यूं तो हिंदी सिनेमा में कहानियों के नाम पर वही फॉर्मूले बार-बार नये पैकेज में परोसे जाते रहे हैं, मगर दिबाकर बनर्जी हमारे दौर के सबसे अच्छे फिल्म निर्देशकों में इसीलिए हैं क्योंकि वो उस फॉर्मूले की पैकेजिंग हमारे समय को समझते हुए कर पाते हैं। उनकी कहानियों में हमारे समय की राजनीति है, उसका ओछापन है, साज़िशें हैं, बुझा हुआ शाइनिंग इंडिया है और चकाचक शहरों के नाम पर होनेवाली हत्याएं और अरबों का दोगलापन भी है। उनकी नई फिल्म ‘’शांघाई’’ में भी वही सब है। हर दौर में ऐसे निर्देशक रहे हैं जिन्होंने अपने समय को पर्दे पर उतारा है, मगर दिबाकर उनसे अलग इसलिए हैं कि अब ऐसा कर पाना साहस का काम है। अब राउडी राठौर, दबंग और झंडू गानों का ज़माना है। और ऐसे में अपने आसपास के समाज को पर्दे पर सीधा-सपाट देखने का रिस्क उठाने वाले बहुत कम हैं। इसी चक्कर में शांघाई महान फिल्म नहीं बन पाई क्योंकि उसे सच को एक ऐसे रैपर में पैक करना था कि हॉल तक दर्शक आएं और बस्तियों या गांवों तक न सही, फेसबुक और ट्विटर तक बात पहुंच सके। दरअसल, ये निर्देशक की नहीं, हमारी कमज़ोरी है कि हम इसी तरह की स्पूनफीडिंग के आदी हैं। जिसमें एक बड़े राजनैतिक षडयंत्र के फ्रेम से छोटी सी उपकथा निकाली जाए और फिर बच्चों की तरह एक-एक हिस्सा साफ-साफ समझाया जाए।
दरअसल, ये फिल्म उन दौड़ती सड़कों के किनारे लगे होर्डिंग्स की जगह टांग दी जानी चाहिए जहां आशियाना से लेकर आम्रपाली तक के एमआईजी या एलआईजी अपार्टमेंट्स आपको लुभाते रहते हैं। ताकि काले शीशे में उधर से गुज़र रही सॉफ्टस्पोकन आबादी को अहसास हो कि वो जिन नए ‘विश्वकर्माओं’ की शरण में हैं, उनके हाथ दरअसल कई रंग के ख़ून से सने हुए हैं। या फिर, उन छोटी बस्तियों में सेक्स के इश्तेहार वाली उन दीवारों की जगह जहां सोने-चांदी के शहर बसाने वाले मजदूर आज तक अपनी झोपड़पट्टी से आगे नहीं बढ़ पाए। ताकि उन्हें एहसास हो कि वो जिनके लिए अपना ख़ून-पसीना एक कर रहे हैं, वही एक दिन शहर में कर्फ्यू के नाम पर उन्हें ढूंढ-ढूंढ कर मार डालेंगे।
पिछले साल अक्टूबर में पंकज सुबीर की एक कहानी पढ़ी थी। इस लंबी कहानी में रामभरोसे छोड़े गए एक शहर की उस रात का ज़िक्र था जब किसानों की आत्महत्याएं रोकने के लिए सूबे के शासकों की प्रायोजित एक हाईप्रोफाइल रामकथा चल रही थी और इसी शंखध्वनि और भक्तिपूर्ण माहौल में एक हत्या इतनी शांति से हुई कि किसी के कानों तक मरनेवालों की उफ तक नहीं पहुंची। तब ये कहानी उतनी अच्छी नहीं लगी, मगर अब लगता है यही कहानी दिबाकर के ज़ेहन में चेहरा बदलकर उतर गई हो। अब लगता है कि ऐसी कहानियां बार-बार अलग-अलग मीडियम से हमारी आंखों के आगे घूमती रहें ताकि हमारी नींद में लोकतांत्रिक ख़लल पड़ती रहे।
