एक दुनिया है समझदार लोगों की,
होशियार लोगों की,
खूब होशियार.....
वो एक दिन शिकार पर आए
और हमें जानवर समझ लिया...
पहले उन्होंने हमें मारा,
खूब मारा,
फिर ज़बान पर कोयला रख दिया,
खूब गरम...
एक बीवी थी जिसके पास शरीर था,
उन्होंने शरीर को नोंचा,
खूब नोचा...
जब तक हांफकर ढेर नहीं हो गए,
हमारे घर के दालानों में....
हमारी बीवियों ने मारे शरम के,
नज़र तक नहीं मिलाई हमसे
उल्टा उन्हीं के मुंह पर छींटे दिए,
कि वो होश में आएं
और अपने-अपने घर जाएं...
ताकि पक सके रोटियां
खूब रोटियां...
वो होश में आए तो,
जो जी चाहा किया...
हमे फिर मारा,
उन्हें फिर नोंचा...
हमारी रोटियां उछाल दी ऊंचे आकाश में....
खूब ऊंचा....
वो हंसते रहे हमारी मजबूरी पर,
खूब हंसे...
भूख से बिलबिला उठे हम....
जलता कोयला निकल गया मुंह से...
जंगल चीख उठा हमारी हूक से....
पहाड़ कांप उठे हमारी सिहरन से....
नदियों में आ गया उफान,
खूब उफान....
उनके हाथ में हमारी रोटियां थीं,
उनकी गोद में हमारी मजबूर बीवियां थीं...
उनकी हंसी में हमारी चीख थी, भूख थी....
हमने पास में पड़ा डंडा उठाया
और उन्हें हकार दिया,
अपने दालानों से....
वो नहीं माने,
तो मार दिया.....
जंगल से बाहर की दुनिया
यही समझती रही,
हम आदमखोर हैं, बनमानुस...
जंगली कहीं के....
वाह रे समझदार...
वाह री सरकार.....
निखिल आनंद गिरि
Subscribe to आपबीती...
रविवार, 26 दिसंबर 2010
बुधवार, 22 दिसंबर 2010
इन दिनों...
तेरी रुखसत का असर हैं इन दिनों,
दर्द मेरा हमसफ़र है इन दिनों....
मर भी जाऊं तो ना पलकों को भिगा,
हादसों का ये शहर है इन दिनों....
अब खुदा तक भी दुआ जाती नही,
फासला कुछ इस कदर है इन दिनों.....
कश्तियों का रुख न तूफां मोड़ दें,
साहिलों को यही डर है इन दिनों...
पाँव क्यों उसके ज़मी पर हो भला,
आदमी अब चांद पर है इन दिनों....
क्या कहू, मैं क्यों कही जाता नही,
खुद से खुद तक का सफ़र है इन दिनों......
हम कहॉ जाएँ, किधर जाएँ 'निखिल',
नाआशना हर रह्गुजर है इन दिनों.....
निखिल आनंद गिरि
(इस गीत को यहां सुना भी जा सकता है...
http://kavita.hindyugm.com/2008/01/9.html)
सोमवार, 20 दिसंबर 2010
दे दो न इसको आवाज़ साथी...
उम्र की कच्ची सड़कों पर जब, हम-तुम अल्हड़ मस्त चाल में;
सब कुछ पीछे छोड़ बढ़े थे...
तुमको भी सब याद ही होगा...
नर्म ज़ुबां में भोली नज़्में,
मैं गढ़ता था, तुम सुनती थीं..
एक नज़्म जो अटक गई थी,
नटखट थोड़ी, नकचढ़ी सी...
उम्र की सीढ़ी पर चुपके से...
मैंने तुम्हारे रस्ते में रख छोड़ी थी...
रिश्तों की पोशाक ओढ़ाकर.
थोड़ा-सा बहला फुसलाकर
तुमको भी सब याद ही होगा...
