तेरी रुखसत का असर हैं इन दिनों,
दर्द मेरा हमसफ़र है इन दिनों....
मर भी जाऊं तो ना पलकों को भिगा,
हादसों का ये शहर है इन दिनों....
अब खुदा तक भी दुआ जाती नही,
फासला कुछ इस कदर है इन दिनों.....
कश्तियों का रुख न तूफां मोड़ दें,
साहिलों को यही डर है इन दिनों...
पाँव क्यों उसके ज़मी पर हो भला,
आदमी अब चांद पर है इन दिनों....
क्या कहू, मैं क्यों कही जाता नही,
खुद से खुद तक का सफ़र है इन दिनों......
हम कहॉ जाएँ, किधर जाएँ 'निखिल',
नाआशना हर रह्गुजर है इन दिनों.....
निखिल आनंद गिरि
(इस गीत को यहां सुना भी जा सकता है...
http://kavita.hindyugm.com/2008/01/9.html)
अब खुदा तक भी दुआ जाती नही,
जवाब देंहटाएंफासला कुछ इस कदर है इन दिनों..
bahut bahut laajwab
क्या कहू, मैं क्यों कही जाता नही,
जवाब देंहटाएंखुद से खुद तक का सफ़र है इन दिनों......
मेरा भी !!!
बेहद भावपूर्ण!
जवाब देंहटाएंअच्छी भावाभियक्ति - शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंक्या कहू, मैं क्यों कही जाता नही,
जवाब देंहटाएंखुद से खुद तक का सफ़र है इन दिनों...
बहुत सुन्दर ...
बहुत सुन्दर, बेहतरीन रचना !
जवाब देंहटाएंसही कहा है बंधू.....सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ, अपनी ही लाश का खुद मजार आदमी....इन दिनों.
जवाब देंहटाएंवाह.......आगे इंतज़ार रहेगा.....
क्या कहू, मैं क्यों कही जाता नही,
जवाब देंहटाएंखुद से खुद तक का सफ़र है इन दिनों......
लाजवाब लिखा है आपने...
सभी के सभी शेर दाद लूट ले जाने वाले...
बेहतरीन रचना...वाह !!!!
खूबसूरत - भावपूर्ण रचना । शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएं200 फोलोवर ...सभी ब्लोगेर साथियों और ब्लॉगस्पॉट का तहे दिल से शुक्रिया ...संजय भास्कर
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट पर आपका स्वागत है
धन्यवाद