दिल्ली में जगह जगह पर सस्ती किताबों के ठेले लगते हैं। सौ से अधिक लोग तो किसी ख़ाली दिन किताबें पलटने के लिए जुटे ही रहते हैं। आम तौर पर इन सस्ती जगहों पर भी अंग्रेज़ी की किताबें महंगी मिलती हैं। हिंदी की या तो नहीं मिलती या बेहद कम दाम में मिलती हैं। मैंने कई पुराने हिंदी उपन्यास इन्हीं सस्ते मेलों से खरीदे हैं।
पटना के गांधी मैदान में दिसंबर के पहले हफ्ते में लगने वाले सालाना पुस्तक मेले में पहली बार जाना हुआ। लोग उतने ही थे जितना दिल्ली वाले सस्ते ठेलों पर जुटते थे। सोशल मीडिया पर प्रचार ज़्यादा था।
कई साल बाद बिहार लौटने पर बिहार की स्मृति अब भी 16 साल पुरानी ही बनी हुई थी। अख़बार को चाट चाट कर पढ़ने वाले लोग, एक एक पन्ना बांट बांट कर सामूहिक पाठ की कंजूस आदत वाला मेरा राज्य। पुस्तक मेले में 20 रुपए का प्रवेश टिकट लेकर घुसना थोड़ा आधुनिक महसूस करवा रहा था। वो भी तब जब मुझे मेले के एक मंच से कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया गया था। मुझे लगा चलो सबके लिए ये बराबरी अच्छी ही है।
अंदर पहुंचकर मित्र आयोजकों ने टिकट लेकर मेरे अंदर आने पर अफ़सोस ज़ाहिर किया।
20 रुपए इतने भी नहीं होते कि मैं उसके ना मिलने पर नाराज़ हो जाऊं या किसी साथी को फोन करूं। जुगाड़ वाले लोग मेले में सिर्फ आत्माओं की तरह भटकते हैं, चवन्नी की किताबें भी नहीं खरीदते; ये निजी अनुभवों से कह रहा हूं।
किताबें खरीदने के लिए बहुत ज़्यादा विकल्प थे भी नहीं। वाणी, राजकमल, सेतु और प्रभात वगैरह को छोड़ दें तो मोमो चाट के स्टॉल बराबर कुछ किताब की दुकानें और थीं बस।
पटना पुस्तक मेला ठंड में एकदम सिकुड़ा हुआ था। पटना की जगह पूर्णिया या फारबिसगंज में होता तो भी इससे बड़ा होता।
तिस पर एक और मेला गांधी मैदान में ही लगा हुआ था "मेरी कमीज़ उसकी कमीज़ से सफ़ेद" वाली तर्ज़ पर। कौन असली मेला है, कौन नकली, गब्बर सिंह को कुछ पता नहीं।
कार्यक्रमों के आयोजन ठीक थे मगर टाइमिंग इतनी ख़राब थी कि दो दो कविता पाठ अलग अलग मंचों से एक ही समय में शुरू होते थे। श्रोता वही, कवि वही तो कार्यक्रम दो जगह क्यों!
शारदा सिन्हा के साथ फ़ैज़ की कविताओं को भिड़ा दिया गया तो न शारदा सिन्हा को सुन पाए न फैज़ को बिना शोर के सुना पाए।
इस तरह की कई कमियों के बावजूद पटना पुस्तक मेले में जाना सुखद रहा। नए कवि मित्र बने। पटना शहर में कवियों की आबादी दिल्ली शहर से अधिक है, ये मेरी कविगणना में मालूम पड़ा।
अब मेला खत्म हो चुका है। गांधी मैदान में अब फिर से गांधी की मूर्ति के नीचे धड़धड़ रील्स बनेंगी। दिल को कुछ दिन तक मेला याद आयेगा फिर किसी अगले मेला की तरफ झुक जायेगा। यही संसार का नियम है।
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