अब अंधेरों में भी चलने का हौसला है मुझे
तेरी तलाश में क्या क्या नहीं मिला है मुझे
अभी तो सांस ही उसने गिरफ्त में ली है,
अभी तो बंदगी की हद से गुज़रना है मुझे
मेरा तो साया ही पहचानता नहीं मुझको,
कहूं ये कैसे कि ग़ैरों से ही गिला है मुझे
मैं एक ख़्वाब-से रिश्ते का क़त्ल कर बैठा
अब अपनी लाश ढो रहा हूं, ये सज़ा है मुझे
किसी ने छीन लिया जब से मेरा सूरज भी
मैं उसके नाम से रौशन रहूं दुआ है मुझे
मेरे यक़ीन से कह दो, ज़रा-सा सब्र करे,
ये रात बुझने ही वाली है, लग रहा है मुझे
निखिल आनंद गिरि
वाह!
जवाब देंहटाएंक्या खूब!
जवाब देंहटाएंबड़े दिनों बाद आपकी गज़ल पढ़ने का मौका मिला। और भी खुशी होती सर अगर इसे सुन पाते।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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