सोमवार, 12 मई 2014

एक देश था, जहां मस्तराम की लहर भी थी..

मस्तरामको आप सिर्फ एक फिल्म की तरह देखने जाएंगे तो बहुत अफसोस के साथ बाहर आना पड़ सकता है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है कि आप इसे किसी महान फिल्म की तरह याद कर सकें। सिवाय फिल्म के नाम के। फिर भी आज तक मैंने कोई ऐसी फिल्म नहीं देखी जिसमें से बाहर कुछ भी साथ नहीं आया हो। ये तो फिर भी मस्तराम है। मस्तराम एक लंबे समय तक दबी-कुचली हसरतों के महानायक रहे हैं। एक बहुत बड़े समाज या सब-कल्चर के। तब तक, जब तक साइबर कैफे में पर्दे नहीं लग गए या फिर ऑरकुट से होते हुए व्हास ऐप तक लड़के लड़कियों को प्रेम पत्रों के बजाय नॉन वेज मैसेज और पॉर्न वीडियो शेयर नहीं करने लगे। अगर आप भी कभी इस मस्तराम परंपरा के ज़रिए शब्दों की ताक़त पर अपनी बहुत सी ताकत बहाते आए हों तो ये फिल्म देखना उन गुमनाम पलों को एक तरह का ट्रिब्यूट देने जैसा है। बहुत मुमकिन है कि आप इस फिल्म में अपने साथ अपनी गर्लफ्रेंड को साथ ले जाने का ऑफर दें, तो वो शुरुआती कुछ सीन्स तक फिल्म देखने के बजाय टेंपल रन खेलती दिखे।
आम आदमी की तरह मैं मस्तराम हूंटोपी लगाए एक आदमी हाथ जोड़े पोस्टर में खड़ा दिखता है। और उस तस्वीर के साथ फिल्म का प्रोमो कहता है कि अगर आप मस्तराम को नहीं जानते तो अपने पिता या ताऊ से ज़रूर पूछें। तो मस्तराम पोस्टर पर आम आदमी जैसा दिखता है  मगर उसकी लहर ऐसी है कि कई मोदी इसके आगे फेल हैं। सिनेमा के पर्दे पर अगर इस कहानी को भी कोई शाहरुख या सलमान या कोई बेहतर निर्देशक मिल जाता तो फिल्म कमाल की पॉपुलर भी हो जाती। लेकिन सलमान दबंग जैसी कूड़ा फिल्म में दबंग हो सकता है, मस्तराम नहीं। ऐसा होने के लिए उन्हें किसी फिल्म में अपना नाम राजाराम वैष्णव उर्फ हंसरखना पड़ेगा। फिल्म की कहानी जिस तरह शुरू होती है, मैं कई बार इसके नायक में बड़े अदब और उम्मीद के साथ ‘’प्यासा का गुरुदत्त ढूंढ रहा था। 2014 की किसी कहानी में नायक हिंदी का एक दुखियारा लेखक बनकर पर्दे पर आए तो उम्मीद लाज़िम भी है। दाद की बात भी है कि फिल्म हमारे समय के सिनेमा में एक भुला दी गई सच्चाई के साथ सामने आती है। हिंदी साहित्य की मठाधीशी के बीच कितने प्रतिभाशाली लेखक आज भी लुगदी साहित्यकार या मस्तराम होकर रह जाते हैं, इस पर अलग से रिसर्च होनी चाहिए। इस पर भी कि जेएनयू से हिंदी में एम. फिल करने की हसरत पाले कितने नौजवान ऐसे हैं जिसके घरवाले शादी को सबसे ज़्यादा ज़रूरी चीज़ समझते हैं।   और इस पर भी कितने लेखकों को उनके दफ्तरों में सिर्फ इस बात के लिए ताने सुनने पड़ते हैं कि वो ऑफिस की फाइलों में कोई सुंदर कविता छिपाकर रखते हैं। इस पर भी कि हिंदी के कितने प्रकाशक ऐसे हैं जिन्होंने अपना बिज़नेस बढ़ाने के लिए ऐसी कहानियों को समाज की इकलौती ज़रूरत बताकर प्रोमोट किया है।
फिल्म में सेक्स और हनी सिंह एक ज़रूरत की तरह हैं, इसीलिए अश्लील नहीं लगते। सिवाय नर्स के साथ मस्तराम के उस सीन के जिसमें चारपाई ऊपर-नीचे होती दिखती है। लिखी हुई कहानियों में मस्तराम के शब्दों का स्तर नीचे होने की वजह उसकी एक ख़ास तरह की ऑडिएंस है मगर पर्दे पर उसे ख़ूबसूरती से रचा जा सकता था। फिल्म का स्क्रीनप्ले कई बार किसी थियेटर जैसा लगता है। कई बार बहुत सूखा, कई बार बहुत प्रेडिक्टेबल। मस्तराम उर्फ राजाराम का बार-बार ये कहना कि ये सब कहानियां हमारे इर्द-गिर्द की हैं, हिंदी साहित्य के समकालीन कई लेखकों की याद दिलाता है जिनकी भाषा मस्तराम की कहानियों से अलग है, मगर सभ्य साहित्य में उन्हें पूरा सम्मान मिला है। कहने का मतलब ये कि हिंदी साहित्य के ए और बी या सी वर्जन में नयापन सिर्फ शैली में है, कंटेट में बहुत हटकर सोचा जाना बाक़ी है।
मस्तराम जब अपने ही दोस्त और बीवी के अवैध रिश्ते के कहानी लिखता है तो उसके पास घर चलाने तक के पैसे नहीं होते। ऐसे में फिल्म अच्छे क्लाईमैक्स पर जाकर छूटती है। जहां उसकी सक्सेस पार्टी में उसकी असलियत खुलते ही लोग उससे किनारा करने लगते हैं। वो कामयाब तो है मगर मिसफिट है। बिल्कुल मस्तराम की कहानियों की तरह। बिल्कुल इस फिल्म की तरह, जो शायद ग़लत समय पर बनी लगती है। इसे कम से कम दस साल पहले आना था, जब मल्टीप्लेक्स नहीं थे और मस्तराम के पाठक और दर्शक एक थे।    

