बुधवार, 30 नवंबर 2016
रविवार, 27 नवंबर 2016
'डियर आलिया भट्ट', मुझे आपसे प्यार हो रहा है
अगर आप शाहरुख खान के नाम पर ‘डियर ज़िंदगी’ देखने का मन बना रहे हैं तो आप अब
भी समय से काफी पीछे चल रहे हैं। आलिया भट्ट को आपने ‘उड़ता पंजाब’ में कमाल की
एक्टिंग करते देखा था। मेरा दावा है कि इस फिल्म के बाद आपको आलिया भट्ट से
प्यार हो जाएगा। तो प्लीज़ ये फिल्म ‘डियर आलिया भट्ट’ के लिए देखने जाएं
क्योंकि मेरा सिनेमा बदल रहा है। ये फिल्म गौरी शिंदे ने बनाई है। वही जिन्होंने
साल 2012 में ‘इंग्लिश-विंग्लिश’ बनाई थी। अच्छी फिल्म थी। ‘डियर ज़िंदगी’ बहुत
अच्छी फिल्म है। कई जगह आप ज़िंदगी के बारे में लंबे-लंबे उपदेश सुन-सुनकर बोर
होंगे मगर एक अच्छी फिल्म में थोड़ा बोर होना एक बुरी फिल्म देखने से ज़्यादा
अच्छा है।
आज के समय की एक लड़की कायरा (आलिया) तमाम तरह की उलझनों से भरी
ज़िंदगी ढो रही है। कई सारे रिश्तों में उलझी। कई सारे रिश्तों से बचती
हुई। रिश्तों में, समाज में, परिवार में पूरी तरह से ‘मिसफिट’ एक लड़की
जो आपको आजकल हर शहर में अपनी पहचान के लिए जूझती मिल जाएगी। फिर
अचानक फ्रस्ट्रेशन की हद तक पहुंचकर उसकी नींदें उड़ जाती हैं,
बुरे-बुरे ख़्वाब आने लगते हैं तो एक ऐसे ‘दिमाग के डॉक्टर’ की एंट्री होती है
जो सभी सवालों के जवाब जानता है। जिसकी ख़ुद की ज़िंदगी में एक
तलाकशुदा पत्नी है, बिछड़ गए बेटे का दर्द है मगर वो कायरा की ज़िंदगी को ठीक
करने का सारा फॉर्मूला जानता है। ये डॉक्टर जहांगीर खान हैं जो शाहरुख खान
तो हैं मगर ‘किंग खान’ नहीं।
उसके पास हर चीज़ की एक नई परिभाषा है। वो
बहुत सारे प्रेम-संबंधों को जायज़ ठहराता है। प्यार के रिश्तों को कुर्सी
ख़रीदने से पहले ट्राई करने की तरह देखता है। ज़िंदगी को समंदर समझकर लहरों से
कबड्डी खेलता है। सबसे ज़रूरी और कम ज़रूरी रिश्तों में फर्क करना सिखाता है।
ऐसा लगता है कि वो दिमाग का डॉक्टर नहीं किसी न्यूज़ चैनल का एंकर हो जिसे धरती
पर ज्ञान बांटने के लिए ही अवतार लेना पड़ा।
ऐसे वक्त में जब सलमान ‘बिग
बॉस’ जैसे घटिया एंटरटेनमेंट के दम पर उछलते हैं, अमिताभ बच्चन बोरोप्लस को
रिश्ते में सबका बाप बतला कर महानायक बने रहने का झूठ रचते हैं, शाहरुख ने अपनी
रोमांटिक इमेज से हटकर एक ऐसा किरदार चुना जिसके लिए उन्हें सौ सलाम मिलने
चाहिए। फिल्म का दूसरा हाफ सिर्फ शाहरुख और आलिया की बातचीत है। अकेलापन एक
मिस्ट्री है जिसको एक डीकोड करता है और दूसरा अकेलेपन के दूसरे लेवल पर पहुंचता
है।
स्क्रीनप्ले बहुत शानदार है। कई जगह आप जमकर हंसेंगे और अगर शहर
की उलझनों ने कभी आपको अकेला किया होगा तो आलिया की शानदार एक्टिंग
आपकी आंखों से बहेगी भी। जेनरेशन गैप की वजह से परिवार की भूमिका पर भी
फिल्म लंबा उपदेश देती है। एडिटिंग इस फिल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी है।
