सोमवार, 10 अक्टूबर 2016

धोनी जितना अच्छा क्रिकेटर है, फिल्म उतनी अच्छी नहीं

अब जहां एक हफ्ते में फिल्मों का विसर्जन हो जाता है, महेंद्र सिंह धोनी पर पिछले हफ्ते रिलीज़ हुई फिल्म धोनी..The Untold Story’ पर अब जानबूझ कर इसीलिए लिख रहा हूं ताकि अपनी याद्दाश्त टेस्टकर सकूं कि एक हफ्ते के बाद भी फिल्म का कितना असर दिमाग पर बचा है। अच्छी फिल्म वही जो कई-कई बार आपको याद आए, याद आती रहे। धोनी इतनी तो ठीकठाक है कि एक हफ्ते तक उसका असर बचा हुआ है। इससे ज़्यादा बचा रह पाएगा, कहना मुश्किल है।
रांची के एक डीएवी स्कूल में मेरी स्कूली पढ़ाई हुई। ठीक उसी दौर में जब धोनी वहां डीएवी के दूसरे स्कूल में स्पोर्ट्स कोटा के ज़रिए पिता के लिए टिकट कलेक्टर बनने का सपना पूरा कर रहे थे। उस वक्त के अखबारों में वो मैच याद है जब धोनी ने 30 ओवरों के मैच में डबल सेंचुरी लगाई थी और स्कूल के दौरान ही उनकी क्रिकेट किट को स्पांसर मिल गया था। ये माही के महेंद्र सिंह धोनी होने की शुरुआत थी जैसा फिल्म ठीक ही बताती है। धोनी जब टीम इंडिया में आए तो एक रांची वालाहोने के नाते सचमुच वैसी ही खुशी मिली जैसा फिल्म में उनके क़रीबी दोस्तों को होती दिखती है।