चलते-चलते : हो सके तो फिल्म किसी सिंगल स्क्रीन थियेटर में देखें। मस्तराम की कहानियों को सुनते-देखते फ्रंट स्टॉल के दर्शक जब सीटियां बजाएंगे तो आपको लगेगा कि ये कोई नई कहानी नहीं। बहुत लोग बहुत बरसों से इसे जानते हैं, बस एक-दूसरे से कहने में कतराते हैं।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

गुदगुदी



एक पेड़ था। पेड़ का एक अतीत था। हरे-भरे पत्ते, फूल, फल, शाखाएं, लंबी-लंबी जड़ें, धूप-छांव, कई तरह की चिड़िया और बहुत कुछ। एक गिलहरी थी। गिलहरी नयी थी। जब पेड़ पर अचानक आयी तो उसे सिर्फ ठूंठ मिला। वो फिर भी उसके चारों ओर फुदकती रही। पेड़ को गिलहरी की गुदगुदी अच्छी लगती थी। गिलहरी को इतने विशाल पेड़ का ठूंठ भी बहुत विशाल लगता था। उसे फल, फूल, पत्ते नहीं मालूम थे। अगर कोई दूसरा हरा-भरा पेड़ उसे गुदगुदी करने को कहता तो शायद गिलहरी डर जाती। उसे पेड़ का मतलब ठूंठ पता था।
पेड़ को गिलहरी के भोलेपन पर हंसी आती थी। अपनी मजबूरी पर दुख होता था। उसे अपना अतीत याद आता था। पुराने पत्ते याद आते थे, तरह-तरह की चिड़िया याद आती थी। मगर अचानक गिलहरी की गुदगुदी में उसे सब कुछ भूल जाने का मन होता था। गिलहरी को यह सब नहीं पता था। पेड़ रोज़ देखता कि गिलहरी कहीं से आती और दिन भर उसके चारों तरफ लिपट-लिपट कर खुश रहती। पेड़ को लगता कि अगर ऐसे ही गिलहरी आती रही तो शायद कुछ हरे पत्ते फिर से लौट आएं। पेड़ भी खुश होने की कोशिश करता।
एक दिन कुछ लकड़हारे आए। थके-मांदे, पसीने से लथपथ। पेड़ के नीचे बैठ गए। सुस्ताने लगे। अचानक धूप तेज़ हो आई। पेड़ पर एक भी पत्ता नहीं था। गिलहरी भी नहीं थी। धूप सीधा उनके चेहरों पर पड़ी। वो बहुत तिलमिलाए। उन्हें गुस्सा आया। वो पेड़ पर कुल्हाड़ी चलाने लगे। पेड़ को कट जाने का दुख नहीं था। वो पेड़ था और लकड़हारों से एक पेड़ का यही रिश्ता बनता था। उसे गिलहरी के नहीं होने का दुख था। पेड़ दुख के मारे गिर पड़ा।
लकड़हारे खुश होकर लकड़ियां समेटकर चलते बने। गिलहरी जब तक आई, वहां पेड़ नहीं था। कुछ टूटी लकड़ियां थीं। गिलहरी ने चारों तरफ पेड़ को ढूंढा। लकड़ियों को गुदगुदी करके देखा। गिलहरी पेड़ हो जाना चाहती थी। लकड़ियां गिलहरी नहीं हो सकती थीं क्योंकि वो पेड़ नहीं थीं। पेड़ एक अतीत हो चुका था।
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

उदासी का गीत

नदी जब सूख जाती है अचानक
उदास हो जाते हैं कई मौसम..
मछलियां भूल जाती है इतराना..
नावें भूल जाती हैं लड़कपन..
पनिहारिनें भूल जाती हैं ठिठोली..
मिट्टी में दब जाते हैं मीठे गीत...
गगरी भूल जाती है भरने का स्वाद..