कहानी के नाम पर ऐसा कुछ नया नहीं है, जो आपको दोबारा बताया जाए। सेलेब्रिटी आंदोलनों के दौर में आप और हम जिस करप्शन को पासवर्ड की तरह कंठस्थ कर चुके हैं, उसी का एक फिल्मीकरण भर है शंघाई। एक बहुत साधारण सी मर्डर मिस्ट्री जिसे फिल्म के आखिर-आखिर तक सुलझना ही है। मगर, इस कहानी में अच्छाई ये है कि इसके किरदार हमारे असली समाज से हैं। नाम बदल दिए जाएं तो आप इन किरदारों को अपने-अपने घरों में आसानी से पहचान सकते हैं। ये वही चेहरे हैं जो टीवी कैमरों के आगे अलग-अलग झंडों के साथ हमारा हमदर्द होने का भ्रम पैदा करते हैं। और कैमरा ऑफ होते ही अपनी-अपनी मां-बहनों के रेट तय करने लगते हैं। फिल्म में बस इतनी ही चतुराई बरती गई है कि कैमरा ऑफ कर दिया गया है, मगर साउंड रिकॉर्डिंग ऑन ही रह गई है। बस इसी के ज़रिए आप और हम सब कुछ सुन-समझ पाते हैं कि कैसे हमारी लाशों के टेंडर लग रहे हैं और हम खुशी-खुशी अपनी कब्रगाहों में गृहप्रवेश के शंख बजा रहे हैं। इससे ज़्यादा एक फिल्म से उम्मीद भी क्या कर सकते हैं।
फिल्म की कहानी पूरी तरह से फिल्मी और पुरानी भी है, मगर सुख इस बात का है कि आप मज़ा लेने के लिए एक राउडी राठौर (इन जैसी सभी फिल्मों के लिए विशेषण) नहीं, वो कहानी देख रहे हैं, जिसमें आप भी शामिल हैं। एक लड़की के हाथ में सिस्टम को नंगा कर देने वाली सीडी है। वो ऑफिसर तक बदहवास पहुंचती है। ऑफिसर कल वक्त पर ऑफिस में आने को कहकर लौटा रहा होता है, मगर फिर दोनों डर जाते हैं कि कल तक वो लड़की बचे न बचे। क्या हम और आप इस डर के साथ रोज़ नहीं जीते कि क्या पता हम जहां पहुंचना चाहते हैं, वहां हमसे पहले हमारी लाशें न पहुंच जाएं।
शांघाई ज़रूर देखिए। आप राजनैतिक तौर से स्वदेशी विकास के एजेंडे को मानते हों कि ग्लोबलाइज़ेशन के एजेंडे को, इस फिल्म में सबकी हक़ीक़त साफ दिखेगी। एक्टिंग के नाम पर कट्टर राजपूत बने इमरान हाशमी तक को चुम्मा लेने की इजाज़त नहीं है, इसीलिए आप बोर हो सकते हैं। मगर, आप ये ज़रूर जानना चाहेंगे कि आपके हत्यारे कौन हो सकते हैं। और हां, अगर कहीं मरने की आज़ादी हो तो किसी रोशनी वाली जगह में ही मरें वरना शहरों में कई लाशें पहचानने के लिए पुलिस के पास पर्याप्त लाइट तक नहीं होती।
फिल्म के गीतों ने बहुत दिनों बाद देशभक्ति गीतों का एक ख़ास पैटर्न समझने में मदद की है। एक वो दौर था जब संतोष आनंद की कलम के बूते भारत कुमार उर्फ मनोज कुमार मुंह को हाथ से छिपाकर, देशभक्तों को आवाज़ देते थे। फिर सन्नी देओल का दौर भी आया जब चीख-चीख कर ‘’मेरा भारत महान’’ हमारे कानों में उतार दिया गया। और तो और सलमान खान ने नचनिया बनकर भी ''ईस्ट या वेस्ट, इंडिया इज़ द बेस्ट'' का नारा दिया। मगर, उसके ठीक उलट ‘इंडिया बना परदेस’ के बैनर तले अब इंपोर्टेड कमरिया लेकर नचनिया कमर मटका रही है। मगर, इत्मीनान रखिए, पिज़्जा-पॉपकॉर्न खाइए, ये कमर ‘’शांघाई’’ की है, भारत माता की नहीं।
डेंगू, मलेरिया..सोने की चिड़िया...बोलो, बोलो, बोलो...भारत माता की जय...
