मंगलवार, 17 जनवरी 2023

रविवार, 8 जनवरी 2023

कौन मुकेश?

मेरे सभ्य होने की तमाम संभावनाओं को अल्ताफ़ राजा ने नष्ट किया
ऐसा कहते हुए न दुख है न गर्व
मगर ऐसा है।

ऐसा कहना संगीत के प्रति नाइंसाफी होगी तो होगी
मगर यह तो है कि 
ख़राब गीतों ने मुझे ही नहीं
एक पूरे समय को सिलसिलेवार ढंग से प्रदूषित किया है।

मेरी प्रेमिका जब इनबॉक्स में मेरा प्रिय गायक पूछती है
तो पलट कर गर्व करने के बजाय पूछती है " कौन मुकेश?"
उसका प्रिय गाना है "शीला की जवानी"
और मैं पूछता हूं क्यूं तो उसका जवाब है -
'एक रील की क़ीमत तुम क्या जानो कवि बाबू?'

ऐसा लगता है कि सब बड़े काम अतीत में हो गए 
सब बड़े लोग जन्मे पिछली सदियों में
जिन्हें प्रार्थना सभाओं में गोली मार दी गई
और हम अभिशप्त रहे 
बुरा देखने, बहुत बुरा सुनने और सबसे बुरा कहने वाले बंदरों की सोहबत में जीने को।

बंदर इतने अविश्वसनीय कि
सबसे विश्वसनीय मंदिरों के अहाते में भी
आइस्क्रीम चुराकर खाते हैं
मोबाइल लेकर उड़ जाते हैं
और सेल्फी खिंचवाते हैं।

सेल्फी की याद आते ही 
मेरा समय मुझे अश्लील गीत से कहीं ज़्यादा
एक भद्दे चुटकुले की तरह लगने लगता है
जहां कलम और कैमरा और स्कूल और पुस्तकालय और मंच और महफिल और बहसें और सेमिनार और प्रेमी और प्रेमिकाएं और ताज़ा फल और हरी सब्ज़ियां छोड़कर 
तमाम भद्रजन किसी एक मज़बूत आदमी के साथ सेल्फी को लेकर भगदड़ कर सकते हैं
दंगे भड़का सकते हैं
और तो और खुद भी दंगाई हो सकते हैं।

हो सकता है आपको मेरी बातों पर यकीन न हो
मगर आप अकेले नहीं हैं इस दुनिया में 
जिसे यकीन नहीं रहा कवियों पर।
यह यकीन को नमकीन बनाकर गटक जाने का युग है।

चूंकि बात गीतों से शुरू हुई थी
किसी चिंतक या संत से नहीं
बेहतर यही है कि आपसे न्यूनतम लोकतांत्रिक होने की उम्मीद रखते हुए एक अश्लील गीत के साथ इसे ख़त्म करते हुए कहूं -
"एक चुम्मा तो बनता है"।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 2 जनवरी 2023

क्रिसमस की रात और चार्ली चैपलिन की बात

चार्ली चैपलिन ने अपनी बेटी को बहुत ही सुंदर खत लिखा था। यह खत सभी को पढ़ना चाहिए। 
 
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चार्ली ने अपनी नृत्यांगना बेटी को एक मशहूर खत लिखा। कहा- मैं सत्ता के खिलाफ विदूषक रहा, तुम भी गरीबी जानो, मुफलिसी का कारण ढूंढो, इंसान बनो, इंसानों को समझो, जीवन में इंसानियत के लिए कुछ कर जाओ, खिलौने बनना मुझे पसंद नहीं बेटी। मैं सबको हंसा कर रोया हूं, तुम बस हंसते रहना। बूढ़े पिता ने प्रिय बेटी को और भी बहुत कुछ ऐसा लिखा।