सूरज परछाईं भूलता है अपनी,
पंछी भूल जाते हैं विस्तार अपना..
किनारे भुला दिए जाते हैं अचानक...
लाचार बांध पर दूर तक चीखता है मौन..
कुछ भी लौटता नहीं दिखता..
नदी के जाने के बाद..

कहीं कोई ख़बर नहीं बनती,
नदी के सूख जाने के बाद..

निखिल आनंद गिरि 

रविवार, 23 मार्च 2014

कौन कहता है कि साला मुल्क ये मुश्किल में है..

वोदका हाथों में है, योयो हमारे दिल में है,
कौन कहता है कि साला मुल्क ये मुश्किल में है..
गोलियां सीने पे खाने का ज़माना लद गया,
गोलियां खाने-खिलाने का मज़ा आई-पिल में है..
झोंपड़ी में रात काटें, बेघरों के रहनुमा,
कोठियां जिनकी मनाली या कि पाली हिल में है..
एक ही झंडे तले 'अकबर' की सेना, 'राम' की,
रंगे शेरों का तमाशा, अब तो मुस्तकबिल में है.
वक्त आया है मगर हम क्या बताएं आसमां,
कौन सुनता है हमारी, क्या हमारे दिल है..

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 2 मार्च 2014

बहुरूपिये पिताओं के बारे में

उम्र के उस किनारे
किसी विशाल और सजीव मूरत की तरह
खड़ा है जैसे कोई सदियों से।
मैं समंदर की तरह बहता हूं
और पांव छूकर लौट आता हूं।
पूछूंगा कभी उन पांवों से
भीतर तक महसूस हुआ कि नहीं।

सबसे अधिक बातें करना चाहता हूं पिता से
असंख्य तारों से भी ज़्यादा
उन-उन भाषाओं में जो गढ़ी नहीं गईं
उन लिपियों में जिनका नाम तक नहीं मालूम
ऐसे ही संभव हैं कुछ बातें
तुम्हारी आंखों में धंसे दुख के बारे में
जो उतर आता है मेरी नसों में भी
बिना किसी मुहूर्त के
मेरे माथे पर उग आती हैं
तुम्हारे चेहरे की सब झुर्रियां।


मिलना चाहता हूं उन सब पिताओं से

जो दिखते हैं मुझमें
प्रेमिकाओं की आंखों से।
मैं पिता से प्रेमिकाओं की तरह मिलना चाहता हूं
देवताओं की तरह नहीं।

गले में कसकर हाथ डाले
बीच सड़क पर किसी नई फिल्म का
गाना गाते, भूलते बीच-बीच में।
सर्दियों में ज़बरदस्ती आइसक्रीम खिलाते
सबसे असभ्य गालियां बकते
सबसे सभ्य दिखते लोगों को
झट खड़े हो जाते मेट्रो में
किसी पिता जैसे चेहरे को देखकर
उम्र के सब मचान लांघते
तुम्हारे बेहद क़रीब आना चाहता हूं।

तुम्हारी बांहों में मछलियां नहीं हैं
फिर कैसे लड़ लेते हो हम सबके लिए
तुम्हारी आंखों में पावर वाला चश्मा है
फिर कैसे देख लेते हो सबसे दूर तक
तुम कोई बहुरूपिए हो पिता
एक सच्चे मिथक की तरह
तुम शक्तिपुंज हो पिता मेरे लिए

किसी मैग्निफआइंग लेंस के सहारे
सहेज लूंगा तुम्हारी सब ऊर्जा
जो एक दिन जला देगी देखना
संसार के सब दुख, छल और नकलीपन।

निखिल आनंद गिरि
(पिता के जन्मदिन पर..
)

शनिवार, 1 मार्च 2014

नकली इंद्रधनुष

अगर बाज़ार सचमुच आपकी जेब में है..
हमारे कमरे में थोड़ी घास भर दीजिए...
कि हमें सोना है आकाश तले..
हम अपनी प्रेमिकाओं संग मुस्कुराएंगे
उस नकली घास पर लेटकर
और ज़मीनें बिक जाने का दुख भूल जाएंगे

बस ज़रा और इंतज़ार कीजिए
हम आते हैं डिग्रियां ही डिग्रियां लेकर
आपको मालामाल कर देंगे एक दिन
बारह घंटे धूप में बैठकर
और अपने प्रेम छुपा लेंगे कहीं

हम छुपा लेंगे आपकी ख़ातिर,
तमाम सिलवटें बिस्तर की
आखिरी चुंबन छिपा लेंगे कहीं..
कोई तोहफा जो ख़रीदा ही नहीं

इस बोनस में ख़रीदेंगे तोहफे
मंदी से ठीक पहले
छंटनी से ठीक पहले
किसी डिब्बे मे लपेटकर दीजिए दिलासे
हम सौंपेंगे अपनी पीढियों को..