बहकी-बहकी नज़्म को तुमने,
ठोकर मारी और गुज़र गए...
अल्हड़, अगड़ाई लेती नज़्म वो
रिश्तों की पोशाक लपेटे,
सुबक-सुबक कर, कहीं दुबक कर...
उम्र के रस्ते में खोई थी...
तुमको भी सब याद ही होगा...
आज अचानक किसी गली में,
वक्त के लब पर...
वही नज़्म फिर से,
मुझे दिख पड़ी है...
मिसरे वही हैं, बहर भी वही है...
रिश्तों की पोशाक ज़रा-सी रफू हुई है...
वही शरारत, नज़्म में अब भी...
भोलापन, अंगड़ाई वही है...
तुम्हारी ठोकर से जो एक रिश्ता
हौले-हौले सुबक रहा था,
उम्र की कच्ची सड़कों पर,
बरसों से दुबक रहा था...
उन्हीं लबों की इसे फिर तलब है....
दे दो न इसको आवाज़ साथी....
निखिल आनंद गिरि
Subscribe to आपबीती...
सब कुछ पीछे छोड़ बढ़े थे...
तुमको भी सब याद ही होगा...
नर्म ज़ुबां में भोली नज़्में,
मैं गढ़ता था, तुम सुनती थीं..
एक नज़्म जो अटक गई थी,
नटखट थोड़ी, नकचढ़ी सी...
उम्र की सीढ़ी पर चुपके से...
मैंने तुम्हारे रस्ते में रख छोड़ी थी...
रिश्तों की पोशाक ओढ़ाकर.
थोड़ा-सा बहला फुसलाकर
तुमको भी सब याद ही होगा...
बहकी-बहकी नज़्म को तुमने,
ठोकर मारी और गुज़र गए...
अल्हड़, अगड़ाई लेती नज़्म वो
रिश्तों की पोशाक लपेटे,
सुबक-सुबक कर, कहीं दुबक कर...
उम्र के रस्ते में खोई थी...
तुमको भी सब याद ही होगा...
आज अचानक किसी गली में,
वक्त के लब पर...
वही नज़्म फिर से,
मुझे दिख पड़ी है...
मिसरे वही हैं, बहर भी वही है...
रिश्तों की पोशाक ज़रा-सी रफू हुई है...
वही शरारत, नज़्म में अब भी...
भोलापन, अंगड़ाई वही है...
तुम्हारी ठोकर से जो एक रिश्ता
हौले-हौले सुबक रहा था,
उम्र की कच्ची सड़कों पर,
बरसों से दुबक रहा था...
उन्हीं लबों की इसे फिर तलब है....
दे दो न इसको आवाज़ साथी....
निखिल आनंद गिरि
Subscribe to आपबीती...
शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010
कह री दिल्ली.....
यहाँ हर ओर चेहरों की चमक जब भी है मिलती मुस्कुराती है,
यहाँ पाकर इशारा ज़िन्दगी लंबी सड़क पर दौड़ जाती है,
सुबह का सूर्य थकता है तो खंभों पर चमक उठती हैं शामें,
यहाँ हर शाम प्यालों में लचकती है, नहाती है...
दुःख ठिकाना ढूँढता है, सुख बहुत रफ़्तार में है..
माँ मगर वो सुख नही है जो तुम्हारे प्यार में है..............
यहाँ कोई धूप का टुकडा नही खेला किया करता है आंगन में,
सुबह होती है यूं ही, थपकियों के बिन,कमरे की घुटन में,
नित नए सपने बुने जाते यहां हैं खुली आंखों से,
और सपने मर भी जाएँ, तो नही उठती है कोई टीस मन में
घर की मिट्टी, चांद, सोना, सब यहाँ बाज़ार में है...
माँ मगर वो....................