मेरी प्यारी बेटी,
रात का समय है। क्रिसमस की रात। मेरे इस छोटे से घर की सभी निहत्थी लड़ाइयां सो चुकी हैं। तुम्हारे भाई-बहन भी नीद की गोद में हैं। तुम्हारी मां भी सो चुकी है। मैं अधजगा हूं, कमरे में धीमी सी रौशनी है। तुम मुझसे कितनी दूर हो पर यकीन मानो तुम्हारा चेहरा यदि किसी दिन मेरी आंखों के सामने न रहे, उस दिन मैं चाहूंगा कि मैं अंधा हो जाऊं। तुम्हारी फोटो वहां उस मेज पर है और यहां मेरे दिल में भी, पर तुम कहां हो? वहां सपने जैसे भव्य शहर पेरिस में! चैम्प्स एलिसस के शानदार मंच पर नृत्य कर रही हो। इस रात के सन्नाटे में मैं तुम्हारे कदमों की आहट सुन सकता हूं। शरद ऋतु के आकाश में टिमटिमाते तारों की चमक मैं तुम्हारी आंखों में देख सकता हूं। ऐसा लावण्य और इतना सुन्दर नृत्य। सितारा बनो और चमकती रहो। परन्तु यदि दर्शकों का उत्साह और उनकी प्रशंसा तुम्हें मदहोश करती है या उनसे उपहार में मिले फूलों की सुगंध तुम्हारे सिर चढ़ती है तो चुपके से एक कोने में बैठकर मेरा खत पढ़ते हुए अपने दिल की आवाज सुनना।
...मैं तुम्हारा पिता, जिरलडाइन! मैं चार्ली, चार्ली चेपलिन! क्या तुम जानती हो जब तुम नन्ही बच्ची थी तो रात-रातभर मैं तुम्हारे सिरहाने बैठकर तुम्हें स्लीपिंग ब्यूटी की कहानी सुनाया करता था। मैं तुम्हारे सपनों का साक्षी हूं। मैंने तुम्हारा भविष्य देखा है, मंच पर नाचती एक लड़की मानो आसमान में उड़ती परी। लोगों की करतल ध्वनि के बीच उनकी प्रशंसा के ये शब्द सुने हैं, इस लड़की को देखो! वह एक बूढ़े विदूषक की बेटी है, याद है उसका नाम चार्ली था।
...हां! मैं चार्ली हूं! बूढ़ा विदूषक! अब तुम्हारी बारी है! मैं फटी पेंट में नाचा करता था और मेरी राजकुमारी! तुम रेशम की खूबसूरत ड्रेस में नाचती हो। ये नृत्य और ये शाबाशी तुम्हें सातवें आसमान पर ले जाने के लिए सक्षम है। उड़ो और उड़ो, पर ध्यान रखना कि तुम्हारे पांव सदा धरती पर टिके रहें। तुम्हें लोगों की जिन्दगी को करीब से देखना चाहिए। गलियों-बाजारों में नाच दिखाते नर्तकों को देखो जो कड़कड़ाती सर्दी और भूख से तड़प रहे हैं। मैं भी उन जैसा था, जिरल्डाइन! उन जादुई रातों में जब मैं तुम्हें लोरी गा-गाकर सुलाया करता था और तुम नीद में डूब जाती थी, उस वक्त मैं जागता रहता था। मैं तुम्हारे चेहरे को निहारता, तुम्हारे हृदय की धड़कनों को सुनता और सोचता, चार्ली! क्या यह बच्ची तुम्हें कभी जान सकेगी? तुम मुझे नहीं जानती, जिरल्डाइन! मैंने तुम्हें अनगिनत कहानियां सुनाई हैं पर, उसकी कहानी कभी नहीं सुनाई। वह कहानी भी रोचक है। यह उस भूखे विदूषक की कहानी है, जो लन्दन की गंदी बस्तियों में नाच-गाकर अपनी रोजी कमाता था। यह मेरी कहानी है। मैं जानता हूं पेट की भूख किसे कहते हैं! मैं जानता हूं कि सिर पर छत न होने का क्या दंश होता है। मैंने देखा है, मदद के लिए उछाले गये सिक्कों से उसके आत्म सम्मान को छलनी होते हुए पर फिर भी मैं जिंदा हूं, इसीलिए फिलहाल इस बात को यही छोड़ते हैं।
...तुम्हारे बारे में ही बात करना उचित होगा जिरल्डाइन! तुम्हारे नाम के बाद मेरा नाम आता है चेपलिन! इस नाम के साथ मैने चालीस वर्षों से भी अधिक समय तक लोगों का मनोरंजन किया पर हंसने से अधिक मैं रोया हूं। जिस दुनिया में तुम रहती हो वहा नाच-गाने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। आधी रात के बाद जब तुम थियेटर से बाहर आओगी तो तुम अपने समृद्ध और सम्पन्न चाहने वालों को तो भूल सकती हो, पर जिस टैक्सी में बैठकर तुम अपने घर तक आओ, उस टैक्सी ड्राइवर से यह पूछना मत भूलना कि उसकी पत्नी कैसी है? यदि वह उम्मीद से है तो क्या अजन्मे बच्चे के नन्हे कपड़ों के लिए उसके पास पैसे हैं? उसकी जेब में कुछ पैसे डालना न भूलना। मैंने तुम्हारे खर्च के लिए पैसे बैंक में जमा करवा दिए हैं, सोच समझकर खर्च करना।
...कभी कभार बसों में जाना, सब-वे से गुजरना, कभी पैदल चलकर शहर में घूमना। लोगों को ध्यान से देखना, विधवाओं और अनाथों को दया-दृष्टि से देखना। कम से कम दिन में एक बार खुद से यह अवश्य कहना कि, मैं भी उन जैसी हूं। हां! तुम उनमें से ही एक हो बेटी!
...कला किसी कलाकार को पंख देने से पहले उसके पांवों को लहुलुहान जरूर करती है। यदि किसी दिन तुम्हें लगने लगे कि तुम अपने दर्शकों से बड़ी हो तो उसी दिन मंच छोड़कर भाग जाना, टैक्सी पकड़ना और पेरिस के किसी भी कोने में चली जाना। मैं जानता हूं कि वहां तुम्हें अपने जैसी कितनी नृत्यागनाएं मिलेंगी। तुमसे भी अधिक सुन्दर और प्रतिभावान फर्क सिर्फ इतना है कि उनके पास थियेटर की चकाचौंध और चमकीली रोशनी नहीं। उनकी सर्चलाईट चन्द्रमा है! अगर तुम्हें लगे कि इनमें से कोई तुमसे अच्छा नृत्य करती है तो तुम नृत्य छोड़ देना। हमेशा कोई न कोई बेहतर होता है, इसे स्वीकार करना। आगे बढ़ते रहना और निरंतर सीखते रहना ही तो कला है।
...मैं मर जाउंगा, तुम जीवित रहोगी। मैं चाहता हूं तुम्हें कभी गरीबी का एहसास न हो। इस खत के साथ मैं तुम्हें चेकबुक भी भेज रहा हूं ताकि तुम अपनी मर्जी से खर्च कर सको। पर दो सिक्के खर्च करने के बाद सोचना कि तुम्हारे हाथ में पकड़ा तीसरा सिक्का तुम्हारा नहीं है, यह उस अज्ञात व्यक्ति का है जिसे इसकी बेहद जरूरत है। ऐसे इंसान को तुम आसानी से ढूंढ सकती हो, बस पहचानने के लिए एक नजर की जरूरत है। मैं पैसे की इसलिए बात कर रहा हूं क्योंकि मैं इस राक्षस की ताकत को जानता हूं।
...हो सकता है किसी रोज कोई राजकुमार तुम्हारा दीवाना हो जाए। अपने खूबसूरत दिल का सौदा सिर्फ बाहरी चमक-दमक पर न कर बैठना। याद रखना कि सबसे बड़ा हीरा तो सूरज है जो सबके लिए चमकता है। हां! जब ऐसा समय आये कि तुम किसी से प्यार करने लगो तो उसे अपने पूरे दिल से प्यार करना। मैंने तुम्हारी मां को इस विषय में तुम्हें लिखने को कहा था। वह प्यार के सम्बन्ध में मुझसे अधिक जानती है।
...मैं जानता हूं कि तुम्हारा काम कठिन है। तुम्हारा बदन रेशमी कपड़ों से ढका है पर कला खुलने के बाद ही सामने आती है। मैं बूढ़ा हो गया हूं। हो सकता है मेरे शब्द तुम्हें हास्यास्पद जान पड़ें पर मेरे विचार में तुम्हारे अनावृत शरीर का अधिकारी वही हो सकता है जो तुम्हारी अनावृत आत्मा की सच्चाई का सम्मान करने का सामर्थ्य रखता हो।
...मैं ये भी जानता हूं कि एक पिता और उसकी सन्तान के बीच सदैव अंतहीन तनाव बना रहता है पर विश्वास करना मुझे अत्यधिक आज्ञाकारी बच्चे पसंद नहीं। मैं सचमुच चाहता हूं कि इस क्रिसमस की रात कोई करिश्मा हो ताकि जो मैं कहना चाहता हूं वह सब तुम अच्छी तरह समझ जाओ।
...चार्ली अब बूढ़ा हो चुका है, जिरल्डाइन! देर सबेर मातम के काले कपड़ों में तुम्हें मेरी कब्र पर आना ही पड़ेगा। मैं तुम्हें विचलित नहीं करना चाहता पर समय-समय पर खुद को आईने में देखना उसमें तुम्हें मेरा ही अक्स नजर आयेगा। तुम्हारी धमनियों में मेरा रक्त प्रवाहित है। जब मेरी धमनियों में बहने वाला रक्त जम जाएगा तब तुम्हारी धमनियों में बहने वाला रक्त तुम्हें मेरी याद कराएगा। याद रखना, तुम्हारा पिता कोई फरिश्ता नहीं, कोई जीनियस नहीं, वह तो जिन्दगी भर एक इंसान बनने की ही कोशिश करता रहा। तुम भी यही कोशिश करना।

ढेर सारे प्यार के साथ 
चार्ली
क्रिसमस 1965

(फेसबुक मित्र स्वतंत्र मिश्र की फेसबुक वॉल से साभार)

मंगलवार, 6 दिसंबर 2022

रांची की अधूरी यात्रा

रांची में मेरे बचपन के दोस्त राहुल का घर। कलाकार पत्नी ने छोटे से घर की रौनक में चार चांद लगा दिए हैं। नवंबर में जाना हुआ और बहुत सी यादों के साथ वापसी।















निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 8 नवंबर 2022

मेट्रो से दुनिया

एक बांह सटे-सटे
हिचकोले खाते चली बोटैनिकल गार्डन से
बिछड़ी मंडी हाउस के आसपास शायद।

एक कंधा सटे-सटे 
बिन देखे बातें करता 
चलता रहा नोएडा से 
मुस्कुरा कर बिछड़ा शादीपुर में।

कई कपड़े सूखते रहे मेट्रो के उस पार
बालकनियों में, छज्जों पर
मन हुआ चिल्ला कर कह दूं
उड़ रहा है एक कपड़ा
क्लिप लगा दो।
 
गिरने-गिरने को है कोई ढंका हुआ बनियान 
निचले तल्ले पर
झट आकर लड़ पड़ेगी नीचे वाली मैडम
एक गुस्से को फूटता हुआ देख नहीं सकूंगा
रफ्तार भरी मेट्रो से।

एक भली-सी दिखती लड़की
बुरे नेटवर्क में मोबाइल लेकर बैठी है छज्जे पर
एक चश्मे वाले सज्जन अख़बार में घुसे हुए हैं
पूरा शहर धुएं में हैं, शोर में है
पानी की टंकी भर गई है
कोई देखने वाला नहीं।
मेट्रो के उस पार जैसे कोई फिल्म चल रही है
बिना टिकट। 

