मंगलवार, 25 जनवरी 2011

26 जनवरी की झांकी का ब्लॉग प्रसारण LIVE


दो साल पहले हमारे दोस्त हार्दिक ने अंग्रेज़ी में ये मेल भेजा था। तब हम हिंदी के नाम पर कमाने-खाने वाली एक इंटरनेट संस्था से जुड़े हुए थे। उसी के ब्लॉग पर इस मेल का हिंदी अनुवाद छपा था, जिसे फिर से अपने निजी ब्लॉग पर शेयर कर रहा हूं...लेख के संदर्भ थोड़े पुराने लग सकते हैं, मगर सवाल वही हैं...आप चाहें तो अपने ब्लॉग पर भी इसे शेयर कर सकते हैं...दो कौड़ी के एसएमएस भेजकर देशभक्त बनने से बेहतर उपाय बता रहा हूं...इस पोस्ट के नीचे एक कविता भी है, पढ़ी जा सकती है...


गणतंत्र दिवस की परेड और झांकियां देखकर मेरा देशभक्त मन भी कुछ सोचने लगा.....सरकारें पांच सालों के लिए आती हैं (हालांकि ऐसा होना भी दुर्लभ ही है)....वही मंत्री, वही संतरी, वही परेड....बोर तो हो ही जाते होंगे पांचवा साल आते-आते....मुझे लगता हैं कि मुश्किल से मिली छुट्टी में टेलीविजन पर अपना कीमती समय ऐसे खर्च नहीं किया जा सकता....कुछ तो बदले भाई...

दिल्ली के राजपथ पर झांकिया तो निकलें मगर ज़रा हट के....चार सालों में जिस अवाम को सरकार नज़रअंदाज़ करती रही, पांचवे साल उनकी झांकी लगनी चाहिए....दर्शक दीर्घा में भी कैबिनेट और नौकरशाहों के अलावा कुछ और कुर्सियां लगायी जायें, जिनमें बिज़नेस व कारपोरेट के मसीहा बैठें....झांकियों में बेहद तैयारी के साथ हो रहे नाच-गाने में भी ज़रा सी तब्दीली आनी चाहिए....बदलनी चाहिए सीधा प्रसारण कर रही आवाज़ें भी...कुछ इस तरह से....

राष्ट्रपति भवन के दूर के छोर से मैं देख सकता हूं कि भोपाल गैस त्रासदी के शिकार चले आ रहे हैं...अद्भुत क्षण हैं...टेढी-मेढी शारीरिक संरचना, खून की बीमारियों और मानसिक रोगों से ग्रस्त असंख्य लोग....चूंकि, गणतंत्र का सबसे ख़ास अनुभव इन्होंने बटोरा है, तो पहली झांकी इनकी....आगे और भी मनोरम झांकिया हैं, जो आपका दिल गर्व से भर देंगी...वाह ! क्या बात है...

कैमरा अब कॉरपोरेट मसीहाओं की और घूमता है, फिर ज़रा-सा पैन करता है उन कुर्सियों की तरफ जो स्वास्थ्य मंत्रालय और मध्य प्रदेश सरकार के लिए आरक्षित है....

कमेंटरी चालू है-

मै देख पा रहा हू कि लंबे सफेद लिबासों में पूरी तरह से नग्न अवस्था में कुछ महिलाएं चली आ रही हैं...वो आर्म्ड फोर्स एक्ट में संशोधन या समाप्ति जैसे नारे भी लगा रही हैं.....मणिपुर की यह झांकी ऐतिहासिक भी है और मनोरम भी...वाह! क्या बात है...

कैमरा मुड़ता है सेना प्रमुख की तरफ, रक्षा मंत्री की तरफ और मुस्कान बिखेरते नॉर्थ इस्ट के अधिकारियों की तरफ....परेड जारी है और कमेंटरी भी....

अगली झांकी कुछ मैले-कुचैले लोगों की हैं....मैं अनुमान से कह सकता हूं कि ये केरल के एक गांव के किसान हैं, जो अपने गांव में कोका कोला का प्लांट लगाये जाने का विरोध कर रहे हैं.....उनके हाथ में कुछ बैनर तो हैं, मगर दिल्ली के अफ़सरों की कुछ समझ में नहीं आ रहा....क्षमा करें, मुझे भी कुछ समझ में नहीं आ रहा....वो इस बार भी चुपचाप दिल्ली के राजपथ से गुज़र जायेंगे, यूं ही....

अब हल्की-हल्की धूप बढने लगी है.....कैमरा पर्यावरण मंत्री की ओर घूमता है, जो कोका कोला पीकर गला तर कर रहे हैं....बीच-बीच में उठ-उठ कर किसानों को हाथ उठाकर अंगूठा भी दिखा रहे हैं.....

और अब अगली झांकी गुजरात से....गोधरा और आसपास के इलाकों से हुजूम शामिल है...और इन खूबसूरत घावों को देखिए, जो कभी नही भरने वाले...(कैमरा घावों के थोड़ा और नज़दीक जाता है)...ये दृश्य कभी नहीं भूले जा सकते....घाव अंदर से रिस रहे हैं.....राजपथ लाल हो गया है....सब प्रधानमंत्री को सलामी देते आगे बढते हैं.....

कैमरा अब भीड़ की तरफ घूम गया है, जो पूरी झांकी का आनंद ले रही है....गुज़रात के मुख्यमंत्री कुछ उद्योगपतियों के कान में फुसफुसा रहे हैं....उद्योगपति मुस्कुरा रहे हैं.....सब खुश हैं....ये खूबसूरत नज़ारा कभी-कभी ही नसीब होता है....वाह! क्या बात है.....”

कमेंटरी जारी है-

देवियों और सज्जनों, यह असली भारत की असली झांकी है....अद्भुत, अविश्वसनीय!! झांकी में आगे कुछ खनिज मजदूर हैं, अल्पसंख्यक भी और ओड़िशा या झारखंड के आदिवासी हैं.....ओड़िशा त्याग और सहनशीलता का राज्य रहा है.....इस राज्य ने हमेशा अपनी ज़मीन लुटाई है और खुद को गौरवान्वित महसूस किया है....ये भी बताते चलें कि हालिया सर्वेक्षण में सबसे “लुटे-पिटे” राज्यों की सूची में यही राज्य अव्वल आया है....हम ओड़िशा को उसकी इस उपलब्धि के लिए सलाम करते हैं.....

कैमरा अब ओड़िशा के राज्यपाल की तरफ पैन करता है, जो एक बुलेटप्रूफ़ कैबिनेट में बैठे हैं और लोगों को हाथ दिखा रहे हैं.....मुझे लगता है वो कुछ चेहरों को पहचान गये हैं......उनके अंगरक्षक भी बंदूक ताने हैं और मुस्कुरा रहे हैं.....

"और अब मैं......मैं क्या....हे भगवान....पूरी दर्शक दीर्घा स्तब्ध है........राजपथ की सड़कों पर मुंबई की एक लोकल ट्रेन आती दिख रही है.....इस ट्रेन की रफ़्तार बहुत कम है.....मैं देख रहा हूं कि 1500 लोगों की क्षमता वाली इस ट्रेन में 7000 लोग हैं.....हर दरवाज़े से लोगों की टांगें बाहर दिख रही हैं....कुछ लोग इसकी छत पर भी चढ़ गये हैं....खिड़कियों से झोले और बैग लटके हुए हैं.....विकलांगों का डिब्बा भी खचाखच भरा है.....

इस झांकी को देखकर विदेश से आये कुछ मेहमान दर्शक अचंभे में हैं....वो तालियां पीट रहे हैं....

और अब झांकी एक हैरतअंगेज क्लाइमेक्स की तरफ बढ़ रही है.....ट्रेन की रफ़्तार बढ़ी है....कुछ लोग ट्रेन से बाहर गिर गये हैं.....पूरा देश तालियां बजा रहा है.....वाह!! क्या बात है.....सचमुच भारत जादूगरी का देश है.... मुझे अरविंद अडिग की याद आ रही है....उनकी किताब के कुछ पन्नों से यह दृश्य मिलता है......मुझे आशा है कि आप अरविंद अडिग को जानते हैं, जिन्होंने इस साल का बुकर जीता है.... "

तो, ये था दिल्ली में आयोजित परेड का सीधा प्रसारण.....आशा है आपने झांकी का भरपूर मज़ा लिया होगा...ये सिर्फ झांकी थी, इसीलिए परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं....आशा है कल से फिर आपकी ज़िंदगी रफ़्तार पकड़ लेगी....आप हर रोज़ की तरह कदमताल करने लगेंगे....

जय हिंद......जय हो.....

हार्दिक मेहता
 
(हिंदी में अनुवाद : निखिल आनंद गिरि)

एक ख़ास पल...


एक देश है जो हर साल,

२६ जनवरी को फहराता है तिरंगा...

