घूरना शुरू किया तो मैं भी उनकी आंखों में उन्हीं की तरह घूरने लगा। लगातार बिना पलक झुकाए। तब जाकर वो नरम पड़े। कोशिश करूंगा कि दिल्ली में हर रोज़ नीडो की मौत का इसी तरह बदला लूं। जिन्हें सिर्फ हंसना और आंखों से घूरना आता है, उन्हें भी उतना ही घूरूं और हंसता रहूं उन पर।
आपको भी जब, जहां मौका मिले, विरोध ज़रूर जताएं। यही नीडो जैसे तमाम शहीदों को श्रद्धांजलि होगी। पुलिस और सिस्टम जब तक नवाबों की भैंसे ढूंढने में लगा है, हमें अपने रास्ते खुद ही ढ़ूंढने होंगे। अपने सम्मान की रक्षा ख़ुद ही करनी होगी।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 25 जनवरी 2014

ये मुल्क 'मॉकरी' है..छब्बीस जनवरी है..

छब्बीस जनवरी है..
छब्बीस जनवरी है..

कहीं मूंछ की लड़ाई,
कहीं भेड़िया है भाई,
दुबकी-सी गिलहरी है..
छब्बीस जनवरी है..

सच मारता है फांकी,
ये राजपथ की झांकी,
बस झूठ से भरी है..
छब्बीस जनवरी है..

हर सिम्त मातमपुर्सी,
फिर भी उन्हें है कुर्सी,
अपने लिए दरी है..
छब्बीस जनवरी है..

दाता मुझे बचा ले
मौला मुझे बचा ले..
इतनी पुलिस खड़ी है,
छब्बीस जनवरी है..

छप्पन किसी की छाती,
कोई नेहरू के नाती,
बापू की किरकिरी है..
छब्बीस जनवरी है..

सब 'आम' हो खड़े हैं..
बहुरूपिये बड़े हैं..
वोटों की लॉटरी है..
छब्बीस जनवरी है..

आए अगस्त जब तक,
सब मस्त फिर से तब तक,
ये मुल्क 'मॉकरी' है..
छब्बीस जनवरी है..
छब्बीस जनवरी है..

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 12 जनवरी 2014

नसरीन उर्फ लड़की, समय उर्फ तेज़ाब..

ज़रूरी नहीं कि हर वो बात या किस्सा जो आप लिखना चाहें, आप ही लिखें..प्रेम भारद्वाज ने एक लेख पाखी के संपादकीय के लिए लिखा, उसी का एक हिस्सा ये कहानी है जो आपबीती के पाठकों के लिए शेयर कर रहा हूं..पढ़िए और महसूस कीजिए इस समय को जो हमारे चेहरे पर तेज़ाब डालने को बेताब है..ये एक सच्ची घटना है..

नसरीन नाम किसने रखा, ठीक से नहीं मालूम, मगर जब होश संभाला तो पाया कि लोग मुझे इसी नाम से पुकारते हैं। होश संभालने पर मैं इस हकीकत से वाकिफ हुई कि जो मेरे अब्बा-अम्मी हैं, उन्होंने मुझे जन्मा नहीं। जब तीन साल की थी तब मुझे गोद लिया गया। जिन्होंने गोद लिया वे कुरैशी हैं। जामा मस्जिद के पास की तंग गलियों के बाशिंदे। अब्बा प्यार करते थे, मगर अम्मी...। वे हर बात पर मारतीं... इसलिए कि वह अपने रिश्तेदारों में से किसी को गोद लेना चाहती थीं... अब्बा नहीं माने थे... अम्मी मेरे लंबे बालों की खींचकर मारतीं...। अंधेरे कमरे में बंद कर देतीं...मुझे मारने के लिए अलग-अलग साइज की छड़ियां थीं... गलती के हिसाब से छडि़यों का चुनाव होता, पिटाई के वास्ते। अम्मी के छूते ही मैं दहशत से भर जाती... हड्डियों को कंपा देने वाली सिहरन होती। थोड़ी बड़ी हुई तो पहला एहसास यह हुआ कि मुझ जैसे बदनसीबों के सितम भी उम्र के साथ बड़े हो जाते हैं। जब 12-13 साल की थी तब किसी न की गई गलती पर अम्मी ने मुझे नंगी कर घर से घंटा भर के लिए बाहर कर दिया था। 15-16 साल के होते ही शादी की बात होने लगी... मौसी के बेटे का रिश्ता आया जिसके साथ शादी करने से मैंने मना कर दिया। ऐसा करने के लिए मौसी के बेटे ने ही मुझसे कहा था। इससे नाराज होकर अम्मी ने बहुत मारा। दुःखी होकर मैंने खुदकुशी की कोशिश की, लेकिन खुदा के दरवाजे मेरे लिए बंद थे। सत्रह साल की उम्र में एक रंगाई-पुताई करने वाले आदमी के साथ मेरा निकाह कर दिया गया।

शादी के बाद शौहर मेरे जिस्म का मालिक था... मालिक ने जिस्म को रौंदा। कोख में उसने बीज बोए। दो बेटियों की शक्ल में फसल भी काटी। औरत का अपना जिस्म, अपनी कोख, उससे जन्मने वाली औलाद अपनी कहां होती है। वह तो जमीन होती है-- कभी उपजाऊ, कभी ऊसर, कभी लावारिस, कभी सरकारी। जमीन की खुद पर मिल्कियत कहां, वह हमेशा ही दूसरों के लिए खोदी जाती है, उस पर फसलें उगाईं और काटी जाती हैं, खरीदी और बेची जाती हैं। इस जमीन की अच्छी फसल बेटा माना जाता है, जो नगदी होता है। इस नगदी फसल की हसरत में शौहर ने बीज फिर बोया। मगर कुछ गड़बड़ी हो गई। मैं दर्द से सारी रात छटपटाती रही... वह बगल में लेटा मेरे दर्द को ड्रामेबाजी बता औरत को रुसवा करता रहा। अगले दिन खुद ही अस्पताल गई। अबोर्सन या मिसकैरिज हो गया था। मां के पास पहुंची। जवाब मिला, अब हम कुछ नहीं जानते, तुम जानो। मैं अब शौहर के पास लौटना नहीं चाहती थी। बेटियां भी उसी के पास थीं। एक पार्क की बेंच पर बैठी घंटों रोती रही। चुप कराने वाला कोई भी नहीं था। बहते आंसुओं के बीच संकल्प लिया कि चाहे जो हो जाए उस नर्क में नहीं लौटना है, वहां पल-पल मरने से बेहतर है खुद को खड़ा करने की कोशिश में मिट जाऊं।