उन्हें नहीं बताएंगे कभी भगवान कसम,
कि जिन्हें टिमटिम करता देख
तुतलाते रहे वो उम्र भर
और गाते रहे कोई किताबी धुन

वो दरअसल तारे नहीं बारूद हैं
फट पड़ेंगे किसी रोज़
वैज्ञानिकों की मोहब्बत में.

किसी फीके धमाके में उड़ जाएं पीढ़ियां
इससे पहले हमें सौंपने हैं उन्हें आसमान
नकली इंद्रधनुषों वाले..
('दूसरी परंपरा' पत्रिका में प्रकाशित)

निखिल आनंद गिरि


गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

दुनिया अब रात-रात लगती है..

जो उन्हें क़ायनात लगती है,
मुझको तो वाहियात लगती है।
आपको चांद इश्क लगता है
हमको उसकी बिसात लगती है।
हमसे इक ज़िंदगी भी जी न गई,
आपको दाल-भात लगती है।


हम भी आंखों में ख़ुदा रखते थे,
अब तो बीती-सी बात लगती है।

एक ही रात लुट गया सब कुछ,,
दुनिया अब रात-रात लगती है।
उनके नारों में इनकलाब नहीं,
जलसे वाली जमात लगती है।

आप कहते हैं डेमोक्रेसी है,
हमको चमचों की जात लगती है।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

नई पीढ़ी



हम पूर्णविराम के बाद अपनी बात शुरू करेंगे

चुटकुलों में कहेंगे सबसे गंभीर बातें,

एक कटिंग चाय के सहारे

हमें सुनने का हुनर ख़रीद लीजिए कहीं से।

 

हम कहेंगे कद्दू

तो आप समझ लीजिएगा

यह भी व्यवस्था के लिए एक लोकतांत्रिक मुहावरा है।

हम कहेंगे सियारों की राजधानी है कहीं

जंगल से बहुत दूर।

जहां लोग हेडफोन लगाते हैं,

मूंछें मुंडवाते हैं

और हुआं-हुआं करते हैं।

 

सिगरेट के धुएं में उड़ती फिक्र पढ़िए हमारी,

हमारी प्रेमिकाओं से बातें कीजिए थोड़ी देर

अंग्रेज़ी को हिंदी की तरह समझिए।

 

सत्ता सिर्फ आपको नहीं कचोटती,

मेट्रो की पीली लाइन के उस तरफ अनुशासित खड़ी हैं कुछ गालियां

उन्हें दरवाज़े के भीतर लाद नहीं पाए हम।

 

आपको ऐतराज़ है कि हमारे सपने रंगीन हैं,

मगर सच हो जाते हैं यूं भी सपने कभी।

ये मज़ाक में ही कही थी सपने वाली बात

कि संविधान की किताब को कुतरने लगे हैं चूहे

और खालीपन आ गया है कहीं।

 

जहां-जहां खालीपन है,

वहां संभावना थी कभी

संभावनाएं होती हैं खालीपन में भी,

देखिए कौन कर रहा हत्याएं

संभावनाओं की।
(यह कविता 'आउटलुक' के फरवरी 2014 अंक में प्रकाशित हुई है)
निखिल आनंद गिरि

