निखिल आनंद गिरि
गुरुवार, 25 दिसंबर 2014
एक 'लुल' दर्शक का मज़ाक उड़ाती एलियन आत्मकथा उर्फ 'पीके'
गुरुवार, 18 दिसंबर 2014
पसीने की गंध
निखिल आनंद गिरि
(कविताओं की पत्रिका 'सदानीरा', मार्च-अप्रैल-मई 2014 अंक में प्रकाशित)
रविवार, 14 दिसंबर 2014
नई प्रेमिका के लिए
कोई आग्रह नहीं फिर भी
मैं रात भर उसके करवट बदलने का इंतज़ार करता हूं
वो सरसों के तकिये पर आसमान से बतियाती है
एक निर्दोष हंसी हंसती है मुझ पर
कि उसे दे पाया नरक-सी ही दुनिया
अपनी पवित्र अंगुलियों से कोई रेखाचित्र बनाती है हवाओं में
शायद काट रही है दुनिया का घिसा-पिटा नक्शा
रच रही है अपनी अलग दुनिया
जिसे पढ़ने के लिए बरसों-बरस करनी होगी साधना
बरसों-बरस डूबना होगा प्रेम में
यह मेरा ख़ून है जो शक्ल लेता है
दुनिया को निर्दोष, अबोध शक्ल देता
कोई अलौकिक घटना नहीं यह
होता आया सदियों से
फिर भी लगता है
अभी-अभी जीवन को महसूस किया है
अपनी हथेली पर
अगर हम आज से पहले जी रहे थे तो यह सरासर झूठ था
जीवन जितना मुलायम सुना
अभी-अभी देखा है एकदम पहली बार
दो बजकर सैंतीस मिनट पर
देवता करते हैं रखवाली रातों की
जो सो रहे होते हैं
मीठे सपने घोलते उनकी नींदो में
जगती आंखों में उम्मीद भरते शायद
और अंधेरी रातों में जो भूल चुके होते हैं रोशनी का चेहरा
हमारी-तुम्हारी जैसी आंखों में नया उजाला भरते
यह उजाला सांस लेता है
जैसे सृष्टि ऊर्जा भरती हो धमनियों में
इस उजाले की आंखें हैं
जैसे रातों के देवता गूंथ गये हों मणि अपनी
इस उजाले को एक नाम दूंगा दीये-सा
टिमटिमाता रहे हर अंधेरे कोने में
अथाह संभावनाएं लिए
4) मैं नही
तुम नही
जीवन नही
जो था
जीवन का भ्रम था
दुनिया नही
दुनिया का भ्रम था
प्रेम नही
प्रेम का भ्रम था
मैं शर्तिया कहता हू
ये घनी अंधेरी रात नही
रात का भ्रम है
ये दरअसल उजाले की शुरुआत है
जो मेरी आँखों में साफ पढ़ा जा सकता है
हथेलियों पर महसूस किया जा सकता है
सब कुछ ख़त्म हो चुका है
या हो रहा है
यह भी एक भ्रम था
इस नन्हे समय के टुकड़े के साथ
जिया जा सकता है पूरा जीवन
निखिल आनंद गिरि
रविवार, 19 अक्टूबर 2014
मॉडर्न दुनिया, मॉडर्न दादियां
गुरुवार, 9 अक्टूबर 2014
कैसे-कैसे महानायक !