एक कमरा लिया। वह बार-बार लौटने के लिए कहता रहा। मैंने मना कर दिया। अपने पैरों पर खड़े होने को शौहर ने मेरी गुस्ताखी समझा। उसने तलाक ले लिया। मुझे मेरी बेटियां भी छीन लीं। छह महीने बाद उसने फोन किया कि बेटियां याद कर रही हैं। मैं खुद भी बेटियों से मिलना चाहती थी। हम दिल्ली के इंद्रप्रस्थ पार्क में मिले। वह उन्नीस जून 2007 का एक गर्म दिन था जो मेरी जिंदगी में सबसे भयानक और दर्दनाक मोड़ लाने वाला था। उसने फिर वापस लौटने की जिद की, पर फिर मेरा इंकार। मैं बेटियों के साथ खुश थी कि तभी मौका पाकर उसने पीछे से मेरे चेहरे पर तेजाब फेंक दिया। मैं दर्द से चीखने-चिल्लाने लगी। लोग मदद को आगे बढ़े। वह भाग गया। पुलिस आई। मेरे बदन का मांस गल रहा था। चेहरा, कंधा, पीठ, सीना, पेट, कमर... सब खदबद हो रहा था। उस दर्द को बयान करने के लिए अल्फाज नहीं हैं मेरे पास। मुझे सफदरजंग ले जाया गया... अस्पताल ने भर्ती करने से इंकार कर दिया। उसी हाल में रिश्तेदारों, मां, बुआ, मौसी सबके पास मदद के लिए गई। सबने दरवाजे बंद कर लिए। तीन दिनों तक अकेली पड़ी जलती और गलती रही। जहां-जहां तेजाब पड़ा था वहां से धुआं उठ रहा था। मोहल्ले के कई दरवाजों पर भी दस्तक दी। कोई दरवाजा नहीं खुला? गली में एक बड़े आदमी थे। उनके पास एक पुराना खंडहरनुमा मकान खाली था जिसमें हड्डी का चूर्ण बनाने का कारोबार था। उन्होंने रहम किया और तीसरी मंजिल पर रहने की इजाजत दे दी। जहां मैंने पनाह पाई... वहां न कोई दरवाजा था... न बल्ब, न रोशनी, न बिस्तर, न मैं सो पा रही थी... न सोच पा रही थी...। उस खंडहर में पड़ी रही। मेरे बदन से मवाद तीन महीने तक बहता रहा था। घाव फैल रहे थे। तीखी दुर्गंध। कोई पास नहीं। आना भी नहीं चाहता था। यहां तक कि जख्म वाले हिस्से में चींटियां रेंगने लगी थीं। मैं अपने ही जिस्म पर रेंगने वाली चींटियां को बहुत गौर से देखती रही। वे चींटियां मुझे खाती थीं। तब मैं कुछ भी नहीं सोच पा रही थी... न जिंदा रहने के बारे में, न मरने के बारे में। और न उस खुदा के बारे में ही जिसने हमें बनाया और हमारी तकदीर लिखी। कभी कोई कुछ खाने को दे जाता, कभी कई दिनों तक भूखी रहती। एक दिन उस खंडहर से भी मुझे जाने का हुक्म मिला क्योंकि उस खंडहर को तोड़कर नया मकान बनाया जाना था। कहां जाती? कुछ समझ में नहीं आया तो जामा मस्जिद चली गई। फकीरों की पंक्ति में बैठी इमाम बुखारी साहब से मिलने का इंतजार करती रही, मदद की उम्मीद में। महीनों मैंने उनसे मिलने की कोशिश की, मगर नहीं मिल पाई। एक दिन उनकी सुरक्षा में खड़े पुलिस वाले से कहा कि अगर आज नहीं मिले तो खुदकुशी कर लूंगी। तब जाकर बुखारी साहब से मिलवाया गया। उन्होंने मेरी मदद की और मेरा इलाज शुरू हो गया। इसी बीच बिहार का एक गुंडा टाइप का लड़का मेरी मदद के लिए आगे बढ़ा। मगर जल्द ही मुझे समझ आ गया कि वह बाकी बचे हुए जिस्म को हासिल करना चाहता था। कमरा मुझे छोड़ना पड़ा। फिर एक आंटी के यहां शरण। वहां भी वह लड़का पहुंच गया। उसे मेरा बाकी बचा हुआ जिस्म चाहिए था। उसने गले हुए जिस्म के इलाज में इसलिए मदद की थी कि ताकि बाकी बचे जिस्म को गिद्ध की तरह खा सके। एक दिन वहां से भी भगा दी गई। इसके बाद एक 75 साल के बुजुर्ग ने पनाह दी। वे फुटपाथ पर ताबीज वगैरह बेचते थे। वे मुझे बाहर से ताला लगाकर जाते थे। मैं खुले जख्मों पर दुपट्टा डालकर दिन भर पड़ी रहती। हफ्ता भर भी नहीं बीता था कि उनके चेहरे से भी नकाब हट गया। दादा की उम्र वाले बुजुर्ग ने शादी का प्रस्ताव रखा। मैं वहां से भी निकली...। अब कहां जाऊं? दुनिया बहुत बड़ी है, मगर उसमें मेरी जगह कहीं नहीं थी। वह बारिश का दिन था। मैं बाहर निकल पड़ी, जख्म के टांके खुले थे। मैं रो रही थी। मेरे आंसुओं को बारिश की बूंदें धो रही थीं या बारिश की बूंदों को मेरे आंसू, यह तय कर पाना मुश्किल था। शाम को कुछ लोगों से चंदा किया। एक प्रॉपर्टी डीलर कमरा देने को राजी हुआ इस शर्त पर कि उसकी पत्नी बन जाऊं, मैंने इंकार किया। पत्नी की पीड़ा मैं झेल चुकी थी। दुश्वारियों से लड़ती-जूझती मैं गिरती रही, उठती रही। रोना जरूर भूल गई थी। कुछ करना था, लेकिन क्या यह ठीक से मालूम नहीं था। इसी जद्दोजहद में फातिमा दीदी से भेंट हुई। अब उन्हीं के साथ रहती हूं, उनके ही कुछ काम करती हूं। कठपुतलियों का शो करती हूं। मैं खुद भी कठपुतली हूं जिसके धागे पता नहीं किन हाथों में हैं। जिंदगी का एक ही ख्वाब है कि बेटियों को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बना दूं। मगर है तो यह सपना ही... सपना देखने का हौसला मैंने नहीं छोड़ा। अभी भी मुझे ठीक होने के लिए लाखों रुपए चाहिए जो एक नामुमकिन चाहत है, चाहत से ज्यादा जरूरत...।
...