जहाँ लोग बेसब्री से इंतज़ार करते हैं,

विश्व कप जीतने का...

जहाँ लोग इंतज़ार करते हैं,

कि कब लाल बत्ती बुझे,

और ज़िंदगी की दौड़ में वो भाग सकें

तेज़ "सबसे तेज़".....


इंतजार है एक सुपरहीरो का,

जो हर वो काम कर सके,

जिसे नहीं कर पाता आम आदमी..


आम आदमी रो नहीं सकता देर तक,

नहीं कर सकता खुल कर प्यार,

अपनी नाराज़ प्रेमिका से....


एक देश है जिसकी आधी आबादी,

डुबोती है पावरोटी चाय में,

और अभिनय करती है खुश होने का....

सड़क के किनारे फटी हुई चादर में,

माँ छिपाती है अपना बच्चा,

पिलाती है दूध.....


एक देश है जहाँ,

रंगीन पानी पीकर

लोग बन जाते हैं मर्द.....

और नही समझ पाता कोई,

तीन कोस पैदल चलकर,

पानी लाने का दर्द....


एक देश जहाँ

शौचालयों से वाचनालयों तक

व्यर्थ ही होती दिखी है ऊर्जा...


जहाँ तिरंगे में लिपटकर,

देश का सपूत सो जाता है....

और उसकी मौत पर,

पेट्रोल पम्प के टेंडर का खेल,

शुरू हो जाता है....


एक देश जहाँ २६ साल की है...

देश की आधी आबादी,

पहनती है ब्रांडेड जींस,

और बोलती है खादी...


एक देश,

जहाँ कैलेंडर की तारीखों में,

मनाये जाते हैं ख़ास दिन,

और देश का आम आदमी,

ज़िंदगी में ढूँढता रह जाता है,

एक ख़ास पल,

कि वो कर सके प्यार

अपनी नाराज़ प्रेमिका से,

बहुत देर तक....

कि वो खुल कर रो सके,

बहुत देर तक.....

 
निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

इक था भरम के वास्ते...

इतना तबाह कर कि तुझे भी यक़ीं न हो,

इक था भरम के वास्ते, वो दोस्त भी न हो....


महफिल से वो गया तो सभी रौनकें गईं..

ऐसा न हो वो आए, मगर ज़िंदगी न हो


ठिठुरे हैं जो नसीब, उनका अलाव बन...

सूरज ही क्या कि सबके लिए रौशनी न हो


मेरी ही नज़र छीन ले, कोई शख्स क्यूं गिरे...

मौला तेरे किरदार में कोई कमी न हो...


तौबा कभी न चांद पर, हरगिज़ करेंगे इश्क

उतरे कहीं खुमार, तो पग भर ज़मीं न हो...


साए थे, शोर था बहुत, इतना सुन सका...

कंक्रीट के जंगल में कोई आदमी न हो...

 
मंज़िल मिली तो कह गए, बाक़ी है कुछ सफ़र

वो उम्र क्या कि उम्र भर आवारगी न हो


ले जाओ सब ये शोहरतें, ये भीड़, ये चमक

रोने के वक्त हंसने की बेचारगी न हो...

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 17 जनवरी 2011

मूरख मिले 'बलेसर', पढ़ा-लिखा गद्दार ना मिले...

कौन कहता है कि बालेश्वर यादव गुज़र गए....बलेसर अब जाके ज़िंदा हुए हैं....इतना ज़िंदा कभी नहीं थे मन में जितना अब हैं....मन करता है रोज़ गुनगुनाया जाए बलेसर को....कमरे में, छत पर, नींद में, सड़क पर, संसद के सामने, चमचों के कान में, सभ्य समाज के हर उस कोने में जहां काई जमी है...आज, कल, परसों, बरसों....इंटरनेट पर शायद ही कहीं बलेसर के वीडियो उपलब्ध हैं...मुझे चैनल के लिए आधे घंटे का प्रोग्राम बनाने का मौका मिला था, तो उनके कुछ वीडियो मऊ से मंगाए गए, जहां के थे बलेसर....वो अपलोड कर पाऊंगा कि नहीं, कह नहीं सकता मगर, इन गीतों के बोल डेढ़ घंटे बैठकर कागज़ पर नोट किए.....हो सकता है, लिखने में कुछ शब्द गच्चा खा रहे हों, मगर जितना है, वो कम लाजवाब नहीं....भोजपुरी से रिश्ता रखने वाले तमाम इंटरनेट पाठकों के लिए ये सौगात मेरी तरफ से....जो भोजपुरी को सिर्फ मौजूदा अश्लील दौर के चश्मे से देखते-समझते हैं,  उनके लिए इन गीतों में वो सब कुछ मिलेगा, जिससे भोजपुरी को सलाम किया जा सके....रही बात अश्लीलता की तो ये शै कहां नहीं है, वही कोई बता दे...जिय बलेसर, रई रई रई....  


दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

मेला है मेला बाबू, मेला है मेला...

दो दिन की दुनिया है, दो दिन झमेला..

दो दिन का हंसना है, दो दिन का मेला...

आना अकेला और जाना अकेला...

साथ न जाएगा, गुरु संग चेला

दुनिया ये दुनिया, दो दिन की दुनिया...

दो दिन की दुनिया में लड़े सारी दुनिया...

दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

हिटलर रहा नहीं, न रहा सिकंदर..

दारा रहा नहीं, रहा कलंदर...

राम रहे नहीं, न रहा सिकंदर....

सब ही को जाना है, दो दिन के अंदर..

कोई रहेगा ना, कोई रहा है...

बेद-पुरान में ये ही कहा है...

दुनिया झमेले में, दो दिन के मेले में...

मेला है मेला बाबू, मेला है मेला...

कोई ना बोलावे, बस पइसा बोलावे ला..

कोई ना नचावे, बस पइसा नचावे ला...

देस-बिदेस, बस पईसवे घुमावेला

ऊंच आ नीच सब पईसवे दिखावेला...

साथ न जाएगा, पईसा ई ढेला

पीड़ा से उड़ जाई, सुगना अकेला....

दुनिया झमेले में...

रोज-रोज-रोज कोई आग लगावेला...

बांटे-बंटवारे का नारा लगावेला

पुलिस, पेसी, मलेटरी जुटावेला,,,

गोला-बारुद के ढेर लगावेला....

रूस से कह दो, हथियार सारा छोड़ दे,

कह दो अमरीका से, एटम बम फोड़ दे...

दुनिया झमेले में....


आजमगढ़ वाला पगला झूठ बोले ला...

समधी के मोछ जइसे कुकुरे के पोंछ साला झूठ बोले ला...

समधिनिया के बेलना झूठ बोले ला...साला झूठ बोले ला..

समधिनिया के पेट जइसे इंडिया के गेट, साला झूठ बोले ला...

अलीगढ़ वाला बकरा झूठ बोले ला...

अरे झूठ बोले ला...साला झूठ बोले ला...

बभना के कईले धईले, कुछहु न होले जाला-2,

धोबिया के अइले गइले, चले लाठी भाला, साला झूठ बोले ला...

कलकत्ता वाला चमचा, झूठ बोले ला....

अपने त बोले, साला हमके न बोले देला-2

तीनों चारों भाई-बाप, सर्विस कुर्ता वाला, साला झूठ बोले ला...

बिना मोछ वाला मोटका, झूठ बोले ला...

बाहर बिलार, घर में शेर का शिकार करे-2

हमरी कमाई बैला, बैठल-बैठल खाला, साला झूठ बोले ला...

ई चवन्नी छाप हिजरा, झूठ बोले ला...

कल-करखाना, साला टिसनो से बोले-बोले-2

खाया है माल. किया लाखों का दीवाला, साला झूठ बोले ला..

नई दिल्ली वाला गोरका झूठ बोले ला...

दिल का है काला साला, बगुला के चाल चले-2

बिदेसी दलाल है, कमाया धन काला, साला झूठ बोले ला...

समधिनिया के बेलना झूठ बोले ला...

श्यामा गरीब के, सोहागरात आई आई..

श्यामा औसनका के, सोहागरात आई आई..

जे दिन ‘बलेसरा’ पाएगा, ताली-ताला, साला झूठ बोले ला...

आजमगढ़ वाला पगला झूठ बोले ला...


हिटलरशाही मिले, चमचों का दरबार न मिले...

ए रई रई रई...

दुश्मन मिले सवेरे, लेकिन मतलबी यार ना मिले...

दुश्मन मिले सवेरे...

कलियन संग भंवरा मिले, बन मिले बनमाली...

ससुरारी में साला मिले, सरहजिया और साली...

तिरिया गोरी हो या काली, लेकिन छिनार ना मिले...

हाथी मिले, घोड़ा मिले; मिले कोठा-कोठी...

सोना मिले, चांदी मिले, मिले हीरा-मोती...

