ज़र्रा-ज़र्रा इक शहर छलनी हुआ है,
आप कहते हैं महज़ इक हादसा है...
रात के खाने का सब सामान था,
दाहिना वो हाथ अब तक लापता है
आपके आने से ही क्या हो जाएगा
छोड़िए भी आपसे कब क्या हुआ है...
एक मेहनतकश शहर के चीथड़े में
ढूंढिए तो कौन है जो खुश हुआ है....
कौन कब मरता है, बस ये देखना है
मुल्क ही बारुद में लिपटा हुआ है
ठीक है मुंबई कभी रुकती नहीं है....
इक समंदर आँख में ठहरा हुआ है...
निखिल आनंद गिरि
(13 जुलाई को मुंबई में हुए बम धमाके के तुरंत बाद... )
बुधवार, 20 जुलाई 2011
गुरुवार, 14 जुलाई 2011
हम भी कई रोज़ से जिए ही नहीं...
तमाम राहें जो हमारी न हुईं...
तमाम किस्से जो हमारे न हुए...
और वो चेहरे जो अजनबी ही रहे...
छोड़ आएंगे कहीं धोखे से....
अपनी ही छत पे सभी चांद उगें,
अपने उजालें हों, सूरज भी सभी...
आसमां पर हो सिर्फ अपना हक़...
ज़िंदगी नज़्म से भी हो सुरमई...
एक कप चाय जो कभी पी नहीं
और वो गीत जिनकी धुन भूले
एक वो ख़त जिसमें अधूरा-सा कुछ
उस एक शाम....सब बांटेगे हम...
एक तारीख में लिपटी हुई यादें सारी
एक मुस्कान में लिपटे हुए सब मौज़ूं...
तेरी नाराज़ नज़र, मेरी गुस्ताख ज़बां...
सब अदालत तेरी, गुनाह सब मेरे..
जैसे जन्नत मिले है मौत के बाद..
तुझसे मिलना है कई साल के बाद
तुझसे मिलकर ही मेरे सरमाया
तय करेंगे इस रिश्ते की मियाद...
आओ कि इस शहर में जान आए
हम भी कई रोज़ से जिए ही नहीं....
निखिल आनंद गिरि
तमाम किस्से जो हमारे न हुए...
और वो चेहरे जो अजनबी ही रहे...
छोड़ आएंगे कहीं धोखे से....
अपनी ही छत पे सभी चांद उगें,
अपने उजालें हों, सूरज भी सभी...
आसमां पर हो सिर्फ अपना हक़...
ज़िंदगी नज़्म से भी हो सुरमई...
एक कप चाय जो कभी पी नहीं
और वो गीत जिनकी धुन भूले
एक वो ख़त जिसमें अधूरा-सा कुछ
उस एक शाम....सब बांटेगे हम...
एक तारीख में लिपटी हुई यादें सारी
एक मुस्कान में लिपटे हुए सब मौज़ूं...
तेरी नाराज़ नज़र, मेरी गुस्ताख ज़बां...
सब अदालत तेरी, गुनाह सब मेरे..
जैसे जन्नत मिले है मौत के बाद..
तुझसे मिलना है कई साल के बाद
तुझसे मिलकर ही मेरे सरमाया
तय करेंगे इस रिश्ते की मियाद...
आओ कि इस शहर में जान आए
हम भी कई रोज़ से जिए ही नहीं....
निखिल आनंद गिरि
शनिवार, 9 जुलाई 2011
मेट्रो में पिता
मेरे पिता जब मेट्रो में होते हैं...
तो उनकी नज़रें नीची होती हैं..
एक दुनिया जो छूटती जाती है मेट्रो से..
एक मीठी आवाज़, एक गंभीर आवाज़...
बताती है उन स्टेशनों के नाम....
‘अगला स्टेशन प्रगति मैदान’
पिता उन आवाज़ों से अनछुए..
निहारते हैं प्रगति मैदान के नीचे
एक गंदी बस्ती है शायद..
मुस्कुराते हैं पिता....
शायद याद आया हो गांव..
और बर्तन मांजती एक औरत...
शायद याद आए हों गांव के लोग....
जो नहीं दिखते कहीं मेट्रो में....
सब उदास लोग, सब अकेले...
और सबसे अकेले पिता..
जिनके मेट्रो में भी गांव है...
और शायद संतोष भी..
कि मेट्रो दिल्ली में ही है....
वरना गांव भी उदास हुआ करते...
निखिल आनंद गिरि
तो उनकी नज़रें नीची होती हैं..
एक दुनिया जो छूटती जाती है मेट्रो से..
एक मीठी आवाज़, एक गंभीर आवाज़...
बताती है उन स्टेशनों के नाम....
