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शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

'डॉली की डोली' उर्फ बाबा जी का ठुल्लू


कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन पर लिखा जाना ज़रूरी नहीं होता, फिर भी लिखा जाता है। कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन्हें देखा जाना ज़रूरी नहीं होता, फिर भी देखना पड़ता है। डॉली की डोलीदेखने की वजह भी फिल्म से ज़्यादा फिल्म के लेखक उमाशंकर सिंह थे जिन्हें मेरे अलावा हिंदी सर्किल का हर साथी ठीक से जानता है। वो फेसबुक पर मेरे दोस्त हैं और उनकी कुछ कहानियां भी मैंने पढ़ी हैं। एक युवा हिंदी साहित्यकार की लिखी पहली हिंदी फिल्म देखना उसे गुपचुप सम्मान देने जैसा था। इससे ज़्यादा कुछ नहीं। फन सिनेमा में मेरे अलावा सिर्फ सात लोग बैठे थे और ये समझ आ गया था कि फिल्म ने क्या बिजनेस किया है।

डॉली की डोलीजैसी फिल्म 1970 में भी रिलीज़ होती तो भी मूल कहानी में कोई फर्क नहीं आता। डॉली एक लुटेरी दुल्हनहै जो अमीर लड़के फंसाकर शादियां करती है और पहली ही सुबह ससुराल वालों को नशीला दूध पिलाकर सारा माल उड़ा लेती है। यह कहानी फिल्म के पहले बीस मिनट दर्शक को पता नहीं होती, तब तक दर्शक मज़े लेकर फिल्म देखता है। फिर डॉली और उसके गैंग की चालाक एक्टिंग पर आगे की पूरी फिल्म टिकी थी। मगर अफसोस, सोनम कपूर न तो रानी मुखर्जी हैं और न ही विद्या बालन। हम एक बोरिंग होती फिल्म के ख़त्म होने का इंतज़ार करते हैं। दो-चार आइटम नंबर सुनते हैं, तालियां बजने लायक डायलॉग भी, मगर फिल्म कहीं छूट जाती है।

अगर ये किसी किताब में छपी होती तो एक अच्छी कहानी कही जाती। मगर पर्दे पर निर्देशक असल लेखक होता है। फिल्म का स्क्रीनप्ले कई जगह बनावटी, बोवजह, लंबा और बोरिंग भी है। कुल मिलाकर एक ऐसी फॉर्मूला कॉमेडी फिल्म जिसमें सारे मसाले तो हैं, मगर वो बहुत बार चखे जा चुके हैं। डॉली की ख़ासियत है कि उसकी शादियों में उसकी फोटो किसी के पास नहीं आती। दिल्ली जैसे पिद्दी शहर को 10 लाख सीसीटीवी देने वाली राजनैतिक घोषणाओं के युग में बिना कैमरे की शादी बिल्कुल हजम नहीं होती। फिल्म का क्लाइमैक्स बेहद फिल्मी है। जो पुलिस अफसर डॉली और उसके गैंग को पकड़ने में जुटा है, वो डॉली का पहला प्रेमी होता है। मगर डॉली आखिर में उसे भी छोड़ देती है। इसे एक औरत की आत्मनिर्भर और आज़ाद उड़ान के तौर पर भी देखा जा सकता था, मगर डॉली एक बार दे देती यार..’, ‘शादियों के बाद बीवियां तो लूटती ही हैंजैसे कई डायलॉग फिल्म की नीयत वैसी बनने नहीं देते।

अच्छी बात ये है कि इस फिल्म में एक-एक पात्र को पूरा समय दिया गया है। वो किसी लिखी गई कहानी की तरह पूरे-पूरे डायलॉग कहता है और थियेटर की तरह अगले कैरेक्टर के बोलने का इंतज़ार  करता है। एडिटर कट लगाना भूल गया है, मगर ऐसे में पूरी फिल्म में बहुत ज़्यादा उतार-चढ़ाव नहीं हो पाता और हम ऊबने लगते हैं।

इससे ज़्यादा फिल्म पर लिखना ठीक नहीं है। डॉली आखिर में मुंबई की तरफ गई है और उसके हाथ में सलमान खान की फोटो है। मेरी दुआ है कि सलमान को वो सचमुच कंगाल कर डाले ताकि हम कुछ फूहड़ सिनेमा बॉलीवुड से कम कर सकें।
निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 12 मई 2014

एक देश था, जहां मस्तराम की लहर भी थी..