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

अपने सम्मान की रक्षा स्वयं करें

उत्तर प्रदेश की पुलिस कमाल की है। आज़म खान की सात भैंसे खो गईं तो पूरा पुलिस डिपार्टमेंट ऐसे सक्रिय हो गया जैसे मुलायम सिंह सपरिवार खो गए हैं। यूपी पुलिस को इतना चौकन्ना पहले कम ही देखा सुना है। टी.वी., रेडियो के दौर में भैंस भी प्रोग्रामिंग के लिए कितना ज़रूरी हो सकती हैं, ये आज़म खान की भैंसो ने ही समझाया। ब्रेकिंग न्यूज़ में भैंसें, स्पेशल रिपोर्ट में भैंसें। टी.वी., फेसबुक स्पेस पर क्रांति मचा चुकी आम आदमी (पार्टी) को सबसे बड़ी चुनौती किसी मोदी या राहुल से नहीं भैंसों से ही मिल रही है। गंठबंधन के दौर में कोई भरोसा नहीं कि कोई चैनल ये ख़बर ब्रेक कर डाले कि आजम खान की सात भैंसे मफलर ओढ़कर आम आदमी पार्टी ज्वाइन करने जा रही हैं।
बात घूम-फिरकर आम आदमी पार्टी आ ही जाती है। वो हर काम में नमक की तरह मौजूद हो गई है। बिन्नी जैसों को नमक थोड़ा स्वादानुसार नहीं लगता तो वो आम आदमी पार्टी के भीतर ही कोहराम मचाने पर तुले हुए हैँ। कोई भरोसा नहीं कि अपनी नौटंकी, नाराज़गी और धरने को मज़बूती देने के लिए वो अचानक दो भैंसों को तोड़कर अपनी ओर मिला लें और प्रेस कांफ्रेंस कर डालें। इस पूरे दौर में किसी का कोई भरोसा नहीं। अंग्रेज़ी चैनल अचानक हिंदी बोलने-समझने लगे हैं और हिंदी चैनल हिंदी समाज के बजाय हिंदी समाज की गाय-भैंसों पर ब्रेकिंग चलाने लगे हैं। क्या करें, राहुल गांधी पहला इंटरव्यू देने के लिए अंग्रेज़ी चैनल के अर्णब गोस्वामी को चुनते हैं तो हिंदी वालों को ही गाय-भैंसों से ही काम चलाना पड़ेगा। वैसे, राहुल अपना पहला इंटरव्यू किसी हिंदी चैनल को देते तो उनका ज़्यादा फायदा होता। आम आदमी का साथ हिंदी चैनलों के साथ है, जिसके राजकुमार बनने का सपना राहुल देखते हैं। ट्विटर और फेसबुक की बकैती के ज़रिए कुछ लोकसभा सीटें जीती जा सकती हैं, पीएम की कुर्सी नहीं मिल सकती।
मोदी एक गुब्बारे की तरह फूले-फैले जा रहे हैं। ऐसा लगता है एक ही तरह का भाषण कई-कई जगहों से सुनाई देता है। जगह का नाम बदल दीजिए तो हर जगह एक ही बात। मैं, मैं, विकास, गुजरात, मैडम सोनिया जी, शहज़ादा और चायवाला। इतनी भाषणबाज़ी उनके लिए कहीं से अच्छी नहीं है। जिस तरह उनके विरोधी गोधरा से आगे नहीं जा पाते, वैसे ही मोदी अपनी ही तारीफ से आगे नहीं निकल पाते। उनका बस चले तो ख़ुद को ही भारत रत्न दे डालें।
डेमोक्रेसी में सब अच्छे हैं तो बुरा कौन है। शायद 19 साल का नीडो जिसे लाजपतनगर में दिल्ली ने पीट-पीट कर मार डाला? सिर्फ इसीलिए कि उसके बालों पर मज़ाक बना और फिर उसने उनका विरोध किया। नीडो कोई पहला बाहरी नहीं है जिसे ये सब झेलना पड़ा है। मैं भी रोज़ झेलता हूं। नीडो जिस दिन मरा, उसी दिन मेट्रो में तीन-चार दिल्ली वाले एक प्रेमी जोड़े को लगातार घूरे जा रहे थे। भद्दे ताने दे रहे थे, गंदे गाने गा रहे थे। ताज्जुब ये था कि मज़ाक उड़ाने वाले लफंगों के साथ उनके परिवार की महिलाएं भी थीं। फिर भी जितना लफंगों को मज़ा आ रहा था, उतना ही उनके घर की लड़कियां भी हंस रही थीं। उनकी हिम्मत बढ़ती रही फिर वो अपने आसपास सबको घूरने लगे। मुझे भी घूरना शुरू किया तो मैं भी उनकी आंखों में उन्हीं की तरह घूरने लगा। लगातार बिना पलक झुकाए। तब जाकर वो नरम पड़े। कोशिश करूंगा कि दिल्ली में हर रोज़ नीडो की मौत का इसी तरह बदला लूं। जिन्हें सिर्फ हंसना और आंखों से घूरना आता है, उन्हें भी उतना ही घूरूं और हंसता रहूं उन पर।
आपको भी जब, जहां मौका मिले, विरोध ज़रूर जताएं। यही नीडो जैसे तमाम शहीदों को श्रद्धांजलि होगी। पुलिस और सिस्टम जब तक नवाबों की भैंसे ढूंढने में लगा है, हमें अपने रास्ते खुद ही ढ़ूंढने होंगे। अपने सम्मान की रक्षा ख़ुद ही करनी होगी।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 25 जनवरी 2014

ये मुल्क 'मॉकरी' है..छब्बीस जनवरी है..

छब्बीस जनवरी है..
छब्बीस जनवरी है..

कहीं मूंछ की लड़ाई,
कहीं भेड़िया है भाई,
दुबकी-सी गिलहरी है..
छब्बीस जनवरी है..

सच मारता है फांकी,
ये राजपथ की झांकी,
बस झूठ से भरी है..
छब्बीस जनवरी है..

