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बहरहाल, अब जाकर पुष्कर से मेरी पहली मुलाक़ात 27 जून 2013 को मीडिया खबर के कॉन्क्लेव में हुई..अब आलम ये है कि पिछले कुछ महीनो से न तो मीडिया खबर का तेवर वो रहा और न ही मैं ज़ी में हूँ..जिस कॉन्क्लेव में पुष्कर से भेंट हुई, वो किसी कॉर्पोरेट कार्यक्रम की तर्ज़ पर आयोजित था...एस पी सिंह के नाम पर याद करने के सिवा कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे सुकून मिल सके कि मीडिया खबर अब भी वैसी ही वेबसाइट है जिससे किसी सम्पादक की नींद खराब हो जाए...ऐसा लग रहा था कि सारे कार्यक्रम बड़े संपादकों को 'आईना' दिखाने की बजाय उनके साथ मेलजोल बढाने, बोलने-बतियाने और उन्हें फूल मालाएं भेंट करने के लिए रखा गया था...हँसते-खेलते विनीत कुमार अपनी शैली में दो-चार खरी बातें कह भी गए तो किसी को कोई फर्क पड़ा होगा, लगता नहीं है...विनीत को शायद वो सब 'पर्सनली' जानते हैं इसीलिए उनसे किसी 'नुकसान' की उम्मीद या डर सबके चहरे से गायब था..वो सब उस कॉन्क्लेव में शर्मिंदा होने के बजाय 'एन्जॉय' कर रहे थे...
कमर वहीद नकवी ही थोड़े सेंसिटिव दिख रहे थे..हालांकि, वो भी इतिहास का हवाला देकर संपादकों और नौसिखिये कर्मचारियों की सैलरी में बड़े गैप को जस्टिफाई कर रहे थे..किसी ने ये सवाल नहीं पूछा कि अगर ये उन्हें 'नाजायज़' लगता है/था तो क्यों नहीं एक बड़े चैनल का मुखिया रहते उन्होंने इसे दुरुस्त करने कि कोशिश की..वह पैनल में बैठे मोटी चमड़ी वाले संपादकों से ये भी पूछा जाना चाहिए था कि नैतिकता के नाम पर अपनी सैलरी भी सार्वजनिक करते..
एक एडिटर साहेब थे, जिनके लिए मालिकों के तलवे चाटकर पत्रकारिता करने की अपनी मजबूरी अब कोई शर्म की बात नहीं लगती..उल्टे वो अपने कुतर्कों के साथ मज़ा ले रहे थे और सबसे पूछ रहे थे कि कोई विकल्प हो तो कहिये..कम से कम ये मत कहियेगा कि हम मीडिया की नौकरी छोड़कर जूते या कपडे सिलने लगें..ऐसी बेफिक्री और बेशर्मी सिर्फ और सिर्फ तभी आती है जब आपके पास नौकरी जाने के बाद रोटी-दाल का खतरा न हो..
सभी इस बात से सहमत दिखे कि सारी दिक्कत उनके 'पुअर मैनेजमेंट' कि वजह से नहीं बल्कि नए लोगों में 'क्वालिटी' की कमी की वजह से ही है..उनके इस भोले जवाब पर क्या किया जाए, अब तक सोच रहा हूँ..ऐसा कुतर्क कई दफे सुनता रहा हूँ और ऐसा लगने लगा है कि चैनलों में जो कुछ 'भला' बचा है, वो सब कुछ बूढ़े लोगों की वजह से ही बचा है..मुझे निजी तौर पर उन तरह के टेस्ट से सख्त एलर्जी है जिनमें अमरीका के उपराष्ट्रपति का नाम न जाने वाले को लाइब्रेरी का टेप ढोने लायक भी नहीं समझा जाए..
होना ये चाहिए था कि कुछ यंग लोगों को मंच पर बिठाकर तमाम एडिटर्स को नीचे बिठाया जाना चाहिए था और आखिर में हाथ उठा-उठा कर उन्हें अपनी सफाई देने भर का मौक़ा देना चाहिए था..मीडिया खबर को अगर सचमुच कुछ अलग करना है तो 'रिस्क' उठाने को अपनी आदत बनाए रखना चाहिए..वरना , 'भड़ास' निकालने वाली वेबसाइट्स की कोई कमी थोड़े ही है..
यूं तो कार्यक्रम 5 -7 घंटे चला मगर वहाँ सवाल पूछने वालों के लिए कोई समय नहीं था..वरना एक सवाल ज़रूर पूछता कि आप सब कौन सी चक्की का आटा खाते हैं जो आपको अब किसी बात का कोई फर्क नहीं पड़ता..हमें पड़ता है..तभी हम दिल्ली में अपना वक़्त बर्बाद कर आप लोगों को उम्मीद से सुनने जाते हैं और फिर अफ़सोस करते हुए लौट आते हैं..
भूल-चूक लेनी-देनी..
निखिल आनंद गिरि