मस्तरामको आप सिर्फ एक फिल्म की तरह देखने जाएंगे तो बहुत अफसोस के साथ बाहर आना पड़ सकता है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है कि आप इसे किसी महान फिल्म की तरह याद कर सकें। सिवाय फिल्म के नाम के। फिर भी आज तक मैंने कोई ऐसी फिल्म नहीं देखी जिसमें से बाहर कुछ भी साथ नहीं आया हो। ये तो फिर भी मस्तराम है। मस्तराम एक लंबे समय तक दबी-कुचली हसरतों के महानायक रहे हैं। एक बहुत बड़े समाज या सब-कल्चर के। तब तक, जब तक साइबर कैफे में पर्दे नहीं लग गए या फिर ऑरकुट से होते हुए व्हास ऐप तक लड़के लड़कियों को प्रेम पत्रों के बजाय नॉन वेज मैसेज और पॉर्न वीडियो शेयर नहीं करने लगे। अगर आप भी कभी इस मस्तराम परंपरा के ज़रिए शब्दों की ताक़त पर अपनी बहुत सी ताकत बहाते आए हों तो ये फिल्म देखना उन गुमनाम पलों को एक तरह का ट्रिब्यूट देने जैसा है। बहुत मुमकिन है कि आप इस फिल्म में अपने साथ अपनी गर्लफ्रेंड को साथ ले जाने का ऑफर दें, तो वो शुरुआती कुछ सीन्स तक फिल्म देखने के बजाय टेंपल रन खेलती दिखे।
आम आदमी की तरह मैं मस्तराम हूंटोपी लगाए एक आदमी हाथ जोड़े पोस्टर में खड़ा दिखता है। और उस तस्वीर के साथ फिल्म का प्रोमो कहता है कि अगर आप मस्तराम को नहीं जानते तो अपने पिता या ताऊ से ज़रूर पूछें। तो मस्तराम पोस्टर पर आम आदमी जैसा दिखता है  मगर उसकी लहर ऐसी है कि कई मोदी इसके आगे फेल हैं। सिनेमा के पर्दे पर अगर इस कहानी को भी कोई शाहरुख या सलमान या कोई बेहतर निर्देशक मिल जाता तो फिल्म कमाल की पॉपुलर भी हो जाती। लेकिन सलमान दबंग जैसी कूड़ा फिल्म में दबंग हो सकता है, मस्तराम नहीं। ऐसा होने के लिए उन्हें किसी फिल्म में अपना नाम राजाराम वैष्णव उर्फ हंसरखना पड़ेगा। फिल्म की कहानी जिस तरह शुरू होती है, मैं कई बार इसके नायक में बड़े अदब और उम्मीद के साथ ‘’प्यासा का गुरुदत्त ढूंढ रहा था। 2014 की किसी कहानी में नायक हिंदी का एक दुखियारा लेखक बनकर पर्दे पर आए तो उम्मीद लाज़िम भी है। दाद की बात भी है कि फिल्म हमारे समय के सिनेमा में एक भुला दी गई सच्चाई के साथ सामने आती है। हिंदी साहित्य की मठाधीशी के बीच कितने प्रतिभाशाली लेखक आज भी लुगदी साहित्यकार या मस्तराम होकर रह जाते हैं, इस पर अलग से रिसर्च होनी चाहिए। इस पर भी कि जेएनयू से हिंदी में एम. फिल करने की हसरत पाले कितने नौजवान ऐसे हैं जिसके घरवाले शादी को सबसे ज़्यादा ज़रूरी चीज़ समझते हैं।   और इस पर भी कितने लेखकों को उनके दफ्तरों में सिर्फ इस बात के लिए ताने सुनने पड़ते हैं कि वो ऑफिस की फाइलों में कोई सुंदर कविता छिपाकर रखते हैं। इस पर भी कि हिंदी के कितने प्रकाशक ऐसे हैं जिन्होंने अपना बिज़नेस बढ़ाने के लिए ऐसी कहानियों को समाज की इकलौती ज़रूरत बताकर प्रोमोट किया है।
फिल्म में सेक्स और हनी सिंह एक ज़रूरत की तरह हैं, इसीलिए अश्लील नहीं लगते। सिवाय नर्स के साथ मस्तराम के उस सीन के जिसमें चारपाई ऊपर-नीचे होती दिखती है। लिखी हुई कहानियों में मस्तराम के शब्दों का स्तर नीचे होने की वजह उसकी एक ख़ास तरह की ऑडिएंस है मगर पर्दे पर उसे ख़ूबसूरती से रचा जा सकता था। फिल्म का स्क्रीनप्ले कई बार किसी थियेटर जैसा लगता है। कई बार बहुत सूखा, कई बार बहुत प्रेडिक्टेबल। मस्तराम उर्फ राजाराम का बार-बार ये कहना कि ये सब कहानियां हमारे इर्द-गिर्द की हैं, हिंदी साहित्य के समकालीन कई लेखकों की याद दिलाता है जिनकी भाषा मस्तराम की कहानियों से अलग है, मगर सभ्य साहित्य में उन्हें पूरा सम्मान मिला है। कहने का मतलब ये कि हिंदी साहित्य के ए और बी या सी वर्जन में नयापन सिर्फ शैली में है, कंटेट में बहुत हटकर सोचा जाना बाक़ी है।
मस्तराम जब अपने ही दोस्त और बीवी के अवैध रिश्ते के कहानी लिखता है तो उसके पास घर चलाने तक के पैसे नहीं होते। ऐसे में फिल्म अच्छे क्लाईमैक्स पर जाकर छूटती है। जहां उसकी सक्सेस पार्टी में उसकी असलियत खुलते ही लोग उससे किनारा करने लगते हैं। वो कामयाब तो है मगर मिसफिट है। बिल्कुल मस्तराम की कहानियों की तरह। बिल्कुल इस फिल्म की तरह, जो शायद ग़लत समय पर बनी लगती है। इसे कम से कम दस साल पहले आना था, जब मल्टीप्लेक्स नहीं थे और मस्तराम के पाठक और दर्शक एक थे।    