एक गंदे बालों वाला युवक
थूकने की जगह ढूंढता रहा प्लैटफॉर्म पर
फिर चोरी से ढूंढ ली एक साफ जगह।
मैं अपना गुस्सा दबाए बढ़ता जा रहा हूं 
ऐसे कई किस्सों को आधा-अधूरा छोड़कर।

एक बूढ़ा होता आदमी
झांकता ही जाता है एक लड़की के मोबाइल में
दो लड़के और झांकते हैं इधर-उधर
मेट्रो में सब झांकते बढ़े जाते हैं 
अपनी मंज़िल की ओर।

एक बच्चा उलट रहा है इधर-उधर
एक बच्चा प्यास से बिलट रहा है
उसकी चीख से टूट रहा है पूरे डिब्बे का सब्र
अच्छे-भले, संजे-संवरे दिखते लोग
अचानक बंजर होकर घूरने लगे हैं

बच्चा निडर रोए जा रहा है
मेट्रो इन सबको ढोती चलती ही जा रही है।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 22 सितंबर 2022

'इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी' - सी भास्कर राव की समीक्षा

जाने-माने साहित्यकार सी. भास्कर राव सर जमशेदपुर में मेरे टीचर रहे हैं। बेहद सौम्य, शालीन और मृदुभाषी। उन्हें अपनी कविताओं की किताब भेजी तो बदले में उन्होंने ये मेल भेजकर और कर्ज़दार कर दिया। ऐसे भी कोई लिखता है क्या। आज उनका जन्मदिन है तो सोचा अपने ब्लॉग पर यह समीक्षा लगाकर अपने गुरु को थोड़ा सम्मान दिया जाए।

प्रियवर निखिल,स्नेह|

मैंने आपके प्रथम कविता संग्रह की सारी कविताएं मनोयोग से पढ़ीं|

आशीष सहित मैं इस बात के लिए ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ कि आपने अपनी श्रेष्ठ कविताएं पढ़ने का एक दुर्लभ अवसर मुझे प्रदान किया|

सुप्रसिद्ध साहित्यकार सी. भास्कर राव
सच तो यह है कि मैं बहुत कम कविता संग्रह ही पढ़ पाया हूँ,शायद इसलिए भी कि मैं मूलत: एक गद्य लेखक हूँ और गद्य रचनाएं ही अधिक पढ़ने का अवसर मिलता रहा है| किसी युवा कवि के प्रथम कविता संग्रह पढ़ने का अवसर भी बहुत कम मिला है,लेकिन पूरी ईमानदारी से कह सकता हूँ कि इससे पूर्व किसी युवा कवि का इतना प्रखर और प्रभावशाली संग्रह कभी पढ़ने को नहीं मिला|

सारी कविताएं पढने के बाद यह अनुभव किया कि ये ऐसी कविताएं नहीं हैं,जिन्हें एक बार पढ़ लेने मात्र से उनकी गहराई और गंभीरता को पूरी तरह अनुभव किया जा सके,बल्कि उन्हें कई-कई बार पढ़ने की आवश्यकता है ताकि उनकी परतों और तहों को समझा जा सके|

समस्त कविताएं मुझे अत्यंत संवेदनशील,सार्थक,सघन और नितांत सामायिक प्रतीत हुईं|

इन कविताओं में जो तेवर है,तल्खी है,तीव्रता है,वह किसी भी संवेदनशील पाठक को झकझोरने में समर्थ है|

कथ्य और शिल्प की दृष्टि से सभी कविताएं,चाहे वे छोटी हों या किंचित लम्बी,अपने आप में परिपक्व और प्रौढ़ हैं| कोई भी कविता किसी जागरूक मन को बिना स्पर्श किए रह जाए,यह कतई संभव नहीं है|

ये सारी कविताएं आज के समय और समाज की परतों को उघेड़ने में जितनी सक्षम हैं,उन्हें सीधे छेदने और भेदने में भी उतनी ही सामर्थ्यवान तथा संभावनापूर्ण हैं|

आज के समाज के छल-छद्म की जो चीर-फाड़ इन कविताओं में हुई है,वह अपनी नंगी आँखों से किसी लाश के निर्मम पोस्टमार्टम को देखते हुए भीतर से छलनी होने जैसा है|

सच तो यह है कि हर कविता अपने आप में एक मिसाइल की तरह है,जिसकी अपनी-अपनी मारक क्षमता है,जिससे कोई बचना चाहकर भी नहीं बच सकता है|

कई कविताएं हमें अपने बौनेपन,नंगेपन और नपुंसकता का तीखा एहसास कराती हैं| साथ ही अपनी असमर्थता,असहायता,अवशता का भी| ये कविताएं हमें अपनी बेबसी और अपनी बेचारगी  से रूबरू कराती हैं|

कविताएं जिस हद तक पाठकों के मन पर अपना प्रभाव डालती हैं,उसी हद तक उनके मस्तिष्क पर प्रहार भी करती हैं| हर कविता का हर भाव किसी न किसी वैचारिक चेतना को अभिव्यक्त करने में समर्थ है| कथ्य और शिल्प का तथा भाव और विचार का जो सामंजस्य इन कविताओं में मिलता है,वह उनके समग्र प्रभाव को कई गुना बढ़ा देता है|

खासकर कविताओं का विचार पक्ष,जो अपनी पूरी बौद्धिक क्षमता के साथ मौजूद है,पढ़ने वाले को बेचैन करता है और भीतर तक हिला कर रख देता है,जिससे मन विचलित और आंदोलित हो उठता है|

व्यक्तिगत जीवन प्रसंगों से लेकर सामाजिक और राजनैतिक प्रसंगों तक तथा उससे भी आगे जाकर सार्वजनीन प्रसंगों तक इनमें जो गहरी विवेचना और सघन विश्लेषण मिलता है,वह अचंभित कर देता है कि क्या सचमुच ये कविताएं किसी युवा कवि के प्रथम कविता संग्रह की है!

प्रियवर इन सारी कविताओं को पढ़ने के बाद यही महसूस किया कि कविताओं में जो गंभीरता और गहराई है,उस पर टिप्पणी करने  की अर्हता सचमुच मुझमें नहीं है|

सचाई यह है कि मैं पिछले लगभग पचास वर्षों से लिख छप रहा हूँ,लेकिन कन्फेस करता हूँ कि अपने आज तक के समस्त लेखन-प्रकाशन पर आपकी यह कविता संग्रह बहुत-बहुत भारी पड़ता है|

मेरे एक दिवंगत पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि कोई गुरु जब अपने शिष्य से हार जाए,तो समझो कि वह गुरु की सबसे बड़ी जीत है| आपकी कविताओं को पढ़ने के बाद आज मैं शिद्दत से महसूस करता हूँ कि मैं अपने पुत्रवत शिष्य निखिल आनन्द गिरि से हार कर स्वयं को विजयी और गौरान्वित अनुभव कर रहा हूँ,जिसका प्रमाण है- आपका यह प्रथम कविता संग्रह “ इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी “

पुन: एक बार हार्दिक बधाई,असीम शुभकामनाएं एवं अशेष आशीष| इसलिए कि इन्हें पढ़कर मैं धन्य-धन्य हुआ| यह संग्रह नहीं पढ़ पाता तो निश्चय ही समकालीन जीवन के खुरदुरे यथार्थ और बेरहम सचाई के साक्षात्कार से वंचित रह जाता|

सी.भास्कर राव.