ओ मेरे प्रियतम! हमारे मौन अनुभव हैं लजाते,
हम भला इस शोर की नगरी में कैसे आस्था अपनी बचाते,
प्रेम के अनगिन चितेरे यहा सड़कों पर खडे किल्लोल करते
रात राधा,दिवस मीरा संग, सपनो का नया बिस्तर लगाते,
प्रेम की गरिमा यहाँ पर देह के विस्तार में है...
हाँ! मगर वो............
कह री दिल्ली? दे सकेगी कभी मुझको मेरी माँ का स्नेह-आँचल,
दे सकेंगे क्या तेरे वैभव सभी,मिलकर मुझे, दुःख-सुख में संबल,
क्या तू देगी धुएं-में लिपटे हुये चेहरों को रौनक??
थकी-हारी जिन्दगी की राजधानी,देख ले अपना धरातल,
पूर्व की गरिमा,तू क्यों अब पश्चिमी अवतार में है??
माँ मगर वो........................
यहाँ पाकर इशारा ज़िन्दगी लंबी सड़क पर दौड़ जाती है,
सुबह का सूर्य थकता है तो खंभों पर चमक उठती हैं शामें,
यहाँ हर शाम प्यालों में लचकती है, नहाती है...
दुःख ठिकाना ढूँढता है, सुख बहुत रफ़्तार में है..
माँ मगर वो सुख नही है जो तुम्हारे प्यार में है..............
यहाँ कोई धूप का टुकडा नही खेला किया करता है आंगन में,
सुबह होती है यूं ही, थपकियों के बिन,कमरे की घुटन में,
नित नए सपने बुने जाते यहां हैं खुली आंखों से,
और सपने मर भी जाएँ, तो नही उठती है कोई टीस मन में
घर की मिट्टी, चांद, सोना, सब यहाँ बाज़ार में है...
माँ मगर वो....................
ओ मेरे प्रियतम! हमारे मौन अनुभव हैं लजाते,
हम भला इस शोर की नगरी में कैसे आस्था अपनी बचाते,
प्रेम के अनगिन चितेरे यहा सड़कों पर खडे किल्लोल करते
रात राधा,दिवस मीरा संग, सपनो का नया बिस्तर लगाते,
प्रेम की गरिमा यहाँ पर देह के विस्तार में है...
हाँ! मगर वो............
कह री दिल्ली? दे सकेगी कभी मुझको मेरी माँ का स्नेह-आँचल,
दे सकेंगे क्या तेरे वैभव सभी,मिलकर मुझे, दुःख-सुख में संबल,
क्या तू देगी धुएं-में लिपटे हुये चेहरों को रौनक??
थकी-हारी जिन्दगी की राजधानी,देख ले अपना धरातल,
पूर्व की गरिमा,तू क्यों अब पश्चिमी अवतार में है??
माँ मगर वो........................
निखिल आनंद गिरि
(दिल्ली आकर लिखी गई शुरूआती कविताओं में से एक)
बुधवार, 8 दिसंबर 2010
जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे...
जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....
अभी वक्त की मारामारी है,
कुछ सपनों की लाचारी है,
जगती आंखों के सपने हैं...
राशन, पानी के, कुर्सी के...
पल कहां हैं मातमपुर्सी के....
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे.....
अभी वक्त पे काई जमी हुई,
अपनों में लड़ाई जमी हुई,
पानी तो नहीं पर प्यास बहुत,
ला ख़ून के छींटे, मुंह धो लूं,
इक लाश का तकिया दे, सो लूं,....
जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे.....
उम्र का क्या है, बढ़नी है,
चेहरे पे झुर्रियां चढ़नी हैं...
घर में मां अकेली पड़नी है,
बाबूजी का क़द घटना है,
सोचूं तो कलेजा फटना है,
इक दिन टूटेगा......
उसने हद तक गद्दारी की,
हमने भी बेहद यारी की,
हंस-हंस कर पीछे वार किया,
हम हाथ थाम कर चलते रहे,
जिन-जिनका, वो ही छलते रहे....
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...