चलते-चलते : हो सके तो फिल्म किसी सिंगल स्क्रीन थियेटर में देखें। मस्तराम की कहानियों को सुनते-देखते फ्रंट स्टॉल के दर्शक जब सीटियां बजाएंगे तो आपको लगेगा कि ये कोई नई कहानी नहीं। बहुत लोग बहुत बरसों से इसे जानते हैं, बस एक-दूसरे से कहने में कतराते हैं।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 7 जुलाई 2013

हिंदी सिनेमा के उम्मीदों की आखिरी पत्ती है 'लूटेरा'

लूटेराअगर कनॉट प्लेस के रीवोली या राजौरी गार्डेन के मूवीटाइम में देखी होती तो सीधा फिल्म के बारे में बात करता। मगर फिल्म देखी समस्तीपुर के भोला टॉकीज में, तो थोड़ी-सी बात फिल्म देखने के माहौल पर भी। कई साल बाद किसी छोटे शहर में फिल्म देखी। सिंगल स्क्रीन थियेटर में। दिल्ली में टिकट के दाम से दस गुना सस्ता। कोई एडवांस बुकिंग, नेट बुकिंग, प्रिंट आउट या एसएमएस बुकिंग नहीं। सीधा काउंटर पर जाइए और टूटी-फूटी मैथिली में बात करते ही रसीद वाला टिकट हाथ में। कोई थैंक्यू या हैव ए गुड डे का चक्कर भी नहीं। बस ऐसे सिनेमाघरों में दिक्कत ये है कि आपको हर डायलॉग कान लगाकर सुनना पड़ेगा वरना आप डायलॉग और संगीत के मामले में आधी फिल्म देखकर ही घर वापस जाएंगे।

मैं व्याकरण का विद्यार्थी नहीं, मगर मेरे ज्ञान के हिसाब से छोटी वाला लुटेरा हिंदी का शब्द लगता है। फिल्म के टाइटल में दिख रहा लूटेरा अंग्रेज़ी के लूट में राको सीधा चिपकाया गया लगता है। शायद अंग्रेज़ी पढ़ने वाले दर्शकों को इस लूटमें ज़्यादा अपनापन लगता हो। हालांकि, इस तरह के टाइटल सिंगल स्क्रीन दर्शकों को ज़्यादा भाते रहे हैं। लुटेरा, डाकू हसीना, बंदूक की कसम, चोर-पुलिस टाइप फिल्में बी ग्रेड हिंदी सिनेमा से होती हुईं आए दिन भोजपुरी में बनती हैं। और उनमें जो-जो कर्म होते हैं, शायद वही सब देखने की उम्मीद लिए यहां के दर्शक इस बार भी लुटेरा के लिए जुटे होंगे। मगर, निर्देशक विक्रमादित्य मोटवानी कोई कांति शाह तो हैं नहीं कि टाइटल लुटेरा रखें तो उसमें इज़्जत लूटने का सीन भी रखना लाजमी हो। सोनाक्षी सिन्हा को फिल्म में लेना उनकी मार्केटिंग मजबूरी हो सकती है मगर उनसे सन ऑफ सरदार या राउडी राठौर से हटकर भी बहुत कुछ करवाया जा सकता है।

समस्तीपुर के भोला टॉकीज पर दर्शकों की फ्रीक्वेंसी के हिसाब से लूटेरा एक महा फ्लॉप फिल्म है। रिलीज़ के दूसरे दिन तीस रुपये की टिकट खरीदकर फिल्म देखने वाले तीस लोग भी नहीं थे। टिकट लेने से पहले भोला टॉकीज़ में 17-18 साल से प्रोजेक्टर चला रहे वाले शशि कुमार से दोस्ती हुई। उन्होंने बताया कि इस फिल्म के नाम और सोनाक्षी की वजह से ही फिल्म लगाने का रिस्क लिया गया, वरना भोजपुरी फिल्मों के अलावा यहां आशिकी 2 ही है जो हाल में अच्छा बिजनेस कर सकी थी। उन्होंने लगभग चेतावनी भी दी कि रिलीज़ के बाद हर शो में हॉल एकाध घंटे में ही खाली हो गया है, इसीलिए टिकट सोच-समझकर कटाइए(खरीदिए)।