बुधवार, 29 जून 2022

दीवारें

हरा बतियाता है केसरिया रंग से
काला सबसे सुंदर लगता है सफ़ेदी पर
लाल सबकी जगह बनाता हुआ थोड़े में ही खुश है
नीला रंग कमरे में आसमान उतार लाया है
दीवार रंगे हैं लोई के सतरंगी प्रयोगों से। 

उसे डराता हूँ तो नहीं करती दीवारों को गंदा कुछ क्षण के लिए, 
मगर चूंकि उसका मन साफ है
फिर-फिर उभर आती है कोई पवित्र तस्वीर उसके भीतर। 
और फिर दीवारें भी तो इंतज़ार करती होंगी
एक कोमल स्पर्श का। 

वो चोरी-चुपके रंगती जाती है कोना-कोना
जैसे कोई महान चित्रकार अपना कैनवस रंगता है। 
जैसे किसी ने रंग दिये हैं तमाम धरती के कोने
पेड़, समुद्र और पहाडों से
कोई ईश्वर बैठा है लोई के भीतर 
जो सिर्फ रचना जानता है
डरना नहीं। 

सहम जाती है कभी-कभी 
पिता का मान रखने के लिए
मगर जानती है पिघल जायेंगे पिता
जब देखेंगे दीवारों पर
उसकी रची एक नई भाषा को। 

ठीक है कि मेहमान घर को विस्मय से देखते हैं
क्लास टीचर भी ताना मारती हैं दीवारें देखकर
ऑनलाइन पीटीएम में 
ढूँढने पर भी नहीं मिलता कोई साफ कोना
गिटिर पिटिर करते ही होंगे पड़ोसी। 

बहरहाल 
वो जानती है
क्यूँ भरा मिलता है 
कलर पेंसिल का डिब्बा अक्सर?

रात जब सो जाती है लोई
कौन भरता है चुपके से दीवारों में छूट चुके रंग
और डांट से उपजा उसके भीतर का खालीपन भी।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 9 जून 2022

सीमित संभावनाओं वाले कवि की असीमित इच्छाओं का कोलाज



अपना नंबर मिलाने पर सभी लाइनें व्यस्त आती है। अचानक ध्यानाकर्षित करता कोई गीत व्यस्तम दिनचर्या के बावजूद खुद से मिलने का बहाना बन जाता है। थोड़ी देर के लिए सब pause हो
नाज़िश ने जो लिखा, उसे 'जनसंंदेश टाइम्स' अख़बार
ने ख़ूबसूरती से छापा भी है

जाता है।
निखिल की इस किताब में आने वाली प्रेमिका को ऐसे ही किसी pause की तरह देखा जाना चाहिए। ऐसे किसी गीत की तरह लिया जाना चाहिए जो उदासी में पीठ पर थपथपाहट की तरह रहे। कहे, तुम अकेले नहीं हो दोस्त! हमारा दुख साझा है।
इन कविताओं में विद्वता का वो भाव नहीं है जो आपकी भावनाओं को बौना घोषित कर दे। एक से दूसरी कविता तक पहुँचते हुए बहुत से अदृश्य डेशेज़ के बीच भी अनकही कविताओं की भरमार है। शर्त है आप के दिल की बीनाई बाक़ी हो। और तब कवि की इच्छाओं का कोरस सार्वजनिक दुखों का कोरस बन जाता है।
मुझे नहीं पता निखिल आनंद गिरी की "प्रेमिका" हिंदी कविताओं की दुनिया में अपने लिए कितनी जगह घेरेगी। हाँ मगर, लंबे सफ़र पर बजती फेवरेट प्लेलिस्ट जो सुकून देती है बस वही काम रोज़ रात कम से कम एकबार पढ़ ली जाने वाली इन कविताओं से भी लिया जा सकता है। जिसे पढ़कर वाह से ज़्यादा आह निकलती है।
इसके अलावा दिल्ली में विस्थापित शहरी का बारहा गाँव याद करना, प्रेमिका को चूमते हुए समाज शास्त्र का याद आना, पिता को शक्ति पुंज की तरह देखना, माँ को बिना शर्त मुहब्बत से सोचना, लिपटकर रोने की सख्त मनाही होना, कुतुबमीनार से कूदकर सच का ख़ुदकुशी करना, हंसना, रोना, लौटना, लड़कियों का बारिश और लड़कों का सिर्फ जंगली होना•• इस तरह अंत हीन लिस्ट का होना। एक सीमित संभावनाओं वाले कवि की असीमित इच्छाओं का कोलाज देखिये-
मेरे हाथ इतने लंबे हों कि
बुझा सकूँ सूरज पल भर के लिए
और मां जिस कोने में रखती थी अचार
वहां पहुंचे, स्वाद हो जाए
गर्म तवे पर रोटियों की जगह पके
महान होते बुद्धिजीवियों से सामना होने का डर
जलता रहे, जल जाए समय
हम बेवकूफ घोषित हो जाएं
एक मौसम खुले बाहों में
और छोड़ जाएं इंद्रधनुष
दर्द के सात रंग
नज़्म हो जाएं
लड़कियां बारिश हो जाएं
चांद गुलकंद हो जाएं
नर्म अल्फ़ाज़ हो जाएं
और मीठे सपने
लड़के सिर्फ जंगली
निखिल की कविताओं में जितना मर्म है उतना ही व्यवस्था में फंसे होने की मध्यवर्गीय छटपटाहट के बावजूद तटस्थता, जिजीविषा, जीवटता और अंततः प्रेम की विजयी देखने की चाह। कवि मूल रूप से यही है और हर बार बड़ी मासूमियत से यह अपनी नैसर्गिकता बचा ले जाते हैं।
पहली किताब के लिए
बधाई
। दूसरी जल्द आए। शुभकामनाएं।
इस शहर में छपने वाले अमीर अखबारों के मुताबिक़
निहायती ग़रीब, गंदे और बेरोजगार गाँवों से
वेटिंग की टिकट खरीदने से पहले मुसाफिरों को
खरीदने होते हैं शहर के सम्मान में
अंग्रेज़ी के उपन्यास
गोरा होने की क्रीम
सूटकेस में तह लगे कपड़े
और मीडियम साइज के जॉकी
हालांकि लंगोट के खिलाफ़ नहीं है यह शहर
और सभ्य साबित करने के लिए अभी शुरू नहीं हुआ भीतर तक झांकने का चलन
यहाँ हर दुकान में सौ रुपये की किताब मिलती है
जिसमें लिखे हैं सभ्य दिखने के सौ तरीक़े
जैसे सभ्य लोग सीटियां नहीं बजाते
या फिर उनके घरों में बुझ जाती है लाइट
दस बजते बजते
बात बात आंदोलन के मूड में आ जाता है जो शहर
हमारे उसी शहर में थूकने की आज़ादी है कहीं भी
गालियाँ बकना नाशते से भी ज़्यादा ज़रूरी है हर रोज़
और लड़कियों के लिए यहाँ भी दुपट्टा डालना ज़रूरी है
जहाँ न बिजली जाती है कभी और न डर
जिनकी राजधानी होगी वो जाने
किसी दिन तुम इस शहर आओ
और कह दो मुझे सफ़ाई पसंद है
तो पूरे होशोहवास में सच कहता हूँ
डाल आऊँगा, कूड़ेदान में सारा शहर।

नाज़िश अंसारी की फेसबुक पोस्ट से साभार 
May be an image of book and text that says "प्रेमिका इस कवितामें भी आनी थी निखिल आनंद गिरि Infinix HOT 11S"

शुक्रवार, 27 मई 2022

बेटी का स्कूल

कल स्कूल खुलेंगे कई दिन बाद 
क़ैद से निकलेंगी बच्चियाँ
नए पुराने दोस्तों से मिलेंगी

फरहाना के साथ लंच शेयर करेगी 
जेनिस के साथ खूब बातें करेगी
रवनीत बनेगी बेंच पार्टनर

