न जाने चाँद पूनम का, ये क्या जादू चलाता है,
कि पागल हो रही लहरें, समुंदर कसमसाता है.
हमारी हर कहानी में, तुम्हारा नाम आता है.
ये सबको कैसे समझाएँ कि तुमसे कैसा नाता है.
ज़रा सी परवरिश भी चाहिए, हर एक रिश्ते को,
अगर सींचा नहीं जाए तो पौधा सूख जाता है.
ये मेरे ग़म के बीच में क़िस्सा है बरसों से
मै उसको आज़माता हूँ, वो मुझको आज़माता है.
जिसे चींटी से लेकर चाँद सूरज सब सिखाया था,
वही बेटा बड़ा होकर, सबक़ मुझको पढ़ाता है.
नहीं है बेइमानी गर ये बादल की तो फिर क्या है,
मरूस्थल छोड़कर, जाने कहाँ पानी गिराता है.
पता अनजान के किरदार का भी पल में चलता है,
कि लहजा गुफ्तगू का भेद सारे खोल जाता है.
ख़ुदा का खेल ये अब तक नहीं समझे कि वो हमको
बनाकर क्यों मिटाता है, मिटाकर क्यूँ बनाता है.
वो बरसों बाद आकर कह गया फिर जल्दी आने को
पता माँ-बाप को भी है, वो कितनी जल्दी आता है.
*******************************************
खिड़कियाँ, सिर्फ़, न कमरों के दरमियां रखना
अपने ज़ेहनों में भी, थोड़ी सी खिड़कियाँ रखना
पुराने वक़्तों की मीठी कहानियों के लिए
कुछ, बुजुर्गों की भी, घर पे निशानियाँ रखना
ज़ियादा ख़ुशियाँ भी मगरूर बना सकती हैं
साथ ख़ुशियों के ज़रा सी उदासियाँ रखना.
बहुत मिठाई में कीड़ों का डर भी रहता है
फ़ासला थोड़ा सा रिश्तों के दरमियां रखना
अजीब शौक़ है जो क़त्ल से भी बदतर है
तुम किताबों में दबाकर न तितलियाँ रखना
बादलो, पानी ही प्यासों के लिए रखना तुम
तुम न लोगों को डराने को बिजलियाँ रखना
बोलो मीठा ही मगर, वक़्त ज़रूरत के लिए
अपने इस लहजे में थोड़ी सी तल्ख़ियाँ रखना
मशविरा है, ये, शहीदों का नौजवानों को
देश के वास्ते अपनी जवानियाँ रखना
ये सियासत की ज़रूरत है कुर्सियों के लिए
हरेक शहर में कुछ गंदी बस्तियाँ रखना
*******************************************
इतनी किसी की ज़िंदगी ग़म से भरी न हो.
वो मौत माँगता हो, मगर मौत भी न हो.
ख़ंजर के बदले फूल लिए आज वो मिला,
डरता हूँ कहीं चाल ये उसकी नई न हो.
बच्चों को मुफ़लिसी में, ज़हर माँ ने दे दिया,
अख़बार में अब ऐसी ख़बर फिर छपी न हो.
ऐसी शमा जलाने का क्या फ़ायदा मिला
जो जल रही हो और कहीं रोशनी न हो.
हर पल, ये सोच-सोच के नेकी किए रहो,
जो साँस ले रहो हो, कहीं आख़िरी न हो.
क्यूँ ज़िंदगी को ग़र्क़ किए हो जुनून में
रख्खो जुनून उतना कि वो खुदकुशी न हो.
ऐसे में क्या समुद्र के तट का मज़ा रहा,
हो रात, साथ वो हों, मगर चाँदनी न हो.
एहसास जो मरते गए, दुनिया में यूँ न हो,
दो पाँव के सब जानवर हों, आदमी न हो.
इस बार जब भी धरती पे आना ऐ कृष्ण जी,
दो चक्र ले के आना, भले बांसुरी न हो.
लक्ष्मीशंकर वाजपेयी
मंगलवार, 27 फ़रवरी 2007
शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2007
प्रेम
प्रेम!!
प्रेमी सोचता है
किउसकी आँखों की भाषा सिर्फ वही पढ़ रही है
उसके संकेतों को सिर्फ़ वही समझ रही है
इस तरह का भ्रम प्रेमिका को भी होता है
भ्रम न रहे तो बताइए प्रेम कैसे हो!
प्रेमी सोचता है
किउसकी आँखों की भाषा सिर्फ वही पढ़ रही है
उसके संकेतों को सिर्फ़ वही समझ रही है
इस तरह का भ्रम प्रेमिका को भी होता है
भ्रम न रहे तो बताइए प्रेम कैसे हो!