ख़ैर, हॉल में कम लोगों का होना हम जैसों के लिए अच्छा ही है। कम सीटियों-तालियों और गालियों के बीच ज़्यादा आराम से फिल्म देखी जा सकती है। वरना सोनाक्षी और रनबीर जब प्यार के सबसे महीन पलों में एक-दूसरे के करीब आ रहे थे और रनबीर ने आखिर तक खामोश रहकर कुछ नहीं किया, तो ऑडिएंस में से कमेंट सुनने को मिला कि साला सकले से (शक्ल से ही) बकलोल लग रहा है। या फिर फिल्म के क्लाइमैक्स में जब रनबीर जबरदस्ती सोनाक्षी को बचाने के लिए इंजेक्शन लगाना चाहते हैं और गुत्थमगुत्था होते हैं तो कमेंट सुनने को मिलता है कि एतना (इतनी) देर में तो भैंसी (भैंस) भी सूई लगा लेती है

तो मिस्टर विक्रमादित्य मोटवानी, आप जब कैमरे के ज़रिए प्यार की सबसे शानदार पेंटिंग गढ रहे होते हैं, दिल्ली-मुंबई से बहुत दूर दर्शक कुर्सियां छोड़-छोड़ कर जा रहे होते हैं या फिर आपको जी भर कर कोस रहे होते हैं। पहले उड़ान और अब लूटेरा से आप सिनेमा को नई क्लासिक ऊंचाइयों पर ले जाने को सीरियस दिखते हैं और इधर पब्लिक है जो आशिकी 2 को दोबारा-तिबारा देखना चाहती है। इस हिम्मत के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई। हम जैसे दर्शक हमेशा आपके साथ हैं।

स्कूल के दिनों में द लास्ट लीफ पढ़ी थी। कभी सोचा नहीं था कि हिंदी सिनेमा में उसे पर्दे पर भी उतरता हुआ देखूंगा। वो भी इतनी ख़ूबसूरती से। एक ही फिल्म में ओ हेनरी की कहानी से लेकर बाबा नागार्जुन तक की कविता सुनने को मिलेगी। मगर, प्रयोग के नाम पर इतना ही बहुत था। पीरियड फिल्मों में ग्रामोफोन ही अच्छे लगते हैं, सोनाक्षी बिल्कुन नहीं। ठीक है कि आपने उनसे एक्टिंग कराने की पूरी कोशिश की है, मगर इंडस्ट्री में अच्छे कलाकारों की कमी तो है नहीं। फिर रनबीर के साथ उनकी जोडी कम से कम मुझे तो नहीं जंची। सोनाक्षी को क्लोज़ अप से बाहर देखिए तो रनबीर से ओवर एज लगती हैं। सोनाक्षी एक ज़मींदार की अल्हड़ बेटी से ज़्यादा कोई सेडक्टिव ठकुराईन लगती हैं। और रनबीर भी गंभीर दिखने के नाम पर भीतरघुन्ना टाइप एक्टर लगते हैं। 50 के दशक वाली बॉडी लैंग्वेज उनमें चाहकर भी नहीं आ पाती। अच्छी एक्टिंग का मतलब जबरदस्ती की चुप्पी तो नहीं होती। हालांकि, दोनों ने उम्मीद से ज़्यादा अच्छा काम किया है, मगर ये और अच्छा हो सकता था। आप साहित्य को सिनेमा पर उतार रहे थे तो मार्केट मैकेनिज़्म बीच में कहां से आ गया। ये तो हिंदी साहित्य का हाल हो गया कि आप कोई मास्टरपीस लिखना चाह रहे हों और अचानक किसी ऐसे पब्लिशर की तलाश करने लगें जो आपकी गोवा या स्विट्ज़रलैंड की ट्रिप स्पांसर कर दे क्योंकि वहां का मौसम अच्छा लिखने में मदद करता है।

कहानी के नाम पर इस फिल्म की जड़ें भी सदियों पुरानी है। वही प्रेम कहानी, वही मिलना-बिछुड़ना, वादा तोडना-निभाना। मगर कैमरा इतनी खूबसूरती से कहानी कहता है कि आप उसमें ख़ुद को महसूस करने लगते हैं। लोकेशन्स देखकर कई जगह तो आपको लगेगा कि आप कोई ख़ूबसूरत-सी ईरानी मूवी देख रहे हैं। या फिर स्क्रीन प्ले और डीटेलिंग देखकर कभी-कभी बंगाली सिनेमा का महान दौर भी आंखों में तैरने लगता है। इंटरवल के आसपास तक की फिल्म एक अलग टाइम और स्पेस में चलती है। उसके बाद आपको लगेगा आप किसी और फिल्म में आ गए हैं। ये एक हुनरमंद डायरेक्टर की पहचान है। हालांकि, जब नैरेटिव इतना धीमा और पोएटिक ही रखना था तो अचानक मुझसे प्यार करते हैं वरुण बाबू जैसे डायलॉग्स बहुत सपाट और फिल्मी लगते हैं। और ये भी समझना मुश्किल है कि अरबों की मिल्कियत संभालने वाले जमींदार पिता हिंदी सिनेमा में अक्सर इतने भोले क्यों होते हैं कि उन्हें अपने घर में ही पनप रही प्रेम कहानियों की भनक तक नहीं लग पाती।