ईंटा-पत्थर मिले, नीच कली कचनार ना मिले...

सागर से जा मिले सुराही, धरती से असमान,

होली से जा मिले दीवाली, मिले सूरज से चांद,

मरदा एक ही मिले, हिजरा कई हजार ना मिले....

सरबन अइसन बेटा मिले, मिले भरत सा भाई,

मोरध्वज सा पिता मिले, मिले जसोदा माई...

पांचो पंडा मिले, कौरव सा परिवार ना मिले...

चित्तू पांडे, मंगल पांडे, मिले भगत सिंह फांसी..

देस के लिए जान लुटा दी, मिले जो लोहिया गांधी...

हिटलरशाही मिले, चमचों का दरबार ना मिले...

बांझिन को जो बेटा मिले, मिले भक्त को राम,

प्रेमी संग में श्यामा आ मिले गुरू से ज्ञान..

मूरख मिले ‘बलेसर’, पढ़ा-लिखा गद्दार ना मिले....

दुश्मन मिले सबेरे, लेकिन मतलबी यार ना मिले...


कुछ सस्ता शेर
बुढापा के सहारा, लाठी-डंडा चाहिए...

जवानी में लड़की को लवंडा चाहिए...

और ये भी...

सासु झारे अंगना, पतोहिया देखे टीभी....

बदला समाज, रे रिवाज बदल गईले...

भईया घूमे दुअरा, लंदन में पढ़े दीदी....

सासु झारे अंगना, पतोहिया देखे टीभी....

अगर गीत अच्छे लगे हों तो ये भी बताइए कि ढोल-मंजीरे के साथ कब बैठ रहे हैं खुले में....मिल बैठेंगे दो-चार रसिये तो जी उठेंगे बलेसर

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

बाईं तरफ चलने में मौत है...

जब हम सड़क पर चलते थे,


तो चलते थे बाएं होकर....

सख्त हिदायत थी किताबों में...


फिर थोड़ी समझ बढ़ी,

देखने का मन हुआ...

कि अगर बाईं ओर सारे पैदल हैं,

तो दाईं ओर कौन है...

बीच में इतनी गाड़ियां, इतने धुएं

और इतने चुंबन थे कि,

सच कहूं कुछ देखने का मन ही नहीं किया...


कुछ सोचने का भी नहीं,

कि गांव का टुन्ना जिसने आज तक सड़क नहीं देखी,

वो किस ओर चलता है...

और जिनके घरों के बाईं ओर,

वास्तु के हिसाब से या तो नालियां थीं,

या फिर कूड़ेदानों की जगह...


यूं कुछ दिन तक हम चलते रहे लेफ्ट में...

जो पैदल मिला, मुस्कुरा दिए...

गुमान था कि कायदे से चलते हैं...

फिर एक दिन अचानक,

हमारे ठीक आगे का आदमी,

जो चल रहा था बाएं...

खिसक लिया बीच वाली कार में बैठकर....

एक और सड़क के बीचोंबीच चिल्लाने लगा,

और उसे कुचल दिया गया तेज़ी से...


कुछ ने सहानुभूति में खूब बकीं गालियां...

कुछ ने तमाशा किया और चल पड़े...

कि उन्हें समय से घर लौटना था,
बीवियों का ब्लाउज़ और बच्चों का डेरी मिल्क लेकर....

हालांकि बाद में मालूम हुआ,

सड़क पर एक नोट गिरा था,

जिसे लपकने गया था कुचला हुआ आदमी....

फिर इतना डर, इतनी घिन्न

कि सड़क पर चलना छूट गया....


हमने ढूंढी वो नसीहत भरी किताबें...

और चीरकर उड़ा दी दाएं-बाएं...


सारा झगड़ा सड़क पर चलने का है जनाब....

आकाश में उड़ने वाले न दाएं चलते हैं न बाएं..

वो देखते हैं सड़क पर मौत

और चीरते जाते हैं हवाएं...

जितना हवाओं में ज़हर भरता है,

उनकी उम्र लंबी होती है...


निखिल आनंद गिरि
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मंगलवार, 11 जनवरी 2011

सौ बार मर गया...

इस बार कुछ उम्मीद से मैं अपने घर गया...

वीरान चेहरे देखकर, चेहरा उतर गया..


बाबूजी थे खामोश, मां अजनबी लगी,

हर एक पल में सच कहूं, सौ बार मर गया...


ज़ख्मों को देख और भी नमकीन हुए लोग,

ऐ ज़िंदगी, मैं तेरे तिलिस्मों से डर गया..


ये पीठ थी, रक़ीब के खंजर के वास्ते

शुक्रिया ऐ दोस्त, ये अहसान कर गया...


सब झूठ है कि रूह को देता है सुकूं इश्क,

मैं जिस्म तक गया, वो तल्खी से भर गया....


सर्दी पड़ी, अमीरी रज़ाई में छिप गई...

फिर मौत का इल्ज़ाम ग़रीबी के सर गया...

निखिल आनंद गिरि
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शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

कद्दूकस और तीसरे पीरियड में छुट्टी...

युवा कहानीकार (और मेरे साथी) गौरव सोलंकी को राजस्थान पत्रिका ने इस कहानी के लिए विशेष सम्मान दिया है....क्या इत्तेफाक है कि कुछ दिन पहले ही उनकी कहानियों को मेरे ब्लॉग पर डालने के लिए हम दोनों ने समीक्षा का बहाना ढूंढा था...खैर, ये बहाना भी  बुरा नहीं...

कद्दूकस मुझे बहुत प्यारा लगता था। उसे देखकर हमेशा लगता था, जैसे अभी चलने लगेगा। बहुत बाद में मैंने जाना कि कुछ चीजों के होने का आपको उम्र भर इंतज़ार करना पड़ता है। उस से पहले मैंने रसोई में कई काँच के गिलास तोड़े, बोलना और छिपकर रोना सीखा।

मेरी माँ शहर की सबसे सुन्दर औरत थी और हम सब यह बात जानते थे। मैं भी, जो बारह साल का था और चाचा भी, जो बत्तीस साल के थे। ऐसा जान लेने के बाद एक स्थायी अपराधबोध सा हमारे भीतर बस जाता था। हम सब आपस में घर-परिवार की बहुत सारी बातें करते और उस से बाहर निकल आने की कोशिश करते लेकिन आखिर में हम सो या रो ही रहे होते। मैं अकेला था और मेरे भाई बहन नहीं थे। वे होते तो हम सब एक साथ अकेले होते। हमारा घर ही ऐसा था। बाद में मैंने अख़बारों में वास्तुशास्त्र के बारे में पढ़ा तो पता चला कि सदर दरवाज़ा दक्षिण की ओर नहीं होना चाहिए था और रसोई के पूर्वी कोने में जो लोहे की टंकी रखी थी, जिसमें माँ आटा और मैं अपनी कॉमिक्स रखता था, उसे घर में कहीं नहीं होना चाहिए था।

मैं आठवें बरस में था, जब मैंने आत्महत्या की पहली कोशिश की। मैं रसोई में चाकू अपनी गर्दन पर लगाकर खड़ा था और आँगन से मुझे देखकर माँ दौड़ी चली आ रही थी। वह मेरे सामने आकर रुक गई और प्यार से मुझे उसे फेंक देने को कहने लगी। मेरा चेहरा तना हुआ था और मैं अपना गला काट ही लेना चाहता था कि न जाने आसमान में मुझे कौनसा रंग दिखा या माँ की बिल्लौरी आँखें ही मुझे सम्मोहित कर गईं, मैंने चाकू फेंक दिया। फिर माँ ने मुझे बहुत प्यार किया और बहुत मारा। मगर उसने मुझसे ऐसा करने की वज़ह नहीं पूछी। उसे लगा होगा कि कोई वज़ह नहीं है।

मेरी माँ बहुत सुन्दर थी और वह नाराज़ भी हो जाती थी तो भी उससे ज़्यादा दिनों तक गुस्सा नहीं रहा जा सकता था। उसके शरीर की घी जैसी खुशबू हमारे पूरे घर में तैरती रहती थी और आख़िर पूरे शहर की तरह हम भी उसमें डूब जाते थे।

पूरा शहर, जिसके मेयर से लेकर रिक्शे वाले तक उसके दीवाने थे। वह नाचती थी तो घर टूट जाते थे, पत्नियां अपने पतियों से रूठकर रोने लगती थीं, स्कूलों के सबसे होनहार बच्चे आधी छुट्टी में घर भाग आते थे, बाज़ार बन्द हो जाते थे और कभी कभी दंगे भी हो जाते थे।

