शुक्रवार, 23 जून 2023

आधा-अधूरा

1) बीमारियां सब बुरी
मगर सबसे बुरी वो
जो पिता को हो

स्मृतियां सब बुरी
मगर सबसे बुरी वो
जिनमें ठुकराए जाने का दृश्य हो

2) अक्षर मिले कई
लुभावने शब्द भी
अर्थ नहीं मिला लेकिन

तुमने जितना लिखा
उतना ही पढ़ा गया मैं
आधा-अधूरा

3) मेरा अंतहीन आकाश बुलाता है
मैं दौड़ता चला जाऊंगा बच्चे की तरह
पीछे से आते
गुर्राते 
कुत्ते रह जाएंगे यहीं।

समय से पहले चला जाऊंगा दुनिया से
इतनी तीव्र इच्छा से दौडूंगा मृत्यु की तरफ

4) लाख चाहता हूं कि तुमसे
अलग करूं ख़ुद को, लेकिन
तुम जैसे मेरे घुटनों का काला धब्बा

हर कोशिश के बाद मुझे
दिख ही जाती हो
और ज़रा सा शर्मिंदा भी
कर जाती हो।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 22 जून 2023

कैसे कटेगा जीवन, बोलो?

कैसे काटूं इतना लंबा जीवन, बोलो?

तुम ही से अभिमान था सारा
आंखों का सम्मान था सारा
सारा गौरव चूर कर दिया
तुमने जब से दूर कर दिया
बिना बात के कर ली अनबन, बोलो
कैसे काटूं इतना लंबा जीवन, बोलो?

दुनिया में मारा-मारा फिरता रहता हूं
बिल्कुल तन्हा, आवारा फिरता रहता हूं
किसकी खातिर, मेरे मीता?
मुझे हराया तो क्या जीता?
मुझे मान बैठी हो दुश्मन, बोलो?
कैसे काटूं इतना लंबा जीवन, बोलो?

ठीक से देखो, मैं वो एक परिंदा हूं
पंख कटे हैं दोनों, लेकिन ज़िंदा हूं
घर जैसे मीलों तक कोई मरघट है, वीराना है
और मुझे घुट घुट कर प्यासा ही मर जाना है
कब आओगी लेकर मेरा सावन,बोलो
कैसे काटूं इतना लंबा जीवन, बोलो?

एक गोद में नानक, एक में लोई है
अभी जगी थी, रोते रोते सोई है
मां की बातें, इन्हें कहानी लगता है
मेरा सोना-जगना सब बेमानी लगता है
कैसे जुटाऊं जीवन गाड़ी का ईंधन, बोलो
कैसे काटूं इतना लंबा जीवन, बोलो?

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 1 जून 2023

घर पर कोई नहीं है

आप उससे मिलने आए हैं
अभी वो घर पर नहीं है
रात भी नहीं थी
ना बाएं करवट थी, ना दाएं करवट

वो मुस्कुरा कर मिलती थी स्वागत में
पर नहीं है..

वो सबसे अच्छी चाय पिलाती थी
मगर फिलहाल यह संभव नहीं है

मैं भी घर पर नहीं था
तभी वह बाहर निकली
किसी ज़रूरी काम से निकली होगी

आप तो जानते ही हैं 
वो कैसे निपुणता से सब काम करती थी
पढ़ती और पढ़ाती थी
सुंदर खाना खिलाती थी
मुझसे लंबी बहस करती थी
और मुझे भय होता था कि कहीं बाहर न चली जाए

उसे शायद एक लंबी यात्रा पर जाना था
उसने अपने लिए चार कंधे तैयार किए
फूल धूप गंध आंसू विलाप सब रास्ते में साथी रहे
उसने लकड़ियों को अपने वज़न के अनुपात में जुटाया
फिर गांव कस्बे शहर के व्यस्त जाम में निर्बाध बढ़ती रही आगे
सब उसे जानते थे तो रास्ता देते गए
उसे जहां पहुंचना था उसका समय तय था

वो तय समय पर पहुंची और धुआं हो गई
वह बादलों से देखती है
घर पर निगाह रखती है।
मेरा जन्मदिन ज़रूर याद रखती है।

मेरी पत्नी अब घर पर नहीं रहती

निखिल आनंद गिरि

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