लूटेरा एक तरह से प्यार को नए ढंग से परिभाषित करती है। इस तरह के अलहदा प्यार को देखने-समझने-जीने के लिए फिल्म ज़रूर देखें। वक्त के सांचे में ढलकर भी सच्चा प्यार ख़त्म नहीं होता। और प्यार किसी लुटेरे के दिल में भी हो तो प्यार ही रहता है। फिल्म एक खलनायक के प्यार को जस्टीफाई करती है। खलनायक ऐसा नहीं जिससे आप नफरत करें। आप उसके पक्ष में खड़े होते हैं। और प्रेमिका भी खलनायक के धोखे के खिलाफ है, मगर आखिर तक प्यार के साथ खड़ी रहती है। एक छोर से नफरत की डोर थामे। हम भारतीय सिनेमा में क्लाइमैक्स पूरा देखने के आदी हैं। इससे विक्रमादित्य भी बच नहीं सके हैं। बेहतर होता कि सूखे पेड़ पर वरुण के आखिरी पत्ती लगाने के साथ ही क्रेडिट्स शुरू हो जाते। बेहतर होता कि सब कुछ अधूरा रह जाता। वरुण को अपना प्यार साबित करने का मौका आधा ही मिलता। प्यार में कसक बाक़ी न रह जाए तो तसल्ली अधूरी रहती है। कहानी वही अच्छी जिसके दौरान साइलेंस (मौन) और बाद में रेज़ोनेंस (प्रतिध्वनियां) बाक़ी रहे।   

फिल्म का निर्देशन इतना बेहतरीन है कि फिल्म स्कूलों में इसे टेक्स्ट की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। कहानी में कैरेक्टर बढ़ाने का स्कोप ही नहीं था, फिर भी दो-सवा दो घंटे की फिल्म में बांधे रख पाना बडा काम है। म्यूज़िक से लेकर गाने और साइलेंस तक का इतनी बारीकी से इस्तेमाल हुआ है कि आप जमे रहते हैं। 50 के दौर को जिंदा करने के लिए तब की सुपरहिट फिल्म बाज़ी के गाने का बार-बार इस्तेमाल सदाबहार देव आनंद को श्रद्धांजलि जैसा है। विक्रमादित्य इस दौर के बेहतरीन निर्देशक साबित हो चुके हैं। बस ज़रूरत है उन्हें अपने सिनेमा के जरिए कुछ नए सब्जेक्ट पर काम करने की, जिसमें सिर्फ प्रेम कहानी नहीं हो।


लूटेरा कई हिस्सों में उड़ान से भी बेहतर है, मगर उड़ान नहीं है। आपकी मास्टरपीस तो वही है।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

नो 'हिंदी-विंदी', सिर्फ 'इंग्लिश-विंग्लिश'...

अगर विदेशी लोकेशन पर शूट करना हिंदी सिनेमा के निर्देशकों के लिए मुनाफा कमाने की मजबूरी है, तब तो ठीक है, वरना 'इंग्लिश-विंग्लिश' जैसी कहानी हिंदुस्तान के किसी भी शहर में शूट की जा सकती थी। शशि (श्रीदेवी) को अपने घर में सिर्फ इसीलिए इज़्ज़त नहीं मिलती क्योंकि उसकी हिंदी अंग्रेज़ी से ज़्यादा अच्छी है। लेकिन, अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ रहे उसके बच्चों के लिए उनकी मम्मी का अच्छी हिंदी जानना (और अंग्रेज़ी नहीं जानना) लड्डू बनाने के काम जैसा मामूली और बेकार है।
स्कूल जाती बेटी मां को बार-बार ताने देकर एहसास दिलाती रहती है कि इस सदी में अंग्रेज़ी न जानना आपको तरक्की के सूचकांक में कितने साल पीछे कर देता है।

इस फिल्म में शुरु के कई हिस्से  अच्छे तो हैं, मगर फिल्म जिस उम्मीद से देखने गया था, वहां खरी नहीं उतरी। मुझे लगा था कि बढ़िया कहानी चुनने के बाद  निर्देशिका गौरी शिंदे इसकी कहानी को भाषा के मोर्चे पर आगे ले जाएंगी। हिंदी और दूसरी देसी भाषाओं को हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी के बराबर खड़ा करने की फिल्मी कोशिश की जाएगी। वो उद्दंड बेटी जो 'तुम पढ़ाओगी मुझे 'इंग्लिश लिटरेचर'! कहकर अपनी मां को बार-बार तार-तार कर देती है, आखिर-आखिर तक अपने अंग्रेज़ी घमंड और बड़बोलेपन के लिए मां से माफी मांगेगी, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। हिंदुस्तान के कई इलाकों में अंग्रेज़ी की दहशत (और श्रद्धा) में जी रहे करोड़ों हिंदी लोगों की कहानी न कहते हुए गौरी इस कहानी को सीधा अमरीका उड़ा ले गईं। फिर, अमरीका में अंग्रेज़ी सिखाने वाले एक कोचिंग सेंटर में नायिका को भर्ती करा दिया और फिल्म को ग्लोबल टच दे दिया। फिल्म हल्का-हल्का इमोशनल टच देती हुई निकल गई। एक हाउसवाइफ की कहानी बनकर रह गई जो आखिर-आखिर तक अंग्रेज़ी बोलना सीख ही जाती है और अपने घर में सम्मान पा जाती है। स्मार्ट मॉम के लिए तालियां...