यह 2002 की बात है। फ़रीदा ऑडिटोरियम में माँ का डांस शो था। उसमें तीन हज़ार लोग बैठ सकते थे और एक हफ़्ते पहले से ही टिकटें ब्लैक में बिकने लगी थीं। इसी का फ़ायदा उठाकर महेश प्रजापति और निर्मल शर्मा नाम के दो आदमियों ने ब्लैक में फ़र्ज़ी टिकटें भी बेचनी शुरु कर दीं। वे पचास रुपए वाली एक टिकट दो सौ रुपए में बेच रहे थे और इस तरह उन्होंने पाँच सौ नकली टिकटें बेच डालीं। शो रात दस बजे था। आठ बजते बजते सब लोग ऑडिटोरियम के बाहर जुटने लगे। नौ बजे से एंट्री शुरु हुई। साढ़े नौ बजते बजते तीन हज़ार लोग अन्दर थे और पाँच सौ नाराज़ लोग बाहर। उनमें बूढ़े भी थे, औरतें भी और बच्चे भी। उन्हें आयोजकों ने अन्दर घुसने नहीं दिया, जबकि वे दावा करते रहे कि उन्होंने दो-दो सौ रुपए देकर टिकटें खरीदी हैं। यह उनमें से अधिकांश की एक दिन की आमदनी थी और मिस माधुरी का शो नहीं होता, तो वे इससे चार दिन का खर्चा चला सकते थे। वे परिवार वाले थे और उन्हें अब अपने बच्चों और पत्नियों के आगे बेइज्जत होना पड़ रहा था। उन्हें न ही महेश प्रजापति दिखाई दे रहा था और न ही निर्मल शर्मा। सिपाही अब उन्हें धकेलकर परिसर से बाहर निकालने लगे थे। वे कह रहे थे कि उनकी बात सुनी जाए। उनकी बात नहीं सुनी गई।

तभी भीड़ में से एक ग्यारह बारह साल के लड़के ने यूं ही चिल्लाकर कहा कि निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति स्टेशन पर गए हैं और बाराखंभा एक्सप्रेस से दिल्ली भाग जाने वाले हैं। पाँच सात मिनट में ही पाँच सौ लोग यह बात जान गए और वे तेजी से स्टेशन की ओर बढ़ गए। जबकि उनमें से अधिकांश को नहीं पता था कि बाराखंभा एक्सप्रेस कहाँ से आती है और कहाँ को जाती है और उसका वक्त क्या है। वे सब दस बजे तक स्टेशन पहुँचे। वहाँ उन्हें पता लगा कि बाराखंभा एक्सप्रेस के आने का सही वक्त साढ़े चार बजे है, मगर वह सुबह सात बजे तक आएगी। वह अँधेरी रात थी और स्टेशन मास्टर ने अपने जीवन में पहली बार इतने लोग एक साथ देखे थे। उसे लगा कि ये सब लोग कहीं जाना चाहते हैं और वह ख़ुशी के मारे टिकट खिड़की खोलकर बैठ गया। यह जानकर कि ट्रेन सुबह आएगी, भीड़ आधे घंटे में वापस लौट गई। जाने से पहले उन्होंने सुबह सात बजे से पहले स्टेशन आने का संकल्प लिया और आठ दस लोगों को रात भर वहीं निगरानी के लिए छोड़ दिया। यह बहुत बड़ी बात भी नहीं थी कि दो सौ रुपए पानी में चले गए थे मगर वह तारीख ही ऐसी थी कि बात बड़ी होती जा रही थी। बाद में जब मैंने पागलों की तरह वास्तुशास्त्र पढ़ा तो जाना कि फ़रीदा ऑडिटोरियम और स्टेशन, दोनों के दरवाज़े उनसे ठीक विपरीत दिशाओं में थे, जिनमें उन्हें होना चाहिए था। साथ ही माँ ने उस दिन लाल रंग की स्कर्ट पहनी थी और वह जब शो में आई थी तो उसने पहले बायां पैर स्टेज पर रखा था।

लाल रंग ख़ून का रंग था और यह हम सब भूल गए थे।

वहाँ जो लोग रुके, संयोगवश आरिफ़, इंतख़ाब आलम, नासिर, जब्बार, सुहैल, सरफ़राज़ के पिता, नवाब अली, शौकत और उसका चार साल का बेटा थे। उन्होंने चने खरीदकर खाए और रात में दो दो बार चाय पी। सुबह पौने आठ बजे ट्रेन आई तो नासिर और शौकत को छोड़कर सब बैठे बैठे सो गए थे। रात वाले दस बीस लोग और आ जुटे थे। कुछ बच्चे भी अपने पिताओं के साथ तमाशा देखने आए थे। ज़्यादातर लोग मिस माधुरी का शो भूल चुके थे और बस निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति को मार पीटकर घर लौट जाना चाहते थे। शौकत को उसी दिन अपनी ससुराल से अपनी बीवी को लाना था और अब वह जल्दी पीछा छुड़ाकर घर लौट जाना चाहता था। वह जब पानी पीने के लिए प्याऊ की ओर गया तो जब्बार की बहन सबीना (शायद उसका यही नाम था...और धीरे धीरे आप देखेंगे कि इतने सारे नामों का कोई ख़ास अर्थ नहीं रह जाएगा) उसे देखकर मुस्कुराई। वह किसी दूसरी ट्रेन से बनारस जा रही थी और सुबह से स्टेशन पर खड़ी थी।

जवाब में शौकत भी मुस्कुराया। फिर वह बिना कुछ बोले प्याऊ की टोंटी से मुँह लगाकर पानी पीने लगा। तभी मोहनीश अग्रवाल नाम के एक लड़के ने, जो ट्रेन से उतरकर चाय पी रहा था और जिसने नारंगी साफा बाँध रखा था, समझा कि सबीना उसे देखकर मुस्कुराई है। वह सबीना के पास आकर खड़ा हो गया और बोलने लगा कि नम्बर दे दो और आई लव यू। सबीना घबरा गई और उसने शब्बार पुकारा (उसने शौकत से शुरु किया लेकिन घबराहट के बावज़ूद उसे इतना होश था कि अपने भाई को ही पुकारे)। बीस पच्चीस लोग, जिन्हें एक स्कूली लड़के ने रात अपने मन से बनाकर कह दिया था कि निर्मल शर्मा और महेश प्रजापति बाराखंभा एक्सप्रेस से जाएँगे, पागलों की तरह स्टेशन और ट्रेन के डिब्बे छान रहे थे। तभी उन्हें सबीना की पुकार सुनी। सबसे पहले शौकत उसके पास पहुँचा और उसने मोहनीश अग्रवाल को एक थप्पड़ मारा। जवाब में मोहनीश अग्रवाल ने भी शौकत को थप्पड़ मारा। चाय पी रहे उसके दो तीन दोस्त भी आगे आ गए। वे और आगे आ ही रहे थे कि तभी भीड़ ने उन्हें घेर लिया। निर्मल शर्मा भी उसी तरह तिलक लगाए रखता था, जिस तरह मोहनीश अग्रवाल ने लगा रखा था। भीड़ के ज़्यादातर लोगों ने उसे टिकट खरीदते हुए बस एक नज़र ही देखा था, इसलिए उन्हें लगा कि यही निर्मल शर्मा है और इसीलिए सबीना चिल्लाई है। कुछ लोग सबीना की दाद देने लगे और बाकी मोहनीश अग्रवाल और उसके साथियों को मारने लगे।

बाद में जो हुआ, वह यह था कि मेरे शहर के सैंकड़ों लोग अचानक स्टेशन पर आ गए। उनके पास पैट्रोल के गैलन थे और लाठियाँ भी। बच्चे भी थे, जो ट्रेन पर पत्थर फेंक रहे थे। उनमें से कोई ऐसा नहीं था, जिसने मिस माधुरी के शो का टिकट खरीदा था। टिकट वाली ठगी के शिकार तो मोहनीश अग्रवाल को पीटकर ही पेट भर चुके थे। वे सब हैरान होकर देख रहे थे कि ट्रेन चल पड़ी है और भीड़ ने एक डिब्बे में आग लगा दी है।

मैं नहीं जानता कि सब ख़त्म कर डालने पर आमादा वह भीड़ अचानक कहाँ से आ गई थी, लेकिन मुझे लगता रहा कि मोहनीश अग्रवाल वह हरकत न करता और जब्बार, शौकत और बाकी लोग उस समय स्टेशन पर न होते तो शायद कुछ भी न हुआ होता। मोहनीश दो चार फ़िकरे कसता और अपनी ट्रेन चलने पर उसमें चढ़ जाता। सबीना कुछ देर परेशान रहती और भूल जाती। जब्बार उस समय किसी की साइकिल का पंक्चर लगा रहा होता और दोपहर में अपने घर जाकर खाना खाकर आधा घंटा सोता। लेकिन यह सब नहीं हुआ। आगे बहुत सी हत्याएँ और पुलिसिया प्रताड़नाएँ थीं। ख़ून के कई हफ़्ते और अमावस सी नफ़रत। मेरी माँ मिस माधुरी उस दिन देर तक सोती रही। तीसरे पीरियड में मेरी छुट्टी हो गई थी और चाचा मुझे लेने आए थे।

गौरव सोलंकी

(पूरी कहानी पढ़ने के लिए गौरव के निजी ब्लॉग पर चक्कर लगा सकते हैं...)