ऐसी कमज़ोरी कि इस अच्छी फिल्म में भी इंटरवल पर दर्शकों की तरफ से
‘थैंक गॉड’ की आवाज़ आती है।
मुझे अक्सर लगता रहा है कि सबसे अच्छी कविता
या सबसे अच्छी फिल्म वही हो सकती है, जिसमें कई चीज़ें पंक्तियों या दृश्यों के
बीच में छोड़ दी जाएं। इस फिल्म में कुछ भी छूटता नहीं। फिल्म इतना समझाती है,
इतना
समझाती है कि आप ‘पकने’ लगते हैं। असल वाली ज़िंदगी इतनी ‘डियर’ कभी
नहीं होती कि तीन घंटे में सारी उलझनें सुलझा ली जाएं। न ही सबकी किस्मत
में एक ‘दिमाग का डॉक्टर’ होता है।
सेंसर बोर्ड वाले पहलाज निहलानी ने
ऐसी फिल्म में भी ‘बीप’ के लिए जगह निकालकर पूरी देशभक्ति का परिचय दिया है।
हालांकि, ‘लेस्बियन’ को वो ‘लेबनीज़’ ही सुन और समझ पाए, इसीलिए जाने दिया। वो
चाहते तो फिल्म के टाइटल पर भी नाराज़ हो सकते थे जैसा उनकी पूर्व शिक्षा मंत्री
स्मृति ईरानी एक बिहारी मंत्री के ‘डियर स्मृति जी’ लिखने पर नाराज़ हो गईं
थीं। इसके अलावा फिल्म से पहले ‘फिल्म डिवीज़न’ की सरदार पटेल
पर डॉक्यूमेंट्री भी मुफ्त में आपको देखने को मिलेगी और आप राष्ट्रप्रेम
के मामले में तरोताज़ा महसूस करेंगे।
(ये फिल्म समीक्षा Youth Ki Awaaz के लिए लिखी गई है)
निखिल आनंद गिरि
मंगलवार, 22 नवंबर 2016
असली ब्लैकमनी संसद में हैै, वहां कतार लगाएं..
2017 के ऑस्कर अवार्ड्स की तारीख अभी दूर है मगर भारत की तरफ से इस साल की
ऑफिशियल ऑस्कर एंट्री ‘विसारनाई’ अचानक बहुत याद आ रही है। बैंक के आगे कतारों में लगे देश को ये फिल्म दिखानी
चाहिए ताकि काला धन पर उनकी समझ बेहतर हो सके और वो अपनी कतार लेकर अपना हिसाब
लेने संसद की तरफ रुख करें। तमिल फिल्म विसारनाई की कहानी का बड़ा हिस्सा एम
चंद्रकुमार के नॉवेल ‘लॉक अप’ पर आधारित है|
एम चंद्रकुमार एक ऑटो ड्राइवर थे|
आंध्र प्रदेश की गुंटूर पुलिस द्वारा उन्हें 13 दिनों की कस्टडी में टॉर्चर किया गया था|
ये शायद 1980 के दशक की बात है। फिर उन्होंने अपने अनुभवों
पर ये नॉवेल लिखा था जिस पर तमिल डायरेक्टर वेट्रिमारन की नज़र पड़ी और इस पर बनी
एक दिल दहलाने वाली थ्रिलर ‘विसारनाई’ ने दक्षिण भारत में तहलका मचाने के बाद नेशनल फिल्म अवार्ड तक जीत लिया। हंगामे
के बीच आंध्रा पुलिस पर सवाल भी खड़े हुए थे। यानी एक फिल्म समाज पर जितना असर डाल
सकती थी, कामयाब रही।
आंध्र प्रदेश और तमिलनाडू के बॉर्डर इलाके की कहानी है विसारनाई (यानी Interrogation/पुलिसिया पूछताछ)। एक लड़का मस्ती में रात का आखिरी शो देखकर लौट रहा होता है
और पुलिस उसका नाम पूछती है। ‘अफ़ज़ल’ नाम सुनते ही वो ‘अल-क़ायदा या ISIS’ का मान लिया
जाता है। अफज़ल कहता है कि मैं सिर्फ एक तमिल मजदूर हूं जो यहां रोज़गार के लिए
आया हूं। मगर पुलिस को वही सुनना होता है जो वो सुनना चाहती है। फिर उसके ज़रिए