फरहाना बताएगी वॉटर पार्क के क़िस्से
छपछप करती है वो अक्सर जाकर

जेनिस बताएगी कैसे मुर्गे की आवाज़ निकालकर
खिड़की के बाहर आता है रोज़ 
गुब्बारे वाला

रवनीत बताएगी 
गुरुद्वारे जाकर दुखभंजनी साहब गाती है वो 
हर बुधवार

मेरी बच्ची भी बताएगी 
नई जगहों के बार में 
जहाँ मम्मी ले जाती है उसे, 

बताएगी कोर्ट गयी थी घूमने 
पिछले मंगलवार
कोर्ट एक मस्त जगह है
जहाँ मम्मी-पापा बिल्कुल नहीं लड़ते
सिर्फ़ प्यार करते हैं मुझसे। 

बताएगी फरहाना को
वॉटरपार्क से बुरा नहीं है थाने जाना
पुलिस वाले अंकल देते हैं खूब सारी टौफियाँ
और पापा से काफी देर बातें करते हैं। 

जेनिस को बताएगी
घर पर आती रहती है पुलिस
जैसे उसके यहाँ आता है गुब्बारे वाला। 

अगली बार आई पुलिस तो वो रवनीत से सीखकर 
गाएगी दुखभंजनी साहेब

और रोएगी बिल्कुल नहीं।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 14 मई 2022

पति-पत्नी

पति-पत्नी अलग रहने की अर्ज़ी लिए एक साथ कोर्ट जाते हैं। 
पति लंबी लाइन में आधार कार्ड लिए खड़ा हो जाता है। 
पत्नी फुर्र से बच्ची को दिखाकर घुस जाती है भीतर। 

श्वेत श्याम झगड़ों का अदभुत रेला है कोर्ट
चालाकियों की दुर्गंध हर तरफ़
सब अपने युद्ध के मैदान में जैसे। 

अब वो पति-पत्नी नहीं हैं
अपने वकीलों के पास ज़ुबान गिरवी रख गूँगे दुश्मन सिर्फ
सामने हैं जज
बीच में है बच्ची। 

कभी माँ को देखती है कि लौटेगी यहाँ से तो फेवरेट मैगी बनायेगी
फिर देखती है पिता को
और चुपके माँ के बैग से निकालकर देती है पानी की बोतल
धीरे से कहती है कान में-
"पी लीजिए, सीधा ऑफिस जाना है आपको"

माँ लगाती है तीन चांटे बड़बड़ाते हुए-
'बड़ा प्यार दिखा रही है यहाँ पर'
और खींचकर हाथ चल देती है।


बुधवार, 11 मई 2022

सत्य ही 'शिव' है, शिव ही 'संतूर' है

जिन्हें शास्त्रीय संगीत से वास्ता है या फिर फिल्म संगीत को थोड़ा करीब से जानते हैं, उन्हें शिव कुमार शर्मा के निधन की खबर ने ज़रूर दुखी किया होगा। एक-एक करके हमारे जमाने की सभी महान हस्तियाँ हमें छोडकर जा रहीं हैं। ख़ुशकिस्मती से हमने वो वक़्त देखा है जब हर क्षेत्र के साधक शीर्ष पर पहुँचे थे। जब बिस्मिल्लाह ख़ान शहनाई का पर्याय हो गए थे, अमजद अली ख़ान सरोद का, पंडित रविशंकर सितार का, उस्ताद ज़ाकिर हुसैन तबले का, पंडित हरिप्रसाद चौरसिया बांसुरी का और पंडित शिवकुमार शर्मा संतूर का। 

पंडित शिवकुमार शर्मा ने संतूर को पहचान दिलाई ये कहना गलत नहीं होगा। ये वाद्य कश्मीर तक सीमित था, पंडितजी ने इसे विश्व प्रसिद्ध कर दिया। अद्भुत बात है कि जगह से ही नहीं साज से भी जगह की पहचान हो जाती है। संतूर की आवाज़ आप सुने तो उस आवाज़ में ही खूबसूरत वादियाँ, पहाड़, झरने बसे हुए हैं। उस पर वादन शिवकुमार शर्मा का हो तो आप आँखें बंद करके ही वहाँ घूम कर आ सकते हैं। ये सभी महान हस्तियाँ कभी फिल्म संगीत में अपने-अपने साज बजाया करती थीं। पंडित शिवकुमार शर्मा ने भी एस डी बर्मन, मदन मोहन, आर डी बर्मन जैसे सभी संगीतकारों के साथ काम किया था। साथ ही अपनी शास्त्रीय संगीत की यात्रा भी उन्होने जारी रखी। धीरे-धीरे शास्त्रीय संगीत में उनका नाम शीर्ष पर पहुँच गया। यश चोपड़ा की सभी फिल्मों में हरिप्रसाद चौरसिया और शिवकुमार शर्मा अपने साज बजाते रहे थे। यश चोपड़ा दोनों से बहुत प्रभावित थे, वे इन्हें कहते रहते थे कि आप दोनों फिल्मों में संगीत देना शुरू करिए। ये बात बस बात ही रह जाती थी क्योंकि धीरे-धीरे दोनों के मंचीय कार्यक्रम इतने होने लगे थे कि उन्हें फुरसत ही नहीं थी। दोनों की मंच पर जुगलबंदी बहुत मशहूर थी। उनका एल्बम "कॉल ऑफ द वैली" बहुत मशहूर हुआ था। 

यश चोपड़ा कभी-कभी के बाद “सिलसिला” की योजना बना रहे थे। “कभी-कभी” में खय्याम ने बहुत ही अच्छा संगीत दिया था जो पॉपुलर भी हुआ था। एक बार फिर यश चोपड़ा उन्हीं के पास पहुँचे लेकिन अप्रत्याशित रूप से खय्याम ने ये फिल्म करने से इंकार कर दिया। यश जी को इससे आघात तो पहुँचा क्योंकि उन्होने ही खय्याम के करियर को फिर से ऊपर पहुंचाया था। खय्याम के इंकार की वजह फिल्म की कहानी थी जो एक्स्ट्रा मेरिटल अफेयर के बारे में थी। खय्याम को उस पर आपत्ति थी। ख़ैर, यश चोपड़ा हरिप्रसाद चौरसिया और शिवकुमार शर्मा के पास पहुँचे और कहा अब आपको ये फिल्म करनी ही पड़ेगी। आप टीम बनाकर संगीत दीजिये। दोनों के पास समय की तो काफ़ी कमी थी लेकिन यशजी के साथ कई बरसों से काम कर रहे थे सो हामी भर दी। फिल्म इंडस्ट्री में चर्चा थी कि यशजी ने गलती कर ली है, क्लासिकल म्यूजिक के लोगों को फिल्म विधा की जानकारी नहीं होती। इस विधा में जनता की नब्ज पकडनी होती है। इसी फिल्म से जावेद अख्तर ने बतौर गीतकार अपना करियर शुरू किया। फिल्म पिट गई लेकिन गीत बहुत हिट हुए। “देखा एक ख्वाब” आज भी रोमांटिक गीतों की लिस्ट में सबसे ऊपर होता है, “ये कहाँ आ गए हम” उस समय का अनोखा प्रयोग था जिसमें गीत के बीच-बीच में अमिताभ बच्चन की कविता है, “नीला आसमान सो गया” के दो वर्शन थे और दोनों ही दिल की गहराइयों तक असर करते हैं, “रंग बरसे” आज भी होली पर सबसे ज़्यादा बजने वाला गीत है, इतने बरसों में भी इस गीत को कोई और गीत रिप्लेस नहीं कर पाया है। शिव-हरि ने जनता की नब्ज बखूबी पकड़ी, इसका कारण ये था कि वे फिल्म संगीत में अनेक संगीतकारों के साथ काम कर चुके थे। साथ ही शास्त्रीय संगीत के धुरंधर होने के कारण लयकारी का उन्हें अच्छा ज्ञान था, किस तरह रंजकता के साथ धुनों को पेश किया जा सकता है इसका उन्हें पूरा ज्ञान था। 
इसके चार साल बाद एक बार फिर यश चोपड़ा की फिल्म “फासले” के लिए संगीत तैयार किया। इस फिल्म में सुनील दत्त, रेखा, फारुख शेख, दीप्ति नवल के साथ नई जोड़ी महेंद्र कपूर के पुत्र रोहन कपूर और फरहा थे। फिल्म तो नहीं चली साथ ही संगीत भी लोकप्रिय नहीं हो पाया हालांकि गीत अच्छे ही थे। 
1988 में एक बार फिर यश चोपड़ा ने अपनी मल्टीस्टारर फिल्म विजय (अनिल कपूर, ऋषि कपूर) के लिए याद किया। इस फिल्म का एक ही गीत मुझे अच्छा लगता है, “बादल पे चल के आ”। 1989 में आई “चाँदनी” ने अंततः इन्हें इंडस्ट्री में स्थापित संगीतकर बना दिया। इस फिल्म के सभी गीत बेहद लोकप्रिय हुए। “मेरे हाथों में नौ नौ  चूड़ियाँ” अगर किसी शादी में न बजे तो वो शादी ही अधूरी थी। आज भी दुखी प्रेमियों के लिए “लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है” anthem की तरह है। 

