जी हां। और बंसी पर बज रहा था ‘राग यमन’। और वो ब्राह्मण था
चित्तौड़ का पुरोहित राघव चेतन। राजपूतों ‘की, के लिए और द्वारा’ प्रचारित, पोषित, तोड़ित-फोड़ित इस फिल्म में मुझे इस ब्राह्मण
का रोल सबसे ज़्यादा वज़नदार दिखा। आश्चर्य कि करणी सेना की जगह किसी ‘ब्राह्मण सेना’ का उदय फिल्म से पहले संजय लीला
भंसाली नहीं जुगाड़ पाए। शायद इसीलिए क्योंकि करणी सेना के पास बचाने को दीपिका
पादुकोण थी और ब्राह्मण सेना (जो पूरी तरह से काल्पनिक है) के पास एक निहायत कम
पॉपुलर एक्टर।
इससे पहले कि फिल्म के कुछ
मुद्दों पर कुछ कहूं, राजपूतों पर मेरा फ़िल्मी सामान्य ज्ञान
ज़ाहिर करने का वक्त आ गया है। राजपूत (मर्द) दो प्रकार के होते हैं – एक ‘भंसाली सेना’ के
राजपूत और दूसरे ‘करणी सेना’ के राजपूत। भंसाली सेना के राजपूत बहुत अच्छे, मज़बूत
उसूलों वाले होते हैं। वो एक बार दूसरी शादी कर लेते हैं, फिर
अपनी पहली पत्नी से पूरी फिल्म के दौरान बात तक नहीं करते। अपनी औरतों को जौहर
(सती) की परमिशन देकर युद्ध में लड़ने जाते हैं। जब भी युद्ध जैसी कुछ गंभीर
परिस्थिति आती है वो लंबे-लंबे गाने गाते हैं और 'राजपूत ये-राजपूत वो' करते रहते
हैं। करणी सेना के राजपूत को हम डिजीटल इंडिया में देख ही रहे हैं। वो जी डी
गोयनका स्कूल की बस के शीशे तक तोड़ देते हैं। उनके डर से स्कूली बच्चे, महिलाएं दुबक कर बैठ जाती हैं। वो अर्नब गोस्वामी के शो में अंग्रेज़ी में
बात करते हैं। और अपनी गुंडागर्दी का सही फिल्मांकन नहीं होने पर संजय लीला भंसाली
को थप्पड़ भी मारते हैं।
फिल्म के बारे में, आप सब फिल्म की रिलीज़ से काफी पहले से ही, सब कुछ सुन चुके हैं। इसीलिए मेरे पास बताने को कुछ भी नया नहीं है। हां, करणी सेना को मेरा ये लेख पढ़कर थोड़ा दुख और पहुंचेगा क्योंकि मैं
चश्मदीद गवाह हूं कि लाख कोशिशों की बावजूद वो अपनी ‘आन, बान और शान’ पद्मावती (दीपिका पादुकोण) को अंबा
टॉकीज़ में घूमड़ नाचने से नहीं रोक सके। पद्मावती’ को
देखने के लिए 2 D और 3 D ऑप्शन भी उपलब्ध थे। मगर मैंने 13वीं सदी का विकल्प चुना। पुलिस की पीसीआर
वैन की निगरानी में, लंबी लाइन में, टिकट के लिए घंटो इंतज़ार वाला तरीका। मैं चाहता था कि महारानी पद्मावती
का नाच मैं अंबा सिनेमा की फ्रंट लाइन में बैठकर देखूं ताकि करणी सेना के ज़ख्मों पर
बोरी भर नमक और पहुंचे।
रानी पद्मावती पर सब्ज़ी मंडी
इलाके की हर जाति के दर्शकों ने तालियां बजाईं, सीटियां बजाई, होली में उन्हें राजा रतन सिंह
के साथ बहुत अंतरंग होते देखा। फिर भी करणी सेना सब्ज़ी मंडी थाने के पुलिसिया
डंडे के डर से चूं तक नहीं बोलने आई। धिक्कार है ऐसे बहादुरों पर।
संजय लीला भंसाली की इस पौने