हर सिम्त मातमपुर्सी,
फिर भी उन्हें है कुर्सी,
अपने लिए दरी है..
छब्बीस जनवरी है..

दाता मुझे बचा ले
मौला मुझे बचा ले..
इतनी पुलिस खड़ी है,
छब्बीस जनवरी है..

छप्पन किसी की छाती,
कोई नेहरू के नाती,
बापू की किरकिरी है..
छब्बीस जनवरी है..

सब 'आम' हो खड़े हैं..
बहुरूपिये बड़े हैं..
वोटों की लॉटरी है..
छब्बीस जनवरी है..

आए अगस्त जब तक,
सब मस्त फिर से तब तक,
ये मुल्क 'मॉकरी' है..
छब्बीस जनवरी है..
छब्बीस जनवरी है..

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 12 जनवरी 2014

नसरीन उर्फ लड़की, समय उर्फ तेज़ाब..

ज़रूरी नहीं कि हर वो बात या किस्सा जो आप लिखना चाहें, आप ही लिखें..प्रेम भारद्वाज ने एक लेख पाखी के संपादकीय के लिए लिखा, उसी का एक हिस्सा ये कहानी है जो आपबीती के पाठकों के लिए शेयर कर रहा हूं..पढ़िए और महसूस कीजिए इस समय को जो हमारे चेहरे पर तेज़ाब डालने को बेताब है..ये एक सच्ची घटना है..

नसरीन नाम किसने रखा, ठीक से नहीं मालूम, मगर जब होश संभाला तो पाया कि लोग मुझे इसी नाम से पुकारते हैं। होश संभालने पर मैं इस हकीकत से वाकिफ हुई कि जो मेरे अब्बा-अम्मी हैं, उन्होंने मुझे जन्मा नहीं। जब तीन साल की थी तब मुझे गोद लिया गया। जिन्होंने गोद लिया वे कुरैशी हैं। जामा मस्जिद के पास की तंग गलियों के बाशिंदे। अब्बा प्यार करते थे, मगर अम्मी...। वे हर बात पर मारतीं... इसलिए कि वह अपने रिश्तेदारों में से किसी को गोद लेना चाहती थीं... अब्बा नहीं माने थे... अम्मी मेरे लंबे बालों की खींचकर मारतीं...। अंधेरे कमरे में बंद कर देतीं...मुझे मारने के लिए अलग-अलग साइज की छड़ियां थीं... गलती के हिसाब से छडि़यों का चुनाव होता, पिटाई के वास्ते। अम्मी के छूते ही मैं दहशत से भर जाती... हड्डियों को कंपा देने वाली सिहरन होती। थोड़ी बड़ी हुई तो पहला एहसास यह हुआ कि मुझ जैसे बदनसीबों के सितम भी उम्र के साथ बड़े हो जाते हैं। जब 12-13 साल की थी तब किसी न की गई गलती पर अम्मी ने मुझे नंगी कर घर से घंटा भर के लिए बाहर कर दिया था। 15-16 साल के होते ही शादी की बात होने लगी... मौसी के बेटे का रिश्ता आया जिसके साथ शादी करने से मैंने मना कर दिया। ऐसा करने के लिए मौसी के बेटे ने ही मुझसे कहा था। इससे नाराज होकर अम्मी ने बहुत मारा। दुःखी होकर मैंने खुदकुशी की कोशिश की, लेकिन खुदा के दरवाजे मेरे लिए बंद थे। सत्रह साल की उम्र में एक रंगाई-पुताई करने वाले आदमी के साथ मेरा निकाह कर दिया गया।

शादी के बाद शौहर मेरे जिस्म का मालिक था... मालिक ने जिस्म को रौंदा। कोख में उसने बीज बोए। दो बेटियों की शक्ल में फसल भी काटी। औरत का अपना जिस्म, अपनी कोख, उससे जन्मने वाली औलाद अपनी कहां होती है। वह तो जमीन होती है-- कभी उपजाऊ, कभी ऊसर, कभी लावारिस, कभी सरकारी। जमीन की खुद पर मिल्कियत कहां, वह हमेशा ही दूसरों के लिए खोदी जाती है, उस पर फसलें उगाईं और काटी जाती हैं, खरीदी और बेची जाती हैं। इस जमीन की अच्छी फसल बेटा माना जाता है, जो नगदी होता है। इस नगदी फसल की हसरत में शौहर ने बीज फिर बोया। मगर कुछ गड़बड़ी हो गई। मैं दर्द से सारी रात छटपटाती रही... वह बगल में लेटा मेरे दर्द को ड्रामेबाजी बता औरत को रुसवा करता रहा। अगले दिन खुद ही अस्पताल गई। अबोर्सन या मिसकैरिज हो गया था। मां के पास पहुंची। जवाब मिला, अब हम कुछ नहीं जानते, तुम जानो। मैं अब शौहर के पास लौटना नहीं चाहती थी। बेटियां भी उसी के पास थीं। एक पार्क की बेंच पर बैठी घंटों रोती रही। चुप कराने वाला कोई भी नहीं था। बहते आंसुओं के बीच संकल्प लिया कि चाहे जो हो जाए उस नर्क में नहीं लौटना है, वहां पल-पल मरने से बेहतर है खुद को खड़ा करने की कोशिश में मिट जाऊं।

