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गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

एक 'लुल' दर्शक का मज़ाक उड़ाती एलियन आत्मकथा उर्फ 'पीके'

फिल्म के बारे में मेरी राय जानने से पहले इस बात के लिए दाद देनी चाहिए कि समस्तीपुर जैसे शहर में अपने घरवालों को बताकर’ सिनेमा ह़ॉल गया। इससे बड़ी दाद इस बात के लिए कि शहर के तीन बड़े सिनेमाघरों में से सिर्फ एक में ही ‘पीके’  लगी थी और वहां लगभग पांच किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ा। फिल्म के पोस्टर पर कहीं भी शो का समय नहीं लिखा था मगर भला हो सुरेश जी पानवाले का जो मेरे बगल की सीट पर थे और  बिना पूछे ही बता दिया कि मैं जो पांच मिनट लेट पहुंचा हूं, उसमें ‘कोई मिल गया’ टाइप कोई जादू धरती पर उतरा है। मैं समस्तीपुर के अनुरूप टॉकीज के मालिक से अनुरोध करता हूं कि शो की टाइमिंग भी पोस्टर पर ज़रूर दिया करें कि मुझ-सा कोई एलियन भी आपके हॉल में बिना किसी पूर्व सूचना के टपक सकता है। अब बात पीके की..
एलियन कथाएं अचानक से ही बॉलीवुड की फेवरेट रेसिपी बन गई हैं, मगर आमिर खान भी इसमें कूद पड़ेंगे, उम्मीद नहीं थी। आप आमिर खान को ‘मिस्टर परफेक्शनिस्ट’ होने के लिए बेशक भारत रत्न’  दे डालिए मगर सच कहूं तो वो कहीं से इस रोल में जंचते नहीं हैं। अच्छा तो ये होता कि रणबीर कपूर ही शुरू में ‘जादू’ की गाड़ी से उतरते और अनु्ष्का से प्यार कर डालते मगर आमिर खान पता नहीं कैसे इस चक्कर में पड़ गए। जैसे संजय दत्त काम भर आए और चले गए। ‘सत्यमेव जयते’    के हैंगओवर से आमिर जितनी जल्दी बाहर आ जाते ठीक था। पूरी फिल्म देखकर यही लगा कि वो सत्यमेव जयते का ही कोई अगला एपिसोड कर रहे हों जिसमें नाटक थोड़ा ज़्यादा था और तथ्य बिलकुल कम। इतने लंबे प्रवचननुमा डायलॉग कि सुरेश जी पानवाले मेरे लिए बाहर से एक मीठा पान बनाकर ले आए और फिल्म वहीं की वहीं रही।
विश्व सिनेमा की एक बड़ी फिल्म है ‘BICYCLE THIEF’. इसमें नायक की साइकिल चोरी हो जाती है और पूरी फिल्म इस खोने की त्रासदी को लेकर ऐसी बनी कि मास्टरपीस बन गई। मगर इधर हिरानी एंड कंपनी को इतनी हड़बड़ी थी कि प्रेरणा लेने के लिए वो मास्टरपीस की तरफ न जाकर नाग-नागिन कथाओं की तरफ चले गए। एक एलियन किसी अनजान गोले (ग्रह) से उतरता है और उसका भी रिमोटकंट्रोल कही खो जाता है। इसके बाद की जो कॉमिक ट्रैजडी हम देखते हैं, वो पीके है। पागलों या बेवकूफों जैसी हरकतें और कान-मुंह लंबे करके एलियन बन जाना होता तो कपिल शर्मा से लेकर हनी सिंह सब एलियन होते। दिल्ली, भोजपुर या दुनिया का कोई ऐसा इलाका मुझे नहीं मिला जहां किसी बेवकूफ को झुंझलाकर पीकेकहते हों। कम से कम दर्शक तो एलियन नहीं है, बेवकूफ तो बिल्कुल नहीं। एक एलियन आपका हाथ पकड़ेगा तो आपकी भाषा उसके मेमरी कार्ड’  में उतर जाएगी, जैसे हिंदी सिनेमा का नाग आपकी आंखों में देखकर नागिन के कातिल का आधार कार्ड देख लेता था। ये हमारे समय के सिनेमा की Sci-fi  फिल्म है और आमिर खान जैसे महान अभिनेता उसके नायक हैं!  और एलियन ने भाषा भी सीखी तो क्या, मुंबई मिक्स भोजपुरी जिसका दूर-दूर तक बिहार या भोजपुरी की माटी से कोई संबंध नहीं। इतनी बुरी रिसर्च कि एक अंग्रेज़ी शब्द WASTE को बिगाड़कर भेस्ट’ कर दिया और पूरा गाना फिल्मा दिया। हमारे यहां V को ‘भ’ (जैसे ‘VIRUS’ को भायरस या FACEBOOK TRAVELS को ट्रैभल्स) चलता है मगर W को ज़्यादा से ज़्यादा ‘बकिया जा सकता था। कहां-कहां तक इस एलियन कॉमेडी पर हंसा जाए। पीके एक ऐसी कॉमेडी फिल्म (आमिर इसे सीरियस फिल्म कहें तो अलग बात) है जिसे देखने के बाद ही हंसी आती है। भोजपुरी इलाके का इतना भद्दा मज़ाक कि जिस सेक्स वर्कर से बिस्तर पर ये एलियन उसकी भाषा सीखता है उसे सुबह ‘सिस्टर’ कहता है। हमारे यहां प्रेम करने का कॉमन सेंस तो होता ही है सर।
दरअसल, मीडिया, न्यूज़ चैनल, एनजीओ, फेसबुक स्टेटस और आमिर खान टाइप समाज सुधारकों ने देश का भला करने के नाम पर इतना प्रवचन पहले ही दे दिया है कि इस पर कोई ओवरडोज़ प्रवचन करती फिल्म किसी मंचीय कविता जैसी लगती है। इस तरह की फिल्मों से जितना हो सके बचा जना चाहिए। कम से कम भगवान पर भरोसा करने वालों का मज़ाक उड़ाती ओ माई गॉडइस पीके से बेहतर इस मायने में थी कि फिल्म ईश्वर-अल्लाह से होते हुए भारत-पाकिस्तान की लव स्टोरी बनकर ख़त्म नहीं होती। ख़ुद भगवान पर इतना भरोसा करने वाली यह फिल्म दरअसल बाबाओं और मंदिरो-मस्जिदों से उनकी फैंचाइज़ी छीनकर ख़ुद हथियाना चाहती है।
जब कोई फिल्म तीन घंटे में ही सब कुछ पा लेना चाहती है तो या तो डायरेक्टर दर्शक को ‘लुल’ (पीके से उधार लिया शब्द) समझता है या फिर वो अपने हैंगओवर से बाहर नहीं आ सकने की बीमारी से ग्रस्त है। इस उपदेशात्मक फिल्म को अगर बच्चों की फिल्म कहकर प्रोमोट किया जाता तो ‘तारे ज़मीन पर’ के दीवाने बच्चे ज़रूर हॉल तक आ जाते मगर आपको तो राजस्थान के बीहड़ से लेकर दिल्ली की सड़कों तक डांसिंग कार (कार के भीतर लगे प्रेमी जोड़े) भी दिखानी है और इसे एक एडल्ट कॉमेडी बना देनी है। एलियन को सिर्फ उन्हीं कारों से कपड़े चुराने हैं। जिस मीडिया की गोद में बैठकर ज़रिए ये एलियन इन बाबाओं की खटिया खड़ी कर देता है, उस मीडिया पर भी सवाल उठाए होते तो मैं दोबारा पांच किलोमीटर चलकर आमिर खान साहब को देखने आता। चैनलों से पूछा जाता कि इन आसाराम-रामपाल-राम-रहीम बाबाओं का बिज़नेस आखिर जमाया किसने है। किसी सियावर रामचंद्र ने आशीर्वाद दिया है या ‘बाज़ार देवता की एजेंट मीडिया ने ही। मगर नहीं, पीके उर्फ आमिर खान को तो तीन घंटे में अपनी इमेज बनानी है, इंटरवल में स्वच्छता अभियान का एक विज्ञापन भी करना है और दर्शकों को ‘लुल बनाना है।
फिल्म के कुछ हिस्से बेहद अच्छे हैं मगर फिल्म कोई नींबू तो है नहीं कि निचोड़ कर रस निकाल लें और तरोताज़ा हो जाएं।  जहां मर्ज़ी गाना लगा दीजिए, कहीं बम ब्लास्ट करा दीजिए तो पब्लिक तो कनफ्यूजियाएगी ना कि हंसना किस पर है और सीरियस कहां होना है। हमारे हॉल में तो बम ब्लास्ट पर लोग हसते थे और हंसने वाली जगहों पर शांत रहते थे। दिल्ली पुलिस को इस फिल्म पर पांच सौ रुपये की मानहानि का केस ठोंक देना चाहिए। वो बिकती है मगर 2014 की किसी फिल्म की कहानी में इतने सस्ते में!!  छी.. अगर किसी दूसरे ग्रह से कोई एलियन इस लेख को पढ़ रहा हो तो उसे पीके की पूरी टीम पर मानहानि का केस कर देना चाहिए। वहां लोगों को पहनने के लिए आज भी कपड़े नहीं हैं मगर डिप्रेशन दूर भगाने के लिए लोग बॉलीवुड के ही स्टेप्स फॉलो करते हैं! देखिए न, फिल्म तब देखी और हंसी अब आ रही है। सारे कपड़े उतारने का मन कर रहा है। मैं कहीं एलियन न हो जाऊं।