निखिल आनंद गिरि
दरअसल, ये फिल्म उन दौड़ती सड़कों के किनारे लगे होर्डिंग्स की जगह टांग दी जानी चाहिए जहां आशियाना से लेकर आम्रपाली तक के एमआईजी या एलआईजी अपार्टमेंट्स आपको लुभाते रहते हैं। ताकि काले शीशे में उधर से गुज़र रही सॉफ्टस्पोकन आबादी को अहसास हो कि वो जिन नए ‘विश्वकर्माओं’ की शरण में हैं, उनके हाथ दरअसल कई रंग के ख़ून से सने हुए हैं। या फिर, उन छोटी बस्तियों में सेक्स के इश्तेहार वाली उन दीवारों की जगह जहां सोने-चांदी के शहर बसाने वाले मजदूर आज तक अपनी झोपड़पट्टी से आगे नहीं बढ़ पाए। ताकि उन्हें एहसास हो कि वो जिनके लिए अपना ख़ून-पसीना एक कर रहे हैं, वही एक दिन शहर में कर्फ्यू के नाम पर उन्हें ढूंढ-ढूंढ कर मार डालेंगे।
पिछले साल अक्टूबर में पंकज सुबीर की एक कहानी पढ़ी थी। इस लंबी कहानी में रामभरोसे छोड़े गए एक शहर की उस रात का ज़िक्र था जब किसानों की आत्महत्याएं रोकने के लिए सूबे के शासकों की प्रायोजित एक हाईप्रोफाइल रामकथा चल रही थी और इसी शंखध्वनि और भक्तिपूर्ण माहौल में एक हत्या इतनी शांति से हुई कि किसी के कानों तक मरनेवालों की उफ तक नहीं पहुंची। तब ये कहानी उतनी अच्छी नहीं लगी, मगर अब लगता है यही कहानी दिबाकर के ज़ेहन में चेहरा बदलकर उतर गई हो। अब लगता है कि ऐसी कहानियां बार-बार अलग-अलग मीडियम से हमारी आंखों के आगे घूमती रहें ताकि हमारी नींद में लोकतांत्रिक ख़लल पड़ती रहे।
कहानी के नाम पर ऐसा कुछ नया नहीं है, जो आपको दोबारा बताया जाए। सेलेब्रिटी आंदोलनों के दौर में आप और हम जिस करप्शन को पासवर्ड की तरह कंठस्थ कर चुके हैं, उसी का एक फिल्मीकरण भर है शंघाई। एक बहुत साधारण सी मर्डर मिस्ट्री जिसे फिल्म के आखिर-आखिर तक सुलझना ही है। मगर, इस कहानी में अच्छाई ये है कि इसके किरदार हमारे असली समाज से हैं। नाम बदल दिए जाएं तो आप इन किरदारों को अपने-अपने घरों में आसानी से पहचान सकते हैं। ये वही चेहरे हैं जो टीवी कैमरों के आगे अलग-अलग झंडों के साथ हमारा हमदर्द होने का भ्रम पैदा करते हैं। और कैमरा ऑफ होते ही अपनी-अपनी मां-बहनों के रेट तय करने लगते हैं। फिल्म में बस इतनी ही चतुराई बरती गई है कि कैमरा ऑफ कर दिया गया है, मगर साउंड रिकॉर्डिंग ऑन ही रह गई है। बस इसी के ज़रिए आप और हम सब कुछ सुन-समझ पाते हैं कि कैसे हमारी लाशों के टेंडर लग रहे हैं और हम खुशी-खुशी अपनी कब्रगाहों में गृहप्रवेश के शंख बजा रहे हैं। इससे ज़्यादा एक फिल्म से उम्मीद भी क्या कर सकते हैं।
फिल्म की कहानी पूरी तरह से फिल्मी और पुरानी भी है, मगर सुख इस बात का है कि आप मज़ा लेने के लिए एक राउडी राठौर (इन जैसी सभी फिल्मों के लिए विशेषण) नहीं, वो कहानी देख रहे हैं, जिसमें आप भी शामिल हैं। एक लड़की के हाथ में सिस्टम को नंगा कर देने वाली सीडी है। वो ऑफिसर तक बदहवास पहुंचती है। ऑफिसर कल वक्त पर ऑफिस में आने को कहकर लौटा रहा होता है, मगर फिर दोनों डर जाते हैं कि कल तक वो लड़की बचे न बचे। क्या हम और आप इस डर के साथ रोज़ नहीं जीते कि क्या पता हम जहां पहुंचना चाहते हैं, वहां हमसे पहले हमारी लाशें न पहुंच जाएं।
शांघाई ज़रूर देखिए। आप राजनैतिक तौर से स्वदेशी विकास के एजेंडे को मानते हों कि ग्लोबलाइज़ेशन के एजेंडे को, इस फिल्म में सबकी हक़ीक़त साफ दिखेगी। एक्टिंग के नाम पर कट्टर राजपूत बने इमरान हाशमी तक को चुम्मा लेने की इजाज़त नहीं है, इसीलिए आप बोर हो सकते हैं। मगर, आप ये ज़रूर जानना चाहेंगे कि आपके हत्यारे कौन हो सकते हैं। और हां, अगर कहीं मरने की आज़ादी हो तो किसी रोशनी वाली जगह में ही मरें वरना शहरों में कई लाशें पहचानने के लिए पुलिस के पास पर्याप्त लाइट तक नहीं होती।
फिल्म के गीतों ने बहुत दिनों बाद देशभक्ति गीतों का एक ख़ास पैटर्न समझने में मदद की है। एक वो दौर था जब संतोष आनंद की कलम के बूते भारत कुमार उर्फ मनोज कुमार मुंह को हाथ से छिपाकर, देशभक्तों को आवाज़ देते थे। फिर सन्नी देओल का दौर भी आया जब चीख-चीख कर ‘’मेरा भारत महान’’ हमारे कानों में उतार दिया गया। और तो और सलमान खान ने नचनिया बनकर भी ''ईस्ट या वेस्ट, इंडिया इज़ द बेस्ट'' का नारा दिया। मगर, उसके ठीक उलट ‘इंडिया बना परदेस’ के बैनर तले अब इंपोर्टेड कमरिया लेकर नचनिया कमर मटका रही है। मगर, इत्मीनान रखिए, पिज़्जा-पॉपकॉर्न खाइए, ये कमर ‘’शांघाई’’ की है, भारत माता की नहीं।
डेंगू, मलेरिया..सोने की चिड़िया...बोलो, बोलो, बोलो...भारत माता की जय...
