सभ्यताएं मुँह बाए हमें निहारेंगीं......
क्या उत्पत्ति का सच दोगला भी हो सकता है???
निरुत्तर होगा समय,
देखकर एक समानांतर दुनिया,
एक विभाजन रेखा,
पौरुष और नारीत्व के बीच!!!
हम!!
जो खेंचते हैं लकीर,
होने और ना होने के बीच....
हम!!
जो हैं साधना, प्रीति या राधा...
हम!!
जिनका अस्तित्त्व सिर्फ आधा......
तुम!!
जो पूरा होने का गुमान भरते हो,
कभी ना सुन पाए टीस की,
तुम्हारी सारी पूर्णता समझ ना सकी,
व्यथा एक सवाली की...
हम!!
जो बन ना सके कभी;
भाई, बहन, दूल्हा या दुल्हन....
रिश्तों की देहरी लांघकर,
हमने गढी है एक नयी परिभाषा,
नए अर्थ..धर्म के जात-पात .......
मस्ती भरी बोली,
मन यायावर...
हाँ!! हम वही हैं...
जिन्हे तुम कहते हो,
छक्के, हिजडे या किन्नर!!!तुम!! जो पौरुष का दंभ भरते हो,
झूठ की नींव पर सच कि जुगाली करते हो...
याद रखना........
एक अधूरा सच हैं हम....
पौरुष का कवच हैं हम.......
निखिल आनंद गिरि
9868062333
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