मगर, हिंदी का क्या हुआ। सिर्फ टूल के तौर पर फिल्म में इसका इस्तेमाल हुआ। स्थापित तो अंग्रेज़ी ही हुई ना। और सिर्फ हिंदी ही नहीं। फ्रेंच, उर्दू जैसी दुनिया भर की तमाम ज़रूरी भाषाएं हांफती-दौड़ती,  फीस भरकर अंग्रेज़ी सीखती दिखीं। कुल मिलाकर फिल्म अंग्रेज़ी का प्रचार करती ही दिखी। किसी और भाषा को सम्मान देने के बजाय बाज़ार की उसी भाषा को सम्मान देती दिखी, जिसके आगे दुनिया भर की कई भाषाओं की बड़ी से बड़ी प्रतिभाएं पानी भरती दिखती हैं। हिंदी के दिग्गजों का तो हाल ही मत पूछिए। वो दिल्ली में हिंदी की खाते हैं और न्यूयॉर्क में हिंदी सम्मेलन के नाम पर ऐतिहासिक सेमिनार और फूहड़ बहसें करते हैं। ये फिल्म भी उसी बहस का एक विस्तार जैसा लगी। बस, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का ब्रिटेन में दिया वो असल बयान भी फिल्म में जोड़ देते जिनमें वो बहुत कृतज्ञ थे कि अंग्रेज़ों ने हमें इतनी महान भाषा सिखाई।

ऐसी फिल्में प्रोपैगेंडा फिल्मों की तरह लगती हैं। जैसे सिनेमा की शुरुआत में अमरीकी नस्लवाद पर मुहर लगाती फिल्में बनती थीं या फिर बाद में हिटलर और नाज़ी वैभव का प्रचार करती फिल्में। एक ख़ास सोच से निकली हुई निर्देशक के पास फिल्म बनाने को बजट तो था मगर कहानी का कैनवस बड़ा करने का साहस नहीं था। वरना, वो देश भर के अंग्रेज़ी सिखाने वाले कोचिंग संस्थानों का एक मोंटाज ज़रूर दिखातीं जो 100 रुपये में भी अंग्रेज़ी सिखा देने का दावा करते हैं, फरेब करते हैं। वो मेरे तेलुगु दोस्त प्रदीप या तमिल दोस्त राजगोपाल सुब्रह्मण्यम का वो दर्द भी दिखाती कि कैसे उनका अंग्रेज़ी ज्ञान भी हिंदी की दबंगई के आगे काम नहीं आता। जब वो रोज़ डीटीसी की बसों में हिंदी गालियां बकते कंडक्टरों से परेशान होते हैं और मुझे अफसोस होता है कि कम से कम देश की राजधानी में इन तमाम बसों, रास्तों और दफ्तरों के तमाम साइन बोर्ड्स संविधान में दर्ज सभी भाषाओं में क्यों नहीं हो सकते। वो हमारी मौक़ापरस्ती भी दिखातीं कि कैसे हिंदी के तमाम न्यूज़ चैनल, हिंदी सिनेमा के तमाम नायक, निर्देशक, हिंदी समाज के तमाम नेता, बुद्धिजीवी और तीसमारखां अंग्रेज़ी में बात करने पर कितना गर्व महसूस करते हैं। मुझे उदय प्रकाश की कविता 'एक भाषा हुआ करती है '  अचानक याद आ रही है -

दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर, सबसे गरीब और
सबसे खूंखार सबसे काहिल और सबसे थके-लुटे लोगों की भाषा
अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़ या एक अरब भुक्खड़ों, नंगों और गरीब-लफंगों की जनसंख्या की भाषा
वह भाषा जिसे वक्त-जरूरत तस्कर, हत्यारे, नेता,
दलाल, अफसर, भंडुए, रंडियाँ और जुनूनी
नौजवान भी बोला करते हैं
वह भाषा जिसमें
लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है