बुधवार, 1 जनवरी 2014

खस्ताहाल मुबारक हो..

आम आदमी के सिर पर,
बत्ती लाल मुबारक हो..
फेंकू-पप्पू के दंगल में,
केजरीवाल मुबारक हो..
आसाराम मुबारक हो,
तेजपाल मुबारक हो..
यूपी तुझको सालों साल,
खस्ताहाल मुबारक हो..
प्रजातंत्र की थाली में..
काली दाल मुबारक हो..
दिल की जलती बस्ती को,
और पुआल मुबारक हो..
हो ना हो, मगर फिर भी..
नया ये साल मुबारक हो..

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

वो किसी न किसी की प्रेमिका हैं..

 भोले सपनों वाली मछलियां...

किसी जलपरी की तरह,

चीरा बनाती हुई जगह ढूंढती हैं बस में....

और बस जलाशय तो नहीं...

 
कान में ज़बदरस्ती ठूंसे गए तार..

जैसे किसी और ग्रह में प्रवेश...

जहां ताड़ती हैं अनजान निगाहें,

लपकते हैं दो हाथ वाले ऑक्टोपस

पीठ के बजाय सीने पर लटकाए हुए बैग...

कंगारू की तरह....

 
वो किसी न किसी की प्रेमिका हैं

जिन्हें सिर्फ पीठ पर उबटन लगाना है शादी में..

अगर नहीं हो सकी मनचाही शादी...

उन्हें रखने हैं अपनी सात पीढ़ियों के नाम

सिर्फ ‘क’ से

बिना किसी ज्योतिषी से पूछे

उऩ्हें उतरना है किसी सरकारी कॉलेज के गेट पर,

कॉलेज की दीवारों पर लिखे हैं इश्तेहार

‘दो हफ्ते की खांसी टीबी हो सकती है’

‘शादी में असफल यहां फोन करें...’

शादी के लिए सबसे अच्छी फोटो नहीं,

सबसे अच्छे दिल लेकर आइए...

ऐसा कहीं नहीं लिखा दीवारों पर

 
बस निहारती है उनकी पीठ...

पीठ बूढ़ी नहीं होती...

स्तन बूढे होते हैं,

योनि नहीं होती बूढी....

प्राथनाएं होती हैं बूढ़ी...

और मर जाती हैं बस से उतरते ही..

निखिल आनंद गिरि

(पाखी के दिसंबर 2013 अंक में प्रकाशित)

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

विकास के रंगीन चुटकुले

सुबह के जिस अख़बार में चमक रहा था
आधे पेज के सरकारी विकास का विज्ञापन
वही अख़बार देखकर पूछा लड़की ने
ये सामूहिक बलात्कार क्या होता है?
पिता ने छठी मंज़िल से कूदकर खुदकुशी कर ली
लड़की की उम्र सात साल थी। 
उस शहर का नाम कुछ भी रख लीजिए
जहां एक दिन सब सरकारी अस्पतालों में,
निकाले गए थे मरीज़ों के गर्भाशय
और फिर बेच दिये थे सरकारी बाबुओं ने।
गर्भाशय की ख़ूबसूरत तस्वीर छापी थी अख़बार ने,
और अख़बार सबसे ज़्यादा बिका था।
हमारी लाशो में मसाले भरकर,
साबुत रखी जाती हैं लाशें
ख़ूब रंगीन नज़र आते हैं अख़बार
बौराने लगता है माथा
इतनी आती है सड़ांध
मगर शुक्र है टिशु पेपर का ज़माना है।
जिस दारोगा ने एक औरत को
चौकीदार बनाने का लालच देकर
थाने में ही सामूहिक बलात्कार किया
और फरार हो गया
उसकी जगह किसकी हाथों में डाली गई हथकड़ी?
जिस चौराहे पर एक लड़की का जुर्म बस इतना था
कि वो अकेली चल रही थी रात में
बेरहमी से मसली गई,
कुचली गई और नंगी कर दी गई 
किसके छपे पोस्टर अपराधियों के नाम पर,
एक चेहरा आपका तो नहीं?
व्यवस्था अगर नहीं हो सकती बेहतर
तो बेहतर है बदल दी जाए व्यवस्था
जहां-जहां नहीं पहुंच पाती पुलिस
और बलात्कार आराम से होते हैं
उन शरीफ मोहल्लों में
लाउडस्पीकर लगाकर पहले बकी जाएं गालियां
और फिर वंदे मातरम
और ये भी कि,
औरत की गोलाइयों के बाहर भी दुनिया गोल है।

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

मांएं डरने के लिए जीती हैं..

