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हिंदी के हॉल में मिलने वाले ज्यादा, ख़रीदने वाले कम।
लिखने वाले ज़्यादा पढ़ने वाले कम। हिंदी वाले हॉल में किसी राजा बुकस्टॉल पर नज़र
गई और वहां अंग्रेज़ी की किताबों पर मछली ख़रीदने जैसी भीड़ दिखी तो मन रुक गया - ‘अंग्रेज़ी की किताबें 100 रुपये, सौ-सौ रुपये। जो मर्ज़ी
छांट लो।‘ एक दुबला-सा लड़का एक स्टूल पर
खड़ा होकर लोगों को बुलाए जा रहा था। लोग किताबें छांट रहे थे। जैसे पालिका
मार्केट में लोअर छांटते हैं, लड़कियां जनपथ में ऊनी चादरें छांटती हैं।
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अंग्रेज़ी वाले हॉल में घुसा तो वहां
पेंग्विन और नेशनल बुक ट्रस्ट पर भारी भीड़ थे। लोग वहीं बैठकर पूरी-पूरी किताब पढ़ रहे
थे। मुझे बढ़िया आइडिया लगा। सात दिनों में कम से एक किताब तो पूरी की ही जा सकती
है। साल में कम से कम एक किताब तो पढ़नी ही चाहिए। वहां भी ‘’किताबों का पालिका
बाज़ार’’ लगा हुआ था।
अंग्रेज़ी वाले नए पाठकों की भीड़ उस दुकान पर थी। बिना जाने-सुने-पहचाने लेखकों की सुंदर किताबें 100 रुपये में ख़रीदना अंग्रेज़ी वालों के लिए मोज़े ख़रीदने
जैसा रहा होगा। हिंदी वाले तो इतना जेब में रखे-रखे नई हिंदी वाले स्टॉल पर चार दिन घूम आते हैं।
ज़्यादा नहीं लिखूंगा। आप बस तस्वीरों को देखकर फील
कीजिए। दिल्ली की सबसे ख़ास बात ये है कि ये सबको बराबर दिखने-महसूस करने के पूरे मौके देती है। किताबों की इतनी
दुकानों में आप सिर्फ घूम कर लौट आते हैं या एकाध किताबें ख़रीदते भी हैं, क्या फर्क पड़ता है। सबके साथ मेले में रहने का भरम
अकेले लौटने से ही पूरा होता है। जैसे हम दुनिया से लौटते हैं एक दिन।
निखिल आनंद गिरि
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