मेरी उम्र के लिहाज़ से ये बात अनफिट लग सकती है मगर सच है। आजकल पुरानी रेलगाड़ी के डिब्बे की तरह हो गया हूं। कोने में कहीं पड़ा। न कोई नोटिस करता है, न ऐसी कोई चाहत उमड़ती है। बीच-बीच में कोई भीतर झांक लेता है तो खुश हो लिया वरना पड़े रहे अगड़म-बगड़म सोचते। मुझे लगता है हर किसी के साथ ऐसा वक्त आता होगा जब वो 'ब्लॉक' महसूस करता है। मेरा ये ब्लॉक बीच-बीच में आता रहता है। इस बार कुछ ज़्यादा लंबा है। उम्मीद है जल्दी कटेगा ये वक्त। जितनी जल्दी कटेगा, ब्लॉग पर लौटना आसान रहेगा। ये मेरी डायरी है। हर रोज़ भरना चाहता हूं। कई दिन ख़ाली रह गए।
ज़िंदगी में इतना कुछ नया घट रहा है कि सब रुटीन जैसा लगने लगा है। नया घटना एक चीज़ है और मनचाहा घटना अलग। बहुत कुछ अनचाहा घट रहा है इन दिनों। जिन्हें भूल जाना चाहता हूं, वो अकसर याद रहते हैं। कई तारीखें याद रह गई हैं। उनका क्या किया जाए, समझ नहीं आता। कई कविताएं अधूरी हैं। किसी ख़ास वक्त में लिखी गईं। छूट गईं। अब लगता है वो मुझे पहचानती ही नहीं। जैसे कविता मैं नहीं कोई और लिख रहा था। क्या पता कोई और ही लिख रहा हो।
दिल्ली भी अजीब शहर है। नौ-दस साल गुज़र गए मगर अब भी लगता है पूरे शहर को समझना बाक़ी है। या इस शहर ने ही मुझे नहीं समझा। सिर्फ एक पेशेवर रिश्ता रखा है। पूरी ज़िंदगी से ही पेशेवर रिश्ते जैसा लगने लगा है। दिल्ली सबको ऐसा ही बना देती है। थोड़ा चिड़चिड़ा, थोड़ा गुस्सैल, थोड़ा ख़र्चीला। यहां छींकना भी संभलकर पड़ता है। कोई न देखे तब भी 'सॉरी' बोलते हुए।
छींकना भी अजीब आदत है। कुछ लोग ऐसे छींकते है जैसे किसी नई कला को जन्म दे रहे हों। कलाओं को ज़िंदा रहना चाहिए। कविताओं को भी। ज़िंदा रहना बहुत ज़रूरी है, ज़िंदा होना ही काफी नहीं।
निखिल आनंद गिरि
ज़िंदगी में इतना कुछ नया घट रहा है कि सब रुटीन जैसा लगने लगा है। नया घटना एक चीज़ है और मनचाहा घटना अलग। बहुत कुछ अनचाहा घट रहा है इन दिनों। जिन्हें भूल जाना चाहता हूं, वो अकसर याद रहते हैं। कई तारीखें याद रह गई हैं। उनका क्या किया जाए, समझ नहीं आता। कई कविताएं अधूरी हैं। किसी ख़ास वक्त में लिखी गईं। छूट गईं। अब लगता है वो मुझे पहचानती ही नहीं। जैसे कविता मैं नहीं कोई और लिख रहा था। क्या पता कोई और ही लिख रहा हो।
दिल्ली भी अजीब शहर है। नौ-दस साल गुज़र गए मगर अब भी लगता है पूरे शहर को समझना बाक़ी है। या इस शहर ने ही मुझे नहीं समझा। सिर्फ एक पेशेवर रिश्ता रखा है। पूरी ज़िंदगी से ही पेशेवर रिश्ते जैसा लगने लगा है। दिल्ली सबको ऐसा ही बना देती है। थोड़ा चिड़चिड़ा, थोड़ा गुस्सैल, थोड़ा ख़र्चीला। यहां छींकना भी संभलकर पड़ता है। कोई न देखे तब भी 'सॉरी' बोलते हुए।
छींकना भी अजीब आदत है। कुछ लोग ऐसे छींकते है जैसे किसी नई कला को जन्म दे रहे हों। कलाओं को ज़िंदा रहना चाहिए। कविताओं को भी। ज़िंदा रहना बहुत ज़रूरी है, ज़िंदा होना ही काफी नहीं।
निखिल आनंद गिरि