जब तक रिश्ता बोझिल न हुआ,
सर्वस्व समर्पण करते रहे,
तुम मोल समझ पाए ही नहीं,
ख़ामोश इबादत जारी है,
हर सांस में याद तुम्हारी है...
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...
अभी और बदलना है ख़ुद को,
दुनिया में बने रहने के लिए,
अभी जड़ तक खोदी जानी है,
पहचान न बचने पाए कहीं,
आईना सच न दिखाए कहीं!
जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे....
अभी रोज़ चिता में जलना है,
सब उम्र हवाले करनी है,
चकमक बाज़ार के सेठों को,
नज़रों से टटोला जाना है,
सिक्कों में तोला जाना है...
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे....
इक दिन नीले आकाश तले,
हम घंटों साथ बिताएंगे,
बचपन की सूनी गलियों में,
हम मीलों चलते जाएंगे,
अभी वक्त की खिल्ली सहने दे...
जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे..
मां की पथरायी आंखों में,
इक उम्र जो तन्हा गुज़री है,
मेरे आने की आस लिए..
उस उम्र का हर पल बोलेगा....
टूटे चावल को चुनती मां,
बिन बांह का स्वेटर बुनती मां,
दिन भर का सारा बोझ उठा,
सूना कमरा, सिर धुनती मां....
टूटे ऐनक की लौटेगी
रौनक, जिस दिन घर लौटूंगा...
मां तेरे आंचल में सिर रख,
मैं चैन से उस दिन सोऊंगा,
मैं जी भर कर तब रोऊंगा.....
तू चूमेगी, पुचकारेगी,
तू मुझको खूब दुलारेगी...
इस झूठी जगमग से रौशन,
उस बोझिल प्यार से भी पावन,
जन्नत होगी, आंचल होगा....
मां! कितना सुनहरा कल होगा.....
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे....
Subscribe to आपबीती...
अभी वक्त की मारामारी है,
कुछ सपनों की लाचारी है,
जगती आंखों के सपने हैं...
राशन, पानी के, कुर्सी के...
पल कहां हैं मातमपुर्सी के....
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे.....
अभी वक्त पे काई जमी हुई,
अपनों में लड़ाई जमी हुई,
पानी तो नहीं पर प्यास बहुत,
ला ख़ून के छींटे, मुंह धो लूं,
इक लाश का तकिया दे, सो लूं,....
जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे.....
उम्र का क्या है, बढ़नी है,
चेहरे पे झुर्रियां चढ़नी हैं...
घर में मां अकेली पड़नी है,
बाबूजी का क़द घटना है,
सोचूं तो कलेजा फटना है,
इक दिन टूटेगा......
उसने हद तक गद्दारी की,
हमने भी बेहद यारी की,
हंस-हंस कर पीछे वार किया,
हम हाथ थाम कर चलते रहे,
जिन-जिनका, वो ही छलते रहे....
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...
जब तक रिश्ता बोझिल न हुआ,
सर्वस्व समर्पण करते रहे,
तुम मोल समझ पाए ही नहीं,
ख़ामोश इबादत जारी है,
हर सांस में याद तुम्हारी है...
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...
अभी और बदलना है ख़ुद को,
दुनिया में बने रहने के लिए,
अभी जड़ तक खोदी जानी है,
पहचान न बचने पाए कहीं,
आईना सच न दिखाए कहीं!
जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे....
अभी रोज़ चिता में जलना है,
सब उम्र हवाले करनी है,
चकमक बाज़ार के सेठों को,
नज़रों से टटोला जाना है,
सिक्कों में तोला जाना है...
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे....
इक दिन नीले आकाश तले,
हम घंटों साथ बिताएंगे,
बचपन की सूनी गलियों में,
हम मीलों चलते जाएंगे,
अभी वक्त की खिल्ली सहने दे...
जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे..
मां की पथरायी आंखों में,
इक उम्र जो तन्हा गुज़री है,
मेरे आने की आस लिए..
