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गुरुवार, 4 नवंबर 2010

आदमी नहीं चुटकुले हो गए हैं सब..

हम रोज़ाना चौंकने के लिए खरीदते हैं अखबार,
हम मुस्कुराते हैं एक-दूजे से मिलजुलकर,
पल भर को...
जैसे आदमी नहीं चुटकुले हो गए हैं सब...

सबसे निजी क्षणों को तोड़ने के लिए
हमने बनाई मीठी धुनें,
सबसे हसीन सपनों को उजाड़ दिया,
अलार्म घड़ी की कर्कश आवाज़ों ने...

जिन मुद्दों पर तुरंत लेने थे फैसले,
चाय की चुस्कियों से आगे नहीं बढ़े हम..

शोर में आंखें नहीं बन पाईं सूत्रधार,
नहीं लिखी गईं मौन की कुंठाएं,
नहीं लिखे गए पवित्र प्रेम के गीत,
इतना बतियाए, इतना बतियाए
अपनी प्रेमिकाओं से हम...

उन्हीं पीढ़ियों को देते रहे,
संसार की सबसे भद्दी गालियां,
जिनकी उपज थे हम...
जिन पीढ़ियों ने नहीं भोगा देह का सुख,
किसी कवच की मौजूदगी में...

ज़िंदगी भर की कमाई के बाद भी,
नहीं खरीद सके इतना समय,
कि जा पाते गांव...
बूढ़े होते मां-बाप के लिए,
हम नहीं बन सके पेड़ की छांव...

रात की नींद बेचकर,
हमने ढोया,
मालिकों की तरक्की का बोझ...
हम बनते रहे खच्चर...
एक पल को भी नहीं लगा,
कि हमने जिया हो इंसानों-सा जीवन....

जब तक जिए,
भीतर का रोबोट ज़िंदा रहा...
मर चुका देह की खोल में आदमी..
बहुत-बहुत साल पहले....

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

शोकगीत...

तुम्हारी देह,

पोंछ सकता मेरी आस्तीन से

तो पोंछ देता...


सर्पिल-सी बांहों के स्पर्श में,

दम घुटने लगा है....

सच जैसा कुछ भी सुनने पर

बेचैन हो जाता है भीतर का आदमी....


जानता हूँ,

कि मेरी उपलब्धियों पर खुश दिखने वाला....

मेरे मुड़ते ही रच देगा नई साजिश...

मैं सब जानता हूँ कि,

आईने के उस तरफ़ का शख्स,

मेरा कभी नही हो सकता....


रात के सन्नाटे में,

कुछ बीती हुई साँसों की गर्माहट,

मुझे पिघलाने लगती है....

मेरे होठों पर एक मैली-सी छुअन,

मेरी नसों में एक बोझिल-सा उन्माद,

तैरने लगता है...


तुम, जिसे मैं दुनिया का

इकलौता सच समझता था,

उस एक पल सबसे बड़ा छल लगती हो....


मुझे सबसे घिन्न आती है,

अपने चेहरे से भी.....

धो रहा हूँ अपना चेहरा,

रिस रहे हैं मेरे गुनाह...


चेहरा सूखे तो,

बैठूं कहीं कोने में...

और लिख डालूँ,

अपनी सबसे उदास कविता....


निखिल आनंद गिरि


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शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

लाशों के शहर में...

कभी-कभी लगता है
फट जाएंगी नसें...
सिकुड़ जाएगा शरीर,
खून उतर आएगा आंखों में...

हम पड़े होंगे निढ़ाल,
अपने-अपने कमरों में...
कोई नहीं आएगा रोने,
हमारे लाशों की सड़ांध पर,
अगल-बगल पड़ी होंगी
अनगिनत लाशें....

शहरों के नाम नहीं होंगे तब,
लाशों के शहर होंगे सब
फिर हम बिकेंगे महंगे दामों पर,
हम माने, हमारी लाशें...
नंगे, निढ़ाल  शरीर की
लगेंगी बोलियां...

हमारी चमड़ी से अमेरिका पहनेगा जूते..
हमारी आंखों से दुनिया देखेगा चीन...
किसी प्रयोगशाला में पड़े होंगे अंग
वैज्ञानिक की जिज्ञासा बनकर...
तुम देखना,
कितनी महंगी होगी मौत...
इस ज़िंदगी से कहीं बेहतर...
दो कौड़ी की ज़िंदगी....
तुम्हारे बिन.....

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

तुम नहीं हो तो हर खुशी फीकी...

प्यास इतनी कि ज़िन्दगी फीकी,
तुम नहीं हो तो हर खुशी फीकी..
एक माहताब-ए-हुस्न के आगे,
चाँद की सारी रौशनी फीकी..
चन्द अल्फ़ाज़ ने ही कर डाली,
उम्र भर की ही दोस्ती फीकी..
दर्द की सीढियाँ न खत्म हुईं,
आँसुओं की पड़ी नदी फीकी..
जिस्म रिश्ते के दरमियां आया,
लम्स की ताज़गी हुई फीकी...
शहर की रौनकें न कर डालें,
मां के आँचल की ज्योत ही फीकी....