हमारा बचपन ऐसा नहीं कि
गाया जा सके उदास रातों में...
हमारे नसीब में नहीं थे सितारे,
जिन्हें तोड़कर टांक सकें स्याह रातों में
उम्र बढ़नी थी, कोई रास्ता नहीं था....
वरना उस एक मोड़ पर रोक लेते खुद को,
कि जहां से ज़िंदगी सबसे उबाऊ और मजबूर रास्ते लेती है..

पूछो अपनी मांओं से,
पूछो पिताओं से....
कि जब कोई रास्ता नहीं रहा होगा....
तो मजबूरी में करनी पड़ी होगी शादी...
और फिर शाकाहारी पत्नियां मांजती रही होंगी बर्तन,
और परोसती रही होंगी मांस अपने पतियों को...

और फिर बेटे हुए होंगे,
बंटी होंगी मिलावटी मिठाईयां..
और बेटियां होने पर सास ने बकी होगी गालियां...
पत्नियां खून का घूंट पीकर रह जाती होंगी...
और पति चश्मा इधर-उधर करते हुए...
पतिव्रता पत्नियां फ़रेब के किस्सों से ज़्यादा कुछ भी नहीं...

बड़े होते बेटों से रहती होगी उम्मीद,
कि उनकी एक हुंकार से सिहर उठेगी दुनिया,
जबकि असल में वो इतना डरपोक थे कि
कूकर की सीटी से भी लगता रहा डर,
कहीं फट न पड़े टाइम बम की तरह...
दीवार पर छिपकली आने भर से..
मूत देते थे सुकुमार लाडले...

और समझिए ऐसे दोगले समय में,
गूंथी हुई चोटियां हथेली में लेकर,
कैसे किया होगा हमने प्यार...
और समझो कितनी सारी हिम्मत जुटानी पड़ी होगी,
ये कहने के लिए, बिन पिए...
कि तुम्हारी नंगी पीठ पर एक बार फिराकर उंगलियां....
लिखना चाहता हूं अपना नाम

हालांकि एक मर्द है मेरे भीतर,                                                            
जो कर सकता है हर किसी से नफरत..
गुस्से में मां को भी माफ नहीं करता
हालांकि ये भी सच है कि...
मांएं डरने के लिए ही जीती हैं,
पहले मजबूर पिताओं से,
फिर मर्द होते बेटों से..

निखिल आनंद गिरि
(पाखी के दिसंबर 2013 अंक मेंप्रकाशित)

रविवार, 15 दिसंबर 2013

मेरा गला घोंट दो मां

किसी धर्मग्रंथ या शोध में लिखा तो नहीं,

मगर सच है...

प्यार जितनी बार किया जाए,

चांद, तितली और प्रेमिकाओं का मुंह टेढ़ा कर देता है..

एक दर्शन हर बार बेवकूफी पर जाकर खत्म होता है...


आप पाव भर हरी सब्ज़ी खरीदते हैं

और सोचते हैं,  सारी दुनिया हरी है....

चार किताबें खरीदकर कूड़ा भरते हैं दिमाग में,

और बुद्धिजीवियों में गिनती चाहते हैं...

आपको आसपास तक देखने का शऊर नहीं,

और देखिए, ये कोहरे की गलती नहीं...


ये गहरी साज़िशों का युग है जनाब...

आप जिन मैकडोनाल्डों में खा रहे होते हैं....

प्रेमिकाओं के साथ चपड़-चपड़....

उसी का स्टाफ कल भागकर आया है गांव से,

उसके पिता को पुलिस ने गोली मार दी,

और मां को उठाकर ले गए..

आप हालचाल नहीं, कॉफी के दाम पूछते हैं उससे...


आप वास्तु या वर्ग के हिसाब से,

बंगले और कार बुक करते हैं...

और समझते हैं ज़िंदगी हनीमून है..

दरअसल, हम यातना शिविरों में जी रहे हैं,

जहां नियति में सिर्फ मौत लिखी है...

या थूक चाटने वाली ज़िंदगी.....


आप विचारधारा की बात करते हैं....

हमें संस्कारों और सरकारों ने ऐसे टी-प्वाइंट पर छोड़ दिया है,

कि हम शर्तिया या तो बायें खेमे की तरफ मुड़ेंगे,

या तो मजबूरी में दाएं की तरफ..

पीछे मुड़ना या सीधे चलना सबसे बड़ा अपराध है...


जब युद्ध होगा, तब सबसे सुरक्षित होंगे पागल यानी कवि...

मां, तुम मेरा गला घोंट देना

अगर प्यास से मरने लगूं

और पानी कहीं न हो...


निखिल आनंद गिरि
(पाखी के दिसंबर 2013 अंक में प्रकाशित)


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बुधवार, 11 दिसंबर 2013

खुले बालों वाली लड़की...