उस उम्र का हर पल बोलेगा....
टूटे चावल को चुनती मां,
बिन बांह का स्वेटर बुनती मां,
दिन भर का सारा बोझ उठा,
सूना कमरा, सिर धुनती मां....
टूटे ऐनक की लौटेगी
रौनक, जिस दिन घर लौटूंगा...
मां तेरे आंचल में सिर रख,
मैं चैन से उस दिन सोऊंगा,
मैं जी भर कर तब रोऊंगा.....
तू चूमेगी, पुचकारेगी,
तू मुझको खूब दुलारेगी...
इस झूठी जगमग से रौशन,
उस बोझिल प्यार से भी पावन,
जन्नत होगी, आंचल होगा....
मां! कितना सुनहरा कल होगा.....
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे....
Subscribe to आपबीती...
रविवार, 5 दिसंबर 2010
रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन...
दे जाता है इन शामों को सागर कौन...
चुपके से आया आंखों से बाहर कौन?
भूख न होती, प्यास न लगती इंसा को
रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन?
उम्र निकल गई कुछ कहने की कसक लिए,
कर देती है जाने मुझ पर जंतर कौन?
संसद में फिर गाली-कुर्सी खूब चली,
होड़ सभी में, है नालायक बढ़कर कौन?
रिश्तों के सब पेंच सुलझ गए उलझन में,
कौन निहारे सिलवट, झाड़े बिस्तर कौन...
सब कहते हैं, अच्छा लगता है लेकिन,
मुझको पहचाने है मुझसे बेहतर कौन?
मां रहती है मीलों मुझसे दूर मगर,
ख्वाबों में बहलाए आकर अक्सर कौन..
जीवन का इक रटा-रटाया रस्ता है,
‘निखिल’ जुनूं न हो तो सोचे हटकर कौन?
निखिल आनंद गिरि
Subscribe to आपबीती...
चुपके से आया आंखों से बाहर कौन?
भूख न होती, प्यास न लगती इंसा को
रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन?
उम्र निकल गई कुछ कहने की कसक लिए,
कर देती है जाने मुझ पर जंतर कौन?
संसद में फिर गाली-कुर्सी खूब चली,
होड़ सभी में, है नालायक बढ़कर कौन?
रिश्तों के सब पेंच सुलझ गए उलझन में,
कौन निहारे सिलवट, झाड़े बिस्तर कौन...
सब कहते हैं, अच्छा लगता है लेकिन,
मुझको पहचाने है मुझसे बेहतर कौन?
मां रहती है मीलों मुझसे दूर मगर,
ख्वाबों में बहलाए आकर अक्सर कौन..
जीवन का इक रटा-रटाया रस्ता है,
‘निखिल’ जुनूं न हो तो सोचे हटकर कौन?
निखिल आनंद गिरि
Subscribe to आपबीती...
बुधवार, 1 दिसंबर 2010
इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी...
वहां हम छोड़ आए थे चिकनी परतें गालों की
वहीं कहीं ड्रेसिंग टेबल के आसपास
एक कंघी, एक ठुड्डी, एक मां...
गौर से ढूंढने पर मिल भी सकते हैं...
एक कटोरी हुआ करती थी,
जो कभी खत्म नहीं होती....
पीछे लिखा था लाल रंग का कोई नाम...
रंग मिट गया, साबुत रही कटोरी...
कूड़ेदानों पर कभी नहीं लिखी गई कविता
जिन्होंने कई बार समेटी मेरी उतरन
ये अपराधबोध नहीं, सहज होना है...
एक डलिया जिसमें हम बटोरते थे चोरी के फूल,
अड़हुल, कनैल और चमेली भी...
दीदी गूंथती थी बिना मुंह धोए..
और पिता चढ़ाते थे मूर्तियों पर....
और हमें आंखे मूंदे खड़े होना पड़ा....
भगवान होने में कितना बचपना था...