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बुधवार, 5 जनवरी 2011

ठूंठ पीढ़ियां, बेबस माली...

जिन पेड़ों ने फल नहीं दिए,

उन्हें भी सींचा गया था सलीके से

भरपूर खाद-पानी और देखभाल के साथ..

हवा भी उतनी ही मिली थी उन्हें,

जितनी बाक़ी पेड़ों के नसीब में थी....

उम्मीद के लंबे अंतराल ने दिया

माली को ठूँठ पेड़ों का दुख..


ये दुख नहीं बना चर्चा का विषय

बुद्धू बक्से के बुद्धिजीवियों के बीच

या किसी भी अखबार के पन्ने पर,


पीढ़ी दर पीढ़ी उगते रहे ठूंठ

और घेरते रहे जगह,

फलदार पेड़ों के बरक्स....


फलदार पेड़ों को क्या था..

झूमकर लहराते रहे अपनी किस्मत पर....

ठूंठ पेड़ों से बिना उलझे,

मुंह घुमाकर समझते रहे,

कि हर ओर हरी है दुनिया....


उधर मालियों ने फिर भी सींचा,

नए बीजों को, नई उम्मीद से...

जब तक नीरस नहीं हुई पूरी पीढ़ी...


फिर बेबस मालियों ने सोचा उपाय

ठूंठ पेड़ों से कुछ काम निकाला जाये..

गर्दन में फंसाकर फंदे,

वो झूल गए इन्हीं पेड़ों पर...

और थोड़े-से फलदार पेड़ देखते रहे

अपनी तयशुदा मौत का पहला भाग...


काश! फलदार पेड़ों ने किया होता प्रतिरोध

ज़रा-सा भी,

तो ठूंठ पेड़ों में फल तो नहीं आते,

मगर वो समय रहते शर्म से

टूटकर गिर ज़रूर जाते,


ज़िंदा रहते माली

ताकि,

फलदार पेड़ों की भी हरी रहती डाली....


निखिल आनंद गिरि

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सोमवार, 3 जनवरी 2011

कंपकंपाती ठंड में मल्टीप्लेक्स की 'मिर्च' का मज़ा...

फिल्म की शुरुआत में ही रिलायंस ग्रुप का बोर्ड लगा दिखे तो ये चिंता दूर हो जाती है कि आप जिस फिल्म को देखने जा रहे हैं, वो बेहद तंगहाली में बनाई गई होगी, इसलिए अच्छी हो या बुरी, निर्देशक के साथ सहानुभूति ज़रूर रखी जानी चाहिए। विनय शुक्ला कोई नए डायरेक्टर नहीं हैं...अवार्ड विनिंग फिल्में बनाना उनका मकसद रहा है और इस लिहाज से ये फिल्म भी सफल करार दी जानी चाहिए। ये अलग बात है कि मेरे साथ हॉल में फिल्म देखने वाले सिर्फ चार लोग ही और थे। चार से याद आया, फिल्म का नाम चार कहानियां भी रखा जा सकता था, क्योंकि इसमें क्रेडिट्स आने तक चार अलग-अलग मगर एक जैसी कहानियां चलती हैं।

मुंबई में संघर्षरत एक फिल्म राइटर अपनी गर्लफ्रेंड के संपर्क से एक प्रोड्यूसर से मिलता है और उसे अपनी वो कहानी सुनाता है, जिस पर दो सालों से वो फिल्म बनाने की सोच रहा है....फिल्म में संघर्ष आगे बढ़ना है इसलिए कहानी रिजेक्ट हो जाती है...खैर, वो दूसरी कहानी ढूंढता है, जिसमें प्रोड्यूसर के मनमाफिक बिकाऊ सेक्स भी होता है। इस दूसरी कहानी में चार कहानियां हैं, कुछ औरतें हैं, मर्द हैं और शरीर की हेराफेरी है। जो आदर्शवादी कहानी रिजेक्ट होती है, वो क्या थी, इसका पता ग्यारह मुल्कों की पुलिस भी नहीं लगा सकती। बस, वो अज्ञात कहानी हज़ारों-लाखों फिल्म लेखकों के ज़ख्मों को सहलाने का काम कर जाती है, जो बिहार से लेकर बंबई (वाया दिल्ली) तक एकाध स्क्रिप्ट लिए गुलज़ार बनने का ख्वाब पाले बैठे हुए हैं।

फिल्म में पंचतंत्र से लेकर इटालियन लोककथाओं तक के तमाम रेफरेंसेज़ हैं। यही फिल्म की जान भी हैं। कहानी आगे बढ़ाने का तरीका कहीं से कमज़ोर नहीं है। कहानी के भीतर कई कहानियां चलती हैं और इस तरह से ग्रिप बना रहता है। बेहद खूबसूरत लोकेशन्स और कसे हुए संवादों के बीच कहानी कहीं छूटती नहीं और नारी-विमर्श का सबसे प्रचलित रूप भी ठीकठाक आगे बढ़ता है। जैसा कि विनय कई जगह दावा करते हैं कि ये वुमैनहुड (नारीत्व) का उत्सव है, लगभग सही ही लगती है। मगर, ये उत्सव बौद्धिकता की आड़ में मसाला फिल्म ही बनकर रह जाता है। पंचतंत्र से लेकर राजा-रजवाड़ों और फिर मुंबई की अफरातफरी वाली ज़िंदगी में लड़की के लिए शरीर का जुगाड़ कभी मुश्किल नहीं रहा। ये फिल्म शक, अफवाहों और साज़िशों के बीच हर बार यही बात साबित करती दिखती है। एक कमज़ोर दिल का दर्शक अगर ढंग से ये फिल्म देखना शुरू करें तो बगल में बैठी प्रेमिका उसे मांस के टुकड़ों वाली लड़की से ज़्यादा कुछ नहीं लगेगी, ‘वेश्या’ तक लग सकती है। हर औरत इतनी चालू, चालबाज़ और चालाक लगने लगे कि भोलाभाला दर्शक मान बैठे कि सिर्फ शरीर के उत्सव का जुगाड़ ढूंढने में ही औरत कितनी ओवरस्मार्ट हो सकती है। कम से कम नारी की आज़ादी का उत्सव मनाने का ये मकसद तो नहीं ही होना चाहिए कि हर मर्द को मानसिक रूप से इतना बीमार दिखाया जाए कि उसे अपने होने पर शर्म आने लगे। विभूति नारायण राय को फिल्म दिखाकर नए साल में पूछा जाना चाहिए कि नारी को लेकर उनका संकल्प कुछ बदला कि नहीं।

आखिर तक आते-आते फिल्म थोड़ी लंबी और उबाऊ लगने लगती है। आखिरी कहानी तो बेहद चलताऊ किस्म की है, जिसमें एक अधेड़ पति होटल बुक करता है और लड़की की डिमांड करता है तो उसकी बीवी ही परोस दी जाती है। यहां तक की मजबूर औरतें तो हम पहले भी देख चुके हैं मगर कॉमिक ट्विस्ट ये है कि बीवी एक पेड सेक्स वर्कर होती है और रूमसर्विस वाले लड़के पर झल्लाती है कि साले, क्लाइंट देखने से पहले दिमाग तो लगा लिया कर। बोमन इरानी और कोंकणा सेन के नाम पर ये सीन बिना उल्टी किए हजम कर सकते हैं, वरना सड़क पर बीसियों रसीली कहानियों वाली किताबें पड़ी मिलती हैं।

गाने और एक्टिंग के मामले में पूरी फिल्म में कोई दिक्कत नज़र नहीं आती। जावेद अख्तर आखिर तक अपने लिए गुजाइश निकाल जाते हैं। ये हिंदुस्तानी गीत ही हैं जो तमाम तरह के नकल और इंस्पिरेशन से बनी हुई फिल्मों के दौर में देसी और ओरिजिनल लगते हैं। मंजे हुए एक्टर्स के दम पर ही फिल्म वैसे दृश्य भी आसानी से निकाल ले जाती है जो किसी दबंग या तीसमारखां टाइप निर्देशक के हाथ में पड़कर सचित्र सेक्स कहानी बन सकती थी।

अभिनेत्री इला अरुण यहां भी हैं...उनकी आवाज में गाए गीत नारी मुक्ति के बिंदास स्लोगन की तरह लगते है। फिल्म में इला अरुण के संवाद और गीत से न जाने क्यों खलनायक का वो गीत चोली के पीछे क्या है...याद हो आता है जब माधुरी दीक्षित पहली बार लेडी महानायिका बनकर उभरी थी और सचमुच मर्दप्रधान बॉलीवुड में नारी उत्सव मनाया जाना चाहिए था। खैर, वो उत्सव तो गाने को लेकर मची तोड़फोड़ में भंग हो गया।