एक ही टेबल पर कॉफी पीते हुए दोनों दो अलग-अलग ग्रहों के बारे में सोच रहे थे....लड़का सोच रहा था कि वो चांद पर ज़मीन ले पाया तो सबसे पहले कॉफी की खेती शुरू करेगा... उसने अचानक लड़की को बताया कि पिछली रात कार्तिक की पूर्णिमा को उसने खुले आकाश के नीचे मीठी खीर रख छोड़ी थी... लड़की सोच रही थी कि कॉफी गर्म नहीं होती तो वो इस बोरिंग लड़के के बजाय मेट्रो की सीट पर बैठी होती, जहां एक सीट उसके लिए आरक्षित होती है.....टेबल के सामने एक यूनिफॉर्म में वेटर खड़ा था और इस ऊबाऊ प्रेम कहानी के अंत का इंतज़ार कर रहा था क्योंकि उसे दुकान समय से बंद करनी थी और यहां उसे किसी टिप की उम्मीद भी नहीं थी...लड़की ने जैसे-तैसे कॉफी खत्म की और टिशू पेपर से अपना मुंह साफ किया....टिशू पेपर पर लिपस्टिक के निशान उग आए थे....वेटर ने झट से लिपस्टिक वाले टिशू पेपर के साथ कॉफी से खाली गिलास ट्रे में रख लिया....लड़के ने लपककर टिशू पेपर उठा लिया और वेटर को घूरते हुए शॉप से बाहर निकल आए...लड़की ने किसे घूरा, ये बताने की ज़रूरत नहीं है...लड़के की इच्छा हुई कि वो थोड़ी देर और बैठे, इधर-उधर की बातें करे और हो सके तो लड़की का माथा भी चूम ले...उसने लड़की से पहली इच्छा जताई तो लड़की ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई...उसका मूड शायद खराब था क्योंकि उसे घर पहुंचने में देर हो रही थी....लड़के की बाक़ी दो इच्छाएं किसी काम की नहीं रहीं....लड़के ने सोचा कि ज़रूर आकाश में रखी खीर बिल्ली ने जूठी कर दी होगी...उसे बिल्ली और खीर पर बहुत गुस्सा आया....


‘हम कल फिल्म देखने चलें....’ लड़की ने अचानक पूछा...

लड़के ने कहा, ‘नहीं, कल नहीं....परसों चलते हैं..’। उसे लगा लड़की उसे कल के लिए ज़िद करेगी तो वो हां करेगा....मगर,लड़की ने परसों वाला प्रस्ताव भी टाल दिया और आगे कोई बात नहीं की....लड़के को ही कहना पड़ा...’कल कितने बजे का शो देखेंगे’

लड़की ने कहा, ‘अब रहने दो’

लड़के ने कहा, ‘क्यूं..?’

‘क्यूं मेरा सर...’

‘प्लीज़ कल ही चलते हैं...प्लीज़’

लड़की मान गई और लड़के से शर्त रखी कि वो कोई नीली कमीज़ पहनकर आए। लड़के ने तुरंत मान लिया और ये भी नहीं सोचा कि हॉल के अंधेरे में सभी रंग एक जैसे होते हैं....

लड़की ने पूछा, ‘तुम्हारे पास कैमरा है?’

‘नहीं...क्यों?’
'क्यों, मेरा सर...
लड़की थोड़ी जल्दी में थी क्योंकि वो लड़की थी और उसे शाम के बाद घर से बाहर रहना मना था....
वो फिर भी बोली,
''अच्छा सुनो, कल हम थोड़ी देर धूप में बैठेंगे.....'
''और चावल भी खाएंगे, फ्राइड राइस....''

लड़के ने कहा, ''ठीक है, मगर तुम अपने खुले बालों के साथ आना.....''
लड़की मुस्कुराई और पूछा, ''क्यूं...''
''ऐसे ही''
लड़की बोली ''तुम्हारी कमीज़ में दो जेबें क्यूं हैं....''
लड़का कुछ समझा नहीं कि क्या जवाब दे....बोला, ''एक में आसमान है, और एक में सारी दुनिया...''
लड़की बोली, ''और मैं....''

लड़की चली गई....लड़का कुछ देर खड़ा रहा...उसने लिपस्टिक वाला टिशू पेपर निकाला और वापस अपनी जेब में रखकर दूसरी ओर चला गया...उसने सोच लिया था कि कुछ भी हो कल वो नीली कमीज़ नहीं पहनेगा....

निखिल आनंद गिरि
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मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

इश्क गोदाम में सड़ गया..

जो उजालों में छाए रहे,
उनके ख़ामोश साए रहे..
इन हवाओं से बचपन भला,
कोई कितना बचाए रहे,
एक अंधी से इंसाफ की,
टकटकी-सी लगाए रहे..
इश्क गोदाम में सड़ गया,
फिर भी पहरे बिठाए रहे..
कैसी रिश्वत शहर से मिली,
बस्तियों को भुलाए रहे..
ज़िंदगी तक धुआं हो गई,
आग दिल में छिपाए रहे..
महफिलों में भी इतना किया,
हाशिए को बचाए रहे..
जिनको यादों में पूजा किये
उनसे मिल कर पराए रहे..
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 11 सितंबर 2013

करवट..

वो सभी रिश्ते समाज से,
बेदख़ल कर दिए जाएं,
जिनमें रत्ती भर भी ईमानदारी हो.
उस भीड़ को दफ्न कर दिया जाए
जिसके पास मीठी तालियां हों बस..

तेज़ आंच में झुलसा दी जाएं,
वो तमाम बातें..
जो कही गईं
चांद के नाम पर,
प्यार की मजबूरी में,
नरम हों, ठंडी हों..

वो आंखें नोच ली जाएं,
जिन्हें देखकर लगता हो..
कि ख़ुदा है..
अब भी कहीं..

उस ज़िंदगी से मौत बेहतर,
जिसे ठोकरें तक नसीब नहीं..
एक करवट बदलनेे के लिए..

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 8 सितंबर 2013

वो प्यार नहीं था..