अमिताभ बच्चन की अभिनय क्षमता पर शायद ही किसी को शक हो, मगर इतने लंबे सामाजिक जीवन के बाद उम्र के सातवें दशक उन्हें इस बात का हिसाब ज़रूर करना चाहिए कि उन्होंने अपनी आड़ में कितने अघोषित अपराध किए या करवाए हैं। एक ज़िम्मेदार वरिष्ठ नागरिक के तौर पर उन्हें उन सभी दुष्प्रचारों के लिए माफी मांगनी चाहिए जिससे जनता दिग्भ्रमित होती रही है। देश उनके लिए दुआएं करता है तो देश के प्रति इतनी ज़िम्मेदारी तो बनती ही है। ऐसा किसी किताब में लिखा भी नहीं कि महानायकों का आत्मचिंतन करना मना हो।
निखिल आनंद गिरि
(11 अक्टूबर को अमिताभ के बर्थडे का एडवांस गिफ्ट)
गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014
गांधी जी के नाम पर
जय जय मोहन'लाल' की
गांधी जी गुजरात में
मोदी की हर बात में
गांधी जी अमरीका
मोदी के आगे फीका
गांधी जी के चेले,
नोट-लोट कर खेले
गांधी जी की लाठी
गुंडों की सहपाठी
गांधी जी की झाड़ू
झूमे पीकर दारू
गांधी जी की खादी
पहिने सब फ़सादी
सत्य अहिंसा नारा
मुल्क चीख कर हारा
गांधी जी के बंदर
घोटाले में अंदर
गांधी जी के नाम पर
छोड़ तमाशा काम कर
हाथी घोड़ा पालकी
जय जय मोहन'लाल' की
निखिल आनंद गिरि
शनिवार, 20 सितंबर 2014
एडहॉक ज़िंदगी के एडहॉक किस्से
दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसी देश की सबसे बड़ी दो मीडिया संस्थाएं टेंपररी और कांट्रैक्ट कर्मचारियों के भरोसे ही चलती आ रही हैं। ये बात मीडिया के सारे लोग जानते भी हैं और मानते भी हैं। मगर कभी कोई छोटी-मोटी गलती हो जाए तो कांट्रैक्ट वाले, एडहॉक वाले की एक ही सज़ा होती है। सीधा नौकरी से निकाला। दूरदर्शन की उस टेंपररी न्यूज़रीडर ने भी इतनी भर ही गुस्ताखी की थी। चीन के राष्ट्रपति के नाम के आगे 'ग्यारह' जैसा शुभ विशेषण लगा दिया। सोचा अतिथि आए हैं, पीएम के जन्मदिन के दिन आए हैं, ग्यारह की भेंट चढ़ाना तो ज़रूरी है। तो सी या ज़ी (XI) ज़िनपिंग या शिनपिंग की जगह ग्यारह कह दिया। बस नौकरी चली गई।
ये चीन सचमुच में बहुत चालाक देश है। देश का नाम ऐसा है कि हम रोगी होने की हद तक पिएं और डायबिटीज़ हो जाए और राष्ट्रपति का नाम ऐसा कि हमारा पीएम तो क्या पीएम का बाप भी नाम लेने के बजाय 'सर' 'सर' करने लगे। अब समय आ गया है कि भारत की विदेश नीति में पड़ोसी देशों के नेताओं से सिंपल निकनेम रखने का दबाव डाला जाए। चिंटू, मिंटू, सोनू, मोनू, पिंकू टाइप। हमारे यहां के टीवी एंकर कम से कम अपनी नौकरी तो बचा सकेंगे। पहले ही बात-बात पर नौकरी जाने का ख़तरा बना रहता है। एक एंकर की नौकरी तो सिर्फ इसीलिए चली गई थी कि उसने बॉस की पसंद का लिपस्टिक नहीं लगाया था। एक एंकर ने राष्ट्रपति के संबोधन पर अपनी टिप्पणी करते हुए पढ़ दिया कि राष्ट्रपति महोदय ने सफलता का 'मलमूत्र' दिया।
देश दस सालों तक एडहॉक पीएम के भरोसे चलता रहा। बीजेपी भी आरएसएस की एडहॉक पार्टी ही है। मीडिया भी कॉरपोरेट घराने के लिए एडहॉक की तरह है। एक शादीशुदा आदमी एक परमानेंट संबंध जीता है और कई एडहॉक संबंध छिपाता रहता है। ज़िंदगी में हर कोई किसी दूसरे के लिए एडहॉक की भूमिका ही निभा रहा है । उफ्फ!!
निखिल आनंद गिरि
शुक्रवार, 12 सितंबर 2014
ख़ुद से ख़ुद तक सफर है इन दिनों
हैप्पी बर्थडे अखिलेंद्र |
शनिवार, 9 अगस्त 2014
बर्थडे डायरी..