“लम्हे (1991)” इस जोड़ी का सर्वश्रेष्ठ काम है। इसका हर एक गीत हीरा है। शिव-हरि ने इस फिल्म में ऑर्केस्ट्रा के साथ बहुत प्रयोग किए। फिल्म की कहानी के साथ संगीत और उसमें बजने वाले साज भी बदलते हैं। राजस्थान के लोकगीतों में सारंगी, रावणहत्था, ढोलक के उपयोग से फिर “कभी मैं कहूँ” में ट्रंपेट, सेक्सोफोन, पियानो, ड्रम्स का बेहतरीन उपयोग। “मोरनी बागां मा बोले” पर आज भी लड़कियां डांस तैयार करती हैं। मुझे “मोहे छेड़ो ना नन्द के लाला” बहुत पसंद है। 
1993 में यश चोपड़ा ने आमिर ख़ान, सैफ अली ख़ान, सुनील दत्त, विनोद खन्ना को लेकर फिल्म परंपरा बनाई थी। इसमें भी संगीत शिव-हरि का ही था। हालांकि इस बार वो लम्हे वाली बात नहीं थी। मुझे एक ही गीत “फूलों के इस शहर में” अच्छा लगता है। “डर” का गीत “जादू तेरी नज़र” सबसे ज़्यादा चलने वाला गीत था लेकिन मुझे इस फिल्म का संगीत बहुत कमजोर लगा था। यश जी ने दिल तो पागल है की जब योजना बनाई तो इस बार इस जोड़ी ने ना कह दिया। वे अब और फिल्म संगीत करना नहीं चाहते थे। उन्हें शास्त्रीय संगीत पर ही पूरा ध्यान देना था। उनके बहुत से concerts हो रहे थे। इनके बीच समय निकालना बहुत मुश्किल होता था। 

उन्होने कुल 8 फिल्में कीं जिनमें से 7 यश चोपड़ा की हैं। आठवीं फिल्म “साहिबाँ” यश चोपड़ा के सहायक “रमेश तलवार” की फिल्म थी। कुल मिलाकर उनका संगीत हमेशा उम्दा ही रहा। राग पहाड़ी का उन्होने सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया है क्योंकि यश चोपड़ा का वो स्टाइल ही हो गया था कश्मीर की वादियों में फिल्म बनाना। इस राग से पहाड़ों का आभास होता है। आप सुनिए चाँदनी का “तेरे मेरे होठों पे”, आपको पहाड़ महसूस होते हैं। 

अगर वे और कुछ समय निकाल पाते तो शायद ये खजाना और समृद्ध होता। 

आलेख-अनिरुद्ध शर्मा

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

रिश्तों का सच

अपने बहुत क़रीबी, बहुत सुंदर रिश्तों में जब हम अपने साथ छोटी- छोटी,  ग़ैर ज़रूरी बातों में चालाकियां होते देखते हैं तो मन सहम जाता है क्योंकि मन भलीभांति जानता है कि अब कुछ भी सामान्य नहीं हो पायेगा ....

 मन  रिश्ते पर दुनियावी हिसाबों की सेंध लगाए जाने का अभ्यस्त है ... मन दोबारा छले जाने से ख़ौफ़जदा नहीं है.... मन को डर इस बात का है अब भरोसा कैसे करेगा किसी पर....  छले जाने का ये भयावह अनुभव किसी सच्चे इंसान का भरोसा भी नहीं करने देगा जल्दी .... 

मन अपने अनमनपन का ये ठौर भी दरकते देखता है....बेचैनी से...

आप चीखना चाहते हैं --" मत करो ऐसे...  खेलो मत यार...  मत ख़राब करो उसे जो बहुत सुन्दर है..और सुन्दरतम होने की असीम संभावनाए लिए हुए है ...कुछ हासिल नहीं होगा.. दोनों ही टूटेंगे ..जड़ से उखड़ने पर दोबारा पनपने की गुंजाइश हर बार नहीं होती न!!
उनको मालूम है आप नए धोखे अफ़ोर्ड नहीं कर सकते!

  "मुझे खोकर तुम एक ऐसा साथी खो दोगे जो तुम्हारे बारे में तुमसे ज़्यादा सोचता है  ...मैं तो टूटूंगा ही ..तुम भी साबुत कहां रह जाओगे ..."

पर आप ख़ामोशी से उस व्यक्ति को दूर होते हुए देखते हैं बस ... 

आप रिश्ते में दरिया हुए जाते हैं पर सामने वाले की सारी क़वायद आपसे किसी भी तरह एक कतरा हासिल करने की होती हैं  ...

रिश्ता ख़त्म हो जाता है ...आप अपने टुकड़े समेटने की कोशिश करते हैं  ... पर आपने अपने जिन भावों को उस प्यारे रिश्ते के इर्द-गिर्द सहेज दिया था वो भाव आपसे सवाल करते हैं---
'अब'?

और इस सवाल का कोई जवाब आपके पास नहीं होता....

(फेसबुक पर भूमिका पांडे की पोस्ट से साभार) 


रविवार, 23 जनवरी 2022

तुम्हारे साथ इक लम्हा बहुत है

एक उम्र होती है कि बेसबब भटकने को भी दिन बिताना कहते हैं। वो उम्र कभी-कभी याद बनकर आंखों में उतर आती है। एक दोस्त जैसे चेहरे के साथ घंटो पैदल चलना क्योंकि जेब में पैसे उतने ही होते थे कि जब थककर रुकें तो थोड़ी मूंगफली या एक-एक रसगुल्ला खा सकें। लड़की को अक्सर एक सपना आता था कि दिल्ली की बस में लड़के के साथ एक पूरा दिन सफर करे। मेट्रो भी एक विकल्प है, मगर वहां बहुत सी आंखें हैं जो लगातार घूरती रहती हैं। 

लड़के का सपना था कि कभी कार चलाना सीख सके। लड़का साइकिल चलाना भी ठीक से सीख नहीं पाया। लड़के ने एक दिन सपना देखा कि यूं ही बेसबब अपनी कार लेकर सड़क के किनारे कहीं खड़ा है। अचानक दोस्त जैसा कोई चेहरा लिए वही लड़की बाएं दरवाज़े पर आकर दस्तक देती है। वो दरवाज़ा खोलता है। वो बैठ जाती है। उसे शायद सीट बेल्ट नहीं मिल रही। लड़का उसकी छुअन बचाते हुए सीटबेल्ट ढूंढता है, पूरी शराफत से लगाता है। फिर अपनी सीटबेल्ट दुरुस्त करता है और धीमे से गाड़ी बढ़ जाती है। 