आंध्रा के इस इलाके में रह रहे कई संदिग्ध ‘तमिल’ मजदूरों को पुलिस उठा लेती है। इंस्पेक्टर को एक केस की फाइल बंद करनी है और
ऐसे में ये लोग जिनके पास न कोई पहचान है, न जान-पहचान; अपराधी मान लिये जाते हैं। इन बेचारे मजदूरों को पता भी नहीं होता कि ये किस
जुर्म में अंदर लाए गए हैं। बस उन्हें अपना ‘अपराध’ कबूलना है। ऐसे में ज़रा-सा विरोध करने पर पुलिस का जो क्रूर चेहरा सामने आता
है वो हिंदी सिनेमा में इतनी गंभीरता से बहुत कम ही देखने को मिला है। कम से कम
हाल के बरसों में तो बिल्कुल भी नहीं।
हिंदी सिनेमा में हम दिल्ली-यूपी-हरियाणा या बिहार की पुलिस का भयानक चेहरा
थोड़ा-बहुत मसाला लगा कर देखते रहे हैं। मगर पुलिस व्यवस्था एक समूची विचारधारा है
जिसका मानना यही है कि बंदूक जिसके हाथ में है, उसके पास गोली मारने का मौलिक अधिकार है। और इस
व्यवस्था को पालने-पोसने में पूरे भारत की पुलिस व्यवस्था एक जैसी है। इस फिल्म को
नोटबंदी के दौर में इसीलिए भी देखा जाना ज़रूरी है क्योंकि इंटरवल के बाद फिल्म जब
अपना बड़ा कैनवस खोलती है तो जिन पुलिसवालों से आप घृणा कर रहे होते हैं, उन पर
तरस आने लगता है। सब किसी पॉलिटिकल ‘ब्लैक मनी’ मसीहा के हाथों की कठपुतलियां हैं। आपस में ही पुलिस अधिकारी ‘काला धन’ की वफादारी में एक-दूसरे को गोली मारते हैं। राजनीति नोट बैन करने के आसान फैसले
तो ले सकती है, मगर अपने ही बीच के काले चेहरों को बेपर्दा करने की ताक़त शायद ही
कोई ‘मन की बात’ कर पाए।
विसरानाई एक अच्छी फिल्म है। अनुराग कश्यप की फिल्मों से भी ज़्यादा काली और
अच्छी। स्टार एंकर रवीश कुमार के ‘पलायन’ की परिभाषा से भी ज़्यादा गहरी और अच्छी। रवीश अक्सर कहते हैं कि पलायन में उन्हें
दुख से ज़्यादा बहुत-सी संभावनाएं दिखती हैं। मगर शायद इस फिल्म ने बता दिया कि
संभावनाएं थोड़ा-बहुत चालाक हो जाने के बाद खिड़कियां खोलती हैं। फिल्म के पलायन
मजदूरों के पास चालाकियां सीखने का वक्त नहीं मिला और वे कीड़े-मकोड़ों की तरह मार
दिए गए। यही पलायन का बड़ा सच है। पलायन एक समस्या नहीं है, हमारे समय की ज़रूरत
है। मगर आप जहां पलायन करें वो जगह, वो समाज आपको स्वीकार करे इसकी हमारे समय को
ज़्यादा ज़रूरत है। भले ही वो एक गांव से शहर की तरफ का पलायन हो या एक लड़की का
अपने ससुराल की तरफ।
मेरी परवरिश बिहार के छोटे-छोटे थानों में हुई। जन्म भी थाने के एक सरकारी घर
में हुआ। वहां के कई अनुभव हैं जो फिल्म ने ताज़ा कर दिया। पेड़ पर उल्टा लटकाकर
नियम से कैदियों को पीटना, एक-दूसरे के मुंह में पेशाब तक करवा देना, गालियों से
आत्मा तक को भर देना हर काबिल इंस्पेक्टर की खाकी वर्दी में लगे तीन स्टार का
परिचय है। हिंसा के इन कारखानों यानी पुलिस के थानों में भी गांधी जी की तस्वीर चुपचाप
मुस्कुराती रहती है। ये देखकर बहुत बुरा लगता है।
कुछ तो
बदलना चाहिए। देश बदल रहा है, मगर ये देश सबका कहां है। जिसकी लाठी, उसका देश!