मैं रांची में पिस्का मोड़ के पास जिस किराए के मकान में रहता था, उसकी छत से एक खेत वाला मैदान दिखता था जहां कुछ आदिवासी लड़के बैट भांजकर वही शॉट लगाते थे, जिसे बाद में हैलीकॉप्टरशॉट के नाम से जाना गया। इसीलिए लंबे बालों वाले धोनी को टीवी पर वैसै शॉट्स खेलते देखना घर के सामने किसी झबरीले बाल वाले लड़के का खेलना लगता था।  धोनी को देखकर सचमुच लगता रहा कि ये एक आम आदमी का सेलेब्रिटी होना है।
मगर फिल्म देखकर लगा कि ये एक आम आदमी की कहानी नहीं है। ये एक बड़ी हस्ती की कहानी है जिसके बारे में हम जानते हैं कि उसे कितना बड़ा होना है। ये पान सिंह तोमरनहीं है जिसे हम उसके संघर्षों के लिए याद रखेंगे। हीभाग मिल्खाहै जिसके महान होने में एक ट्रैजेडी पहले ही जुड़ी हुई है। ये सचिन तेंदुलकर भी नहीं है जिनके क्रिकेट की कहानी का आखिरी पन्ना लिखा जा चुका है और अब अगर कोई फिल्म बन भी जाए तो बात पचती है। मगर धोनी? धोनी अच्छे स्कूल में पढ़े, उन्हें तमाम तरह के मौके मिलते रहे। क्रिकेट के लिए तो उनका शौक अचानक ही पनपा। टीचर के जबरदस्ती कहने पर। बहुत ही बनावटी ढंग से दशहरा घूम रहे धोनी को भगवान के पोस्टर के बीच सचिन का पोस्टर टंगा हुआ दिख जाता है और एक फुटबॉलर लड़का जो अभी-अभी क्रिकेट शुरू कर रहा है, इसी भगवान की फोटो अपनी मां से खरीदने की ज़िद करता है।  
फिल्म का आधा हिस्सा स्कूली लड़के धोनी के टिकट कलेक्टर तक बनने की कहानी है। इसमें हैलीकॉप्टर शॉट अपनी प्रेमिका तक पहुंचने के पुल की तरह है। इसमें छोटी-छोटी बातों का ख़याल रखने वाले यारों के यार हैं जो धोनी को धोनी बनाने के लिए सब कुछ निसार करने को तैयार हैं। इसमें मल दे सूरज के मुंह पर मलाई, चढ़ते बादल पर कर दे चढ़ाईजैसे अच्छे गीत हैं। फिल्म धीमे-धीमे आगे बढ़ती है, असर भी करती है। मगर फिल्म का दूसरा हाफ उतना ही बुरा है, जितना टी-20 की शक्ल में आईपीएल।
दूसरे हाफ में फिल्म निर्देशक को सब कुछ इतना फटाफट ख़त्म करना है कि जैसे आप धोनी की फिल्म नहीं, मैच की हाईलाइट्स देख रहे हों।  इतना नाटकीय कि भरोसा तक नहीं होता। जैसे ये कि अपने शुरुआती लगातार पांच मैचों में फ्लॉप हो रहे धोनी की अगले मैच में सेंचुरी दरअसल उनकी मेहनत नहीं, हवाई जहाज़ में मिली एक ख़ूबसूरत लड़की की भविष्यवाणी थी। इस तरह तीन घंटे की एक हिंदुस्तानी फिल्म में प्रेम कहानी का आगमन एक घंटे पचास मिनट बाद होता है।  फिर दूसरी प्रेम कहानी फिल्म ख़त्म होने से ठीक पहले। और कुछ मशहूर मैचों के टुकड़े जिनमें मुशर्रफ ने धोनी के बालों की तारीफ की या फिर टीम इंडिया के सीनियर खिलाड़ियों से थोड़ी-बहुत खटपट जो ब्रेकिंग न्यूज़ वाला मीडिया कई-कई बार पहले भी बता चुका है। मैच फिक्सिंग, कोच का विवाद, दूसरे बड़े खिलाड़ियों के साथ धोनी के रिश्ते  या फिर ड्रेसिंग रूम की कहानियां फिल्म से ऐसे ग़ायब हैं जैसे वो किसी सीक्वेल के लिए बचाए गए हों।
कुल मिलाकर फिल्म अच्छे धोनी को और अच्छाबनाकर ख़त्म हो जाती है। दूध का धुलाधोनी रोज़ चार लीटर दूध (ऐसा उसने एक बार रवि शास्त्री से किसी मैच के बाद कहा था) पीता है, ऐसा कहीं नहीं दिखता। हिंदी के कमेंटेटर दिखते हैं जो उतने ही जोकर लगते हैं जितना दूरदर्शन के आज के हिंदी कमेंटेटर। ये फिल्म धोनी की पूरी तरह से रिटायरमेंट के बाद आती तो ज़्यादा साफ नीयत से बन पाती।
फिलहाल इस फिल्मी धोनी को देखने की सिर्फ एक ही वजह हो सकती है। या तो आप आज भी उनके बहुत बड़े फैन हैं या किसी ने फिल्म देखने के बदले किसी आईपीएल मैच का फ्री पास दिया हो। और हां, सुशांत सिंह राजपूत की एक्टिंग धोनी की बैटिंग और इस फिल्म से कहीं ज़्यादा अच्छी लगी।
 
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 21 सितंबर 2016

अच्छे दिनों की गज़ल

दिल्ली की सड़कों पर कत्लेआम है, अच्छा है
अच्छे दिन में मरने का आराम है, अच्छा है।

छप्पन इंची सीने का क्या काम है सरहद पर, 
मच्छर तक से लड़ने में नाकाम है, अच्छा है।