गुरुवार, 31 जुलाई 2014
'सबसे अच्छी हत्याओं' का सीधा प्रसारण देखिए
'लाइफ ओके है. हत्यारे टीवी पर हैं' |
एक चैनल है लाइफ ओके। जिस पर ज़िंदगी कहीं से भी ठीकठाक नज़र नहीं आती। चौबीस घंटे में कम से कम दस घंटे 'बेस्ट ऑफ सावधान इंडिया' चल रहा होता है। मतलब 'सावधान इंडिया' नाम के उन एपिसोड का दोबारा प्रसारण जिसने सबसे ज़्यादा टीआरपी बटोरी थी। इन एपिसोड्स में देश भर में घटी बड़ी वारदातों को मसालेदार बनाकर दिखाया जाता है। बचपन में सड़क किनारे की दुकानों पर बेस्ट ऑफ किशोर कुमार, मुकेश वगैरह बिकते थे और हम ख़रीदते भी थे। कुछ दिन बाद रेलेवे स्टेशन पर लाइफ ओके के सौजन्य से बेस्ट ऑफ मर्डर एपिसोड्स, बेस्ट ऑफ रेप एपिसो़ड् सड़क किनारे बिकते दिख जाएं तो ताज्जुब मत कीजिएगा। बाज़ार में जो चीज़ बिक जाए, वो ही सही।
सड़क पर चलते हुए या मेट्रो में सफर करते हुए अचानक किसी का पैर पड़ जाए या कंधे सट जाएं तो गाली-गलौज शुरु हो जाती है। अगली बार ऐसा हो तो सारा दोष उसे ही मत दीजिएगा। कुछ दोष उनका भी है जो इस लाइव टेलीविज़न की हिंसक होती बॉडी लैंग्वेज को जान-बूझकर शह दे रहे हैं। शुक् है रेडियो फिर भी बचा हुआ है। अपने आखिरी वक्त में अगर मेरे पास रेडियो या टीवी में से किसी एक को चुनने का मौका मिले तो मैं रेडियो चुनना चाहू्ंगा। इसके पास आंखे पहले से ही नहीं हैं और ज़बान अभी भी अश्लील नहीं हुई है।
निखिल आनंद गिरि
मंगलवार, 22 जुलाई 2014
मजबूरी का नाम प्रभाष जोशी
शनिवार, 12 जुलाई 2014
एक टीवी दर्शक का टाइमपास दर्द
मां दिखने में बहुत कमज़ोर है। बहुत दूर रहती है। उसका वजन 40 किलो के आसपास होगा। मगर उससे चालीस सेकेंड भी मोबाइल पर बात करके वज़न चालीस किलो बढ़ जाता है। भरोसा इसे कहते हैं..
मंगलवार, 1 जुलाई 2014
दुनिया से लड़ती अकेली लड़की
पत्थरों के हज़ारों देवता और एक अकेला याचक
सैंकड़ों सड़कें सुनसान, गाड़ियां, धुएं और एक विशाल पेड़
हज़ारों मील सोया समुद्र और एक गुस्ताख कंकड़
इन सबसे बहत-बहुत अकेली है एक लड़की
मुकेश के हज़ार दर्द भरे गानों से भी ज़्यादा..
फिलहाल जो सेमिनारों में व्यस्त हैं
स्त्रीवादी संदर्भों की सारगर्भित व्याख्याओं में
आंचल, दूध, पानी की बोरिंग कहानियों में
उनको बात करनी चाहिए
जो ज़माने को दो गालियां देकर ठीक कर देते हैं
क्रांति की तमाम पौराणिक कथाओं में खुद को नायक फिट करते हुए
इस सूत्र में भरोसा रखते हैं
उन्हें ब्रेक भर का समय देना चाहिए लड़की के लिए
लड़की के पास इतना भर ही है समय
जिसमें ठहर कर ली जा सकती है
एक गुस्से भरी सांस
और मौन को पहुंचाया जा सकता है
उस अकेली लड़की के पास
थोड़ा-थोड़ा घूरा था जिसे सब ने
पीठ पीछे गिनाए थे उसके नाजायज़ रिश्ते
मजबूरन जिसे करनी पड़ी थी आत्महत्या
आपकी दुआओं से बची हुई है आज भी
एफआईआर से लड़ते-लड़ते अचानक वो दुनिया से लड़ने लगी है
दुनिया उसे हरा देगी देखना
जो उसके खिलाफ गवाही देंगे
उसमें भी कई लड़कियां हैं
जो आज मजबूर हैं
कल अकेली पड़ जाएंगी
(मीडिया में और दबाव के हर पेशे में जूझ रही हर अकेली लड़की के लिए)
सोमवार, 23 जून 2014
धरती के सबसे बुरे आदमी के बारे में..
एक कहानी सुनिए. एक बुरे आदमी को ये तो पता था कि उसने कुछ ग़लत किया है मगर जज के सामने वो क़ुबूल करने को तैयार ही नहीं था. दरअसल जज पहले ही ये मान कर आया था कि इसे सज़ा सुनानी है तो सफाई में उस बुरे आदमी को कुछ भी कहने का मौका ही नहीं मिला. तो उसे बहुत कड़ी सज़ा सुनाई गई. इतनी कड़ी कि जज भी अपना फैसला सुनाकर रो पड़ा. ये जज का रोना सिर्फ बुरा आदमी ही देख पाया क्योंकि बुरा होने में रोने को समझना होता है. ख़ैर, सज़ा सुनाने के बाद जज और मुजरिम आपस में कभी नहीं मिले. बुरे आदमी को यकीन था कि जज कभी न कभी छिप कर उसे देखने ज़रूर आएगा.