निखिल आनंद गिरि
गुरुवार, 17 नवंबर 2016
फिल्मों के सीक्वेल वाले नाम पर भी बैन ज़रूरी
नोट बैन करने के बाद अब सीक्वेल फिल्मों के बैन करने का सही समय आ गया है। और कुछ नहीं तो सीक्वेल जैसे टाइटल तो बैन कर ही देने चाहिए। मोदीजी की भाषा में कहूं तो फिल्मी जनता को थोड़ी तकलीफ होगी, मगर सिनेमा के हित में क्या हम दो-चार छोटे बैन नहीं झेल सकते। फिर हमें आदत पड़ जाएगी। मेरा देश बदल रहा है। फिल्म भी बदलनी चाहिए। लेकिन नहीं, रॉक ऑन को तो वहीं से शुरू होना था जहां वो ख़त्म हुई थी। अब या तो गूगल करके रॉक ऑन -1 की कहानी देखिए या पूरी फिल्म देखिए।
अगर आप ताज़ा दिमाग से ये फिल्म देखेंगे तो उतनी बुरी भी नहीं है। बल्कि मुझे तो अच्छी ही लगी। मुझे दिक्कत इसके नाम से है। एक कविता जैसी फिल्म और नाम रख दें रॉक ऑन-2! क्यूं भई। सिर्फ इसीलिए कि फिल्म के किरदार पिछले जन्म में ‘रॉक ऑन’ के किरदार भी थे। और उस नाम से फिल्म ने अच्छा बिज़नेस किया था। ये नहीं चलेगा। बिना पुरानी बैसाखी के भी फिल्म की कहानी पूरी हो सकती थी।
फिल्म की कोशिश बुरी नहीं है। तीन दोस्त आदी, केडी और जो की कहानी है, जिनका म्यूज़िक के ज़रिए एक लंबी दोस्ती का वक्त बीत चुका है। और ये सब हम असली वाली ‘रॉक ऑन’ में देख चुके हैं। अब तीनों दोस्त और उनकी बीवियां कैरियर में अपने-अपने रास्ते पर हैं। सब एक साथ रहना चाहते हैं, काम भी करना चाहते हैं, मगर करते नहीं। आदी (फरहान अख्तर) म्यूज़िक की दुनिया में लगा एक पुराना सदमा भूल नहीं पाया है और सब छोड़ कर मेघालय आ गया है। अपनी बीवी साक्षी से कहता भी है कि मेरे पास रुक जाओ, मगर लड़की कहती है- ‘नहीं, मेरा करियर है।‘ फरहान ये कहते हुए मान जाते हैं कि वो मिस तो करेंगे मगर ठीक है। वो अपने मुंबई के दोस्तों के साथ बिताए ‘अच्छे दिन’ की यादों के पिंजड़े में ही रहना चाहता है। मेघालय में खेती करता है। को-ऑपरेटिव चलाता है। मगर वहां के लोकल करप्शन में साथ नहीं देना उसे भारी पड़ता है।
फिर एक दूसरी कहानी भी है जिसमें श्रद्धा कपूर को आना है। उनकी एक्टिंग में भारी-भरकम शब्दों वाले गाने उतने ही मिसफिट बैठते हैं जितना डांस शो के जज में बाबा रामदेव। फिर भी वो कोशिश करती हैं। आदी को म्यूज़िक और उसके सदमे से उबारने की एक कड़ी बनती हैं। और फिल्म के आखिर तक एक रॉकस्टार बनकर पर्दे पर बनी रहती हैं। शास्त्रीय संगीत के ख़त्म होते क्रेज़ के बीच एक पुराने ज़माने का महान संगीतकार पिता अपना ‘गाने-बजाने वाला’ बेटा खो चुका है। अब बेटी भी उसी राह पर है। रॉकऑन आज के ज़माने की नब्ज़ को पकड़ने की कोशिश है, मगर बोरिंग तरीके से।