‘अगला स्टेशन प्रगति मैदान’
पिता उन आवाज़ों से अनछुए..
निहारते हैं प्रगति मैदान के नीचे
एक गंदी बस्ती है शायद..
मुस्कुराते हैं पिता....
शायद याद आया हो गांव..
और बर्तन मांजती एक औरत...
शायद याद आए हों गांव के लोग....
जो नहीं दिखते कहीं मेट्रो में....
सब उदास लोग, सब अकेले...
और सबसे अकेले पिता..
जिनके मेट्रो में भी गांव है...
और शायद संतोष भी..
कि मेट्रो दिल्ली में ही है....
वरना गांव भी उदास हुआ करते...
निखिल आनंद गिरि
शनिवार, 2 जुलाई 2011
उन्हें गालियां बेचनी हैं, हमें हंसी ख़रीदनी है...
65 साल के हैं डॉ प्रेमचंद सहजवाला...दिल्ली में मेरे सबसे बुज़ुर्ग मित्र....दिल्ली बेली देखने का मन मेरा भी था, उनका भी...हालांकि, चेतावनी थी कि इसे बच्चों के साथ न देखें...मतलब, 'बूढ़ों' के साथ भी न देखने की छिपी हिदायत भी थी....फिर भी, हमने सपरिवार जाने का रिस्क लिया....मतलब, प्रेमचंद जी, उनकी हमउम्र पत्नी, सुपुत्र कानू और मैं....हॉल की सबसे बुज़ुर्ग ऑडिएंस के साथ कानू और मैं थोड़ा असहज तो थे, मगर अनुभव अलग ही था....ख़ैर, पूरी फिल्म देखने के बाद प्रेम अंकल और आंटी चुपचाप बाहर निकल गए...अंकल ने बिना पूछे कहा, ये फिल्म आमिर ने बनाई है, ये यक़ीन नहीं होता...और आंटी से मैंने राय मांगी तो उन्होंने कहा, क्या सचमुच इस पर कुछ डिस्कशन की जा सकती है...तो मैंने समीक्षा लिखने का विचार छोड़कर ये कविता ही लिख डाली..हां, मेरा इतना ही कहना है कि आइंदा समीक्षा पढ़कर फिल्म देखने से पहले दस बार सोचूंगा..आखिर, दो सौ रुपये (और मेट्रो का किराया अलग से) की भी कोई क़ीमत होती है....
कभी आईने के सामने खड़े होकर
ज़ोर-ज़ोर से बकी हैं गालियां आपने?
बकी तो होंगी कभी किसी पर खीझ से....
मगर हंसी तो नहीं आई होगी ज़रा-सी भी...
अच्छा बताइए,
आप टट्टी देखकर कितनी देर तक खुश हो सकते हैं...
क्या दो सौ रुपये देकर कहा है किसी को आपने,
कि भाई बको गालियां कि हमें हंसना है...
मेरी पीठ के नीचे का जो हिस्सा है...
वहां पटाखे बांध कर जला दो भीड़ में....
थकी-हारी भीड़ खिलखिला ले ज़रा...
क्या मेट्रो में सवार उदास चेहरों को पढ़कर
शर्तिया बता सकते हैं आप,
कि वो किसी ऐसे फ्लैट में रहते हैं,
जिनके मकानमालिक दिखने में शरीफ हों,
और हों एक नंबर के अय्याश?
कि जहां पानी नहीं आए,
तो संतरे के जूस से हगना-मूतना संपन्न होता हो...
खैर छोड़िए, इतना बता दीजिए...
बाज़ार में कब नहीं थी गालियां
या हमारे घर में ही...
इतना तो मानते ही होंगे
कि आदमी के पास जब कुछ कहने को नहीं होता खास..
तभी कुंठा में निकल आती हैं गालियां...
क्या रोग सिर्फ दिल्ली के पेट में होते हैं?
और जहां टिशू पेपर या संतरे नहीं मिलते,
वहां क्या घास की ज़मीन रगड़ने पर भी हंसते हैं लोग?
ख़ैर छोड़िए, हम जादा कहेंगे तो आप कहेंगे
कि कोई शहरी गालियां बेचकर ‘अमीर’ खान बनता है,
तो हमारे भीतर का गंवार मन कुढ़ता है....
शहर की भीड़ में बने रहने के लिए...
हम भी तीन घंटे की मोहलत निकालते हैं,
गालियां सुनकर आते हैं
और लोटपोट हो जाते हैं..
निखिल आनंद गिरि
(‘दिल्ली बेली’ से सही-सलामत लौटकर आनन-फानन में यही लिखना बन पड़ा)
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ये पोस्ट कुछ ख़ास है
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