बहरहाल, 'इंग्लिश-विंग्लिश' एक ठीकठाक फिल्म है। श्रीदेवी की वापसी है, मगर वो हवाहवाई नहीं हैं।
वो शशि हैं। हिंदुस्तान में अंग्रेज़ी से ग्रस्त एक परिवार के बीच से बचकर अमरीका में वक्त गुज़ारने पहुंची एक एलीट हिंदी हाउसवाइफ। शशि अमरीका के किसी पार्क में बेंच पर बैठकर देखती हैं कि कैसे दोनों हाथों और मुंह से नोचकर बर्गर खाए जाते हैं। वो ये भी महसूस करती है कि उसका पति सिर्फ उसे 'हग' करने में हिचकिचाता है और बाक़ी सबसे अपनापन जताने के लिए शिद्दत से गले मिलता है।  हिस्सों में फिल्म अच्छी है, मगर फिल्म की टार्गेट ऑडिएंस शायद कोई और है। बाज़ार होती दुनिया में कमज़ोर अंग्रेज़ी की कुंठा के मारे शर्मिंदगी झेल रही हिंदुस्तानी ऑडिएंस तक ये फिल्म पहुंच भी पाएगी या नहीं, कहना मुश्किल है।

दिल्ली मेट्रो का एक वाकया याद आ रहा है। ट्रेन के भीतर एक बच्ची उछल-उछल कर मेट्रो के स्टेशनों के नाम पढ़ रही थी और अपनी मां को खुशी से सुना रही थी। मां खुश हो रही थी, मगर जैसे ही उसने देखा कि बेटी अंग्रेज़ी में नहीं, बल्कि हिंदी में लिखे नामों को पढ़ने की कोशिश पर खुश हो रही है, वो ज़ोर से हंसने लगी और बच्ची के पिता को बोली - 'हिंदी में पढ़ रही है, घंटे भर में  तो पढ़ ही लेगी।' मुझे लगता है, 'इंग्लिश-विंग्लिश' उस बच्ची की मां को भी दिखाई जानी चाहिए। दुनिया भर के उन तमाम स्कूलों को भी जहां मातृभाषाएं ज़बरदस्ती छुड़वाई जाती हैं। अंग्रेज़ी नहीं बोलने पर एक रुपये का जुर्माना लगाने की धमकियां दी जाती हैं।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 11 जून 2012

वो इंपोर्टेड कमरिया 'शांघाई' की है, भारत माता की नहीं!

यूं तो हिंदी सिनेमा में कहानियों के नाम पर वही फॉर्मूले बार-बार नये पैकेज में परोसे जाते रहे हैं, मगर दिबाकर बनर्जी हमारे दौर के सबसे अच्छे फिल्म निर्देशकों में इसीलिए हैं क्योंकि वो उस फॉर्मूले की पैकेजिंग हमारे समय को समझते हुए कर पाते हैं। उनकी कहानियों में हमारे समय की राजनीति है, उसका ओछापन है, साज़िशें हैं, बुझा हुआ शाइनिंग इंडिया है और चकाचक शहरों के नाम पर होनेवाली हत्याएं और अरबों का दोगलापन भी है। उनकी नई फिल्म ‘’शांघाई’’ में भी वही सब है। हर दौर में ऐसे निर्देशक रहे हैं जिन्होंने अपने समय को पर्दे पर उतारा है, मगर दिबाकर उनसे अलग इसलिए हैं कि अब ऐसा कर पाना साहस का काम है। अब राउडी राठौर, दबंग और झंडू गानों का ज़माना है। और ऐसे में अपने आसपास के समाज को पर्दे पर सीधा-सपाट देखने का रिस्क उठाने वाले बहुत कम हैं। इसी चक्कर में शांघाई महान फिल्म नहीं बन पाई क्योंकि उसे सच को एक ऐसे रैपर में पैक करना था कि हॉल तक दर्शक आएं और बस्तियों या गांवों तक न सही, फेसबुक और ट्विटर तक बात पहुंच सके। दरअसल, ये निर्देशक की नहीं, हमारी कमज़ोरी है कि हम इसी तरह की स्पूनफीडिंग के आदी हैं। जिसमें एक बड़े राजनैतिक षडयंत्र के फ्रेम से छोटी सी उपकथा निकाली जाए और फिर बच्चों की तरह एक-एक हिस्सा साफ-साफ समझाया जाए।

दरअसल, ये फिल्म उन दौड़ती सड़कों के किनारे लगे होर्डिंग्स की जगह टांग दी जानी चाहिए जहां आशियाना से लेकर आम्रपाली तक के एमआईजी या एलआईजी अपार्टमेंट्स आपको लुभाते रहते हैं। ताकि काले शीशे में उधर से गुज़र रही सॉफ्टस्पोकन आबादी को अहसास हो कि वो जिन नए विश्वकर्माओं की शरण में हैं, उनके हाथ दरअसल कई रंग के ख़ून से सने हुए हैं। या फिर, उन छोटी बस्तियों में सेक्स के इश्तेहार वाली उन दीवारों की जगह जहां सोने-चांदी के शहर बसाने वाले मजदूर आज तक अपनी झोपड़पट्टी से आगे नहीं बढ़ पाए। ताकि उन्हें एहसास हो कि वो जिनके लिए अपना ख़ून-पसीना एक कर रहे हैं, वही एक दिन शहर में कर्फ्यू के नाम पर उन्हें  ढूंढ-ढूंढ कर मार डालेंगे।  