हिंदी की इस फिल्म में शिलांग है, नॉर्थ-ईस्ट है, इस बात के लिए फरहान अख़्तर की तारीफ होनी चाहिए। वो उसे रॉक-कैपिटल कहते हैं और गानों के ज़रिए अच्छा संदेश भी देते हैं। बॉब डिलन जैसे जनप्रिय गायकों को याद करने का दौर लौट रहा है तो ऐसे दौर में फिल्म का सब्जेक्ट अच्छा है, मगर ऐसे वक्त में जब पूरा देश लाइन में खड़ा होकर सौ-दो सौ के नोट जुटा रहा है, एक ऐसी फिल्म जिसका कोई ठोस राजनीतिक कमेंट नहीं, कोई ‘मास’ अपील नहीं, कितनी अच्छी लग सकती है।
ये एक चैरिटी शो की तरह लगती है जिसमें दर्शक आते तो हैं, मगर पैसा ख़र्च करना चाहें तो उनके पास सिर्फ पांच सौ-हज़ार के नोट ही हैं।
( वेब पोर्टल यूथ की आवाज़ पर भी ये रिव्यू उपलब्ध है)
निखिल आनंद गिरि
सोमवार, 14 नवंबर 2016
'हॉनर किलिंग' के ज़माने में भाई-बहन की प्रेम कथा - सामा चकवा
फेसबुक के साथी पुष्यमित्र जी ने बिहार में छठ पर्व के बाद होने वाले 'सामा-चकवा' पर्व पर बड़ी अच्छी जानकारी दी है। बहुत लोगों ने शायद ही सुना हो इस लोककथा के बारे में। फेसबुक की उनकी टाइमलाइन से ही उड़ाकर ये लेख 'आपबीती' के दोस्तों के लिए..
एक चुगलखोर व्यक्ति राजा कृष्ण से कहता है कि तुम्हारी पुत्री साम्बवती चरित्रहीन है. उसने वृंदावन से गुजरते वक्त एक ऋषि के साथ संभोग किया है. कृष्ण अपनी पुत्री के बारे में यह खबर सुनकर गुस्से में आग-बबूला हो जाते हैं. वे यह पता करने की भी कोशिश नहीं करते कि इस बात में कितनी सच्चाई है. वे तत्काल अपनी पुत्री और उस ऋषि को शाप देते हैं कि दोनों मैना में बदल जाये. पुत्री मैना बन जाती है तो उसके पति चक्रवाक को भी वियोग सहा नहीं जाता है. वह भी मैना का रूप धर लेता है. उसे अपनी पत्नी पर पूरा भरोसा है. वह नहीं मानता कि उसकी पत्नी उसे धोखा दे सकती है.
अब तीन प्राणी चिड़िया में बदल गये हैं. यह देख कर उस युवती का भाई साम्ब परेशान हो जाता है. वह तय करता है कि इन लोगों को पक्षी योनि से मुक्ति दिलाये. वह अपने पिता को यह भरोसा दिलाने की कोशिश करता है कि ये तीनों लोग निर्दोष हैं. वह इन तीनों को फिर से मनुष्य बनाने के लिए तपस्या करता है. पिता को मनाता है, तब पिता तीनों को शाप मुक्त करते हैं. अहा, क्या कथा है? यह सामाचकेवा लोकपर्व की कथा है, जिसका आज विसर्जन होना है.
भारतीय लोकमानस में बसी इस कथा के बारे में सोचिये और वर्तमान परिदृश्य पर गौर कीजिये. आज अगर किसी भाई को पता चल जाये कि उसकी बहन का किसी पर पुरुष से यौन संबंध है, किसी पति को यह भनक लग जाये... तो ये भाई और पति कितनी देर अपने गुस्से पर काबू रख पायेंगे. वे उक्त महिला को कितना बेनिफिट ऑफ डाउट देंगे. मगर लोक मानस में बसी इस कथा के भाई और पति न सिर्फ उक्त स्त्री पर भरोसा रखते हैं, बल्कि उसे दोष मुक्त साबित करने के लिए हर तरह का कष्ट उठाते हैं.
