शनिवार, 18 मई 2013

एक मामूली आदमी की डायरी-1

आजकल दो चीज़ों से बहुत परेशान हूं। पहली तो ये कि मेरी किसी भी 'बड़े आदमी' से कोई पहचान नहीं है। जिससे भी मिलता हूं, वो किसी न किसी तगड़ी पहचान के साथ आगे बढ़ता दिखता है। कैरियर में सफल  लोगों पर कोई बातचीत होती है तो अक्सर सुनता हूं कि फलां जगह वो चुना गया क्योंकि वहां उसकी उनसे पहले से ही पहचान थी। उनके लिए स्पॉट फिक्सिंग एक अपराध नहीं जीवनशैली है। हर क्षेत्र में कोई पैनल या कमिटी किसी नई नियुक्ति नहीं करती। एक गिरोह करता है, जिसमें चुने जाने वाले का कोई न कोई सगा ज़रूर होता है। इतनी सी बात से पूरा आत्मविश्वास हिल जाता है। नौकरी में जहां भी रहा, वफादारी से काम करता रहा। लोग काम की तारीफ भी करते हैं। मगर दावे से नहीं कह सकता कि वहां का बॉस या कोई 'बड़ा आदमी' मेरे साथ फुर्सत में उठऩा-बैठना पसंद करे। क्या बडे पद पर पहुंचने के लिए कोई और योग्यता चाहिए होती है। इन दिनों जिस तरह का कंपनी राज है, उसमें अगले दिन नौकरी रहेगी या नहीं, कुछ पता नहीं होता। लेकिन फिर भी उन लोगों की तरह क्यों नहीं हो पाता जो अच्छी तरह जानते हैं कि नौकरी में बने रहने के लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए। मुझे तो मोहल्ले में भी ठीक से कोई नहीं पहचानता। हमेशा डर लगा रहता है कि कोई भी मुझसे लड़ सकता है, जीत सकता है। कोई पुलिस वाला बिना बात की गाली बक सकता है। कोई दुकानदार मुझे सामान देने के लिए भीड़ के ख़त्म होने तक खड़ा रख सकता है। कोई नया लड़का ऊंची आवाज़ में मुझे नीचा दिखा सकता है। उम्र में जितना बड़ा होता जा रहा हूं, भीतर से उतना ही कमज़ोर भी।

दूसरी चीज़ परेशान करती है खुद को काबू में नहीं रख पाना। इतना कमज़ोर महसूस करने के बावजूद कई बार छोटी-छोटी बातों में ग़लत होता देखकर लड़ जाना अच्छा लगता है। अपना फायदा-नुकसान बाद में समझ आता है। चुप रहने की अदा सीखना चाहता हूं । वो लोग किस चक्की का आटा खाते हैं, जिन्हें कभी गुस्सा नहीं आता। हर बात में वो शांत दिखते हैं। उन्हें किसी चीज से कोई परेशानी नहीं होती। उन्हें लगता है कि जब तक उनके पास मोटी तनख़्वाह है, नौकरी सुरक्षित है, तब तक किसी और के लिए या किसी अच्छी वजह के लिए तर्क करना फालतू का काम है।

वो ग़लती से अगर किसी अनशन या आंदोलन के आसपास से गुजर भी जाएं तो नाक पर रुमाल रख लेते हैं। वो अपने घरों में बच्चों से क्या बातें करते होंगे, सोचता हूं। वो कसरत के लिए बच्चों को सांपों का वीडियो दिखाते होंगे। वो उन्हें इतना लचीला बना देना चाहते होंगे कि वो किसी बिल में दुबक कर आराम से ज़िंदगी गुजार सकें। वो जब स्कूल जाएं तो उनके लिए सबसे अच्छे पराठे हों, सबसे महंगे मोबाइल हों और सबसे अमीर दोस्त। वो अगर कॉलेज में पढने जाएं तो किताबों के बजाय किसी टीचर से सेटिंग करने में ज़्यादा माहिर हो सकें। अगर कभी पढ़ाने लग जाएं तो कॉपियां सही जांचने के बजाय ज्यादा कॉपियों के नाम पर ज़्यादा बिल भरने की कला सीख सकें। वो जिस पेशे में जाएं, महान बनन के तरीके ढूंढ निकालें। उनके लिए दोस्ती और दुश्मनी जेब में रखे चिल्लर से भी कम क़ीमती शब्द हों, जिनका इस्तेमाल मूंगफली खाने से लेकर किताबें छपवाने तक के लिए किया जा सके। ज़िंदगी उनके लिए प्रयोगशाला न होकर दलाली का अड्डा बन जाए। वो कृष्ण पक्ष में जिसके पीठ पीछे गालियां बकते रहें, जिनके खिलाफ उसूलों की दुहाई देते रहें, शुक्ल पक्ष में उनके साथ किट्टी पार्टियां करें, साहित्यिक विमर्श करें, एक-दूसरे की शादियों में लिफाफे लेकर जाएं और 'दोस्ती' के गाने साथ में गुनगुनाने लगें। वो रात को सोने से पहले एक गिलास गरम दूध पिएं, बुद्धिजीवी कहे जाएं और नए सांपों को अपनी तरह का बनाते जाएं। एक दिन वो और उनकी पाली-पोसी नई पीढी महान हो जाएं।