एक छत हुआ करती थी,
जहां से दिखते थे,
हरे-उजले रंग में पुते,
चारा घोटाले वाले मकान...
जहां घाम में बालों से
दीदी निकालती थी ढील....
जूं नहीं ढील,
धूप नहीं घाम....
और सूखता था कोने में पड़ा...
अचार का बोइयाम...
एक उम्र जिसे हम छोड़ आए,
ज़िल्द वाली किताबों में...
मुरझाए फूल की तरह सूख चुकी होगी...
और ट्रेन में चढ़ गए लेकर दूसरी उम्र....
छोड़कर कंघी, छोड़कर ठुड्डी, छोड़कर खुशबू,
छोड़कर मां और बूढ़े होते पिता...
आगे की कविता कही नहीं जा सकती.....
वो शहर की बेचैनी में भुला दी गई
और उसका रंग भी काला है...
इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी,
मगर पिता बूढ़े होने लगें,
तो प्रेमिकाओं को जाना होता है....
निखिल आनंद गिरि
Subscribe to आपबीती...
वहीं कहीं ड्रेसिंग टेबल के आसपास
एक कंघी, एक ठुड्डी, एक मां...
गौर से ढूंढने पर मिल भी सकते हैं...
एक कटोरी हुआ करती थी,
जो कभी खत्म नहीं होती....
पीछे लिखा था लाल रंग का कोई नाम...
रंग मिट गया, साबुत रही कटोरी...
कूड़ेदानों पर कभी नहीं लिखी गई कविता
जिन्होंने कई बार समेटी मेरी उतरन
ये अपराधबोध नहीं, सहज होना है...
एक डलिया जिसमें हम बटोरते थे चोरी के फूल,
अड़हुल, कनैल और चमेली भी...
दीदी गूंथती थी बिना मुंह धोए..
और पिता चढ़ाते थे मूर्तियों पर....
और हमें आंखे मूंदे खड़े होना पड़ा....
भगवान होने में कितना बचपना था...
एक छत हुआ करती थी,
जहां से दिखते थे,
हरे-उजले रंग में पुते,
चारा घोटाले वाले मकान...
जहां घाम में बालों से
दीदी निकालती थी ढील....
जूं नहीं ढील,
धूप नहीं घाम....
और सूखता था कोने में पड़ा...
अचार का बोइयाम...
एक उम्र जिसे हम छोड़ आए,
ज़िल्द वाली किताबों में...
मुरझाए फूल की तरह सूख चुकी होगी...
और ट्रेन में चढ़ गए लेकर दूसरी उम्र....
छोड़कर कंघी, छोड़कर ठुड्डी, छोड़कर खुशबू,
छोड़कर मां और बूढ़े होते पिता...
आगे की कविता कही नहीं जा सकती.....
वो शहर की बेचैनी में भुला दी गई
और उसका रंग भी काला है...
इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी,
मगर पिता बूढ़े होने लगें,
तो प्रेमिकाओं को जाना होता है....
निखिल आनंद गिरि
Subscribe to आपबीती...
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
ये पोस्ट कुछ ख़ास है
नन्हें नानक के लिए डायरी
जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है। ये पोस्ट मेरे दो साल के...
-
कौ न कहता है कि बालेश्वर यादव गुज़र गए....बलेसर अब जाके ज़िंदा हुए हैं....इतना ज़िंदा कभी नहीं थे मन में जितना अब हैं....मन करता है रोज़ ...
-
हिंदी सिनेमा में आखिरी बार आपने कटा हुआ सिर हाथ में लेकर डराने वाला विलेन कब देखा था। मेरा जवाब है "कभी नहीं"। ये 2024 है, जहां दे...
-
छ ठ के मौके पर बिहार के समस्तीपुर से दिल्ली लौटते वक्त इस बार जयपुर वाली ट्रेन में रिज़र्वेशन मिली जो दिल्ली होकर गुज़रती है। मालूम पड़...