बतौर फिल्मकार, विनय शुक्ला का चिंतन सीरियस है। फिल्म में कोई आमिर, शाहरूख या सलमान तक होते तो शर्तिया लाखों दर्शक टूट पड़ते क्योंकि उनके लिए बहुत कुछ तीखा है पूरी फिल्म में। इस तरह कह सकते हैं कि ये अपने दौर से काफी आगे की फिल्म है। ऐसी फिल्में बार-बार बनाई जानी चाहिए कि फैमिली ड्रामा के नाम पर फूहड़ फिल्में देखने का आदी हो चुका हिंदुस्तानी दर्शक अपने भीतर छिपे एक बुद्धिमान दिमाग को ढूंढ निकाले। हिंदुस्तान में मल्टीप्लेक्स तो आ गया है, मगर उस माइंडसेट वाले दर्शक अब भी आने बाक़ी हैं। कम से कम पूरी फैमिली के साथ तो नहीं ही आ सकते। अभी तक तो मल्टीप्लेक्स का दर्शक उसी घिसे-पिटे मर्दाना डायलॉग्स पर तालियां पीटता है, जब बड़े पर्दे का सुपरस्टार और छोटे पर्दे का शेफ ये कहता हुआ ‘तीसमारखां’ बनता है कि उसे पकड़ना और तवायफ की लुटती हुई इज़्ज़त बचाना नामुमकिन है।

निखिल आनंद गिरि
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रविवार, 26 दिसंबर 2010

बनमानुस...

एक दुनिया है समझदार लोगों की,

होशियार लोगों की,

खूब होशियार.....

वो एक दिन शिकार पर आए

और हमें जानवर समझ लिया...

पहले उन्होंने हमें मारा,

खूब मारा,

फिर ज़बान पर कोयला रख दिया,

खूब गरम...

एक बीवी थी जिसके पास शरीर था,

उन्होंने शरीर को नोंचा,

खूब नोचा...

जब तक हांफकर ढेर नहीं हो गए,

हमारे घर के दालानों में....


हमारी बीवियों ने मारे शरम के,

नज़र तक नहीं मिलाई हमसे

उल्टा उन्हीं के मुंह पर छींटे दिए,

कि वो होश में आएं

और अपने-अपने घर जाएं...

ताकि पक सके रोटियां

खूब रोटियां...


वो होश में आए तो,

जो जी चाहा किया...

हमे फिर मारा,

उन्हें फिर नोंचा...

हमारी रोटियां उछाल दी ऊंचे आकाश में....

खूब ऊंचा....

वो हंसते रहे हमारी मजबूरी पर,

खूब हंसे...


भूख से बिलबिला उठे हम....

जलता कोयला निकल गया मुंह से...

जंगल चीख उठा हमारी हूक से....

पहाड़ कांप उठे हमारी सिहरन से....

नदियों में आ गया उफान,

खूब उफान....


उनके हाथ में हमारी रोटियां थीं,

उनकी गोद में हमारी मजबूर बीवियां थीं...

उनकी हंसी में हमारी चीख थी, भूख थी....

हमने पास में पड़ा डंडा उठाया

और उन्हें हकार दिया,

अपने दालानों से....

वो नहीं माने,

तो मार दिया.....


जंगल से बाहर की दुनिया

यही समझती रही,

हम आदमखोर हैं, बनमानुस...

जंगली कहीं के....

वाह रे समझदार...

वाह री सरकार.....


निखिल आनंद गिरि

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बुधवार, 22 दिसंबर 2010

इन दिनों...

तेरी रुखसत का असर हैं इन दिनों,
दर्द मेरा हमसफ़र है इन दिनों....

मर भी जाऊं तो ना पलकों को भिगा,
हादसों का ये शहर है इन दिनों....

अब खुदा तक भी दुआ जाती नही,
फासला कुछ इस कदर है इन दिनों.....

कश्तियों
 का रुख न तूफां मोड़ दें,
साहिलों को यही डर है इन दिनों...


पाँव क्यों उसके ज़मी पर हो भला,
आदमी अब चांद पर है इन दिनों....


क्या कहू, मैं क्यों कही जाता नही,
खुद से खुद तक का सफ़र है इन दिनों......


हम कहॉ जाएँ, किधर जाएँ 'निखिल',
नाआशना हर रह्गुजर है इन दिनों.....

निखिल आनंद गिरि
(इस गीत को यहां सुना भी जा सकता है...
http://kavita.hindyugm.com/2008/01/9.html)

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

दे दो न इसको आवाज़ साथी...

उम्र की कच्ची सड़कों पर जब, हम-तुम अल्हड़ मस्त चाल में;
सब कुछ पीछे छोड़ बढ़े थे...
तुमको भी सब याद ही होगा...

नर्म ज़ुबां में भोली नज़्में,
मैं गढ़ता था, तुम सुनती थीं..
एक नज़्म जो अटक गई थी,
नटखट थोड़ी, नकचढ़ी सी...
उम्र की सीढ़ी पर चुपके से...
मैंने तुम्हारे रस्ते में रख छोड़ी थी...
रिश्तों की पोशाक ओढ़ाकर.
थोड़ा-सा बहला फुसलाकर
तुमको भी सब याद ही होगा...

बहकी-बहकी नज़्म को तुमने,
ठोकर मारी और गुज़र गए...
अल्हड़, अगड़ाई लेती नज़्म वो
रिश्तों की पोशाक लपेटे,
सुबक-सुबक कर, कहीं दुबक कर...
उम्र के रस्ते में खोई थी...
तुमको भी सब याद ही होगा...

आज अचानक किसी गली में,
वक्त के लब पर...
वही नज़्म फिर से,
मुझे दिख पड़ी है...
मिसरे वही हैं, बहर भी वही है...
रिश्तों की पोशाक ज़रा-सी रफू हुई है...

वही शरारत, नज़्म में अब भी...
भोलापन, अंगड़ाई वही है...
तुम्हारी ठोकर से जो एक रिश्ता
हौले-हौले सुबक रहा था,
उम्र की कच्ची सड़कों पर,
बरसों से दुबक रहा था...

उन्हीं लबों की इसे फिर तलब है....
दे दो न इसको आवाज़ साथी....

निखिल आनंद गिरि

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शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

कह री दिल्ली.....

यहाँ हर ओर चेहरों की चमक जब भी है मिलती मुस्कुराती है,
यहाँ पाकर इशारा ज़िन्दगी लंबी सड़क पर दौड़ जाती है,
सुबह का सूर्य थकता है तो खंभों पर चमक उठती हैं शामें,
यहाँ हर शाम प्यालों में लचकती है, नहाती है...
दुःख ठिकाना ढूँढता है, सुख बहुत रफ़्तार में है..
माँ मगर वो सुख नही है जो तुम्हारे प्यार में है..............

यहाँ कोई धूप का टुकडा नही खेला किया करता है आंगन में,
सुबह होती है यूं ही, थपकियों के बिन,कमरे की घुटन में,
नित नए सपने बुने जाते यहां हैं खुली आंखों से,
और सपने मर भी जाएँ, तो नही उठती है कोई टीस मन में
घर की मिट्टी, चांद, सोना, सब यहाँ बाज़ार में है...
माँ मगर वो....................

मेरे प्रियतम! हमारे मौन अनुभव हैं लजाते,
हम भला इस शोर की नगरी में कैसे आस्था अपनी बचाते,
प्रेम के अनगिन चितेरे यहा सड़कों पर खडे किल्लोल करते
रात राधा,दिवस मीरा संग, सपनो का नया बिस्तर लगाते,
प्रेम की गरिमा यहाँ पर देह के विस्तार में है...
हाँ! मगर वो............

कह री दिल्ली? दे सकेगी कभी मुझको मेरी माँ का स्नेह-आँचल,
दे सकेंगे क्या तेरे वैभव सभी,मिलकर मुझे, दुःख-सुख में संबल,
क्या तू देगी धुएं-में लिपटे हुये चेहरों को रौनक??
थकी-हारी जिन्दगी की राजधानी,देख ले अपना धरातल,
पूर्व की गरिमा,तू क्यों अब पश्चिमी अवतार में है??
माँ मगर वो........................

निखिल आनंद गिरि
(दिल्ली आकर लिखी गई शुरूआती कविताओं में से एक)

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे...

जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....


अभी वक्त की मारामारी है,

कुछ सपनों की लाचारी है,

जगती आंखों के सपने हैं...

राशन, पानी के, कुर्सी के...

पल कहां हैं मातमपुर्सी के....

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे.....


अभी वक्त पे काई जमी हुई,

अपनों में लड़ाई जमी हुई,

पानी तो नहीं पर प्यास बहुत,

ला ख़ून के छींटे, मुंह धो लूं,

इक लाश का तकिया दे, सो लूं,....

जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे.....


उम्र का क्या है, बढ़नी है,

चेहरे पे झुर्रियां चढ़नी हैं...

घर में मां अकेली पड़नी है,

बाबूजी का क़द घटना है,

सोचूं तो कलेजा फटना है,

इक दिन टूटेगा......


उसने हद तक गद्दारी की,

हमने भी बेहद यारी की,

हंस-हंस कर पीछे वार किया,

हम हाथ थाम कर चलते रहे,

जिन-जिनका, वो ही छलते रहे....

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...


जब तक रिश्ता बोझिल न हुआ,

सर्वस्व समर्पण करते रहे,

तुम मोल समझ पाए ही नहीं,

ख़ामोश इबादत जारी है,

हर सांस में याद तुम्हारी है...

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...


अभी और बदलना है ख़ुद को,

दुनिया में बने रहने के लिए,

अभी जड़ तक खोदी जानी है,

पहचान न बचने पाए कहीं,

आईना सच न दिखाए कहीं!

जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे....


अभी रोज़ चिता में जलना है,

सब उम्र हवाले करनी है,

चकमक बाज़ार के सेठों को,

नज़रों से टटोला जाना है,

सिक्कों में तोला जाना है...

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे....


इक दिन नीले आकाश तले,

हम घंटों साथ बिताएंगे,

बचपन की सूनी गलियों में,

हम मीलों चलते जाएंगे,

अभी वक्त की खिल्ली सहने दे...

जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे..


मां की पथरायी आंखों में,

इक उम्र जो तन्हा गुज़री है,

मेरे आने की आस लिए..

उस उम्र का हर पल बोलेगा....


टूटे चावल को चुनती मां,

बिन बांह का स्वेटर बुनती मां,

दिन भर का सारा बोझ उठा,

सूना कमरा, सिर धुनती मां....


टूटे ऐनक की लौटेगी

रौनक, जिस दिन घर लौटूंगा...

मां तेरे आंचल में सिर रख,

मैं चैन से उस दिन सोऊंगा,

मैं जी भर कर तब रोऊंगा.....


तू चूमेगी, पुचकारेगी,

तू मुझको खूब दुलारेगी...

इस झूठी जगमग से रौशन,

उस बोझिल प्यार से भी पावन,

जन्नत होगी, आंचल होगा....

मां! कितना सुनहरा कल होगा.....


इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे....

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रविवार, 5 दिसंबर 2010

रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन...

दे जाता है इन शामों को सागर कौन...

चुपके से आया आंखों से बाहर कौन?

भूख न होती, प्यास न लगती इंसा को

रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन?

उम्र निकल गई कुछ कहने की कसक लिए,

कर देती है जाने मुझ पर जंतर कौन?

संसद में फिर गाली-कुर्सी खूब चली,

होड़ सभी में, है नालायक बढ़कर कौन?

रिश्तों के सब पेंच सुलझ गए उलझन में,

कौन निहारे सिलवट, झाड़े बिस्तर कौन...

सब कहते हैं, अच्छा लगता है लेकिन,

मुझको पहचाने है मुझसे बेहतर कौन?

मां रहती है मीलों मुझसे दूर मगर,

ख्वाबों में बहलाए आकर अक्सर कौन..

जीवन का इक रटा-रटाया रस्ता है,

‘निखिल’ जुनूं न हो तो सोचे हटकर कौन?


निखिल आनंद गिरि
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बुधवार, 1 दिसंबर 2010

इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी...

वहां हम छोड़ आए थे चिकनी परतें गालों की

वहीं कहीं ड्रेसिंग टेबल के आसपास

एक कंघी, एक ठुड्डी, एक मां...

गौर से ढूंढने पर मिल भी सकते हैं...

एक कटोरी हुआ करती थी,

जो कभी खत्म नहीं होती....

पीछे लिखा था लाल रंग का कोई नाम...

रंग मिट गया, साबुत रही कटोरी...


कूड़ेदानों पर कभी नहीं लिखी गई कविता

जिन्होंने कई बार समेटी मेरी उतरन

ये अपराधबोध नहीं, सहज होना है...


एक डलिया जिसमें हम बटोरते थे चोरी के फूल,

अड़हुल, कनैल और चमेली भी...

दीदी गूंथती थी बिना मुंह धोए..

और पिता चढ़ाते थे मूर्तियों पर....

और हमें आंखे मूंदे खड़े होना पड़ा....

भगवान होने में कितना बचपना था...


एक छत हुआ करती थी,

जहां से दिखते थे,

हरे-उजले रंग में पुते,

चारा घोटाले वाले मकान...

जहां घाम में बालों से

दीदी निकालती थी ढील....

जूं नहीं ढील,

धूप नहीं घाम....

और सूखता था कोने में पड़ा...

अचार का बोइयाम...


एक उम्र जिसे हम छोड़ आए,

ज़िल्द वाली किताबों में...

मुरझाए फूल की तरह सूख चुकी होगी...

और ट्रेन में चढ़ गए लेकर दूसरी उम्र....

छोड़कर कंघी, छोड़कर ठुड्डी, छोड़कर खुशबू,

छोड़कर मां और बूढ़े होते पिता...


आगे की कविता कही नहीं जा सकती.....

वो शहर की बेचैनी में भुला दी गई

और उसका रंग भी काला है...

इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी,

मगर पिता बूढ़े होने लगें,

तो प्रेमिकाओं को जाना होता है....


निखिल आनंद गिरि

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रविवार, 28 नवंबर 2010

एक उदास कविता...जैसे तुम

गांव सिर्फ खेत-खलिहान या भोलापन नहीं हैं,

गांव में एक उम्मीद भी है,

गांव में है शहर का रास्ता

और गांव में मां भी है...


शहर सिर्फ खो जाने के लिए नहीं है..

धुएं में, भीड़ में...

अपनी-अपनी खोह में...

शहर सब कुछ पा लेना है..

नौकरी, सपने, आज़ादी..


नौकरी सिर्फ वफादारी नहीं,

झूठ भी है, साज़िश भी...

उजले कागज़ पर सफेद झूठ...

और जी भरकर देह हो जाना भी..


देह बस देह नहीं है...

उम्र की मजबूरी है कहीं,

कहीं कोड़े बरसाने की लत है...

सच कहूं तो एक ज़रूरत है..


और सच, हा हा हा..

सच एक चुटकुला है....

भद्दा-सा, जो नहीं किया जाता

हर किसी से साझा...

बिल्कुल मौत की तरह,

उदास कविता की तरह....


और कविता...

...................

सिर्फ शब्दों की तह लगाना

नहीं है कविता,..

वाक्यों के बीच

छोड़ देना बहुत कुछ

होती है कविता...

जैसे तुम...

निखिल आनंद गिरि
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शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

खैर, मां तो मां है ना...

आज बहुत दिनों बाद लौटा हूँ घर,

एक बीत चुके हादसे की तरह मालूम हुआ है

की मेरी बंद दराज की कुछ फालतू डायरियां

(ऐसा माँ कहती है, तुम्हे बुरा लगे तो कहना,

कविता से हटा दूंगा ये शब्द....)

बेच दी गयी हैं कबाडी वाले को....

मैं तलाश रहा हूँ खाली पड़ी दराज की धूल,

कुछ टुकड़े हैं कागज़ के,

जिनकी तारीख कुतर गए हैं चूहे,

कोइ नज़्म है शायद अधूरी-सी...

सांस चल रही है अब तक...


एक बोझिल-सी दोपहर में जो तुमने कहा था,

ये उसी का मजमून लगता है..

मेरे लबों पे हंसी दिखी है...

ज़ेहन में जब भी तुम आती हो,

होंठ छिपा नहीं पाते कुछ भी....

खैर, मेरे हंस भर देने से,

साँसे गिनती नज़्म के दिन नहीं फिरने वाले..

वक़्त के चूहे जो तारीखें कुतर गए हैं,

उनके गहरे निशाँ हैं मेरे सारे ज़हन पर..


क्या बतलाऊं,

जिस कागज़ की कतरन मेरे पास पड़ी है,

उस पर जो इक नज़्म है आधी...

उसमे बस इतना ही लिखा है,

"काश! कि कागज़ के इस पुल पर,

हम-तुम मिलते रोज़ शाम को...

बिना हिचक के, बिना किसी बंदिश के साथी...."


नज़्म यहीं तक लिखी हुई है,

मैं कितना भी रो लूं सर को पटक-पटक कर,

अब ना तो ये नदी बनेगी,

ना ये पुल जिस पर तुम आतीं...

माँ ने बेच दिया है अनजाने में,

तुम्हारे आंसू में लिपटा कागज़ का टुकडा...

पता है मैंने सोच रखा था,

इक दिन उस कागज़ के टुकड़े को निचोड़ कर....