कभी-कभी सोचता हूं...
(इतना काफी है मानने के लिए कि ज़िंदा हूं)
कि आकाश तक जाने का कोई पुल होता तो हम छोड़ देते धरती
किसी अमावस की रात में...
और मुझे मालूम है कि,
पिता नहीं, वो तो खर्राटे भर रहे होंगे..
मां भी नहीं, वो थक कर अभी चूर हुई होगी...
तुम ही मुझे आधे रास्ते से उतार लाओगी
कान पकड़े किसी हेडमास्टर की तरह...
जबकि चांद एक सीढ़ी भर दूर बचेगा...
अंधी रात को क्या मालूम उसे तुमने नीरस किया है।

तुम्हारी तेज़ कलाई जब देखी थी आखिरी बार,
मुझे नहीं आता था बुखार नापना...
मेरी धड़कनों में वही रफ्तार है अभी...
इस वक्त जब ले रहा हूं सांसें...
और हर सांस में डर है मरने का...
तुम्हें भूलने का इससे भी बड़ा...
 
ये बचपना नहीं तो और क्या
कि जिस चौराहे से गुज़रिए वहां भगवान मिलते हैं
इस आधार पर मान लिया जाए,
कि बचपन की हर चीज़ वहम थी...
मौत के डर से हमने बनाए भगवान,
जिन्हें मरने का शौक होता है,
वो बार-बार प्यार करते हैं...

जबकि, प्यार कहीं भी, कभी भी हो सकता है...
छत पर खड़े हुए तो सूखे कपड़ों के बीच में..
और जब सबसे बुरे लगते हैं हम आईने में, तब भी...

तो सुनो, कि मैं सोचने लगा हूं अब..
तुमने चांद से सीढ़ी भर दूर मुझे मौत दी थी...
और सो गयी थीं गहरी नींद में...
वो प्यार नहीं था,
प्यार कोई इतवार की अलसाई सुबह तो नहीं,
कि इसे सोकर बिता दिया जाए

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 25 अगस्त 2013

कुछ है, जो दिखता नहीं..

जब ठठाकर हंस देती है सारी दुनिया,
बिना किसी बात पर..
अचानक कंधे पर बैठ जाती है गौरेया
कहीं किसी अंतरिक्ष से आकर..
चोंच में दबाकर सारा दुख
उड़ जाती है फुर्र..

फिर न दिखती है,
न मिलती है कहीं..
मगर होती है
सांस-दर-सांस
प्रेम की तरह..

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है..

‘’1947 में भारत का बंटवारा इसलिए नहीं हुआ कि भारत की नियति के बारे में हिंदुओं और मुसलमानों के पास अलग-अलग ठंडे तर्क थे और वैज्ञानिक दृष्टियां थीं। वह इसलिए हुआ कि दोनों कौमों के जुनून अलग होते गये, आधी रात के सपने अलग होते गये, और उनके मिथक-विश्व वक्र और विपरीत बनते गये। अंधेरे में घट रहे इस रहस्यमय रसायन को निश्चय ही दिन भर की घटनाओं ने मदद पहुंचायी। दिन की घटना यह थी कि सिंहासन पर भारतवायों के बैठने का दिन नज़दीक आ रहा था। और रात का आतंक यह था कि इस सिंहासन पर कौन बैठेगा और कैसे बैठेगा ?’’

(राजेंद्र माथुर के लेख ‘’गहरी नींद के सपनों में बनता हुआ देश) का हिस्सा)

14 अगस्त को देश की राजधानी दिल्ली में कई जगहों पर झंडे फहराए गए। कई जगह तुड़े-मुड़े, मैले-कुचैले झंडे थे तो कई जगह राष्ट्रगान की जगह कोई और फिल्मी या देशभक्ति गाना बजाकर औपचारिकता पूरी कर ली गयी। एक ‘फंक्शन’ में तो मैं भी था जहां जो लोग झंडा फहरा रहे थे, क पीछे झुग्गी में रह रहे कुछ लोग अपना कामधाम छोड़कर ये सब ऐसे देख रहे थे जैसे उनके इलाके में बड़े दिन बाद मनोरंजन के लिए कोई तमाशा हो रहा हो। फेसबुक पर इसको लेकर स्टेटस डाला तो कई लोगों ने बताया कि ऐसा कई स्कूलों में होता रहा है कि 15 अगस्त की ‘छुट्टी’ की वजह से 14 तारीख को ही आज़ादी मना ली जाती है। मुझे 14 अगस्त को झंडा फहरा लिए जाने से कोई आपत्ति नहीं है। रोज़ ही फहराइए, मगर उस आज़ादी का मतलब ही क्या, जिसमें हम 15 अगस्त की सुबह देश की राजधानी में सुरक्षा के नाम पर खुलेआम घूम ही नहीं सकें, पूरी पुलिस और ट्रैफिक एक लालकिले का सालों साल पुराना और बोरिंग सरकारी फंक्शन कराने में खर्च हो जाए। अगर स्कूल-कॉलेजों में 14 अगस्त को ही झंडा फहराकर काम ‘निपटा’ लिया जाना है तो 15 अगस्त को सरकारी और 14 अगस्त को आम लोगों की आजादी का दिन घोषित कर दिया जाना चाहिए। अगर सुरक्षा सचमुच इतनी बड़ी समस्या है तो रात के बारह बजे ही क्यों नहीं समारोह मना लिए जाएं। आखिर आज़ादी का असली जश्न भी तो हमने रात ही में मनाया था।

