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बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

आइनों ने कर लिया, मेरा ही अपहरण....


कौड़ियों के भाव बिका, जब से अंतःकरण,
अनगिन मुखौटे हैं, सैकड़ों हैं आवरण...
मदमस्त होकर जो झूमती हैं पीढियां,
लड़खड़ा न जाएँ कहीं सभ्यताओं के चरण...
ठिठका-सा चाँद है, गुम भी, खामोश भी,
जुगनुओं को रात ने दी है जब से शरण...
गुमशुदा-सा फिरता हूँ, अपनों के शहर में,
आइनों ने कर लिया, मेरा ही अपहरण....
मौन की देहरी जब तुमने भी लाँघ दी,
टूट गए रिश्तों के सारे समीकरण...
पीड़ा के शब्द-शब्द मीत को समर्पित हों,
आंसुओं की लय में हो, गुंजित जीवन-मरण...
माँ ने तो सिखलाया जीने का ककहरा,
दुनिया से सीखे हैं, नित नए व्याकरण...

- निखिल आनंद गिरि 


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रविवार, 3 अक्तूबर 2010

इतना नीरस होगा समय....

जब रात से निचोड़ लिए जाएंगे अंधेरे

और उगने लगेगा सूरज दोनों तरफ से..

जिन पेड़ों को तुम देखते हो रोमांस से,

उन्हें देखना सौभाग्य समझा जाएगा...

मिटा दिए जाएंगे रेगिस्तानों से पदचिह्न

और बाक़ी रहेंगे सिर्फ रुपये जैसे सरकारी निशान...

वर्जित क्षेत्रों में पूजे जाने के लिए....


इतना नीरस होगा समय कि,

दम घोंटकर कई बार मरना चाहेगी दुनिया...

समर्थ लोगों की बेबस दुनिया....

जब थोड़ी-सी प्यास और पसीना फेंटकर,

प्रयोगशालाओं में जन्म लेंगी कविताएं...

जैविक कूड़ा समझकर उड़ेल दिया जाएगा अकेलापन...

सूख चुके समुद्रों में....


लगातार युद्धों से थक चुके होंगे योद्धा...

खून का रंग उतना ही परिचित होगा,

जितनी मां....

चांद पर मिलेंगे ज़मीन के मुआवज़े

और कहीं नहीं होगा आकाश...


इतिहास ऊब चुका होगा बेईमान किस्सों से,

तब बड़े चाव से लिखी जाएंगी बेवकूफियां..

कि कैसे हम चौंके थे, बिना प्रलय के...

जब पहली बार हमने चखा था चुंबन का स्वाद...

या फिर भूख लगने पर बांट लिए थे शरीर....

 
निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

मैं ज़िंदा हूं अभी...

मुझे टटोलिए,
हिलाइए-डुलाइए,
झकझोरिए ज़रा...
लगता है कि मैं ज़िंदा हूं अभी...

चुप्पी मौत नहीं है,
चीख नहीं है जीवन,
मैं अंधेरे में चुप हूं ज़रा,
भूला नहीं हूं उजाला...
ये शहर कुछ भी भूलने नहीं देगा...

नौ घंटे की बेबसी,
दुम हिलाने की....
फिर चेहरा उतारकर
गुज़ारते रहिए घंटे...

फोन पर मिमियाते रहिए प्रेमिका से,
उसे हर वाक्य के खत्म होते खुश होना है...
मां से बतियाने में ओढ लीजिए हंसी,
कितनी भी...
पकड़े जाएंगे दुख...

कुछ चेहरे हैं
जिनसे बरतनी है सावधानी...
कुछ नज़रें हैं..
जिन्हें पलट कर घूरना नहीं है..
दिन एक थके-मांदे आदमी की तरह है..
हांफ रहा है आपके साथ..
रात के आखिरी पहर तक...
बिस्तर पर लेटकर निहारते रहिए दीवारें..
क्या पता शून्य का आविष्कार,
इन्हीं क्षणों में हुआ हो..

26 साल की बेबस  उम्र
नींद की गोली पर टिकी है...
गटक जाइए गोली,
विश्राम लेंगे दुख...
बदलते रहिए केंचुल,
शर्त है जीने की...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 26 सितंबर 2010

रौशनी ने कर दिया था बदगुमां...

आईने  ने जब से ठुकराया मुझे,
हर कोई पुतला नज़र आया मुझे...

रौशनी ने कर दिया था बदगुमां,
शाम तक सूरज ने भरमाया मुझे...

ऊबती सुबहों का सच मालूम था,
रात भर ख्वाबों ने बहलाया मुझे....

मैं बुरा था जब तलक ज़िंदा रहा,
'अच्छा था', ये कहके दफनाया मुझे...

जब शहर के शोर ने पागल किया,
एक भोला गांव याद आया मुझे....

ख्वाब टूटे, एक टुकड़ा चुभ गया,
देर तक नज़्मों ने सहलाया मुझे....

निखिल आनंद गिरि

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