नोट  जब फिल्म के क्लाइमैक्स में कोई ‘जग्गू साहनीअपनी कहानी सुनाए और बगल से कोई दर्शक पूछे- ‘ई साहनी कौन जात भेल’ (ये साहनी कौन-सी जात हुई) तो समझ लीजिए बिहार में फिल्म देखना् सफल हो गया। 

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 7 जुलाई 2013

हिंदी सिनेमा के उम्मीदों की आखिरी पत्ती है 'लूटेरा'

लूटेराअगर कनॉट प्लेस के रीवोली या राजौरी गार्डेन के मूवीटाइम में देखी होती तो सीधा फिल्म के बारे में बात करता। मगर फिल्म देखी समस्तीपुर के भोला टॉकीज में, तो थोड़ी-सी बात फिल्म देखने के माहौल पर भी। कई साल बाद किसी छोटे शहर में फिल्म देखी। सिंगल स्क्रीन थियेटर में। दिल्ली में टिकट के दाम से दस गुना सस्ता। कोई एडवांस बुकिंग, नेट बुकिंग, प्रिंट आउट या एसएमएस बुकिंग नहीं। सीधा काउंटर पर जाइए और टूटी-फूटी मैथिली में बात करते ही रसीद वाला टिकट हाथ में। कोई थैंक्यू या हैव ए गुड डे का चक्कर भी नहीं। बस ऐसे सिनेमाघरों में दिक्कत ये है कि आपको हर डायलॉग कान लगाकर सुनना पड़ेगा वरना आप डायलॉग और संगीत के मामले में आधी फिल्म देखकर ही घर वापस जाएंगे।

मैं व्याकरण का विद्यार्थी नहीं, मगर मेरे ज्ञान के हिसाब से छोटी वाला लुटेरा हिंदी का शब्द लगता है। फिल्म के टाइटल में दिख रहा लूटेरा अंग्रेज़ी के लूट में राको सीधा चिपकाया गया लगता है। शायद अंग्रेज़ी पढ़ने वाले दर्शकों को इस लूटमें ज़्यादा अपनापन लगता हो। हालांकि, इस तरह के टाइटल सिंगल स्क्रीन दर्शकों को ज़्यादा भाते रहे हैं। लुटेरा, डाकू हसीना, बंदूक की कसम, चोर-पुलिस टाइप फिल्में बी ग्रेड हिंदी सिनेमा से होती हुईं आए दिन भोजपुरी में बनती हैं। और उनमें जो-जो कर्म होते हैं, शायद वही सब देखने की उम्मीद लिए यहां के दर्शक इस बार भी लुटेरा के लिए जुटे होंगे। मगर, निर्देशक विक्रमादित्य मोटवानी कोई कांति शाह तो हैं नहीं कि टाइटल लुटेरा रखें तो उसमें इज़्जत लूटने का सीन भी रखना लाजमी हो। सोनाक्षी सिन्हा को फिल्म में लेना उनकी मार्केटिंग मजबूरी हो सकती है मगर उनसे सन ऑफ सरदार या राउडी राठौर से हटकर भी बहुत कुछ करवाया जा सकता है।

समस्तीपुर के भोला टॉकीज पर दर्शकों की फ्रीक्वेंसी के हिसाब से लूटेरा एक महा फ्लॉप फिल्म है। रिलीज़ के दूसरे दिन तीस रुपये की टिकट खरीदकर फिल्म देखने वाले तीस लोग भी नहीं थे। टिकट लेने से पहले भोला टॉकीज़ में 17-18 साल से प्रोजेक्टर चला रहे वाले शशि कुमार से दोस्ती हुई। उन्होंने बताया कि इस फिल्म के नाम और सोनाक्षी की वजह से ही फिल्म लगाने का रिस्क लिया गया, वरना भोजपुरी फिल्मों के अलावा यहां आशिकी 2 ही है जो हाल में अच्छा बिजनेस कर सकी थी। उन्होंने लगभग चेतावनी भी दी कि रिलीज़ के बाद हर शो में हॉल एकाध घंटे में ही खाली हो गया है, इसीलिए टिकट सोच-समझकर कटाइए(खरीदिए)।

