रुधिर-की बहने दो अब धार,
स्वर गुंजित हों नभ के पार,
किए पदताल भाषा के सिपाही आए,
खोलो, खोलो तोरणद्वार......
बहुत-सा हौसला भी, होश भी, जूनून चाहिए...
हिंदी को ख़ून चाहिए...
गुलामी-की विवशता हम,
समझने अब लगे हैं कम,
तभी तो एक परदेसी ज़बां,
लहरा रही परचम,
नयी रच दे इबारत, अब वही मजमून निखिल...
हिंदी को ख़ून चाहिए....
हुई हैं साजिशें घर में,
दिखे हैं मीत लश्कर में,
पडी है आस्था घायल,
अपने ही दरो-घर में...
उठो, आगे बढ़ो, हिंद को सुकूं चाहिए....
हिंदी को ख़ून चाहिए....
निखिल आनंद गिरि
+919868062333
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ (Atom)
ये पोस्ट कुछ ख़ास है
तेज़ आंच पर पाकिस्तान मीट मसाला डालकर दस सीटी में तैयार हुई देशभक्ति थाली है धुरंधर
OTT दौर की फिल्मों और मसाला वेबसीरीज़ों ने भारत सरकार के देशभक्ति वाले मिशन को इस कदर प्रभावित किया है कि इस दौर की देशभक्ति भी सस्ता प्रोपे...
-
कौ न कहता है कि बालेश्वर यादव गुज़र गए....बलेसर अब जाके ज़िंदा हुए हैं....इतना ज़िंदा कभी नहीं थे मन में जितना अब हैं....मन करता है रोज़ ...
-
छ ठ के मौके पर बिहार के समस्तीपुर से दिल्ली लौटते वक्त इस बार जयपुर वाली ट्रेन में रिज़र्वेशन मिली जो दिल्ली होकर गुज़रती है। मालूम पड़...
-
कवि मित्र अंचित ने जर्नल इंद्रधनुष पर कुछ दिन पहले मेरी कुछ कविताएं पोस्ट की थीं जिस पर एक सुधी पाठिका की विस्तृत टिप्पणी आई है। कीमोथेरेपी...