उन झंडों को उतार फेंकना चाहिए जिन्हें कोई तानाशाह अपनी नापाक नज़र से घूरता है, सलाम करता है, हमें झूठी उम्मीदें देता है, चुनाव करीब आने पर हमारी सड़कें पक्की करवाता है, हमारी नालियां बनवा देता है और फिर हमें नाली का कीड़ा समझने लगता है। हम उसे खुशी-खुशी सत्ता का नज़राना सौंपते हैं। क्या आजादी सिर्फ वीआईपी लोगों की सरकारी फाइलों में झंडे के साथ फोटो खिंचवाने के लिेए कर्फ्यू लगा देने का दिन है। कोई देश अगर आगे न बढ़े तो थोडे दिन ठहरकर, चुप रहकर इंतज़ार किया जा सकता है । मगर कोई देश लगातार पीछे जाता दिखे, विकल्पहीनता की स्थिति में जाता दिखे तो फिर गुस्से में गालियां बकने की आज़ादी तो मिलनी ही चाहिए। विकल्पहीनता ऐसी कि देश शब्द कहते ही आप सांप्रदायिक समझे जाने लगें। हद है कि हम मजबूर हैं कि हमें एक उल्लू और भेड़िए में से ही किसी को जंगल का राजा चुन लेना है। विकल्पहीनता ऐसी कि प्राइवेट, सनसनीख़ेज़, तीसमारखां, सबसे तेज होते हुए भी तमाम अख़बारों और चैनलों को सब कुछ रोककर एक घिसे-पिटे भाषण का सीधा प्रसारण करना ही पड़ता है। राज्यों की असली तस्वीर के बजाय झांकियां ऐसी कि जैसे धो-पोंछ कर घर के बक्से से कोई पुरानी तस्वीर देख रहे हों। हद है। तेलंगाना, कश्मीर, झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, गुजरात को छूट दीजिए हुक्मरानों और फिर देखिए कैसी-कैसी झांकियां आपकी खिदमत में पेश होती हैं। दिल्ली को ही छूट देकर देख लीजिए।

आइए आजादी के मौके पर शर्म करें कि हम एक ऐसे मुल्क में रहते हैं जहां सबसे बड़ी आबादी युवाओं की है और फिर भी हम मान चुके हैं कि हमारी तरक्की प्रॉपर्टी डीलर्स के हाथ में है, घटिया हुक्मरानों के हाथ में है और अब इसका कुछ नहीं हो सकता। आइए 52 सेकेंड के राष्ट्रगान के बजाय दो मिनट का मौन रखें कि हमारे आगे जो कुछ ग़लत होता है, हम वहां सिर्फ मौन रह जाते हैं, भीतर-भीतर मरते जाते हैं। शर्म करें कि जो कुछ हमारे सामने होता है, उसके लिए सिर्फ और सिर्फ हम ही ज़िम्मेदार हैं। आइए शर्म करें कि हम वैसे हिंदू हैं जो देशभक्ति के नाम पर दिन-रात पाकिस्तान को गालियां देते हैं और देश के कोने-कोने में हमारी नफरत झेलता एक ‘मिनी-पाकिस्तान’ बसता है। आइए शर्म करें कि जिस तिरंगे को हम अपना झंडा कहते हैं उसके तीन रंगों के नाम हम अपनी मातृभाषा में लिख-बोल नहीं सकते। आइए शर्म करें कि हमें अब किसी बात पर शर्म नहीं आती। न विदेशी, न स्वदेशी..भिन्न-भिन्न प्रदेशी। ै .


राजेंद्र माथुर के शब्दों में -
‘’यह ज़रूरी नहीं कि देर रात के गहरे सपने स्वदेशी ही हों। वे मूलत: विदेशी हो सकते हैं, लेकिन फिर भी राष्ट्रीयता के जन्म और विकास में सहायक हो सकते हैं। इसलिए यह ज़रूरी नहीं कि भारत के अवचेतन-विश्व में सिर्फ रामायण और महाभारत ही हों। करबला और हुसैन भी हमारे मिथक-विश्व के अंग हो सकते हैं, और हिंदुओं को भी उनके सपने आ सकते हैं। जब सिंहासन के प्रश्न नहीं थे, तब ईद और ताजिए क्या हिंदू भागीदारी के त्योहार भी नहीं बनते जा रहे थे? आजकल की तरह नेताओं और अग्रणी नागरिकों की दिखाऊ फोटो खिंचाने वाली भागीदारी नहीं, बल्कि रेवड़ी वालों और कारीगरों की ईमानदार भागीदारी। क्या सारे ताजिए ठंडे कर, सारी मूर्तियों को तोड़कर और सारे सलीबों को जलाकर ही हिंदुस्तान बन सकता है?’’

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

जो बच पाता है..

जब सो रहा होता है आसमान,
धरती ओढ़ लेती है आसमान की चादर..
जाग रहे होते हैं तारे,
बतिया रहे होते हैं चुपचाप
मौन के सहारे |

चिड़िया ओढ़ लेती है पंख
और बतियाती है सूनेपन के साथ..
समंदर ओढ़ लेता है गहराई,
और बतियाता है शून्य से..
दीवारें ओढ लेती हैं अकेलापन,
और बतियाती हैं खालीपन से..

एक  उम्र ओढ लेती है चिड़चिड़ापन..
और बतियाती है पुरानी आवाज़ों से
अथाह वीरानों में |

रिश्ते ओढ लेते हैं चेहरे,
और बतियाते हैं तारों की भाषा में..
कभी अचानक भीड़ बन जाते हैं चेहरे,
और फूलने लगती है मौन की सांसें..
रिश्ते उतारकर भागने लगते हैं लोग..

क्या बचता है उन रिश्तों के बीच
जहां होता है सिर्फ निर्वात..
जहां ज़िंदा आवाज़ें गुज़र नहीं पातीं,
और सड़ांध की तरह फैलता जाता है मौन..

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

ममता तेरे देस में..(हम जीते-जी मर गए रे..)