ख़ैर, हॉल में कम लोगों का होना हम जैसों के लिए अच्छा ही है। कम सीटियों-तालियों और गालियों के बीच ज़्यादा आराम से फिल्म देखी जा सकती है। वरना सोनाक्षी और रनबीर जब प्यार के सबसे महीन पलों में एक-दूसरे के करीब आ रहे थे और रनबीर ने आखिर तक खामोश रहकर कुछ नहीं किया, तो ऑडिएंस में से कमेंट सुनने को मिला कि साला सकले से (शक्ल से ही) बकलोल लग रहा है। या फिर फिल्म के क्लाइमैक्स में जब रनबीर जबरदस्ती सोनाक्षी को बचाने के लिए इंजेक्शन लगाना चाहते हैं और गुत्थमगुत्था होते हैं तो कमेंट सुनने को मिलता है कि एतना (इतनी) देर में तो भैंसी (भैंस) भी सूई लगा लेती है

तो मिस्टर विक्रमादित्य मोटवानी, आप जब कैमरे के ज़रिए प्यार की सबसे शानदार पेंटिंग गढ रहे होते हैं, दिल्ली-मुंबई से बहुत दूर दर्शक कुर्सियां छोड़-छोड़ कर जा रहे होते हैं या फिर आपको जी भर कर कोस रहे होते हैं। पहले उड़ान और अब लूटेरा से आप सिनेमा को नई क्लासिक ऊंचाइयों पर ले जाने को सीरियस दिखते हैं और इधर पब्लिक है जो आशिकी 2 को दोबारा-तिबारा देखना चाहती है। इस हिम्मत के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई। हम जैसे दर्शक हमेशा आपके साथ हैं।

स्कूल के दिनों में द लास्ट लीफ पढ़ी थी। कभी सोचा नहीं था कि हिंदी सिनेमा में उसे पर्दे पर भी उतरता हुआ देखूंगा। वो भी इतनी ख़ूबसूरती से। एक ही फिल्म में ओ हेनरी की कहानी से लेकर बाबा नागार्जुन तक की कविता सुनने को मिलेगी। मगर, प्रयोग के नाम पर इतना ही बहुत था। पीरियड फिल्मों में ग्रामोफोन ही अच्छे लगते हैं, सोनाक्षी बिल्कुन नहीं। ठीक है कि आपने उनसे एक्टिंग कराने की पूरी कोशिश की है, मगर इंडस्ट्री में अच्छे कलाकारों की कमी तो है नहीं। फिर रनबीर के साथ उनकी जोडी कम से कम मुझे तो नहीं जंची। सोनाक्षी को क्लोज़ अप से बाहर देखिए तो रनबीर से ओवर एज लगती हैं। सोनाक्षी एक ज़मींदार की अल्हड़ बेटी से ज़्यादा कोई सेडक्टिव ठकुराईन लगती हैं। और रनबीर भी गंभीर दिखने के नाम पर भीतरघुन्ना टाइप एक्टर लगते हैं। 50 के दशक वाली बॉडी लैंग्वेज उनमें चाहकर भी नहीं आ पाती। अच्छी एक्टिंग का मतलब जबरदस्ती की चुप्पी तो नहीं होती। हालांकि, दोनों ने उम्मीद से ज़्यादा अच्छा काम किया है, मगर ये और अच्छा हो सकता था। आप साहित्य को सिनेमा पर उतार रहे थे तो मार्केट मैकेनिज़्म बीच में कहां से आ गया। ये तो हिंदी साहित्य का हाल हो गया कि आप कोई मास्टरपीस लिखना चाह रहे हों और अचानक किसी ऐसे पब्लिशर की तलाश करने लगें जो आपकी गोवा या स्विट्ज़रलैंड की ट्रिप स्पांसर कर दे क्योंकि वहां का मौसम अच्छा लिखने में मदद करता है।

कहानी के नाम पर इस फिल्म की जड़ें भी सदियों पुरानी है। वही प्रेम कहानी, वही मिलना-बिछुड़ना, वादा तोडना-निभाना। मगर कैमरा इतनी खूबसूरती से कहानी कहता है कि आप उसमें ख़ुद को महसूस करने लगते हैं। लोकेशन्स देखकर कई जगह तो आपको लगेगा कि आप कोई ख़ूबसूरत-सी ईरानी मूवी देख रहे हैं। या फिर स्क्रीन प्ले और डीटेलिंग देखकर कभी-कभी बंगाली सिनेमा का महान दौर भी आंखों में तैरने लगता है। इंटरवल के आसपास तक की फिल्म एक अलग टाइम और स्पेस में चलती है। उसके बाद आपको लगेगा आप किसी और फिल्म में आ गए हैं। ये एक हुनरमंद डायरेक्टर की पहचान है। हालांकि, जब नैरेटिव इतना धीमा और पोएटिक ही रखना था तो अचानक मुझसे प्यार करते हैं वरुण बाबू जैसे डायलॉग्स बहुत सपाट और फिल्मी लगते हैं। और ये भी समझना मुश्किल है कि अरबों की मिल्कियत संभालने वाले जमींदार पिता हिंदी सिनेमा में अक्सर इतने भोले क्यों होते हैं कि उन्हें अपने घर में ही पनप रही प्रेम कहानियों की भनक तक नहीं लग पाती।

लूटेरा एक तरह से प्यार को नए ढंग से परिभाषित करती है। इस तरह के अलहदा प्यार को देखने-समझने-जीने के लिए फिल्म ज़रूर देखें। वक्त के सांचे में ढलकर भी सच्चा प्यार ख़त्म नहीं होता। और प्यार किसी लुटेरे के दिल में भी हो तो प्यार ही रहता है। फिल्म एक खलनायक के प्यार को जस्टीफाई करती है। खलनायक ऐसा नहीं जिससे आप नफरत करें। आप उसके पक्ष में खड़े होते हैं। और प्रेमिका भी खलनायक के धोखे के खिलाफ है, मगर आखिर तक प्यार के साथ खड़ी रहती है। एक छोर से नफरत की डोर थामे। हम भारतीय सिनेमा में क्लाइमैक्स पूरा देखने के आदी हैं। इससे विक्रमादित्य भी बच नहीं सके हैं। बेहतर होता कि सूखे पेड़ पर वरुण के आखिरी पत्ती लगाने के साथ ही क्रेडिट्स शुरू हो जाते। बेहतर होता कि सब कुछ अधूरा रह जाता। वरुण को अपना प्यार साबित करने का मौका आधा ही मिलता। प्यार में कसक बाक़ी न रह जाए तो तसल्ली अधूरी रहती है। कहानी वही अच्छी जिसके दौरान साइलेंस (मौन) और बाद में रेज़ोनेंस (प्रतिध्वनियां) बाक़ी रहे।   

फिल्म का निर्देशन इतना बेहतरीन है कि फिल्म स्कूलों में इसे टेक्स्ट की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। कहानी में कैरेक्टर बढ़ाने का स्कोप ही नहीं था, फिर भी दो-सवा दो घंटे की फिल्म में बांधे रख पाना बडा काम है। म्यूज़िक से लेकर गाने और साइलेंस तक का इतनी बारीकी से इस्तेमाल हुआ है कि आप जमे रहते हैं। 50 के दौर को जिंदा करने के लिए तब की सुपरहिट फिल्म बाज़ी के गाने का बार-बार इस्तेमाल सदाबहार देव आनंद को श्रद्धांजलि जैसा है। विक्रमादित्य इस दौर के बेहतरीन निर्देशक साबित हो चुके हैं। बस ज़रूरत है उन्हें अपने सिनेमा के जरिए कुछ नए सब्जेक्ट पर काम करने की, जिसमें सिर्फ प्रेम कहानी नहीं हो।


लूटेरा कई हिस्सों में उड़ान से भी बेहतर है, मगर उड़ान नहीं है। आपकी मास्टरपीस तो वही है।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

नो 'हिंदी-विंदी', सिर्फ 'इंग्लिश-विंग्लिश'...