बिना बुलाए किसी शरीफ के घर हो आते हैं
और ओबामा से भी दुआ-सलाम है, अच्छा है।

कचरा खाती गाय माता अपनी सड़कों पर,
गोरक्षक के घर में दूध-बादाम है, अच्छा है।

पढ़ने-लिखने वालों में, गद्दारी दिखती है
देशभक्त इस देश का झंडू बाम है, अच्छा है।

मन की बातमें अपने मन की उल्टी करते हैं
जन की बात न सुनने का निज़ाम है, अच्छा है।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 23 जून 2016

घर

मैं आज छुट्टी पर हूं
मगर इस तरह ही मनाना होगा
जैसे घर का कोई ज़रूरी काम हो

मैं खुश हूं
मगर इस तरह कहना होगा
जैसे घरवालों के साथ
किसी सत्यनारायण कथा में जाने को लेकर खुश हूं

मैं नहा रहा हूं
ये बताने में भी घर का होना ज़रूरी है
खेत या नदी या समंदर में नहाना
एक नौकरी में आने के बाद खामखयाली है।

किसी चलताऊ कवि से पूछिए
वो बिना किसी तर्क के कहेगा-
दुनिया में होने का मतलब
घर में होना होता है।
आपका खाना, पहनना, सुबह से शाम होना
घर के रिमोट से चलता है।

घर इस तरह होता है जीवन में
जैसे बच्चे के मुंह में दूध
दिल्ली के मुंह में गाली
कश्मीर में होती है पुलिस
बुरी फिल्मों में मां
अलां के बाद फलां।

घर के बारे में
इतना सब कुछ अच्छा कहने के बाद भी
नहीं मिल पाती घर में रोने की एक अदद जगह।

रोना फिर भी एक सच है
रोती आंखों के सामने दुनिया एक भ्रम है
भ्रम को इस तरह भी कहा जा सकता है
जैसे आज मेरी प्रेमिका का जन्मदिन है
जो जीवन का हिस्सा है


मगर मेरे घर का हिस्सा नहीं है।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 23 मई 2016

साठ आकाशों वाला प्रेम

जैसे नदी बदलती है अपने सुर...
चिड़िया बदलती है आकाश अपने
वो चेहरा बदल-बदल कर मिलती हैं
मैं उम्र बदल कर मिलना चाहता हूं उनसे
मिल नहीं पाता।


वो एकदम ताज़ा हैं
नवजात बछड़े के बाद पहले दूध की तरह
छूने पर ख़राब होने का डर।


वो जब किसी समय की बात करती हैं
मैं किसी और समय में होता हूं
मैं दो समय में होता हूं इस तरह
जब वो मेरे समय में होती हैं।


उनसे सीखता हूं बहुत कुछ
उनकी आंखों में झांकता हूं बहुत देर तक
पृथ्वी के सबसे महफूज़, हरे पेड़ हैं वहां
हवा सबसे सुरक्षित
सबसे पवित्र पानी वहीं।


जब कुछ नहीं कहती कई बार
मैं सुनता हूं उन्हें
इस तरह बात करता हूं देर तक।


क्या बुरा हो एक दिन
हम साठ आकाशों वाली पृथ्वी पर चलें एक दिन
और गुम हो जाएं इस पृथ्वी से।


मैं गुम हो जाना चाहता हूं एक बार
उनके आकाश में
अपनी खोयी ज़मीन की तलाश में।


(कालिंदी कॉलेज से अभी-अभी ग्रेजुएट हुए जर्नलिज़्म बैच के लिए)
निखिल आनंद गिरि

इस कविता का अंग्रेज़ी अनुवाद किया है शुभ्रा शर्मा ने :

The way a river changes its melody,
A bird changes its skies.
It meets with different faces,
I want to meet with changing age, but I cannot.

It's perfectly fresh,
Like a newborn's first milk.
With a fear of getting spoiled with a touch.

Whenever she talks about time,
I am in some other one.
So I remain in two times,
Whenever she's with me.

I get to learn a lot from them,
I peep into their eyes for long.
Where the most shielded green trees lie,
The most protected air,
And the purest water.

When often she says nothing,
I still listen.
And talk to her for long.