एक कमरा लिया। वह बार-बार लौटने के लिए कहता रहा। मैंने मना कर दिया। अपने पैरों पर खड़े होने को शौहर ने मेरी गुस्ताखी समझा। उसने तलाक ले लिया। मुझे मेरी बेटियां भी छीन लीं। छह महीने बाद उसने फोन किया कि बेटियां याद कर रही हैं। मैं खुद भी बेटियों से मिलना चाहती थी। हम दिल्ली के इंद्रप्रस्थ पार्क में मिले। वह उन्नीस जून 2007 का एक गर्म दिन था जो मेरी जिंदगी में सबसे भयानक और दर्दनाक मोड़ लाने वाला था। उसने फिर वापस लौटने की जिद की, पर फिर मेरा इंकार। मैं बेटियों के साथ खुश थी कि तभी मौका पाकर उसने पीछे से मेरे चेहरे पर तेजाब फेंक दिया। मैं दर्द से चीखने-चिल्लाने लगी। लोग मदद को आगे बढ़े। वह भाग गया। पुलिस आई। मेरे बदन का मांस गल रहा था। चेहरा, कंधा, पीठ, सीना, पेट, कमर... सब खदबद हो रहा था। उस दर्द को बयान करने के लिए अल्फाज नहीं हैं मेरे पास। मुझे सफदरजंग ले जाया गया... अस्पताल ने भर्ती करने से इंकार कर दिया। उसी हाल में रिश्तेदारों, मां, बुआ, मौसी सबके पास मदद के लिए गई। सबने दरवाजे बंद कर लिए। तीन दिनों तक अकेली पड़ी जलती और गलती रही। जहां-जहां तेजाब पड़ा था वहां से धुआं उठ रहा था। मोहल्ले के कई दरवाजों पर भी दस्तक दी। कोई दरवाजा नहीं खुला? गली में एक बड़े आदमी थे। उनके पास एक पुराना खंडहरनुमा मकान खाली था जिसमें हड्डी का चूर्ण बनाने का कारोबार था। उन्होंने रहम किया और तीसरी मंजिल पर रहने की इजाजत दे दी। जहां मैंने पनाह पाई... वहां न कोई दरवाजा था... न बल्ब, न रोशनी, न बिस्तर, न मैं सो पा रही थी... न सोच पा रही थी...। उस खंडहर में पड़ी रही। मेरे बदन से मवाद तीन महीने तक बहता रहा था। घाव फैल रहे थे। तीखी दुर्गंध। कोई पास नहीं। आना भी नहीं चाहता था। यहां तक कि जख्म वाले हिस्से में चींटियां रेंगने लगी थीं। मैं अपने ही जिस्म पर रेंगने वाली चींटियां को बहुत गौर से देखती रही। वे चींटियां मुझे खाती थीं। तब मैं कुछ भी नहीं सोच पा रही थी... न जिंदा रहने के बारे में, न मरने के बारे में। और न उस खुदा के बारे में ही जिसने हमें बनाया और हमारी तकदीर लिखी। कभी कोई कुछ खाने को दे जाता, कभी कई दिनों तक भूखी रहती। एक दिन उस खंडहर से भी मुझे जाने का हुक्म मिला क्योंकि उस खंडहर को तोड़कर नया मकान बनाया जाना था। कहां जाती? कुछ समझ में नहीं आया तो जामा मस्जिद चली गई। फकीरों की पंक्ति में बैठी इमाम बुखारी साहब से मिलने का इंतजार करती रही, मदद की उम्मीद में। महीनों मैंने उनसे मिलने की कोशिश की, मगर नहीं मिल पाई। एक दिन उनकी सुरक्षा में खड़े पुलिस वाले से कहा कि अगर आज नहीं मिले तो खुदकुशी कर लूंगी। तब जाकर बुखारी साहब से मिलवाया गया। उन्होंने मेरी मदद की और मेरा इलाज शुरू हो गया। इसी बीच बिहार का एक गुंडा टाइप का लड़का मेरी मदद के लिए आगे बढ़ा। मगर जल्द ही मुझे समझ आ गया कि वह बाकी बचे हुए जिस्म को हासिल करना चाहता था। कमरा मुझे छोड़ना पड़ा। फिर एक आंटी के यहां शरण। वहां भी वह लड़का पहुंच गया। उसे मेरा बाकी बचा हुआ जिस्म चाहिए था। उसने गले हुए जिस्म के इलाज में इसलिए मदद की थी कि ताकि बाकी बचे जिस्म को गिद्ध की तरह खा सके। एक दिन वहां से भी भगा दी गई। इसके बाद एक 75 साल के बुजुर्ग ने पनाह दी। वे फुटपाथ पर ताबीज वगैरह बेचते थे। वे मुझे बाहर से ताला लगाकर जाते थे। मैं खुले जख्मों पर दुपट्टा डालकर दिन भर पड़ी रहती। हफ्ता भर भी नहीं बीता था कि उनके चेहरे से भी नकाब हट गया। दादा की उम्र वाले बुजुर्ग ने शादी का प्रस्ताव रखा। मैं वहां से भी निकली...। अब कहां जाऊं? दुनिया बहुत बड़ी है, मगर उसमें मेरी जगह कहीं नहीं थी। वह बारिश का दिन था। मैं बाहर निकल पड़ी, जख्म के टांके खुले थे। मैं रो रही थी। मेरे आंसुओं को बारिश की बूंदें धो रही थीं या बारिश की बूंदों को मेरे आंसू, यह तय कर पाना मुश्किल था। शाम को कुछ लोगों से चंदा किया। एक प्रॉपर्टी डीलर कमरा देने को राजी हुआ इस शर्त पर कि उसकी पत्नी बन जाऊं, मैंने इंकार किया। पत्नी की पीड़ा मैं झेल चुकी थी। दुश्वारियों से लड़ती-जूझती मैं गिरती रही, उठती रही। रोना जरूर भूल गई थी। कुछ करना था, लेकिन क्या यह ठीक से मालूम नहीं था। इसी जद्दोजहद में फातिमा दीदी से भेंट हुई। अब उन्हीं के साथ रहती हूं, उनके ही कुछ काम करती हूं। कठपुतलियों का शो करती हूं। मैं खुद भी कठपुतली हूं जिसके धागे पता नहीं किन हाथों में हैं। जिंदगी का एक ही ख्वाब है कि बेटियों को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बना दूं। मगर है तो यह सपना ही... सपना देखने का हौसला मैंने नहीं छोड़ा। अभी भी मुझे ठीक होने के लिए लाखों रुपए चाहिए जो एक नामुमकिन चाहत है, चाहत से ज्यादा जरूरत...।
...