ऐसे कई नाम याद आ रहे हैं, जिनका नाम ले-लेकर ज़िक्र करने और ग़ुस्सा उतारने का मन हो रहा है, मगर इसमें कैरियर का नुकसान भी है और जान जाने का ख़तरा भी। बुद्धिजीवियों के गिरोह किसी आतंकवादी गिरोह से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक होते हैँ। ये बात पूरे होशोहवास में कह रहा हूं और इसका हर जीवित व्यक्ति,कहानी या घटना से पूरा संबंध है। किसी भी हालत में इसे संयोग न समझा जाए।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 4 मई 2013

धूप जब टेढ़ी होती है..

आप कैसे ठीक कह जाते हैं इतना..
कि हम संभालते रहते है हिज्जे..
पूर्ण विराम तक पहुंच नहीं पाते कभी,
सांस उखड़ने लगती है हर बार...

आप तो सांस भी ठीक लेते हैं..
छींकते भी ठीक ही हैं माशाअल्लाह..
महान होना का फायदा यही है,
आप कहीं भी महान बने रह सकते हैं..
मंदिर में, मस्जिद में, शौचालय में भी..
अस्पताल तक में डॉक्टर गर्व से भर जाता है
जब ठीक कर रहा होता है आपके बलतोड़..
कि ये एक महान आदमी का पिछवाड़ा है..

ये जो राजधानी बनी फिरती है..
स्वर्ग की फोटोकॉपी लगती है कभी-कभी..
यहां महान आदमी  विचरते हैं लाल बत्ती में..
धुआं छोडते ग़ायब हो जाते हैं देवता..
आम आदमी भी चलता है यहां आसमान में..
और टोकन लेने पर गायब हो जाता है पसीना..

आप ठीक कहते थे अक्सर
किताबों को उलटते-पलटते..
पुस्तकालय किसी दूसरी ग्रह का शब्द लगता है..
लाइब्रेरी एक आसान शब्द है..
जीभ अटकती नहीं कहीं भी..
महानता का आभास होता है..

धूप जब टेढी होती है..
तीखी और गुस्सैल भी..
आप सूरज से बचकर निकलते हैं..
कोई क्रीम लगाते हैं चेहरे पर..
और सूरज का सामना करने लगते हैं..
हमारे पास सूरज नहीं उतना..
कि हम सामना करें सूरज का..

किसी ने सिखाई ही नहीं ये तमीज़..
कमीज़ पहनना ही काफी नहीं है..
पैंट के भीतर होनी चाहिए कमीज़..
आपने ठीक ही कहा,
जूते पॉलिश होने चाहिए
मगर जूता भी होना चाहिए
पॉलिश के लिए सज्जनों...

हमें सिखलाया गया था रंग के बारे में..
कि ख़ून और पानी दो अलग रंग हैं..
पानी बहता है तो खुशी आती है..
खून बहता है तो खुशी जाती है..

आपको क्या सिखलाया गया था..
कौन-सी किताबें पढी थी आपने..
कि प्यास ख़ून से बुझती है..
और पानी बहता है पैसे की तरह ..
खून के धब्बे मिटाने में..
चाहे धब्बा कितना भी पुराना क्यों न हो...

चौरासी या दो हजार दो के धब्बे,
मिटाए जा सकते हैं अदालतों में...
तीस-चालीस-हजार बरस बाद भी..

निखिल आनंद गिरि

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