अगर विदेशी लोकेशन पर शूट करना हिंदी सिनेमा के निर्देशकों के लिए मुनाफा कमाने की मजबूरी है, तब तो ठीक है, वरना 'इंग्लिश-विंग्लिश' जैसी कहानी हिंदुस्तान के किसी भी शहर में शूट की जा सकती थी। शशि (श्रीदेवी) को अपने घर में सिर्फ इसीलिए इज़्ज़त नहीं मिलती क्योंकि उसकी हिंदी अंग्रेज़ी से ज़्यादा अच्छी है। लेकिन, अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ रहे उसके बच्चों के लिए उनकी मम्मी का अच्छी हिंदी जानना (और अंग्रेज़ी नहीं जानना) लड्डू बनाने के काम जैसा मामूली और बेकार है।
स्कूल जाती बेटी मां को बार-बार ताने देकर एहसास दिलाती रहती है कि इस सदी में अंग्रेज़ी न जानना आपको तरक्की के सूचकांक में कितने साल पीछे कर देता है।

इस फिल्म में शुरु के कई हिस्से  अच्छे तो हैं, मगर फिल्म जिस उम्मीद से देखने गया था, वहां खरी नहीं उतरी। मुझे लगा था कि बढ़िया कहानी चुनने के बाद  निर्देशिका गौरी शिंदे इसकी कहानी को भाषा के मोर्चे पर आगे ले जाएंगी। हिंदी और दूसरी देसी भाषाओं को हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी के बराबर खड़ा करने की फिल्मी कोशिश की जाएगी। वो उद्दंड बेटी जो 'तुम पढ़ाओगी मुझे 'इंग्लिश लिटरेचर'! कहकर अपनी मां को बार-बार तार-तार कर देती है, आखिर-आखिर तक अपने अंग्रेज़ी घमंड और बड़बोलेपन के लिए मां से माफी मांगेगी, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। हिंदुस्तान के कई इलाकों में अंग्रेज़ी की दहशत (और श्रद्धा) में जी रहे करोड़ों हिंदी लोगों की कहानी न कहते हुए गौरी इस कहानी को सीधा अमरीका उड़ा ले गईं। फिर, अमरीका में अंग्रेज़ी सिखाने वाले एक कोचिंग सेंटर में नायिका को भर्ती करा दिया और फिल्म को ग्लोबल टच दे दिया। फिल्म हल्का-हल्का इमोशनल टच देती हुई निकल गई। एक हाउसवाइफ की कहानी बनकर रह गई जो आखिर-आखिर तक अंग्रेज़ी बोलना सीख ही जाती है और अपने घर में सम्मान पा जाती है। स्मार्ट मॉम के लिए तालियां...

मगर, हिंदी का क्या हुआ। सिर्फ टूल के तौर पर फिल्म में इसका इस्तेमाल हुआ। स्थापित तो अंग्रेज़ी ही हुई ना। और सिर्फ हिंदी ही नहीं। फ्रेंच, उर्दू जैसी दुनिया भर की तमाम ज़रूरी भाषाएं हांफती-दौड़ती,  फीस भरकर अंग्रेज़ी सीखती दिखीं। कुल मिलाकर फिल्म अंग्रेज़ी का प्रचार करती ही दिखी। किसी और भाषा को सम्मान देने के बजाय बाज़ार की उसी भाषा को सम्मान देती दिखी, जिसके आगे दुनिया भर की कई भाषाओं की बड़ी से बड़ी प्रतिभाएं पानी भरती दिखती हैं। हिंदी के दिग्गजों का तो हाल ही मत पूछिए। वो दिल्ली में हिंदी की खाते हैं और न्यूयॉर्क में हिंदी सम्मेलन के नाम पर ऐतिहासिक सेमिनार और फूहड़ बहसें करते हैं। ये फिल्म भी उसी बहस का एक विस्तार जैसा लगी। बस, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का ब्रिटेन में दिया वो असल बयान भी फिल्म में जोड़ देते जिनमें वो बहुत कृतज्ञ थे कि अंग्रेज़ों ने हमें इतनी महान भाषा सिखाई।

ऐसी फिल्में प्रोपैगेंडा फिल्मों की तरह लगती हैं। जैसे सिनेमा की शुरुआत में अमरीकी नस्लवाद पर मुहर लगाती फिल्में बनती थीं या फिर बाद में हिटलर और नाज़ी वैभव का प्रचार करती फिल्में। एक ख़ास सोच से निकली हुई निर्देशक के पास फिल्म बनाने को बजट तो था मगर कहानी का कैनवस बड़ा करने का साहस नहीं था। वरना, वो देश भर के अंग्रेज़ी सिखाने वाले कोचिंग संस्थानों का एक मोंटाज ज़रूर दिखातीं जो 100 रुपये में भी अंग्रेज़ी सिखा देने का दावा करते हैं, फरेब करते हैं। वो मेरे तेलुगु दोस्त प्रदीप या तमिल दोस्त राजगोपाल सुब्रह्मण्यम का वो दर्द भी दिखाती कि कैसे उनका अंग्रेज़ी ज्ञान भी हिंदी की दबंगई के आगे काम नहीं आता। जब वो रोज़ डीटीसी की बसों में हिंदी गालियां बकते कंडक्टरों से परेशान होते हैं और मुझे अफसोस होता है कि कम से कम देश की राजधानी में इन तमाम बसों, रास्तों और दफ्तरों के तमाम साइन बोर्ड्स संविधान में दर्ज सभी भाषाओं में क्यों नहीं हो सकते। वो हमारी मौक़ापरस्ती भी दिखातीं कि कैसे हिंदी के तमाम न्यूज़ चैनल, हिंदी सिनेमा के तमाम नायक, निर्देशक, हिंदी समाज के तमाम नेता, बुद्धिजीवी और तीसमारखां अंग्रेज़ी में बात करने पर कितना गर्व महसूस करते हैं। मुझे उदय प्रकाश की कविता 'एक भाषा हुआ करती है '  अचानक याद आ रही है -

दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर, सबसे गरीब और
सबसे खूंखार सबसे काहिल और सबसे थके-लुटे लोगों की भाषा
अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़ या एक अरब भुक्खड़ों, नंगों और गरीब-लफंगों की जनसंख्या की भाषा
वह भाषा जिसे वक्त-जरूरत तस्कर, हत्यारे, नेता,
दलाल, अफसर, भंडुए, रंडियाँ और जुनूनी
नौजवान भी बोला करते हैं
वह भाषा जिसमें
लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है