बुधवार, 1 जनवरी 2014

खस्ताहाल मुबारक हो..

आम आदमी के सिर पर,
बत्ती लाल मुबारक हो..
फेंकू-पप्पू के दंगल में,
केजरीवाल मुबारक हो..
आसाराम मुबारक हो,
तेजपाल मुबारक हो..
यूपी तुझको सालों साल,
खस्ताहाल मुबारक हो..
प्रजातंत्र की थाली में..
काली दाल मुबारक हो..
दिल की जलती बस्ती को,
और पुआल मुबारक हो..
हो ना हो, मगर फिर भी..
नया ये साल मुबारक हो..

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

वो किसी न किसी की प्रेमिका हैं..

 भोले सपनों वाली मछलियां...

किसी जलपरी की तरह,

चीरा बनाती हुई जगह ढूंढती हैं बस में....

और बस जलाशय तो नहीं...

 
कान में ज़बदरस्ती ठूंसे गए तार..

जैसे किसी और ग्रह में प्रवेश...

जहां ताड़ती हैं अनजान निगाहें,

लपकते हैं दो हाथ वाले ऑक्टोपस

पीठ के बजाय सीने पर लटकाए हुए बैग...

कंगारू की तरह....

 
वो किसी न किसी की प्रेमिका हैं

जिन्हें सिर्फ पीठ पर उबटन लगाना है शादी में..

अगर नहीं हो सकी मनचाही शादी...

उन्हें रखने हैं अपनी सात पीढ़ियों के नाम

सिर्फ ‘क’ से

बिना किसी ज्योतिषी से पूछे

उऩ्हें उतरना है किसी सरकारी कॉलेज के गेट पर,

कॉलेज की दीवारों पर लिखे हैं इश्तेहार

‘दो हफ्ते की खांसी टीबी हो सकती है’

‘शादी में असफल यहां फोन करें...’

शादी के लिए सबसे अच्छी फोटो नहीं,

सबसे अच्छे दिल लेकर आइए...

ऐसा कहीं नहीं लिखा दीवारों पर

 
बस निहारती है उनकी पीठ...

पीठ बूढ़ी नहीं होती...

स्तन बूढे होते हैं,

योनि नहीं होती बूढी....

प्राथनाएं होती हैं बूढ़ी...

और मर जाती हैं बस से उतरते ही..

निखिल आनंद गिरि

(पाखी के दिसंबर 2013 अंक में प्रकाशित)

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