जज इतना अच्छा था कि उसे हर मुजरिम बहुत प्यार करता था. जज के लिए सभी बुरे लोग एक जैसे थे जिनमें ये बुरा आदमी भी था. यही बात बुरे आदमी को नागवार गुज़रती थी और वो सबसे बुरा आदमी बन जाना चाहता था. यही बात जज को नागवार गुज़रती थी कि वो जिसे सबसे अच्छा आदमी बनाना चाहता था, वो सबसे बुरा होता जा रहा था. ये कहानी जज की नहीं उस बुरे आदमी की है इसीलिए जज के बारे में इतनी ही जानकारी दी जाएगी.
तो उस बुरे आदमी को अपनी सज़ा काटते कई बरस बीत गए. धीरे-धीरे वह भूलने लगा कि उसे किस बात की सज़ा मिली है. उसे लगा कि वह जब से जी रहा है, ऐसे ही जी रहा है. उसे अपने बुरे होने पर कोई मलाल नहीं था, कोई सज़ा उसे कतई परेशान नहीं करती थी. वह भूल गया था कि कोई था जो उसे धरती का सबसे अच्छा आदमी बनाना चाहता था. वह अपना चेहरा तक भूल गया था.
उसका आइना कहीं खो गया था और उसे यह भी याद नहीं था. वह धीरे-धीरे दुनिया का सबसे बुरा आदमी बनता जा रहा था. सारे मौसम, सारे फूल, सारे रंगों से उसे नफरत थी.उसके सपने सबसे बुरे थे. उसकी सुबहें बहुत बुरी थीं. अंधेरे में वह ज़ोर ज़ोर से चिल्लाता था. लोग उसके आसपास भी जाने से डरने लगे थे.
वह दरअसल दुनिया का सबसे अकेला आदमी होता जा रहा था.
(कहानी अभी ख़त्म नहीं होनी थी मगर बुरे आदमियों के बारे में किसी अच्छे दिन ज़्यादा नहीं पढ़ा जाना चाहिए)
निखिल आनंद गिरि
मंगलवार, 17 जून 2014
देने दो मुझको गवाही, आई-विटनेस के खिलाफ
बहुत पुराने मित्र हैं मनु बेतख़ल्लुस..फेसबुक पर उनकी ये ग़जल पढ़ी तो मन हुआ अपने ब्लॉग पर पोस्ट की जाए.आप भी दाद दीजिए.
अपने पुरखों के, कभी अपने ही वारिस के ख़िलाफ़
ये तो क्लीयर हो कि आखिर तुम हो किस-किस के ख़िलाफ़
इस हवा को कौन उकसाता है, जिस-तिस के ख़िलाफ़
फिर तेरा वो दैट आया है, मेरे दिस के ख़िलाफ़
मैंने कुछ देखा नहीं है, जानता हूँ सब मगर
देने दो मुझको गवाही, आई-विटनस के ख़िलाफ़
जब भी दिखलाते हैं वो, तस्वीर जलते मुल्क की
दीये-चूल्हे तक निकल आते हैं, माचिस के ख़िलाफ़
उस चमन में बेगुनाह होगी, मगर इस बाग़ में
हो चुके हैं दर्ज़ कितने केस, नर्गिस के ख़िलाफ़
कोई ऐसा दिन भी हो, जब इक अकेला आदमी
कर सके जारी कोई फरमान, मज़लिस के ख़िलाफ़
कितने दिन परहेज़ रखें, तौबा किस-किस से करें
दिलनशीं हर चीज़ ठहरी, अपनी फिटनस के ख़िलाफ़
हर जगह चलती है उसकी, आप गलती से कभी
दाल अपनी मत गला देना, कहीं उसके ख़िलाफ़
मनु बेतखल्लुस
रविवार, 8 जून 2014
दुनिया की आंखो से उसने सच देखा
दरवाज़े पर आया, आकर चला गया
सांसे मेरी सभी चुराकर चला गया.
मेरा मुंसिफ भी कैसा दरियादिल था,
सज़ा सुनाई, सज़ा सुनाकर चला गया.
दुनिया की आंखो से उसने सच देखा,
मुझ पे सौ इल्ज़ाम लगाकर चला गया.
अच्छे दिन आएंगे तो बुझ जाएगी,
बस्ती सारी यूं सुलगाकर चला गया.
उम्मीदों की लहरों पर वो आया था,
बची-खुची उम्मीद बहाकर चला गया.
ये मौसम भी पिछले मौसम जैसा था,
दर्द को थोड़ा और बढ़ाकर चला गया.
निखिल आनंद गिरि
सोमवार, 12 मई 2014
एक देश था, जहां मस्तराम की लहर भी थी..
ये पोस्ट कुछ ख़ास है
डायपर
नींद न आने की कई वजहें हो सकती हैं किसी प्रिय का वियोग बुढ़ापे का कोई रोग या आदतन नहीं सोने वाले लोग नवजात बच्चों के बारे में सोचिए मां न भ...
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