सोमवार, 19 फ़रवरी 2007
चन्द गज़ले
तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था
पता नहीं वो दीए क्यूँ बुझा के रखता था
बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लक्कें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था
वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों-
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था
न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा,
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था
हमेशा बात वो करता था घर बनाने की
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था
मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था
***********************
बुरे दिनों का आना-जाना लगा रहेगा
सुख-दुख का ये ताना-बाना लगा रहेगा
मैं कहता हूँ मेरा कुछ अपराध नहीं है
मुंसिफ़ कहता है जुर्माना लगा रहेगा
लाख नए कपड़े पहनूँ लेकिन ये सच है,
मेरे पीछे दर्द पुराना लगा रहेगा
मेरे हाथ परीशां होकर पूछ रहे हैं-
कब तक लोहे का दस्ताना लगा रहेगा
महानगर ने इतना तन्हा कर डाला है
सबके पीछे इक वीराना लगा रहेगा
युद्ध हुआ तो खाने वाले नहीं बचेंगे-
होटल की मेज़ों पे खाना लगा रहेगा
***********************
तेरा शो-केस भी क्या खूब ठसक रखता था
इसमें मिट्टी का खिलौना भी चमक रखता था
आपने गाड़ दिया मील के पत्थर-सा मुझे-
मेरी पूछो तो मैं चलने की ललक रखता था
वो शिकायत नहीं करता था मदारी से मगर-
अपने सीने में जमूरा भी कसक रखता था
मुझको इक बार तो पत्थर पे गिराया होता-
मैं भी आवाज़ में ताबिंदा खनक रखता था
ज़िंदगी! हमने तेरे दर्द को ऐसे रक्खा-
प्यार से जिस तरह सीता को, जनक रखता था
मर गया आज वो मेरे ही किसी पत्थर से
जो परिंदा मेरे आंगन में चहक रखता था
साभार : बीबीसी वेबसाईट
पता नहीं वो दीए क्यूँ बुझा के रखता था
बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लक्कें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था
वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों-
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था
न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा,
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था
हमेशा बात वो करता था घर बनाने की
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था
मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था
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बुरे दिनों का आना-जाना लगा रहेगा
सुख-दुख का ये ताना-बाना लगा रहेगा
मैं कहता हूँ मेरा कुछ अपराध नहीं है
मुंसिफ़ कहता है जुर्माना लगा रहेगा
लाख नए कपड़े पहनूँ लेकिन ये सच है,
मेरे पीछे दर्द पुराना लगा रहेगा
मेरे हाथ परीशां होकर पूछ रहे हैं-
कब तक लोहे का दस्ताना लगा रहेगा
महानगर ने इतना तन्हा कर डाला है
सबके पीछे इक वीराना लगा रहेगा
युद्ध हुआ तो खाने वाले नहीं बचेंगे-
होटल की मेज़ों पे खाना लगा रहेगा
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तेरा शो-केस भी क्या खूब ठसक रखता था
इसमें मिट्टी का खिलौना भी चमक रखता था
आपने गाड़ दिया मील के पत्थर-सा मुझे-
मेरी पूछो तो मैं चलने की ललक रखता था
वो शिकायत नहीं करता था मदारी से मगर-
अपने सीने में जमूरा भी कसक रखता था
मुझको इक बार तो पत्थर पे गिराया होता-
मैं भी आवाज़ में ताबिंदा खनक रखता था
ज़िंदगी! हमने तेरे दर्द को ऐसे रक्खा-
प्यार से जिस तरह सीता को, जनक रखता था
मर गया आज वो मेरे ही किसी पत्थर से
जो परिंदा मेरे आंगन में चहक रखता था
साभार : बीबीसी वेबसाईट
.....काश....
दुख का झूला,सुख का झूला
ज़िन्दगी देखे है मैने ख्वाब अक्सर
दायरे से पार जाकर
एक बचपन बेलिबास,
सुस्त चाल, पस्त उसका हौसला है,
और दूजा बान्ध फ़ीते स्कूल जाने को चला है,
इधर नन्ही-सी कली आन्चल मे गुमसुम मुस्कुराती है,
उधर सुख का हाथ थामे ज़िन्दगी स्कूल जाती है,
मा की गोदी से निकलकर खो गया बचपन
बडॆ होकर हमने सीखा-
कभी पत्ते फ़ेकना और कभी पन्क्चर बनाना,
हो न पाया मा के साथ रिक्शे मे कभी स्कूल जाना
काश! अपने भी नसीबा मे हुई होती किताबे, दोस्त, सखी-सहेली,
खैर!!! अपनी भी दुनिया अलबेली,
काश! कोई रास्ता गुलशन भरा हो,
अपने धुन्धले ख्वाब का भी rang बदले,
सुख का पौधा फ़िर हरा हो,
रास्ता खुशियो भरा हो
और किस्मत मुस्कुराकर हाथ अपने एक दिन आगे badhaaye,
काश! दुख भरा बचपन कभी स्कूल जाये.....
काश!! ज़िन्दगी एक ही झूले पे दोनो गीत गाये,
सुख भरे भी, दुख भरे भी..........
काश.....................
निखिल आनन्द गिरि
ज़िन्दगी देखे है मैने ख्वाब अक्सर
दायरे से पार जाकर
एक बचपन बेलिबास,
सुस्त चाल, पस्त उसका हौसला है,
और दूजा बान्ध फ़ीते स्कूल जाने को चला है,
इधर नन्ही-सी कली आन्चल मे गुमसुम मुस्कुराती है,
उधर सुख का हाथ थामे ज़िन्दगी स्कूल जाती है,
मा की गोदी से निकलकर खो गया बचपन
बडॆ होकर हमने सीखा-
कभी पत्ते फ़ेकना और कभी पन्क्चर बनाना,
हो न पाया मा के साथ रिक्शे मे कभी स्कूल जाना
काश! अपने भी नसीबा मे हुई होती किताबे, दोस्त, सखी-सहेली,
खैर!!! अपनी भी दुनिया अलबेली,
काश! कोई रास्ता गुलशन भरा हो,
अपने धुन्धले ख्वाब का भी rang बदले,
सुख का पौधा फ़िर हरा हो,
रास्ता खुशियो भरा हो
और किस्मत मुस्कुराकर हाथ अपने एक दिन आगे badhaaye,
काश! दुख भरा बचपन कभी स्कूल जाये.....
काश!! ज़िन्दगी एक ही झूले पे दोनो गीत गाये,
सुख भरे भी, दुख भरे भी..........
काश.....................
निखिल आनन्द गिरि
गुरुवार, 15 फ़रवरी 2007
Invitation
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So now lets make the World very SMALL..
Yours'
Nikhil n Sohail
memoriesalive@gmail.com
sohailazams@yahoo.co.in
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