बहरहाल, 'इंग्लिश-विंग्लिश' एक ठीकठाक फिल्म है। श्रीदेवी की वापसी है, मगर वो हवाहवाई नहीं हैं।
वो शशि हैं। हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी से ग्रस्त एक परिवार के बीच से बचकर अमरीका में वक्त गुज़ारने पहुंची एक एलीट हिंदी हाउसवाइफ। शशि अमरीका के किसी पार्क में बेंच पर बैठकर देखती हैं कि कैसे दोनों हाथों और मुंह से नोचकर बर्गर खाए जाते हैं। वो ये भी महसूस करती है कि उसका पति सिर्फ उसे 'हग' करने में हिचकिचाता है और बाक़ी सबसे अपनापन जताने के लिए शिद्दत से गले मिलता है।  हिस्सों में फिल्म अच्छी है, मगर फिल्म की टार्गेट ऑडिएंस शायद कोई और है। बाज़ार होती दुनिया में कमज़ोर अंग्रेज़ी की कुंठा के मारे शर्मिंदगी झेल रही हिंदुस्तानी ऑडिएंस तक ये फिल्म पहुंच भी पाएगी या नहीं, कहना मुश्किल है।

दिल्ली मेट्रो का एक वाकया याद आ रहा है। ट्रेन के भीतर एक बच्ची उछल-उछल कर मेट्रो के स्टेशनों के नाम पढ़ रही थी और अपनी मां को खुशी से सुना रही थी। मां खुश हो रही थी, मगर जैसे ही उसने देखा कि बेटी अंग्रेज़ी में नहीं, बल्कि हिंदी में लिखे नामों को पढ़ने की कोशिश पर खुश हो रही है, वो ज़ोर से हंसने लगी और बच्ची के पिता को बोली - 'हिंदी में पढ़ रही है, घंटे भर में  तो पढ़ ही लेगी।' मुझे लगता है, 'इंग्लिश-विंग्लिश' उस बच्ची की मां को भी दिखाई जानी चाहिए। दुनिया भर के उन तमाम स्कूलों को भी जहां मातृभाषाएं ज़बरदस्ती छुड़वाई जाती हैं। अंग्रेज़ी नहीं बोलने पर एक रुपये का जुर्माना लगाने की धमकियां दी जाती हैं।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

पान की पीक से पॉपकॉर्न तक...सिनेमा ही सिनेमा

फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर सिर्फ जहाज में ही नहीं जाते...
मेरा बचपन बिहार (और झारखण्ड) के अलग-अलग कस्बों में बीता। पिताजी पुलिस अधिकारी रहे हैं तो अलग-अलग थानों में तबादले होते रहे और हम उनके साथ घूमते रहे। इन्हीं में से किसी इलाके में पहली फिल्म देखी होगी, मगर मुझे ठीक से याद नहीं। हाँ, फिल्म देखने जाने के कई खट्टे-मीठे अनुभव याद हैं, जिन्हें बताना पहला अनुभव जानने से कम ज़रूरी नहीं। क्योंकि सिनेमा के सौ साल का सफर उन्हीं सिनेमाघरों में हम और आप जैसे तमाम दर्शकों के होते हुए गुज़रा है।


मैं शायद छह या सात साल का रहा होऊंगा जब पिताजी के किसी 'इलाके' में 'सूरज' फिल्म लगी थी। हमारे परिवार के लिए फिल्म देखने का मतलब ये होता था कि टिकट पिताजी से लें। मतलब, एक सादी पर्ची (पान के साथ चूना दिये जाने जैसी) पर पिता जी कुछ लिख भर देते थे और हम आराम से हॉल में जाते और हॉल का मैनेजर पर्ची देखते ही पूरे 'सम्मान' से सीट देकर हमें फिल्म देखने देता। मैं तब न तो फिल्म समझता था, न फिल्म देखने के लिए फिल्म देखने जाता था। घर में सबसे छोटा था, तो जो सब करते वही करना ही होता था। ऐसे ही पर्चियों वाली हमने कई फिल्में देखीं। गाइड, मर्दों वाली बात, गंगा-जमुना, गंगा किनारे मोरा गाँव और फिर बाद में मोहरा तक। ये सब वैसे ही पर्ची लिखा-लिखा कर सीधा हॉल में प्रवेश करने वाली फिल्में थीं। हमारी तरफ भोजपुरी फिल्में ख़ूब लगती थीं, और उन फिल्मों के बारे में जानने के लिए हमें किसी ब्लॉग, रिसर्च पेपर या समीक्षा नहीं देखनी पड़ती थी। गाँव भर की बुआ, चाची, दीदी को हर फिल्म में नाम के साथ सब कुछ याद रहता था। भोजपुरी स्टार कुणाल सिंह हमारे बचपन के महानायक थे। वो जितेंद्र से मिलते-जुलते लगते थे तो मुझे जितेंद्र की फिल्में भी अच्छी लगती थीं। लखीसराय का अनुभव सबसे यादगार था, जहाँ एक बार पिक्चर शुरू हो गई और हम बाहर से एक बेंच लाए और फिर पिक्चर देखने बैठे।

तब हमारे घर टीवी नहीं हुआ करता था। रविवार को चार बजे शाम में फिल्म आती थी और हम देखने के लिए पड़ोस में जाते थे। ऐसे देखी गई पहली फिल्मों में से थी 'एक चादर मैली सी', 'एक दिन अचानक' और 'पार्टी'। आप समझ सकते हैं कि 'गंगा किनारे मोरा गाँव' तक से 'पार्टी' तक एक ही बचपन में देखने से सिनेमा कितनी गहराई से भीतर घुस रहा था।

जब राँची में स्कूल के दोस्तों के साथ पहली बार टिकट के पैसे चुकाकर फिल्म देखनी पड़ी तो लगा जैसे कोई गुनाह कर रहे हैं। तब तक 'पुलिसिया पहचान के नाम पर फिल्म देखना बुरा है', समझ आने लगा था। तब शायद पहली देखी फिल्म 'गॉडजिला' थी। बाद में एनाकान्डा, मोहब्बतें, गदर वगैरह-वगैरह। फिर जमशेदपुर गए तो वहाँ बैचलर लाइफ शुरु हुई। एक दोस्त ने पहली बार सुबह वाला 'शो' दिखाया। फिर तो सिनेमा आदत बन गया। हर नई रिलीज़ देखना ही देखना था। जमशेदपुर के बसन्त टॉकीज़ (जो अब नहीं रहा) में पाँच रुपये और ग्यारह रुपये के टिकट हुआ करते थे। पाँच रुपये की टिकट के हिसाब से साल में सौ शो देखने के भी लगभग पाँच सौ रुपये ही खर्च होते थे। इसीलिए सभी 'तरह' की फिल्में अफॉर्ड हो जाती थीं। कला के लिए जागरुक शहर जमशेदपुर में फिल्म महोत्सवों का चस्का लगा, जो अब तक कायम है।

फिर, दिल्ली आए तो पहली फिल्म देखी 'ओंकारा'। जामिया से नेहरु प्लेस तक पैदल चलकर तीस रुपये की टिकट पर। फिर एक महिला-मित्र के साथ मॉल गए, कोई फालतू सी फिल्म देखने। इतना महँगा पड़ा कि साथ देखने से जी भर गया। जमशेदपुर और बचपन बहुत याद आया। फिर देखा कि उन्हीं फिल्मों के 12 बजे से पहले वाले शो सस्ते होते हैं। तो आज तक दिल्ली में सुबह जल्दी उठने का सिर्फ यही मकसद होता है। कभी-कभी जान-बूझ कर देर से उठता हूँ, जब किसी ख़ास के साथ पिक्चर हॉल जाना हो और पॉपकॉर्न खाते हुए पिक्चर देखनी हो।

(ये लेख रेडियोप्लेबैक इंडिया वेब पोर्टल के लिए लिखा गया था..वहां जाकर भी पढ़ सकते हैं..इस पोस्ट के साथ लगाई गई दो तस्वीरें मेरे कैमरे से ली गई हैं..)

