रविवार, 1 जनवरी 2017

तीस की उम्र


चांद तक जाती हुई एक सीढी
टूट जाती है शायद
टूट जाते हैं सब संवाद
चांद जैसी धवल प्रेमिकाओं से
तीस की उम्र तक आते-आते।

अकेले कमरे में सिर्फ सिगरेट ही नहीं जलती
पुरानी उम्र जलती है कमरे में
भूख जलती है पेट में,
बिस्तर पर
यादें जलती हैं
ज़िंदगी जलकर सोना हो जाती है
तीस की उम्र तक आते-आते।

समय इतनी तेज़ी से घूमता है
इस उम्र में
कि सब कुछ थम-सा जाता है
आंखें नाचती हैं केवल।
बहुत-सी सांसे भरकर
रोकना होता है भीतर का ज्वार
बहुत तो नहीं रुक पाता फिर भी।

कंधे पर एक तरफ होता है
तमाम ज़िम्मेदारियों का बोझ
बेटी जागती है रात भर
तो प्रेमगीत लोरियां बनते हैं।
पिता पहली बार लगते हैं बूढे
मां किसी खोई हुई चाबी का उदास छल्ला।
दूसरे कंधे पर झूलता है ऐसे में
सूखी पत्तियों की तरह हरा प्रेम।

दुनिया में सब कुछ हो रहा होता है पूर्ववत
कुछ भी नया नहीं
सड़क पर लुटते रहते हैं मोबाइल
बहकते रहते हैं नए लौंडे
कानून तब भी अंधा
एक ही तराज़ू पर तोलता रहा है
उम्र और जुर्म के बटखरे।

सिर्फ नया होता है
एक उम्र का दूसरी उम्र में प्रवेश
अपनी-अपनी बालकनी में खड़े सब भाई-बंधु
युद्ध के मैदान में अचानक जैसे।
तीस की उम्र का रथ होता है एक
कोई सारथी नहीं
जिसके पहिए घिसने लगते हैं पहली बार।

('तद्भव' पत्रिका में प्रकाशित)

निखिल आनंद गिरि

3 टिप्‍पणियां:

  1. फेसबुक से लाइक करने की आदत पड़ गई है, तो अनायास यहां भी लाइक का बटन ढूंढने लगी। नये साल पर इस शुरुआत से बेहतर भला क्या हो सकता है ;)

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