तीन घंटे की फिल्म में ‘राजपूत’ शब्द हर दूसरे मिनट पर एक बार बोल दिया गया है। आज की तारीख में इससे
मिलता-जुलता शब्द ‘विकास’ है, जो भक्त किस्म के लोग हर सांस के साथ बोलने के आदी हैं।
फिल्म इतनी बुरी नहीं जितनी कुछ
बुद्धिजीवी बता रहे हैं। और इतनी अच्छी तो बिल्कुल ही नहीं कि बार-बार देखी जाए।
भंसाली की इस फिल्म में जहां खिलजी के ग़ुलाम या बेगम मेहरुन्निसा तक को बेहतर
स्पेस मिला है, अमीर खुसरो को बेहद नालायक रोल मिला
है। खिलजी के किरदार में रणबीर सिंह अच्छे तो हैं, मगर
कभी-कभी वो क्रूरता की ओवरएक्टिंग में एक अय्याश जोकर जैसे लगने लगते हैं। जिस ‘पद्मावती’ के लिए पूरी कहानी रची गई, उसने फिल्म में बताया कि रूप या गुण देखने वालों की आंखों में होता
है। तो ‘रानी सा’ के मुताबिक
अपनी नज़र से मैं अगर दीपिका पादुकोण को देखूं तो मुझे कहीं से भी वो इतनी सुंदर
नहीं दिखतीं जिनके लिए अलाउद्दीन खिलजी तीन घंटे तक अंबा सिनेमा में तूफान मचाता
रहे। राजा रतन (शाहिद कपूर) सेन इतने कृशकाय दिखते हैं (यह तेरहवीं सदी का एक शब्द
है, जिसका मतलब ‘ज़ीरो फिगर’ होता है) कि उन्हें देखकर राजपूत खानपान शैली पर सहानुभूति ही ज़्यादा
होती है।
खिलजी के डायलॉग, नाच-गाने की वजह से फिल्म मज़ेदार दिखती है। राजपूत सेनापति
का वो शॉट जिसमें वो गर्दन कटने के बाद भी तलवार भांजता है, रोंगटे
खड़े करने वाला है।मगर जैसे ही हम चित्तौड़ प्रवेश करते हैं, वहां एक छत से राजपूत बहादुर इतनी दूर तक देख लेता है, जितनी दूर से चित्तोड़ आने में खिलजी को सुबह से शाम हो जाए। ऐसे ‘दूरदर्शी’, बहादुर लोगों का इतिहास जौहर वाली
रानियों के साथ ही लिखा गया, इसीलिए बार-बार इस काम के लिए
भंसाली को कोसना ठीक नहीं।
हां, सती प्रथा को जिस तरह से उन्होंने भव्य और ग्लैमर दिया
है, वो इस निर्देशक की नीयत पर संदेह पैदा करता है। नीयत तो
इतनी ख़राब है कि राजपूत (हिंदू) राजकुमार का दूसरी रानी लाना भी अच्छा और खिलजी
(मुसलमान) का एक तंदूरी चिकेन खाना भी बुरा होने की निशानी बना कर रख दिया है।
नीयत इतनी ख़राब कि राजपूताना का कबाड़ा किया एक ब्राह्मण ने और इल्ज़ाम आया एक
मुसलमान (खिलजी) के सर।
क्लाइमैक्स के नाम पर पूरी
बेशर्मी से एक गर्भवती स्त्री, एक नाबालिग़
लड़की को जौहर के लिए जाते दिखाना लगभग अपराध जैसा है। जब तक रतन सिंह खिलजी से
लड़ता रहा, पद्मावती का सती प्रथा पर लंबा लेक्चर ख़त्म ही
नहीं होता।
अपने क्लाइमैक्स में एक कुप्रथा
पर तालियां बजवाकर संजय लीला भंसाली करणी सेना के किसी एजेंट की तरह दिखने लगते
हैं।
(समीक्षा अगर
अनावश्यक रूप से लंबी है, तो इसे भी इस
फिल्म की राजपूती परंपरा का पालन समझा जाए। जय हो अन्नदाता की!)
निखिल आनंद गिरि
(सभी तस्वीरें अंबा सिनेमा की)