और बहनें अपने भाई के इस त्याग का बदला चुकाने के लिए हर साल #सामाचकेवा का पर्व मनाती हैं. वे मिट्टी की चिड़िया बनाती हैं, गीत गाते हुए उन्हें रोज खेतों में(वृंदावन में) चराने ले जाती हैं. आखिरी रोज कार्तिक पूर्णिमा के दिन इनका विसर्जन करती हैं, बहनें चुगलखोर चुगला की दाढ़ी में आग लगा देती हैं और भाइयों से कहती हैं कि मिट्टी की बनी चिड़ियों को तोड़ दें ताकि सामा, उसके पति चक्रवाक(चकेवा) और शापित ऋषि फिर से मानव रूप में आ सकें. कोसी और मिथिलांचल के इलाके में इस पर्व को लेकर काफी उल्लास रहता है. आज रात के वक्त लड़कियां और महिलाएं खेतों में जाकर खूब गीत गायेंगे और भाइयों का शुक्रिया अदा करेंगे. इन गीतों में जिस भाई का नाम आता है वह अह्लादित हो जाता है.
इन मधुर गीतों को स्वर कोकिला शारदा सिंहा ने अपनी आवाज दी है. इनमें से "गाम के अधिकारी" और "सामा खेलै चललि" वाले गीत काफी लोकप्रिय हैं. अक्सर इन्हें लोग गलती से छठ गीत समझ लेते हैं. इस लोकपर्व की मधुरता का सबसे सजीव वर्णन फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने दूसरे सबसे पापुलर उपन्यास परती परिकथा में किया है. जिन्होंने उस प्रकरण को पढ़ा है, वे इस पर्व की मधुरता का अंदाज लगा सकते हैं.
कथा जो भी हो, मगर वस्तुतः यह पर्व उत्तरी बिहार में हर साल साइबेरिया से आने वाले प्रवासी पक्षियों के स्वागत में मनाया जाता है. इस दौरान पूरे इलाके में साइबेरियन क्रेन समेत कई पक्षी प्रवास करने आते हैं. मगर अक्सर ये पक्षी शिकारियों के हाथों मारे चले जाते हैं. जबकि इलाके की औरतों को इन पक्षियों के मारे जाने से दुख होता है. इस पर्व के जरिये वे इन पक्षियों की सुरक्षा का भी संदेश देती हैं. हालांकि मौजूदा वक्त में यह संदेश गुम सा हो गया है. अब सामा चकेवा को चराने के लिए न वन(वृंदावन) हैं, न गीत गाने वाले मधुर कंठ, न मूर्तियां बनाने में कुशल महिलाएं. छठ के बाद सबकुछ आपाधापी में होता है. मगर फिर भी यह पर्व हर साल हम जैसों के मन में मधुर स्मृतियां छोड़ जाता है.
रविवार, 13 नवंबर 2016
आएंगे..आ ही गए अच्छे दिन!