Would it be bad if one day,
We go on an eight skied earth.
And get lost from this earth forever?

I want to disappear once,
In their skies,
In search of my lost land!!

गुरुवार, 12 मई 2016

कोई भी मर्ज़ हो, सबकी दवा बस इक मुहब्बत है

उनका नाम, ना तो क़द, ओहदा बोलता है
हुनरमंदों की आखों का इशारा बोलता है

कोई भी मर्ज़ हो, सबकी दवा बस इक मोहब्बत है
कि अंधा देखने लगता है, गूंगा बोलता है
 
मैं होली खेलकर ज़िंदा तो लौटूंगा ना अम्मा?
हमारे मुल्क का सहमा-सा बच्चा बोलता है

क़िताबे-ज़िंदगी ने ये सबक़ सिखला दिया हमको
कि जब आता नहीं कुछ काम, पैसा बोलता है।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 4 मई 2016

एक डायरी बिहार और मालदा से लौटकर

किसी भी शहर या इलाके को समझने के लिए गूगल के बजाय गलियों में घूमना मुझे हमेशा ज़्यादा बेहतर लगा है।  कई शहरों या लोगों को एक साथ समझना हो तो हिन्दुस्तान में दो और विकल्प हो सकते हैं। एक तो ट्रेन का सफर और दूसरा शादियों के फंक्शन। इस अप्रैल के महीने में मुझे दोनों ही मौके मिले।

समसी(मालदा) में शादी की तैयारी : चौका-रसोई संभालती महिलाएं

सीज़न हो ऑफ-सीज़न, ट्रेन का सफर बिहार के किसी मुसाफिर के लिए हमेशा कैटल क्लासका सफर ही होता है। मेरा अनुभव थोड़ा लंबा है तो अब लंबी ट्रेन यात्राओं के लिए जुगाड़ ढूंढना सीख गया हूं। एसी बोगी के अटेंडेंट को कुछ पैसे देकर ऐसी जगह पर रात काटी जा सकती है जहां टीटी आपको ढूंढते रह जाएंगे।  जैसे-तैसे बिहार पहुंचकर एक रिसेप्शन में पहुंचा तो देखा अब वहां भी टेबल-कुर्सी के बजाय बफे सिस्टम’ (buffet) ही चल रहा है। अगर आपको बफे सिस्टम में भी खाने को सब कुछ मिले और चम्मच न मिले तो यकीन मानिए आप बिहार में हैं।

इसके बाद बिहार और बंगाल की सीमा पर दूसरी शादी में जाने का मौका मिला। किसी भी राज्य का विकास देखना-समझना हो तो उसके सुदूर बॉर्डर (सीमांत) इलाकों को देखना चाहिए। कटिहार और मालदा के बीच का इलाका, जहां मुझे दो दिन गुज़ारने थे, इतने पिछड़े हैं कि अब भी वहां बड़ी गाड़ियां देखकर बच्चे पीछे भागते हैं और धूल भरी सड़कों में आपका चेहरा सन जाता है। यहां न ओला चलती है, न ऊबर। न ऑड है, न ईवन। सिर्फ एक पैसेंजर ट्रेन है जो दिन में तीन बार मालदा तक जाती है।

बंगाल की शादियों में एक बात ग़ौर करने लायक थी कि खाने-पीने (हलवाई) का सारा ज़िम्मा पुरुषों की बजाय महिलाओं के हाथ में था। चार महिलाओं की टीम ने शाम होते-होते कई स्वादिष्ट सब्ज़ियां और पकवान तैयार कर डाला। समसी (मालदा का एक क़स्बा) में मुस्लिम आबादी ज़्यादा है, मगर एक मस्जिद के ठीक सामने हिंदू शादी में ऑर्केस्ट्रा लगा था और पूरी रात बेरोकटोक सबने मस्ती की। ये बात तब की है, जब पूरे बंगाल में चुनाव चल रहे हैं। मालदा वही इलाका है जहां हाल ही में सांप्रदायिक हिंसा की ख़बरों से मीडिया की नज़र पहली बार उधर गई थी। मगर उनकी नज़र ऐसी ज़रूरी चीज़ों पर भी जानी चाहिए जो शोर कम मीठा सुकून ज़्यादा देती हैं, बिल्कुल मालदा के मशहूर आमों की तरह।


निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 23 मार्च 2016

रंग-रंगीला परजातंतर..