गुरुवार, 29 मार्च 2012

'माय नेम इज़ खान...और मैं हीरो जैसा नहीं दिखता...'

जेएनयू में इरफान खान
इरफान खान का जेएनयू आना ऐसा नहीं था जैसे सलमान खान किसी मॉल में आएं और भगदड़ मच जाती हो। भीड़ थी, मगर अनुशासन भी था। वो ख़ुद चिल्लाने के लिए कम और एक संजीदा एक्टर को सुनने का मूड बनाकर ज़्यादा आई थी। करीब दो घंटे तक इरफान बोलते रहे और एक बार भी धक्कामुक्की या हूटिंग जैसी हरकतें नहीं हुईं। इस भीड़ में मैं इरफान से दस क़दम की दूरी पर अपनी जगह बना पाया था। मैं उस पान सिंह तोमर को नज़दीक से देखने गया था जिसने चौथी पास एक फौजी के रोल में बड़ी आसानी से कह दिया कि ‘सरकार तो चोर है, इसीलिए हम सरकारी नौकरी के बजाय फौज में आए।’ और ये भी कि, ‘बीहड़ में बाग़ी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में’। गर्मी के मौसम में भी गले में मफलर लटकाए इरफान सचमुच बॉलीवुड की भेड़चाल से अलग दिखते हैं। जेएनयू की उस भीड़ में ही मौजूद कुछ लड़कियों की ज़ुबान में कहें तो ‘अरे, ये तो कहीं से भी हीरो जैसा नहीं लगता।’

सचमुच, इरफान हीरो जैसा कम और एक हाज़िरजवाब युवा ज़्यादा लगने की कोशिश कर रहे थे। जेएनयू में पान मिलता नहीं, मगर बाहर से मंगवाकर पान चबाते हुए बात करना शायद माहौल बनाने के लिए बहुत ज़रूरी था। एकदम बेलौस अंदाज़ में इरफान ने लगातार कई सवालों का जवाब दिया। जैसे अपने रोमांटिक दिनों के बारे में, कि कैसे वो दस-पंद्रह दिनों तक गर्ल्स हॉस्टल में रहने के बाद पकड़े गए और उनके खिलाफ हड़ताल हुई। या कि ‘हासिल’ के खांटी इलाहाबादी कैरेक्टर में ढलने के लिए उन्हें कैसे तजुर्बों से गुज़रना पड़ा। हालांकि, राजनीति या सिनेमा पर पूछे गए कई सीरियस सवालों पर अटके भी और हल्के-फुल्के अंदाज़ में टाल भी गए।

हाल ही में रिलीज़ हुई पान सिंह तोमर में इरफान की एक्टिंग ने उन्हें बॉलीवुड के मौजूदा दौर के सबसे बड़े अभिनेताओं में शामिल कर दिया है। वो एक सेलेब्रिटी तो नहीं, मगर आम और खास दोनों तरह के दर्शकों में बेहद पसंद किए जाने लगे हैं। उनकी आवाज़ की गहराई, बोलने का अंदाज़ और हाज़िरजवाबी जैसे जेएनयू की उस शाम दिखी, वो फिल्मी पर्दे से बिल्कुल अलग नहीं लगी। वो हर जगह एक जैसे ही नज़र आते हैं। हद तक नैचुरल दिखने वाले एक एक्टर। माइक बार-बार ख़राब होने, जेएनयू के सिर के ऊपर से दर्जनों बार हवाई जहाज़ के गुज़रने और जैसे-तैसे सवालों से दो घंटे तक टकराते हुए भी चेहरे पर कोई फिज़ूल का उतार-चढ़ाव नहीं था।

इरफान को सिनेमा में पहचान दिलाने वाले आज के दौर के सबसे काबिल निर्देशक तिग्मांशु धूलिया भी यहां पहुंचने वाले थे, मगर किसी वजह से नहीं आ सके। वो आते तो सिनेमा पर कुछ और सवाल सुनने को मिल सकते थे, और सटीक जवाब भी। दरअसल, मेरे वहां पहुंचने की ख़ास वजह तिग्मांशु को ही एक नज़र नज़दीक से देखना था। एक एक्टर से ज़्यादा ज़रूरी मुझे हमेशा से एक निर्देशक लगता है।

बहरहाल, सिर्फ इरफान के साथ भी भीड़ जमी रही, जिन्होंने बड़ी इमानदारी से कई सवालों पर अपनी राय रखी। इरफान ने कहा कि उन्हें अपने साथ लगा ‘ख़ान’ का टैग किसी बोझ जैसा लगता है। उनका बस चले तो वो अपने नाम से इरफान भी हटाना चाहेंगे और उस घास की तरह सूरज की रोशनी महसूस करना चाहेंगे जिसकी पहचान सिर्फ ज़मीन से जुड़ी होती है। आखिर-आखिर तक प्रोग्राम खिंचने लगा था। हालांकि कार्यक्रम के मॉडरेटर और अविनाश दास और प्रकाश सवालों को बढ़िया मिक्स कर रहे थे ताकि भीड़ वहां बनी रहे। हां, एकाध शुद्ध हिंदी में पूछे गए सवालों को मॉडरेटर साहब जिस तरह मज़ाक उड़ाने के अंदाज़ में मज़े ले-लेकर पढ़ रहे थे, वो भीड़ को भले गुदगुदा रहा था, मगर उस सवाल पूछने वाले को बड़ा हिंसक लग रहा होगा, जिसने दिल लगाकर अंग्रेज़ी होते जा रहे सेलिब्रिटी युग में अपनी भाषाई काबिलियत के हिसाब से एक बेहतर सवाल हिंदी में रखने की जुर्रत की थी।  थोड़ा सा अफसोस मुझे भी हुआ था, लेकिन भीड़ में हर एक का ध्यान तो नहीं रखा जा सकता। वो भी तब जब इरफान के पसंदीदा लेखक कोई और नहीं हिंदी साहित्य के सबसे लोकप्रिय नामों से एक उदय प्रकाश रहे हैं।

(प्रोग्राम के ठीक बाद गंगा ढाबा पर तेलुगू दोस्त प्रदीप मिले तो मैंने बड़ी उत्सुकता से बताया कि आज इरफान ख़ान से मिलने-सुनने का मौका मिला। प्रदीप ने कहा, ‘ओके’...फिर कहा, ’लेकिन, ये इरफान ख़ान है कौन??’ मेरी खुशफहमी दूर हो गई कि बॉलीवुड पूरे भारत का सिनेमा है।)
 
निखिल आनंद गिरि

(ये लेख मोहल्लालाइव पर भी प्रकाशित हुआ है...)