लड़की रास्ते भर खुश है। लड़का जैसे-तैसे स्टीयरिंग संभाले हुआ है। लड़की ने हौले से अपनी हथेली पर दो छोटी टॉफियां रखी हैं। एक लड़के को दिया है। शायद लड़की बताना नहीं चाहती कि लड़के के मुंह से बू आ रही है। लड़की जैसे सपने के भीतर कोई सपना पूरा कर रही है। न कोई बस है, न मेट्रो। सिर्फ दो जोड़ी आंखे हैं पूरी कार में। लड़का रफ्तार में है। लड़की शायद प्यार में है। वो कहती है कि गाड़ी धीमी चलाए। वो कहती है कि गाड़ी बाएं रखे, दाएं रखे। लड़का बस मुस्कुरा देता है। ये उसके सपने में पहली बार हुआ है कि मुस्कुराहट इतनी आसानी से आई है। दिल्ली शहर सपने में इतना बुरा भी नहीं है। 

लड़की ने ऊंघने की शक्ल में अपनी आंखें बंद कर ली हैं। उसके कंधे लड़के की तरफ झुकने लगे हैं। उसके बाल थोड़ा-थोड़ा लड़के की कमीज़ छू रहे हैं। लड़का रेड लाइट पर लड़की को भरपूर देखता है। उसका मन करता है कि थोड़ा और क़रीब जाए। मगर उसका ध्यान स्टीयरिंग पर है। उसे ड्राइविंग का एक उसूल अच्छे से पता है। ड्राइवर के साथ वाली सीट पर जो बैठा है, उसे नींद आने लगे तो जगाकर रखा जाए। 

लड़का बात करने की कोशिश करता है। घर, पढ़ाई, शौक के बारे में पूछता है। फिर लड़की भी लड़के से पूछती है। शौक, रंग, शहर आदि। लड़के को फिरोज़ी रंग पसंद है। दोनों के जीवन में दुख से तार जुड़ते दिखते हैं। दोनों अपना दुख बांटते हुए मुस्कुराते हैं। लड़की अब उतरने को होती है। वो खुश है। उसकी आंखों में शुक्रिया है लड़के के लिए। लड़का उदास है। लेकिन मुस्कुरा रहा है। 

अब वो रोज़ अपनी कार लेकर सड़क पर इंतज़ार करता है। अपना मुंह चेक करता है कि बू तो नहीं आ रही। दो टॉफियां ख़रीदकर खा भी लेता है। कहीं कोई उसके दरवाज़े तक आता नहीं दिखता। सपने रोज़ ख़ुद को नहीं दुहराते। फिरोज़ी रंग के सपने तो कभी भी नहीं। 

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

मौन अकेली इक भाषा है, जिसके लुप्त होने का कोई ख़तरा नहीं!


''दुनिया की सबसे छोटी कविता लिखनी हो

तो लिखा जाना चाहिए – पृथ्वी’’

ज्योतिकृष्ण वर्मा जी के कविता संग्रह मीठे पानी की मटकियांमें इस तरह की कई छोटी और प्रभावी कविताएं हैं। कविताओं से अधिक क्षणिकाएं कहना बेहतर रहेगा। पूरे संग्रह में क़रीब 70 कविताएं होंगी, जिनका आकार इसी तरह का है। संपादित, साफ-सुथरी, शांत, गंभीर, छोटी-छोटी कविताएं। कहीं कोई अतिरिक्त शब्द नहीं। कविताएं लिखने का मेरा अनुभव और मिज़ाज इस संग्रह से थोड़ा अलग है, इसीलिए पूरा पढ़ने का आकर्षण बना रहा। 

प्रकृति के कई रंग- जैसे नदी, मौसम, पहाड़, नारियल से लेकर शहर के तमाम रंग इस किताब में मौजूद हैं। कवि के शब्दों में ही कहें तो –

इस किताब को खोलते समय

सिर्फ पन्ने ही नहीं खुलते इसके

खुल जाती हैं

ज्योतिकृष्ण वर्मा जी का कविता संग्रह

नदियां, आकाश, समंदर...

दिख जाते हैं

ऊंची उड़ान भरते पंछी

लहलहाते खेत, पेड़ों पर लौटता वसंत

गुलाब की टहनी पर चटखती कलियां

आंगन में खिली धूप

चूल्हे पर रखी हांडी

स्कूल जाते बच्चे

घर संवारती औरत... (कविता – सिरहाने)

 

इस कविता संग्रह में कई पंक्तियां हैं, जिनमें भरपूर चित्रात्मकता है। ये कवि की सबसे बड़ी ख़ूबी है, जो पूरी कविता में बार-बार उभर कर सामने आती है। जैसे संग्रह की पहली कविता पेड़ से ये पंक्तियां

काश! कोई दिव्य बालक

छिपा देता कुल्हाड़ी कहीं दूर

मनुष्य की पहुंच से।

यहां मनुष्य और दिव्य बालक अलग हो गए हैं। मेरे ज़ेहन में कोई आदिवासी बालक आता है जिसके हाथ में कुल्हाड़ी है और पेड़ों के लिए आदर।

ऐसे ही एक कविता का चित्र देखिए

मेरे शहर में आ जाए

चहचहाती गौरेया

मैं हटा दूंगा

गेट पर टंगा बोर्ड

किराये के लिए मकान खाली है (कविता-रंग)

इस संग्रह को इसीलिए पढ़ना चाहिए कि सीखा जाए कि कम शब्दों में असर कैसे बनाए रखा जाता है। बिना किसी विशेष अलंकार या तामझाम के। आशियाना, कभी-कभार, निवेदन जैसी कविताएं कुल 15-20 शब्दों की हैं, मगर काफी समय तक याद रहने वाली हैं

उसने कोर्ट में अर्ज़ी दी है

अपनी पत्नी से तलाक के लिए

 उसके बारे में

अन्य जानकारी के

कॉलम में

उसने लिखवाया था एक जगह –

होम मेकर (कविता - निवेदन)

किसी भी कविता संग्रह की तरह इसमें मां पर कुछ अच्छी क्षणिकाएं भी हैं। एक भावुक कविता पिता पर भी है जो आम तौर पर कम पढ़ने को मिलती हैं।

बोधि प्रकाशन से आई ये कविता पढ़ने और सहेजने लायक है। आज की कविताओं को जो स्वर है, उनसे अलग। छोटी कविताएं हैं तो युवाओं और मोबाइल पर शायरी फॉरवर्ड करने वालों के लिए भी ये बेहतर विकल्प है जहां कुछ पंक्तियों में ही आपका संदेश आगे जा सकता है। अष्टभुजा शुक्ल के शब्दों में कहें तो- मीठे पानी की मटकियां की ये कविताएं निश्चय ही पाठकों के हलक को तर और तृप्त करेंगी।'

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

गूगल पीढ़ी के बच्चे

इस साल की आखिरी पोस्ट एक बाल कविता जो लोई के स्कूल में सुनाने के लिए लिखी थी।

हम गूगल पीढी के बच्चे हैं

डिजिटल जेनेरेशन के बच्चे। 

बागों में कभी फूल न देखा
असली वाला स्कूल न देखा
होमवर्क पर सॉफ्टी मिलती
टीचर इतनी कूल न देखा
हम गूगल पीढ़ी के....

व्हाट्सऐप पर होमवर्क करते
गूगल मीट पर क्लास
हैंड रेज़ कर परमिशन लेते
सूसू लगे या प्यास
हम गूगल पीढ़ी...