एक बीजेपी के घोड़े ने शरीफ से विधायक की टाँग तोड़ दी। बेचारा विधायक लोहे की टांग लेकर घूम रहा है। घोड़ा बीजेपी का है तो मेनका गांधी भी कुछ नहीं बोल रहीं। इसे कहते हैं लोकतंत्र कहते हैं। विधायक की टूटी टांग की तरह लंगड़ा। लंगड़े आम की तरह मीठा।
एक टीम है क्रिकेट खेलने वालों की। मर्दों की। पाकिस्तान से खेले चाहे फुद्दिस्तान से। मीडिया सुबह से टेंट गाड़ के कमेंट्री करता है। क्रिकेट के बाप-दादा सब तंबू गाड़ कर ज्ञान बांटते हैं। असली में जब मैच होता है तो पूरे मर्दों की टीम रन बनाती है 75। हाहाहा। इसे कहते है वर्ल्ड कप। मर्दों वाला। औरतों की टीम खेलती है, हारती है, जीतती है, किसी को फर्क नहीं पड़ता। औरतों के लिए न तो मीडिया के तंबू में जगह है, न तो देश के दिल में। इसी को पत्रकारिता कहते हैं।
एक विधायक हैं बीजेपी के। राजस्थान से सू्ंघकर जेएनयू के कूड़े में से माल गिनते हैं। सिगरेट का टुकड़ा इतना, बीड़ी उतना। कांडम इतना, लड़कियां उतनी। जेएनयू को जनेऊ पहनाना चाहते हैं। पहना दीजिए। जन्माष्टमी भी मनाइए। कन्हैया को भगत सिंह बना दीजिए आपलोग। भगत सिंह के नाम पर एयरपोर्ट तक मत बनाइए।
एक होती है होली। एक होती हैं मालिनी अवस्थी। हर चैनल पर घूम घूम कर गाना गाती हैं। हर चैनल पर। एक होते हैं कुमार विश्वास। हर चैनल पर एक ही लाइन पढ़ते हैं। पाँच-दस-बीस साल गुज़र गए। होली का ये तरीका नहीं बदला। किसी को कविता का मन किया तो चुटकुलेबाज़ों को उठाकर ले आया। व्हाट्सऐप से उठा उठाकर ये चुटकुले सुनाएं चुटकुलेबाज़ कवि भाई लोग, वो चुटकुले सुनाएं कि बाबा नागार्जुन शरमा जाएं, दिनकर की आत्मा कांप जाएं। मंच पर कविता चालू आहे।
बाराखंभा स्टेशन पर रोज सवेरे नौ बजे बाहर निकलता हूं तो सिर झुकाए बूट पॉलिश के लिए कई बच्चे एक साथ 'सर, सर..' कहते रहते हैं। मन करता है मेरे दस जोड़ी जूते होते तो एक साथ सबसे पॉलिश करवा लेता। होली में कुछ रंग उनके भी खिल आएँ। न वो कन्हैया हैं, न मोदी। न वो आज तक हैं, न परसों तक। उन्हें ऐसे ही रहना है बरसों तक।
तब तक जै राष्ट्रभक्ति, जय भारत माता। जय कांय कांय कांय। जो सुर में सुर न मिलाए, उन्हें धांय धांय धांय।

मर्दों को पूरे दिन की होली मुबारक... औरतों को गुझिया बनाने से फुर्सत मिले तो उन्हें भी..

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

नन्हें नानक के लिए डायरी

जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है। ये पोस्ट मेरे दो साल के...