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

एक सूरज टूट कर बिखरा पड़ा है...

सीने में जलन, आंखों में तूफान-सा क्यों है...
एक शायर मर गया है,
इस ठिठुरती रात में...
कल सुबह होगी उदास,
देखना तुम....

देखना तुम...
धुंध चारों ओर होगी,
इस जहां को देखने वाला,
सभी की...
बांझ नज़रें कर गया है....
... एक शायर मर गया है....

मखमली यादों की गठरी
पास उसके...

और कुछ सपने पड़े हैं आंख मूंदे....
ज़िंदगी की रोशनाई खर्च करके,
बेसबब नज़्मों की तह में,
चंद मानी भर गया है.....
एक शायर मर गया है....

एक सूरज टूट कर बिखरा पड़ा है,
एक मौसम के लुटे हैं रंग सारे....
वक्त जिसको सुन रहा था...
गुम हुआ है...
लम्हा-लम्हा डर गया है....
एक शायर मर गया है...
इस ठिठुरती रात में....

(एक पुरानी नज़्म, शहरयार साहब की यादों के साथ दोबारा पढ़ें)

शनिवार, 2 जुलाई 2011

उन्हें गालियां बेचनी हैं, हमें हंसी ख़रीदनी है...

65 साल के  हैं डॉ प्रेमचंद सहजवाला...दिल्ली में मेरे सबसे बुज़ुर्ग मित्र....दिल्ली बेली देखने का मन मेरा भी था, उनका भी...हालांकि, चेतावनी थी कि इसे बच्चों के साथ न देखें...मतलब, 'बूढ़ों' के साथ भी न देखने की छिपी हिदायत भी थी....फिर भी, हमने सपरिवार जाने का रिस्क लिया....मतलब, प्रेमचंद जी, उनकी हमउम्र पत्नी, सुपुत्र कानू और मैं....हॉल की सबसे बुज़ुर्ग ऑडिएंस के साथ कानू और मैं थोड़ा असहज तो थे, मगर अनुभव अलग ही था....ख़ैर, पूरी फिल्म देखने के बाद प्रेम अंकल और आंटी चुपचाप बाहर निकल गए...अंकल ने बिना पूछे कहा,  ये फिल्म आमिर ने बनाई है, ये यक़ीन नहीं होता...और आंटी से मैंने राय मांगी तो उन्होंने कहा, क्या सचमुच इस पर कुछ डिस्कशन की जा सकती है...तो मैंने समीक्षा लिखने का विचार  छोड़कर ये कविता ही लिख डाली..हां, मेरा इतना ही कहना है कि आइंदा समीक्षा पढ़कर फिल्म देखने से पहले दस बार सोचूंगा..आखिर, दो सौ रुपये  (और मेट्रो का किराया अलग से) की भी कोई क़ीमत होती है....

कभी आईने के सामने खड़े होकर

ज़ोर-ज़ोर से बकी हैं गालियां आपने?
बकी तो होंगी कभी किसी पर खीझ से....
मगर हंसी तो नहीं आई होगी ज़रा-सी भी...
अच्छा बताइए,
आप टट्टी देखकर कितनी देर तक खुश हो सकते हैं...


क्या दो सौ रुपये देकर कहा है किसी को आपने,
कि भाई बको गालियां कि हमें हंसना है...
मेरी पीठ के नीचे का जो हिस्सा है...
वहां पटाखे बांध कर जला दो भीड़ में....
थकी-हारी भीड़ खिलखिला ले ज़रा...

क्या मेट्रो में सवार उदास चेहरों को पढ़कर
शर्तिया बता सकते हैं आप,
कि वो किसी ऐसे फ्लैट में रहते हैं,
जिनके मकानमालिक दिखने में शरीफ हों,
और हों एक नंबर के अय्याश?
कि जहां पानी नहीं आए,
तो संतरे के जूस से हगना-मूतना संपन्न होता हो...

खैर छोड़िए, इतना बता दीजिए...
बाज़ार में कब नहीं थी गालियां
या हमारे घर में ही...
इतना तो मानते ही होंगे
कि आदमी के पास जब कुछ कहने को नहीं होता खास..
तभी कुंठा में निकल आती हैं गालियां...

क्या रोग सिर्फ दिल्ली के पेट में होते हैं?
और जहां टिशू पेपर या संतरे नहीं मिलते,
वहां क्या घास की ज़मीन रगड़ने पर भी हंसते हैं लोग?
ख़ैर छोड़िए, हम जादा कहेंगे तो आप कहेंगे
कि कोई शहरी गालियां बेचकर ‘अमीर’ खान बनता है,
तो हमारे भीतर का गंवार मन कुढ़ता है....

शहर की भीड़ में बने रहने के लिए...
हम भी तीन घंटे की मोहलत निकालते हैं,
गालियां सुनकर आते हैं
और लोटपोट हो जाते हैं..

निखिल आनंद गिरि
(‘दिल्ली बेली’ से सही-सलामत लौटकर आनन-फानन में यही लिखना बन पड़ा)

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

दीपावली पर 50 झंडू गानों का 'म्यूज़िकल बम'

बात कुछ यूं शुरू ही थी कि सितंबर के महीने में हम कानपुर घूमने निकले थे और अचानक अंताक्षरी के बीच कुछ दिलचस्प गानों का ज़िक्र होने लगा जिनका हुलिया आम हिंदुस्तानी गानों से थोड़ा अलग होता है.....इन्हें ‘झंडू’ गानों की कैटेगरी में रखा जा सकता था। दिमाग में ऐसे कई गाने एक साथ घूमने लगे और भीतर गुदगुदी होने लगी। फिर, कुछ ही दिन बाद हमारे दोस्त गौरव सोलंकी ने फेसबुक पर ऐतराज़ जताया कि इस बार के नेशनल अवार्ड में जिस गीत को पुरस्कार मिला है, उससे बेहतर गीतों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। बात में दम था, तो हमने मज़ाक में ही एक ऐलान कर दिया कि ‘झंडू’ गानों का नया क्लब शुरू करते हैं...उन्हें हम अलग से अवार्ड देंगे। फेसबुक पर दो-चार झंडू गानों का स्टेटस लगाया और सोचा कि भड़ास पूरी हो गई। मगर, दोस्तों ने ऐसा बेहतरीन रिस्पांस दिया कि गानों की लिस्ट लंबी होती चली गई। फेसबुक पर कई अनजान दोस्तों ने भी गाने भेजे, और भेजते रहे। फिर हमारे पुराने ‘मनचले’ साथियों के पास झंडू गानों की भरमार थी, तो उन्होंने भी भरपूर मदद की। कई नए झंडू गाने मिले जिनसे मेरे दिमाग का पाला पहले नहीं पड़ा था। मैंने एफएम रेडियो के अपने दो-तीन साथियों से इन गानों पर बात भी कि क्या इन गानों पर आधारित कोई शो शुरू नहीं हो सकता। उन्होंने लगभग टाल ही दिया मगर उम्मीद हमने छोड़ी नहीं है। इन गानों की क्वालिटी पर किसी तरह से शक नहीं किया जा रहा। न ही इन्हें किसी तरह का अवार्ड हम देने वाले हैं। हां, हमारे भीतर का ‘झंडू’ मन इन्हें बार-बार याद करता है, ये किसी अवार्ड से कम है क्या। आप एक-एक गाना पढ़िए, बार-बार पढ़िए और देखिए आपके भीतर गुदगुदी होती है कि नहीं। यही हमारी असली ‘झंडू’ पहचान है, जिसे हम छिपाते-फिरते हैं।