इस बार गर्मियों में छुट्टियां बिताने और आम का मज़ा लेने के लिए पश्चिम बंगाल के मालदा इलाक़े में जाना हुआ। ज़िले का एक छोटा सा कस्बा समसी। सुनने को मिला कि एक-दो बार सोनिया गांधी भी इस इलाके के दौरे पर आ चुकी हैं। इसका मतलब अगर ये समझ लिया जाए कि यहां खूब विकास हुआ है तो ये वैसा ही है जैसे कोई बच्चा गांव के ऊपर से हेलीकॉप्टर उडता देखकर कहे कि हमारे गांव में हेलीकॉप्टर चलते हैं।

एक स्थानीय रिश्तेदार को डॉक्टर से दिखाने के लिए वहां के सरकारी अस्पताल पहुंचा तो देखकर तसल्ली हुई कि डॉक्टर उपलब्ध हैं और शाम पांच बजे के बाद भी मरीज़ों के लिए समय निकाल रही हैं। मगर थोडी देर में समझ आ गया कि उनसे सत्तर रुपये फीस वसूली जा रही है। यानी अस्पताल का कमरा, बिजली, पंखा, यहां तक कि डॉक्टर भी सरकारी मगर प्राइवेट प्रैक्टिस। पैसे लेकर मरीज़ों की पर्ची बनाने वाले झोलाछाप कंपाउंडर से मिन्नत करने और उसकी मेहरबानी के बाद डॉक्टर से मिलना हुआ। कोई फाल्गुनी बाला थीं, जो इस इलाके में इकलौती सरकारी डॉक्टर थीं। स्थानीय लोगों से पता चला कि सरकारी अस्पताल में निजी प्रैक्टिस करना यहां का पुराना चलन है और मैं ही इस मामले को लेकर ज़्यादा भावुक हो रहा हूं।

अगली सुबह फिर से अपने रिश्तेदार के साथ अस्पताल पहुंचा तो देखा निजी प्रैक्टिस सुबह से ही शुरू है। सरकारी अस्पताल के दूसरे कमरे में एक सडक दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल मरीज़ काफी देर से डॉक्टर साहिबा के आने का इंतज़ार कर रहा था। मगर, फीस देकर डॉक्टर से मिलने वालों की तादाद ज़्यादा थी इसीलिए डॉक्टर को फुर्सत नहीं मिल पा रही थी। इसके बाद जितना हो सका, मैंने अपने स्तर से स्थानीय पत्रकारों से इस मसले पर बातचीत की मगर उनकी प्रतिक्रिया ऐसी थी जैसे ये कोई गंभीर बात ही नहीं है। लोगों से पूछने पर पता चला कि चुनाव के वक़्त कभी-कभी ऐसे मुद्दों को लेकर रूटीन प्रदर्शन होते हैं, मगर अस्पतालों का ये हाल पूरे बंगाल में एक जैसा है। हालांकि मेरे लिए अस्पतालों का ऐसा हाल नया नहीं है। बिहार के समस्तीपुर में हाल के महीनों में ही निजी और सरकारी अस्पतालों की मिलीभगत से गर्भाशय के इलाज में जो भयंकर घपला सामने आया है, उतना ही सुशासन का हाल बताने को काफी है, मगर बंगाल में हालात इतने बदतर हैं, सोचकर यकीन नहीं होता।

मालदा एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र है। देश की सबसे ज़्यादा मुस्लिम आबादी बंगाल के इसी इलाके में रहती है। जिस समसी कस्बे में मैं ठहरा, वहां भी मुस्लिम आबादी बहुत ज़्यादा है। जितने स्कूल वहां दिखे, उतने ही मस्जिद भी। किसी घर में अख़बार आता नहीं दिखा। रेलवे के फाटक पर या बाजार में कहीं-कहीं बंगाली के अखबार टंगे जरूर दिखे, मगर मेरा अनुमान कहता है कि उसमें अस्पतालों की दुर्दशा बडी ख़बर नहीं बनती होगी। ममता बनर्जी की सरकार अल्पसंख्यकों को लेकर रोज नई घोषणाएं करती दिखती है, मगर सियासत में घोषणाओं का मतलब विकास नहीं होता। और सारा दोष ममता का नहीं, लंबे वक्त तक रहे लेफ्ट के राज का भी है। आख़िर  सिस्टम में भ्रष्टाचार को एक परंपरा बनते वक्त तो लगा ही होगा। मालदा जैसे इलाक़े वक्त से कम से कम तीस साल पीछे चले गए हैं और आगे आने की कोई उम्मीद भी नहीं दिखती।

बहरहाल, मालदा में किस्म-किस्म को आम खाने को ज़रूर मिले। अगर मेरी तरह आपको भी यक़ीन है कि मालदह आम का सीधा ताल्लुक मालदा ज़िले से है, तो आप ग़लत हैं। यहां इसे लंगड़ा आम कहते हैं। जिले के छोटे-छोटे इलाकों से आम की टोकरियां कटिहार के रास्ते बिहार और आगे के इलाक़ों में जाती हैं। कटिहार में एक लोकल ट्रेन से उतरते वक्त इन छोटे व्यापारियों की दुर्दशा भी दिखी। जैसे ही लोकल ट्रेन से इनकी टोकरियां उतरती हैं, पुलिस वाले अलग-अलग गिरोह बनाकर इनसे वसूली करने लगते हैं। कोई आरपीएफ के नाम पर, कोई रेलवे टिकट के नाम पर तो कोई स्थानीय सिपाही के नाम पर। कोई चाहे तो इस स्टेशन पर पुलिसवालों की तलाशी ले सकता है। उनकी जेब से लेकर बैग तक में इन ग़रीबों को धमकाकर वसूले गए आम निकल जाएंगे।
दिल्ली में जो आम साठ से सौ रूपये किलो तक मिलते हैं, यहां दस-पंद्रह रूपये किलो में मिल जाते हैं। मगर डॉक्टर की फीस यहां भी सत्तर रूपये है, वो भी सरकारी अस्पताल में। शुक्र है दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में फीस नहीं देनी पड़ती और वहां मालदा के एक छोटे क़स्बे की खबर छपने की भी पूरी गुंजाइश रहती है। और कुछ नहीं तो अपनी 'आपबीती' तो है ही..

(ये आलेख जनसत्ता अखबार में 12 जुलाई को प्रकाशित हुआ है..)

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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