निखिल आनंद गिरि
ab to jaroor dekhni hai ..........
जवाब देंहटाएंsach kah rahi hu asi filmein dekhne ka mn nahi karta islie nahi ki sach dekhne ki himmat nahi par me un software janta ka hissa sa ban gai hu jo roz office jate hain aur us bangle ka sapna dekhte hain jo shayad hi kabhi unke naseeb me ho . par sach ye bhi hai ki jab aap jese log asi filmon par likhte hain to andar soya hua koi jaag jata hai aur ek baar dekhne ka mn karta hai.mere jese log adhoore se ho jate hain jo poore machini bhi nahi hue aur andar ki aag ko poori tarah jalae bhi nahi rakh paate...lekh accha laga.film dekhne ki iccha to ho rahi hai dekhiye kya hota hai....
जवाब देंहटाएंdekhni padegi
जवाब देंहटाएंYe rahi review kahlaane laayak review.... Sahii likhe ho miyaan...
जवाब देंहटाएंहम्म देखनी पड़ेगी भाई यह तो बढ़िया समीक्षा ..
जवाब देंहटाएंBahut khoob Nikhil
जवाब देंहटाएंनिखिल जो कुछ शंघाई में दिखाया गया है वह रचनात्मक तौर पर भी और वास्तविक तौर पर भी बेहद पुराना है पर फिर भी बनाने वाले को दाद दूंगा कि क्या फिल्म बनाई है. आज भूमंडली करण के तूफ़ान में मुंबई को शंघाई बनाने के सपने हैं तो ब्रिटिश के समय में औद्योगीकरण देख कर पहले कार्ल मार्क्स ने प्रशंसा की पर फिर निंदा भी जल्द ही कर ली. ऐसे में मुंशी प्रेमचंद जैसा युग पुरुष भला पीछे कैसे रहता. आप प्रेमचंद का रंगभूमि उपन्यास पढ़ लो जिसमें एक सूरदास भिखारी की उस ज़मीं पर जोन् सेवक नाम के एक अँगरेज़ उद्योगपति की नज़र है जो ज़मीं वह सूरदास भिखारी केवल गाय भैंसों बकरियों के चरने के लिये छोड़ खुद भजन गाना चाहता है. क्या गज़ब का उपन्यास था रंगभूमि, नाम से ही पता चलता है कि एक युद्ध भूमि का चित्रण है जिसमें मरना अंततः उस सूरदास भिखारी को ही था. शंघाई भी वही रंगभूमि है. हमने हाल ही के समय में क्या सिंगूर और नंदीग्राम नहीं देखे? जिसमें एक सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्त्ता पुलिसिया अंदाज़ में जा कर हजारों को मौत के घाट उतारते हैं और सैकड़ों महिलाओं की इज्ज़त को भूमंडलीकरण की वेदी पर होम कर देते हैं! जैसे शंघाई में एक जांच कमीशन ने मुख्यमंत्री की ऐसी तैसी हो जाती है वैसे ही पश्चिम बंगाल की जनता ने भी कर दिखाया. पर पुराने शोषक हटा कर अब नए बैठ गए यह देख मुझे चार्ल्स डिकेंस का विश्वप्रसिद्ध उपन्यास A Tale of 2 cities याद आ जाता है ...मैं तो एक अदना सा शायर हूँ, पर थियेटर में बैठे बैठे ही मुझे अपने दो शेर बहुत सटीकता से याद आ रहे थे:
जवाब देंहटाएंझूठ के रस्ते रवां था आज सारा काफिला
सच के रस्ते जा रहा इक आदमी नादां लगा
सच खड़ा था कटघरे में और मुंसिफ झूठ था
डगमगाता किस कदर इन्साफ का मीजां लगा...
बस, अब सच्चाई का बयां बहुत हो गया . दिल्ली बेली वाली भाषा में बात करूँ तो यही कहूँगा कि सच बोलने वाले तो कुत्तों की तरह मरते रहते हैं बोस्ड़ी के...
Premchand जी,
जवाब देंहटाएंज़रूरी टिपप्णी का शुक्रिया..