तो देवियों और सज्जनों, दीपावली के मौके पर पेश है 50 झंडू गानों का धमाका.... पटाखा फोड़िए, दीये जलाइए, लड्डू खाइए, हर मौक पर इन झंडू गानों को गुनगुनाते रहिए और दीवाली को संगीतमय बना दीजिए। कमेंट करके बताइएगा ज़रूर कि इनमें झंडू बम, झंडू फुलझड़ी, झंडू रॉकेट आपको कौन-कौन से लगे...ये लिस्ट नए साल के पहले शतक पूरा करेगी, इस भरोसे के साथ...
आपका ‘झंडू’ साथी
निखिल आनंद गिरि

झंडू गानों की दुनिया में आपका स्वागत है..

1) ले पपियां झपियां पाले हम...

2) मैं लैला-लैला चिल्लाऊंगा, कुर्ता फाड़ के....

3) खा ले तिरंगा गोरिया फाड़ के, जा झाड़ के...

4) अंखियों से गोली मारे, लड़की कमाल रे..

5) जब तक रहेगा समोसे में आलू

6) बाय बाय बाय गुड नाइट, सी यू अगेन...कल फिर मिलेंगे तेरे मेरे नैन

7) तालों में नैनीताल, बाक़ी सब तलैया...

8) मैं एक लड़का पों पों पों....तू इक लड़की पोंपोंपों

9) एबीसीडीइएफ.....पीपीपी पिया...

10) गले में लाल टाई,घर में एक चारपाई, तकिया एक और हम दो...

11) ठंडी में पसीना चले,ना भूख ना प्यास लगे...डैडी से पूछूंगा..

12) पागल मुझे बना गया है सीट्टी बजाके...चक्कर कोई चला गया है सीट्टी बजाके...

13) आ आ ई, उ उ ओ...मेरा दिल ना तोड़ो

14) टनटनाटनटनटनटारा...चलती है क्या नौ से बारा...

15) तुरुरुतुरुरू, तुरूतुरू........कहां से करूं मैं प्यार शुरू...

16) मच्छी बन जाऊंगी, कबाब बन जाऊंगी, बोतलों में डाल दो शराब बन जाऊंगी

17) लड़की ये लड़की कममाल कर गई, धोती को फाड़ के रुमाल कर गई(मेरे हिसाब से lyrics थोड़ा अलग है)

18) गुटुंर, गुटुर, चढ़ गया ऊपर रे, अटरिया पे लोटन कबूतर रे...

19) मैं साइकिल से जा रही थी, वो मोटर से आ रहा था, किया टिनटिन का इशारा मुझे बदनाम किया ना...

20) मैं तुझको भगा लाया हूं तेरे घर से,तेरे बाप के डर से

21) नीले नैनों वाला तेरा लकी कबूतर...

22) तूतक तूतक तूतक तूतिया, आई लव यू....

23) तूतूतू, तूतूतारा.....फंस गया दिल बेचारा...

24) अंगना में बाबा, बाज़ार गई मां..कइसे आएं गोरी हम तोहरे घर मा..

25) इंडारू पिंडारू, तेरी चलती कमर है लट्टू, बांधूं इसपे नज़र का पट्टू..

26) ज़हर है कि प्यार है तेरा चुम्मा...

27) सारेगमपधनी...यू आर माई सजनी...

28) आआई उउओ मेरा दिल ना तोड़ो...

29) अईअईए....मंगता है क्या....गिडबोलो (रंगीला)

30) मैं तो रस्ते से जा रहा था, भेलपुरी खा रहा था, लड़की घुमा रहा था....तेरी नानी मरी तो मैं क्या करूं..

31) पटती है लड़की पटाने वाला चाहिए....

32) ओये वे मिकान्तो, तू नहीं जानतो, प्यार करना बहोत ज़रूरी है

फिल्म - हाय मेरी जान (1991)

33) अईअईया..करूं मैं क्या सुकूसुकू...दिल मेरा... हो गया सुकूसुकू...

34) मेरी छतरी के नीचे आ जा, क्यूं भीगे है कमला खड़ी खड़ी....

35) rain is falling छमाछमछम....लड़की ने आंख मारी, गिर गए हम....

36) जब भी कोई लड़की देखूं, मेरा दिल दीवाना बोले...ओलेओले ओले..

37) आंख मारके बोले हाऊ आर यू..हाथ मिलाकर बोले हाऊ डुयूडू...शहर की लड़की...

38) हम है तुमपे अटके यारा, दिल भी मारे झटके...क्योंकि तुम हो हटके...

39) दिन में लेती है, रात में लेती है...सुबह को लेती है, शाम को लेती है..अपने प्रीतम का, अपने जानम का नाम लेती है..!! (अमानत)

40) डालूंगा, डालूंगा...प्यार से मैं डालूंगा...नौलखा हार तेरे गले में डालूंगा !!(अमानत)

41) पुट ऑन द घुंघरू ऑन माई फीट एंड वाच माई ड्रामा...नाचूंगा अइ, गाऊंगा अइसे..होगा हंगामा, मैं हूं गरम धरम....कैसी शरम (तहलका)

42) शॉम शॉम शॉम शॉम शोमू शाय शाय (तहलका, अमरीश पुरी गायक!!)

43) कबूतरी बोले कबूतर से....मुझे छेड़ ना छत के ऊपर से...

44) टकटकाटक..मुझे दिल ना दिया तूने जब तक..पीछा करूंगा तब तक...टकटकाटक (कर्तव्य)

45) सूसूसू आ गया मैं क्या करूं....(तराज़ू)

46) मैं हूं रेलगाड़ी, मुझे धक्का लगा,इंजन गरम है मुझे धक्का लगा...

47) आया आया आया तूफान, भागा भागा भागा शैतान...

48) दिल की गेट की नेम प्लेट पे, लिखा है तेरा ना...धकधकधुकधुक होती है सुबह शाम...बूबा बूबा...मैं महबूबा

49) चींटी पहाड़ चली मरने के वास्ते, लड़की हुई जवान लड़के के वास्ते (हसीना मान जाएगी)

50 ) तैनू घोड़ी किन्ने चढ़ाया, भूतनी के...तैनू दूल्हा किसन बनाया भूतनी के...

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