बारहमासा अमरूद की तरह नहीं
सबसे अच्छे दिनों को हुड़-हुड़ हांकते
सबसे अच्छे नारे, मंदिर, शौचालय,
बैनर
महामारी की तरह आते हैं
कभी-कभी अच्छे दिन
कभी नहीं जाने के लिए।
मक्खियां चखें तमाम अच्छी मिठाइयां
मच्छरों के लिए तमाम अच्छी नस्ल के ख़ून
चमगादड़ों के लिए सबसे दिलकश अंधेरे
और चूंकि जंगल नहीं के बराबर हैं
तो भेड़ियों-सियारों-लकड़बग्घों की रिहाइश के
लिए
तमाम अच्छे शहर
गुजरात से दिल्ली से अमरीका से मंगल तक।
एक से एक रंगीन चश्मे इंडिया गेट पर
युवाओं के लिए हनी सिंह के सब देशभक्ति गीत,
सबसे तेज़ बुलेट कारें, सबसे अच्छी
दुर्घटनाओ के लिए
सबसे मज़बूत लाठियां, सदैव तत्पर
पुलिस के लिए
सबसे अच्छी हत्याओं का सीधा प्रसारण
सबसे रंगीन पर्दों पर।
सबसे अच्छे हाथी, कुलपतियों की तफरी के लिए
सबसे अच्छे पुरस्कार, अच्छे दिनों
की याद में
लोटमलोट हुए राष्ट्रभक्तों, शांतिदूतों
और साहित्यकारों के लिए।
सबसे ज़्यादा मुस्कुराते लोग
बोरिंग सेल्फी की तरह
आत्ममुग्धता की बास मारते
प्रेम की तमाम संभावनाओं को ख़ारिज करते।
मूर्तियां, होर्डिंग और पोस्टर
शहर की सबसे सभ्य सड़कों पर
जिन पर इत्मीनान से लेंड़ी चुआते हो कौव्वे
और वहीं बीड़ी सुलगाने की जुगत में
कोई कवि या पागल
नाउम्मीदी की तमाम संभावनाओं के बीच
किसी चायवाले भद्रजन से मांगता हो माचिस
तो अच्छे दिनों के हैंगओवर में,
वह उड़ेल दे खौलती केतली से
किरासन या तेज़ाब जैसी कोई चीज़
और मुस्कुराकर कहे जय हिंद।
निखिल आनंद गिरि