देश एक लंबी-सी कतार है
आपके बाग़ों में बहार है।
आएंगे, आ ही गए अच्छे दिन
जो न देख पाए, वो ग़द्दार
है।
हमारी जेब पर ही बंदूकें,
कैसा पागल ये चौकीदार है।
फोड़ दी गुल्लकें भी बच्चों
की
काला धन अब तलक फ़रार है।
जेब ख़ाली है, दवा कैसे करें
विकास का भूत यूं सवार है।
शनिवार, 12 नवंबर 2016
बनस्थली विद्यापीठ उर्फ लड़कियों का जेलखाना
छठ के मौके पर
बिहार के समस्तीपुर से दिल्ली लौटते वक्त इस बार जयपुर वाली ट्रेन में रिज़र्वेशन
मिली जो
दिल्ली होकर गुज़रती है। मालूम पड़ा कि दिल्ली से कहीं ज़्यादा बिहार का ठेकुआ
जयपुर को जाता है। उससे भी आगे। राजस्थान के टोंक ज़िले की बनस्थली विद्यापीठ
(यूनिवर्सिटी) में कम से कम हज़ारों बिहार की लड़कियां हैं जो छठ में किसी तरह घर
को आती हैं और फिर वापस फटाफट भागती हैं। वो दिल्ली के लड़कों की तरह छठ के बाद जैसे-तैसे
वापस नहीं भाग सकतीं। उन्हें अपने पिताओं के साथ जयपुर आना पड़ता है। वेटिंग की टिकट के सहारे। टीटी के साथ पिता सीट की सेटिंग करते हैं और टीटी के चेहरे में बेटियों को वनस्थली की वॉर्डन मैम का भावशून्य चेहरा दिखने लगता है। इस छठ के बाद उन्हें घर (बिहार) लौटने का अगला मौका अप्रैल-मई में मिलेगा।
रास्ते भर उनसे हुई बातचीत में जितना बनस्थली विद्यापीठ को जान पाया, उससे ज़्यादा पहले से इतना ही जानता हूं कि मेरी एक-दो अच्छी दोस्त वहीं से पढ़ी हैं। इस लेख को लिखने के लिए बनस्थली की वेबसाइट को गूगल किया तो वहां पंडित नेहरू के ‘मन की बात’ लिखी मिली कि ‘अगर मैं लड़की होता, तो अपनी पढ़ाई के लिए बनस्थली को ही चुनता’। काश! पंडित नेहरू मेरे साथ जलपाईगुड़ी-उदयपुर एक्सप्रेस की स्लीपर बोगी में होते जहां लड़कियां अपनी बातों में यही दुख जताती रहीं कि वो लड़कियां हैं और वो भी बिहार की। वो बिहार जहां कॉलेज की पढ़ाई के सबसे बुरे विकल्प मौजूद हैं। जहां लड़कियों की पढ़ाई से ज़्यादा उनके पिता इस बात के लिए ज़्यादा चिंतित रहते हैं कि शादी की उम्र तक ‘किसी तरह’ लड़की ‘बिगड़ने’ से बच जाए। और ऐसे में सिर्फ लड़कियों के लिए बनी बनस्थली यूनिवर्सिटी उन्हें कमाल की जगह लगती है। जहां उनकी सुरक्षा में 850 एकड़ दूर तक का वीरान कैंपस है और हर फ्लोर पर एक वॉर्डन जो उन्हें आठ बजे के बाथ बिना परमिशन के बाथरूम तक नहीं जाने देतीं। जहां लड़के दूर-दूर तक ‘पर’ नहीं मार सकते।
ट्रेन में सवार लड़कियां बनस्थली से बीटेक और बीबीए जैसे बड़े ‘कोर्स’ कर रही थीं। पता चला कि आईटी (इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी) जैसे कोर्स के लिए भी उन्हें लैपटॉप या मोबाइल या इंटरनेट चलाने की आज़ादी नहीं है। टीचर (जिन्हें वहां शायद ‘जीजी’ बुलाते हैं) उन्हें रोज़ पीपीटी बनाने को कहती हैं मगर कैंपस में हज़ार लड़की पर एक कंप्यूटर है! इंटरनेट के बिना उनकी ज़िंदगी ऐसी है कि अगर घर से कोई चिट्ठी आती है तो पहले वॉर्डन मैडम उसे खोलकर पूरा पढ़ती है और फिर लड़की को देती हैं। कैंपस सिर्फ लड़कियों का है मगर उन्हें सिर्फ खादी के कपड़े पहनने की ही इजाज़त है। कमरे में आयरन तक नहीं रख सकते। हॉस्टल से क्लासरूम की दूरी कम से कम पैदल बीस मिनट की है जिसके लिए सिर्फ एक बस चलती है। अगर बस समय से नहीं पकड़ पाए तो पैदल जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं। अगर तबीयत बिगड़ी तो चालीस रुपये देकर एंबुलेंस सेवा ली जा सकती है। ऐसे में सहेली का साथ होना ज़रूरी है।
