रविवार, 19 जून 2011

पापा के नाम...

मुझे याद है,

जब मेरी ठुड्डी पर थोडी-सी क्रीम लगाकर,

तुम दुलारते थे मुझे,

एक उम्मीद भी रहती होगी तुम्हारे अन्दर,

कि कब हम बड़े हों,

और दुलार सकें तुम्हे,


आज भी ठीक से नहीं बन पता शेव,

ठुड्डी पर उग आई है दाढी,

उग आए हैं तुम्हारे रोपे गए पौधे भी,

(भइया और मैं...)

मैं बड़ा होता रहा तुम्हे देखकर,

तुम्हारी उम्र हमेशा वही रही...


तुमने कभी नहीं माँगा,

मेरे किए गए खर्च का हिसाब,

एक विश्वास की लकीर हमने,

खींच-ली मन ही मन,

कि,

जब कभी कोई नहीं होता मेरे साथ,

मेरे आस-पास,

तुम दूर से ही देते हो हौसला,

साठ की उम्र में भी तुम,

बन जाते हो मेरे युवा साथी,

पता नहीं मैं पहुँच पाता हूँ कि नहीं,

तुम तक,

जब सो जाती है माँ,

और तुम उनींदे-से,

बतिया रहे होते हो अपनी थक चुकी पीठ-से,

काश, मैं दबा पाता तुम्हारे पाँव हर रोज़!!



अक्सर मन होता है कि,

पकड़ लूँ दिन की आखिरी ट्रेन

और अगली सुबह हम खा सकें,

एक ही थाली में...



तुम कभी शहर आना तो

दिखलाऊं तुम्हे,

कैसे सहेज रहे हैं हम तुम्हारी उम्मीदें,

धुएं में लिपटा शहर किसे अच्छा लगता है...


मैं सोचता हूँ,

कि मेरा डॉक्टर या इंजीनियर बनना,

तुम्हे कैसे सुख देगा,

जबकि हर कोई चाहता है कि,

कम हो मेरी उपलब्धियों की फेहरिस्त.....

मैं सोचता हूँ,

हम क्या रेस-कोर्स के घोडे हैं,

(भइया और मैं...)

कि तुम लगाते हो हम पर,

अपना सब कुछ दांव..


तुम्हारी आँखें देखती हैं सपना,

एक चक्रवर्ती सम्राट बनने का,

तुमने छोड़ दिए हैं अपने प्रतीक-चिन्ह,

(भइया और मैं....)

कि हम क्षितिज तक पहुँच सकें,

और तुम्हारी छाती चौड़ी हो जाए

क्षितिज जितनी..


रोज़ सोचता हूँ,

भेजूँगा एक ख़त तुम्हे,

मेरी मेहनत की बूँद से चिपकाकर,

और जब तुम खोलो,

तुम्हारे लिए हों ढेर सारे इन्द्रधनुष,

कि तुम मोहल्ले भर में कर सको चर्चा...

और माँ भी बिना ख़त पढे,

तुम्हारी मुस्कान की हर परत में,

पढ़ती रहे अक्षर-अक्षर....

निखिल आनंद गिरि

18 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है। सच मे हम पिता को शायद उतना प्यार नही दे पाते जितने के वो हकदार होते हैं फिर भी कोई शिकायत नही होती उन्हें और हम हर वक्त शिकायत के टोकरे लिये फिरते हैं। अच्छी रचना। शुभकामनायें।

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  2. दिल को छू लेने वाली अभिव्यक्ति।

    Father's Day पर बेहतरीन तोहफ़ा।

    दो बच्चों का बाप हूं, समझ सकता हूं कि यदि इसे आपके पापा पढ़ें तो उन पर क्या प्रतिक्रिया हो सकती है।

    बच्चे इसी भावना से मां-बाप की तमन्ना पूरी करें, बात मान लें, तो उन्हें कितना सुकून मिलेगा!! (.. और उन्हें चाहिए भी क्या?)

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  3. bahut sunder likha hai .
    Prabal bhavabhivyakti ....FATHERS'DAY par.
    badhai .

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  4. atisundar kavita....
    on the fathers'day...thnks

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  5. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  6. भाई माँ के बारे में तो बहुत सी कवितायें पढ़ी थी....पर कभी नही सोचा था के पिता पे भी अभिव्यक्त करने को इतना कुछ है.....आपने भावुक कर दिया, कम्बख़्त अब तो तारीफ भी नही कर सकता कविता की|

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  7. रोज़ सोचता हूँ,

    भेजूँगा एक ख़त तुम्हे,

    मेरी मेहनत की बूँद से चिपकाकर,

    और जब तुम खोलो,

    तुम्हारे लिए हों ढेर सारे इन्द्रधनुष,

    कि तुम मोहल्ले भर में कर सको चर्चा...

    और माँ भी बिना ख़त पढे,

    तुम्हारी मुस्कान की हर परत में,

    पढ़ती रहे अक्षर-अक्षर....


    behtareen .............poore dard ke saath ek bete ki vytha pita ke naam ........

    जवाब देंहटाएं
  8. baap bete ka rishta hee kuch aisa hai yaar. maa ke saath toh har bachcha galle mil leta hai - ek baap ko hum middle-class upbringing waale kabhi bhi galle lagaane se katraate hain...aise kyun hai hum...?

    nikhil bahut he achcha likha hai tumne....mujhe woh tumhari suni hui sabse pehli kavita yaad aa gayi...jamia mei - jis mein tumne apni maa ko miss kiya tha...kya woh kavita hai online?

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  9. bahot practical aur bahot khoobsurat... apne papa ko sunao. bahot khush honge. tum unhe SAMRAAT se km nahi lagoge.

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  10. बहुत सुन्दर रचना ..पिता बच्चों को सफल इंसान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता और आपकी इस रचना के माध्यम से बच्चों के मन की बात का एहसास हो रहा है कि कितनी गंभीरता से सोचते हैं बच्चे भी

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  11. एक बेहद ख़ूबसूरत एहसास जगाती पंक्तियाँ......

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  12. wow , aapne hum sabki bhaavnao ki shabd de diye ....
    papa ke saath ke thaali mein khaana ...

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  13. अति सुंदर. मार्मिक. अंतिम अनुच्छेद का तो जवाब नहीं. तेज रफ़्तार से सूरज से दूर और पश्चिम की तरफ भागते समाज में रिश्तों की डोर को कस् कर पकड़े हो निखिल, यही इस समाज की उपलब्धि है. इस कविता की अंतिम पंक्तियाँ जिनमें माँ अक्षर अक्षर पढ़ती जाती है, सचमुच, रुला गई! यह न पूछो क्यों.

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  14. पिता के अनकहे प्रेम के नाम बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति !

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  15. behtareen...aap kuchh bhi likhte hain ...mai jarur padhti hoon...yeh kavita jane kase chhut gayi thi...anyways...blogging ko arth diya hai aaapne....abhi nahi..kuchh dino bad kaha jayega ye kisi blog-review me.. :)

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