लम्स-छुअन
निखिल आनन्द गिरि 
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रविवार, 26 सितंबर 2010

रौशनी ने कर दिया था बदगुमां...

आईने  ने जब से ठुकराया मुझे,
हर कोई पुतला नज़र आया मुझे...

रौशनी ने कर दिया था बदगुमां,
शाम तक सूरज ने भरमाया मुझे...

ऊबती सुबहों का सच मालूम था,
रात भर ख्वाबों ने बहलाया मुझे....

मैं बुरा था जब तलक ज़िंदा रहा,
'अच्छा था', ये कहके दफनाया मुझे...

जब शहर के शोर ने पागल किया,
एक भोला गांव याद आया मुझे....

ख्वाब टूटे, एक टुकड़ा चुभ गया,
देर तक नज़्मों ने सहलाया मुझे....

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

ये चांद ऊंघने लगे हैं..

आओ फूट कर रो लें,
ये धुंधला वक्त धो लें,
बहुत ही खुशनुमा-सी सुबह है,
ज़रा-सा ग़मज़दा हो ले

चिकोटी काट लें, छेड़ें किसी को,
बना लें दोस्त फिर से ज़िंदगी को,
किसी अनजान रस्ते पर चलें,
भटकें, गुमशुदा हो लें

बहुत हैं प्यार के शोशे,
वहीं बोरिंग छुअन-बोसे,
जुगलबंदी दो जिस्मों की,
सांसों की गिरह खोलें...

समंदर पी गए कब के,
बुझे शोले कहां लब के,
उलट दें सब नदी-दरिया,
फिर से बुलबुला हो लें...

ये दस्तक, फिर खुशी है !
इधर बस बेबसी है....
बुला लो, दो घड़ी भर
हंसे, बतियाएं, बोलें....

बहुत से रतजगे-हैं,
ये चांद ऊंघने लगे हैं....
ज़रा-सी मौत दे दो,
हम भी नींद सो लें...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 24 जनवरी 2010

फूल-सी लड़की के लिए...

वो बचपन की पहेली,
हम जिसे अब तक नहीं समझे..
तुम्हारा मुंह चिढ़ाती है,
ज़रा तुम भी चिढ़ाओ ना..
उठो, जल्दी से आओ ना...

वो एक तस्वीर अलबम की,
जिसमें मैं खड़ा आधा-अधूरा सा,
तुम्हें फुर्सत नहीं अपनी शरारत से...
तुम्हें तस्वीर का हिस्सा बनाने में,
मैं खींचता तो हूं...
मगर तस्वीर थोड़ा और पहले
खिंच ही जाती है....
मैं फिर खड़ा हूं,
सब खड़े हैं, हंसते चेहरे...
तुम कहां हो....
हथेली को बढ़ाओ ना...
उठो जल्दी से आओ ना...

मैं कितनी देर तक हंसता रहा था...
गुलाबी फ्रॉक वाली एक लड़की
लाल घूंघट में...
शरम से लाल होकर छिप रही थी..
मुस्कुराती थी....
...............

अचानक...
कौन था...जिसने की चोरी
सांसों की गठरी..
मैं कुछ क्यों कर नहीं पाया....
अचानक..
चार कंधों पर....
ये लंबी नींद की चादर.....
मैं कुछ क्यों कर नहीं पाया....

अभी गहरी उदासी में...
तुम्हें तो मुस्कुराना था...
अभी तो उम्र की कई सीढ़ियों के
पार जाना था...

मैं रोना चाहता हूं,
उस नए मेहमान की खातिर,
जिसे भरनी थी किलकारी
सभी की गोदियां चढ़कर...
खिलौने, दूध की बोतल
पटक कर तोड़ देनी थीं...
सुनाए कौन अब वो तोतली बोली,
दिल कैसे बहल जाए, बताओ ना...
उठो जल्दी से आओ ना...

अभी तो इक महकती
फूल-सी लड़की को
सारी रात जगकर...
मेरी आंखों में तकना था....
हंसना था, महकना था..
ज़िद तारों की करनी थी...
मेरे कंधे पे चढ़कर
चांद की ठुड्डी पकड़नी थी...
......................
मैं अब भी बंद आंखों से,
तुम्हारी राह तकता हूं...
मैं सोया हूं बहाने से....
ज़रा चुपके, सिरहाने से....
मेरा तकिया हिलाओ ना....
मैं सोया हूं, जगाओ ना...
मेरी छोटी बहन पूजा,
मेरी अच्छी बहन पूजा,
उठो जल्दी से आओ ना...
...................................

निखिल आनंद गिरि

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