गूगल अंकल क्लोज़ रिलेटिव
यूट्यूब है पहचान
टैब हमारे कुलदेवता
चार्जर में बसे प्राण
हम गूगल पीढ़ी..

Mute लगाकर मैम हमारी
कब तक क्लास लगायेंगी
PTM में पापा मम्मी को
सामने कब बिठाएंगी? 
Online को mute लगा कर
Offline जब स्कूल जाएंगे
अपनी मैम को साथ में लेकर
खूब धमा चौकड़ी मचाएंगे। 

हम गूगल पीढी के बच्चे हैं, 
डिजिटल जेनरेशन के बच्चे।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 27 मई 2021

साइकिल पर प्रेमिका

1) इस कमरे की तस्वीरों का
उस कमरे की तस्वीरों से
अबोला है।
इस कमरे से उस कमरे तक
मैं पूरी दुनिया का फ़ासला तय कर लेता हूँ।
2) तुम्हारा प्रेम किसी पुलिसवाले की तरह
मंडराता है मेरे वजूद पर
मैं लाख बचूँ फिर भी
ढूंढ लेता है मुझे
पसीने से तर ब तर कर देता है।
3) मुझे किसी ने नहीं मारा
एक सपने में मुझे प्यास लगी
मैं कुएँ के पास पहुँचा
और वहीं डूब गया
मेरी शिनाख्त भी हो सकती थी
मगर नींद बिखर चुकी है अब तक।
4) मैं उन मर्दों की जमात में नहीं होना चाहता था
जो अपनी औरतों के किस्से उड़ाते
शराब में डूबकर दुनिया को
चुटकी में तबाह कर देते
मगर हुआ।
उन मर्दों से भी बचता रहा मैं
जो जादूगर होने का भ्रम रखते थे
वो अपने रूमाल में कुंठाओं को समेटकर
कबूतर निकालने का भ्रम रचते
और सिवाय टूटे पंखों के कुछ हासिल नहीं होता
मुझे भी नहीं।
मैं अपनी बारी की प्रतीक्षा में खड़े
उस आदमी सा होना चाहता था
जो लंबी भीड़ और पसीने में भी
दुनिया के बारे में बेहतर सोचता रहा।
साइकिल पर बिठाकर अपनी प्रेमिका को
दुनिया की सैर करवाने का
ख़याल जैसे।


निखिल आनंद गिरि

रविवार, 23 मई 2021

हल्लो मच्छर!


मच्छर तेरे कितने घर

दादा दादी, नाना नानी
हर घर में तेरी शैतानी
पापा भी कल लेकर आए
पिंक कलर की मच्छरदानी

रात को मेरे कानों में तू
क्यूँ करता है बकर बकर
मच्छर तेरे कितने घर.. 


क्या तू पूरे दिन सोता है
छुट्टी का दिन कब होता है? 
ये सब बिल्कुल नहीं चलेगा
चल मेरे स्कूल चलेगा, 

मेरी मैम बहुत अच्छी हैं, 
देख तू उनसे बिल्कुल मत डर
मच्छर तेरे कितने घर..

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 22 मई 2021

इच्छाओं का कोरस

मेरी भोली इच्छा थी कि अच्छा बनूं 
मगर यह अंतिम इच्छा की तरह नहीं था
और भी इच्छाएँ चलती रहीं साथ-साथ

समोसे की इच्छा सतत बनी रही 
मगर चटनी या आलू के बिना उन्हें पूरा करना असंभव था.
दारू पीने की इच्छा जितनी रही
उसका एक अंश भी नहीं पिया मैंने अब तक

राजा बनने से अधिक 
उसकी आँखों में आँखें डालकर
बात करने की इच्छा प्रबल रही

अमरीका या यूरोप न सही,
किसी ऐसे देश में जाने की इच्छा
अवश्य रही
जहाँ लोग हॉर्न की आवाज़ तक से चौंक जाते हैं
मगर उनका बुरा नसीब उन्हें युद्ध के टैंक की आवाज़ों से भर देता है

उन बच्चों से मिलने की इच्छा
जिनका बचपन माँ-बाप की लड़ाइयों में नष्ट हुआ
या सिर्फ अस्पतालों में बीत गया
रोने से अधिक
उन्हें चुप कराने की इच्छा

अनंत फिल्में देखी इच्छाओं से परे
तब भी मारधार की इच्छा नहीं
प्यार करने की इच्छा पर ही मन ठहरा
अनंत बार प्यार किया उन लड़कियों से
जिनसे नहीं मिला
मिलने की संभावना भी नहीं

जिनसे मिला जीवन में
कभी अभाव में
या समाज के दबाव में
उनसे क्या अपेक्षा रखता
किसी बैंक खाते की तरह 
बना रहा रिश्ते में
भविष्य में काम आने का भ्रम लिए

रात की इच्छाएं एक गहरे सुरंग में ले जाती हैं
जहाँ मैं नींद को चकमा देता हुआ प्रवेश करता हूँ
उम्र और बेचैनी के हिसाब से
और फिर न निकलने की इच्छा 
सुबह से पहले दम तोड़ देती है

इच्छाओं में दिल्ली आना कभी नहीं रहा
गाँव में जीवन गुज़ारना एक इच्छा थी
मगर अब गाँव गाँव नहीं रहे
और जीवन भी जीवन कहाँ रहा.

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 16 मई 2021

अकेलेपन के नोट्स - 2

कुछ साल पहले एक फिल्म आई थी. कहानी एक नए कपल की थी जो शादी के बाद अपने किराये के कमरे में स्कूटर पर सवार होकर बसने आते हैं. पूरा मोहल्ला उन्हें (नई दुल्हन को) जी भरकर देखता है. मकान मालिक, उसकी बीवी, सब्ज़ी वाला, किराने की दुकान वाला, सब के सब. पहले दिन जब लड़का स्कूटर पर ऑफिस जाता है तो फिर लौटकर नहीं आता. कोई ख़बर भी नहीं कि ज़िंदा है या.. 

रिश्तेदार सलाह देते हैं कि अब उसे सफेद कपड़े में ही रहना चाहिए, क्यूंकि रिवाज है. मकान मालकिन अपने भाई से उसकी शादी कर देना चाहती है क्यूंकि उसकी उम्र अब काफी हो चुकी है.मकान मालिक उसे कभी छूने की, कभी देखने की कोशिशें करता रहता है.

जब सबको लगता है कि लड़की मकान मालकिन के भाई से शादी कर ही लेगी, हम देखते हैं कि वो घर के सामने सब्ज़ी वाले के साथ चली जाती है. सब्ज़ी वाले ने एक बार उसे ग़लत नज़र से देखने की कोशिश की थी, मगर लड़की ने जब समझाया तो फिर उसने अच्छी दोस्ती निभाई. 

मुझे उन शादियों से बहुत चिढ़ होती है जिसमें हम बरसों साथ रहकर सिर्फ शरीर बाँट रहे होते हैं, भरोसा नहीं. जिसके लिए रोटियां जला रहे होते हैं, कभी कभी अंगुलियाँ भी, उसे ये सब सिर्फ एक डेली रूटीन की तरह लगता है. रिवाज की तरह. 

किसी को हथिया लेने भर का रिश्ता कोई रिश्ता नहीं होता. अधिकार किसी रिवाज के बोझ से नहीं, कमाया जाना चाहिए. 

जिस फिल्म का ज़िक्र किया, उसमें न तो पति ने, न मकान मालकिन के भाई ने उस लड़की का भरोसा कमाया. वो सिर्फ अपनी ज़रूरत पूरी कर रहे थे. 

हमारी ज़िंदगी में एक तीसरे सब्ज़ी वाले की जगह भी हमेशा होनी चाहिए.

निखिल आनंद गिरि

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