शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

दिसंबर में मई की याद

इस साल मई तक ठीक चला कैलेंडर
फिर एक जलते हुए दिन से 
धुआं इतना उड़ा कि
ख़ाक हुए सब दिन 
आगत विगत सब

बांस से पीट पीट कर बहाए अधजले मास
लात मारी 
ठोकरें ही ठोकरें
गंगा में जबरन धकेल दिया सब कुछ
सब कुछ का भरम धकेला शायद

स्मृतियां चिपक गईं आत्मा से
नहीं गईं महंगी शराब पीकर भी
नहीं गईं गहरी नींद के बाद भी
नहीं गई चुटकुलों से, गानों से या लोरियों से भी
नहीं गईं शहर बदलकर भी
कहां कहां नहीं गया मैं
नहीं गईं तो नहीं ही गईं
स्मृतियां

जून में मई की स्मृति गर्म थी
जुलाई में नरम
अगस्त सितंबर भी भीगे रहे स्मृतियों से
अक्टूबर नवम्बर डूब गए
दिसंबर आते आते
मई की स्मृतियां पहाड़ सी हो गई हैं

अब मैं इन स्मृतियों के साथ ही नए वर्षों में जाऊंगा
यह कोई संकल्प नहीं
एकमात्र विकल्प है।



निखिल आनंद गिरि

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