तुम्हारे आंसू अपनी नदी में तैरा दूंगा,

मोती जैसे,

मछली जैसे,

कश्ती जैसे,

बल खाती-सी..


खैर, माँ तो माँ ही है ना..

बहुत दिनों के बाद जो लौटा हूँ तो इतनी,

सज़ा ज़रूरी-सी लगती है...

निखिल आनंद गिरि

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गुरुवार, 25 नवंबर 2010

रात, चांद और आलपिन....

अभी बाक़ी हैं रात के कई पहर,


अभी नहीं आया है सही वक्त

थकान के साथ नींद में बतियाने का....

उसने बर्तन रख दिए हैं किचन में,

धो-पोंछ कर...

(आ रही है आवाज़....)

अब वो मां के घुटनों पर करेगी मालिश,

जब तक मां को नींद न आ जाए..

अच्छी बहू को मारनी पड़ती हैं इच्छाएं...

चांदनी रातों में भी...

कमरे में दो बार पढ़ा जा चुका है अखबार....

उफ्फ! ये चांदनी, तन्हाई और ऊब...


पत्नी आती है दबे पांव,

कि कहीं सो न गए हों परमेश्वर...

पति सोया नहीं है,

तिरछी आंखों से कर रहा है इंतज़ार,

कि चांदनी भर जाएगी बांहों में....

थोड़ी देर में..

वो मुंह से पसीना पोंछती है,

खोलती है जूड़े के पेंच,

एक आलपिन फंस गई है कहीं,

वो जैसे-तैसे छुड़ाती है सब गांठें

और देखती है पति सो चुका है..

अब चुभी है आलपिन चांदनी में...

ये रात दर्द से बिलबिला उठी है....


सुबह जब अलार्म से उठेगा पति,

और पत्नी बनाकर लाएगी चाय,

रखेगी बैग में टिफिन (और उम्मीद)

एक मुस्कुराहट का भी वक्त नहीं होगा...


फिर भी, उसे रुकना है एक पल को,

इसलिए नहीं कि निहार रही है पत्नी,

खुल गए हैं फीते, चौखट पर..

वो झुंझला कर बांधेगा जूते...

और पत्नी को देखे बगैर,

भाग जाएगा धुआं फांकने..


आप कहते हैं शादी स्वर्ग है...

मैं कहता हूं जूता ज़रूरी है...

और रात में आलपिन...


निखिल आनंद गिरि

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सोमवार, 22 नवंबर 2010

तुम्हारा चेहरा मुझे ग्लोब-सा लगता है...

तुम कैसे हो?
दिल्ली में ठंड कैसी है?
....?

ये सवाल तुम डेली रूटीन की तरह करती हो,
मेरा मन होता है कह दूं-
कोई अखबार पढ लो..
शहर का मौसम वहां छपता है
और राशिफल भी....

मुझे तुम पर हंसी आती है,
खुद पर भी..
पहले किस पर हंसू,
मैं रोज़ ये पूछना चाहता हूं
मगर तुम्हारी बातें सुनकर जीभ फिसल जाती है,
इतनी चिकनाई क्यूं है तुम्हारी बातों में...
रिश्तों पर परत जमने लगी है..

अब मुझे ये रिश्ता निगला नहीं जाता...
मुझे उबकाई आ रही है...
मेरा माथा सहला दो ना,
शायद आराम हो जाये...
कुछ भी हो,
मैं इस रिश्ते को प्रेम नहीं कह सकता...

अब नहीं लिखी जातीं
बेतुकी मगर सच्ची कविताएं...
तुम्हारा चेहरा मुझे ग्लोब-सा लगने लगा है,
या किसी पेपरवेट-सा....
मेरे कागज़ों से शब्द उड़ न जाएं,
चाहता हूं कि दबी रहें पेपरवेट से कविताएं....

उफ्फ! तुम्हारे बोझ से शब्दों की रीढ़ टेढी होने लगी है....
मैं शब्दों की कलाई छूकर देखता हूं,
कागज़ के माथे को टटोलता हूं,
तपिश बढ-सी गयी लगती है...

तुम्हारी यादों की ठंडी पट्टी
कई बार कागज़ को देनी पड़ी है....
अब जाके लगता है इक नज़्म आखिर,
कच्ची-सी करवट बदलने लगी है...
नींद में डूबी नज्म बहुत भोली लगती है....

जी करता है नींद से नज़्म कभी ना जागे,
होश भरी नज़्मों के मतलब,
अक्सर ग़लत गढे जाते हैं....

निखिल आनंद गिरि...
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गुरुवार, 18 नवंबर 2010

यहां पुलिस की साजिश को आप साफ साफ देख सकते हैं

मेरे बचपन के साथी हेम चंद्र पांडे की हत्या को सरकार सही ठहराने की कोशिश कर रही है। खुफिया एजेंसियों की तरफ से भाड़े पर लगाये गये पत्रकार अपने काम में जुटे हैं। इसलिए हेम की पत्नी बबीता के बयानों को ज्यादा अखबारों में जगह नहीं मिल पायी। सभी दोस्तों से अपील है कि नीचे दिये गये बबीता के इस बयान को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाएं। अगर आप पत्रकार हैं, तो इसे जगह-जगह प्रकाशित करने की कोशिश भी करें : भूपेन


आंध्रप्रदेश पुलिस मेरे पति हेम चंद्र पांडे के बारे में दुष्प्रचार कर फर्जी मुठभेड़ में की गयी उनकी हत्या पर पर्दा डालने का काम कर रही है। इस मामले में न्यायिक जांच किये जाने के बजाय लगातार मुझे परेशान करने की कोशिश की जा रही है। पुलिस ने शास्‍त्रीनगर स्थित हमारे किराये के घर में बिना मुझे बताये छापा मारा है और वहां से कई तरह की आपत्तिजनक चीजों की बरामदगी दिखायी है। आंध्रप्रदेश पुलिस का ये दावा बिल्कुल झूठा है कि मैंने उन्हें अपने घर का पता नहीं बताया। पुलिस के पास मेरे घर का पता भी था और मेरा फोन नंबर भी लेकिन उन्होंने छापा मारने से पहले मुझे सूचित करना जरूरी नहीं समझा।


मैं अपने पति हेमचंद्र पाडे के साथ A- 96, शास्त्री नगर में रहती थी। हेम एक प्रगतिशील पत्रकार थे। साहित्य और राजनीति में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। उनके पास मक्सिम गोर्की के उपन्यास और उत्तराखंड के जनकवि गिर्दा जैसे रचनाकारों की ढेर सारी रचनाएं थीं। इसके अलावा मार्क्सवादी राजनीति की कई किताबें भी हमारे घर में थीं। मैं पूछना चाहती हूं कि क्या मार्क्सवाद का अध्ययन करना कोई अपराध है? पुलिस जिन आपत्तिजनक दस्तावेजों की बात कर रही है, उनके हमारे घर में होने की कोई जानकारी मुझे नहीं है। मेरे पति का एक डेस्कटॉप कंप्‍यूटर था लेकिन उनके पास कोई लैपटॉप नहीं था। उनके पास फैक्स मशीन जैसी भी कोई चीज नहीं थी। वहां गोपनीय दस्तावेज होने की बात पूरी तरह मनगढ़ंत है। मुझे लगता है कि पुलिस मेरे पति की हत्या की न्यायिक जांच की मांग को भटकाने के लिए इस तरह के काम कर रही है। मैं पूछना चाहती हूं कि सरकार क्यों नहीं न्यायिक जांच के लिए तैयार हो रही है?

मैं अपने पति की हत्या के बाद काफी दुखी थी, इस वजह से मैं शास्त्रीनगर के अपने किराये के घर में नहीं गयी। मैं कुछ दिन अपनी सास के साथ उत्तराखंड के हलद्वानी और अपनी मां के पास पिथौरागढ़ में थी। मकान मालकिन का फोन आने पर मैंने उन्हें बताया था कि मैं वापस आने पर उनका सारा किराया चुका दूंगी। अगर उन्हें जल्द घर खाली कराना है तो मेरा सामान निकालकर अपने पास रख लें। मैं बाद में उनसे अपना सामान ले लूंगी। अगर हमारे घर में कोई भी आपत्तिजनक सामान होता, तो मैं उनसे ऐसा बिल्कुल भी नहीं कहती।

मेरी समझ में ये नहीं आ रहा है कि पुलिस इस तरह की अफवाह फैलाकर क्या साबित करना चाह रही है। मुझे शक है कि वो मेरे पति की हत्या को सही ठहराने के लिए ही ये सारे हथकंडे अपना रही है। मैं मीडिया से अपील करना चाहती हूं कि वो आंध्रप्रदेश पुलिस के दुष्प्रचार में न आएं और मेरे पति के हत्यारों को सजा दिलाने में मेरी मदद करे।

विनीता पांडे

(मोहल्ला से साभार)

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