मगर बनस्थली की उन लड़कियों ने न तो अपनी सीनियर्स का मुंह देखा है और न ही उन्हें दूसरे डिपार्टमेंट की टीचर्स से मिलने या बात करने की इजाज़त है। पिता के अलावा कोई भी मिलने नहीं आ सकता। अगर पिता भी छुट्टी में बेटी को घर ले जाना चाहते हैं तो ये ससुराल से बिटिया को मायके लायने से ज़्यादा मुश्किल है। बिहार के गांव से आपको एक चिट्ठी बनस्थली डाक से या फैक्स से भेजनी पड़ेगी। उस चिट्ठी में आने-जाने की तारीख और पिता के सिग्नेचर ज़रूर होने चाहिए। फिर पिता लेने आएंगे। सिग्नेचर मिलाए जाएंगे। मिले तो ठीक वरना बड़ी मुश्किल। आने-जाने की तारीख से लौटे तो ठीक वरना बड़ी मुश्किल। हर ‘अपराध’ के लिए बहुत जुर्माना है। पिता खुश होते हैं कि लड़कियां इतने अनुशासन में हैं मगर लड़कियां ऐसे में क्या सोचती हैं, कोई नहीं पूछता।
मेरे पास इसका कोई आंकड़ा नहीं कि बनस्थली में अब तक कितनी लड़कियां सुसाइड कर चुकी हैं। यूनिवर्सिटी से ऐसे आंकड़े जल्दी बाहर भी नहीं आते। मगर जिन पिताओं या रिश्तेदारों को ये लेख पढ़कर बनस्थली की अपनी बेटियों की चिंता हो रही हो, उन्हें राहत की एक बात बता दूं। यूनिवर्सिटी की तरफ से सुसाइड रोकने के लिए हॉस्टल के कमरों में छोटे वाले टेबल फैन लग गए हैं। तीन लड़कियों के कमरों में अगर इससे गर्मी बढ़ती है तो बिहार से पापा हज़ार रुपये की टिकट लेकर बनस्थली आ सकते हैं और पांच सौ का अलग टेबल फैन खरीदकर अपनी बिटिया को दे सकते हैं।
मैं ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के इस शानदार नमूने विश्वविद्यालय के लिए फिलहाल आलोक धन्वा की कुछ पंक्तियां पढ़ना चाहता हूं और चाहता हूं कि ये चिट्ठी भी वहां की वार्डन मैम पहले पढ़ें –
‘’ तुम्हारे उस
टैंक जैसे बंद और मजबूत
घर से बाहर
लड़कियां काफी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हें यह इजाजत नहीं दूंगा
कि तुम उसकी सम्भावना की भी तस्करी करो
वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में
गलतियां भी खुद ही करेगी
सब कुछ देखेगी शुरू से अंत तक
अपना अंत भी देखती हुई जाएगी
किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी
कितनी-कितनी लड़कियां
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे अपनी डायरी में
सचमुच की भागी लड़कियों से
उनकी आबादी बहुत बड़ी है’’
(ये लेख कुछ
बनस्थली में पढ़ने वाली कुछ लड़कियों से बातचीत पर आधारित है जिनकी आंखों में
सच्चाई दिखती है)
डिस्कलेमर : 'YOUTH KI AAWAZ' वेब पोर्टल के लिए लिखी इस पोस्ट पर इतनी गालियां पड़ी हैं कि समझ नहीं आया कि अपने ब्लॉग पर पब्लिश करूं या रहने दूं। फिर सोचा पब्लिश ही करता हूं। दरअसल जो गालियां दे रही हैं वो वनस्थली विद्यापीठ की पुरानी छात्राएं रह चुकी हैं। कुछ नई-कुछ बहुत पुरानी। उन्हें शायद अपनी 'प्यारी' यूनिवर्सिटी के बारे में कुछ भी बुरा सुनना अच्छा नहीं लग रहा। कुछ इनबॉक्स में धमकियां दे रही हैं, कुछ फेसबुक पर गालियां बक रही हैं वगैरह वगैरह। मेरा बस इतना कहना है कि ट्रेन में कुछ लड़कियों से हुई बातचीत को जब मैंने लेख का शक्ल देना चाहा तो ऐसा बन पड़ा कि कुछ लोग बुरा मान गए। ये न तो किसी अखबार के लिए की गई रिपोर्ट है, न नाम 'कमाने' का स्टंट। मेरा ब्लॉग है और मेरी आपबीती। किसी का दिल दुखता है तो मेरी पूरी सहानुभूति है।
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