पिछले साल अक्टूबर में पंकज सुबीर की एक कहानी पढ़ी थी। इस लंबी कहानी में रामभरोसे छोड़े गए एक शहर की उस रात का ज़िक्र था जब किसानों की आत्महत्याएं रोकने के लिए सूबे के शासकों की प्रायोजित एक हाईप्रोफाइल रामकथा चल रही थी और इसी शंखध्वनि और भक्तिपूर्ण माहौल में एक हत्या इतनी शांति से हुई कि किसी के कानों तक मरनेवालों की उफ तक नहीं पहुंची। तब ये कहानी उतनी अच्छी नहीं लगी, मगर अब लगता है यही कहानी दिबाकर के ज़ेहन में चेहरा बदलकर उतर गई हो। अब लगता है कि ऐसी कहानियां बार-बार अलग-अलग मीडियम से हमारी आंखों के आगे घूमती रहें ताकि हमारी नींद में लोकतांत्रिक ख़लल पड़ती रहे।

कहानी के नाम पर ऐसा कुछ नया नहीं है, जो आपको दोबारा बताया जाए। सेलेब्रिटी आंदोलनों के दौर में आप और हम जिस करप्शन को पासवर्ड की तरह कंठस्थ कर चुके हैं, उसी का एक फिल्मीकरण भर है शंघाई। एक बहुत साधारण सी मर्डर मिस्ट्री जिसे फिल्म के आखिर-आखिर तक सुलझना ही है। मगर, इस कहानी में अच्छाई ये है कि इसके किरदार हमारे असली समाज से हैं। नाम बदल दिए जाएं तो आप इन किरदारों को अपने-अपने घरों में आसानी से पहचान सकते हैं। ये वही चेहरे हैं जो टीवी कैमरों के आगे अलग-अलग झंडों के साथ हमारा हमदर्द होने का भ्रम पैदा करते हैं। और कैमरा ऑफ होते ही अपनी-अपनी मां-बहनों के रेट तय करने लगते हैं। फिल्म में बस इतनी ही चतुराई बरती गई है कि कैमरा ऑफ कर दिया गया है, मगर साउंड रिकॉर्डिंग ऑन ही रह गई है। बस इसी के ज़रिए आप और हम सब कुछ सुन-समझ पाते हैं कि कैसे हमारी लाशों के टेंडर लग रहे हैं और हम खुशी-खुशी अपनी कब्रगाहों में गृहप्रवेश के शंख बजा रहे हैं। इससे ज़्यादा एक फिल्म से उम्मीद भी क्या कर सकते हैं।

फिल्म की कहानी पूरी तरह से फिल्मी और पुरानी भी है, मगर सुख इस बात का है कि आप मज़ा लेने के लिए एक राउडी राठौर (इन जैसी सभी फिल्मों के लिए विशेषण) नहीं, वो कहानी देख रहे हैं, जिसमें आप भी शामिल हैं। एक लड़की के हाथ में सिस्टम को नंगा कर देने वाली सीडी है। वो ऑफिसर तक बदहवास पहुंचती है। ऑफिसर कल वक्त पर ऑफिस में आने को कहकर लौटा रहा होता है, मगर फिर दोनों डर जाते हैं कि कल तक वो लड़की बचे न बचे। क्या हम और आप इस डर के साथ रोज़ नहीं जीते कि क्या पता हम जहां पहुंचना चाहते हैं, वहां हमसे पहले हमारी लाशें न पहुंच जाएं।

शांघाई ज़रूर देखिए। आप राजनैतिक तौर से स्वदेशी विकास के एजेंडे को मानते हों कि ग्लोबलाइज़ेशन के एजेंडे को, इस फिल्म में सबकी हक़ीक़त साफ दिखेगी। एक्टिंग के नाम पर कट्टर राजपूत बने इमरान हाशमी तक को चुम्मा लेने की इजाज़त नहीं है, इसीलिए आप बोर हो सकते हैं। मगर, आप ये ज़रूर जानना चाहेंगे कि आपके हत्यारे कौन हो सकते हैं। और हां, अगर कहीं मरने की आज़ादी हो तो किसी रोशनी वाली जगह में ही मरें वरना शहरों में कई लाशें पहचानने के लिए पुलिस के पास पर्याप्त लाइट तक नहीं होती।

फिल्म के गीतों ने बहुत दिनों बाद देशभक्ति गीतों का एक ख़ास पैटर्न समझने में मदद की है। एक वो दौर था जब संतोष आनंद की कलम के बूते भारत कुमार उर्फ मनोज कुमार मुंह को हाथ से छिपाकर, देशभक्तों को आवाज़ देते थे। फिर सन्नी देओल का दौर भी आया जब चीख-चीख कर ‘’मेरा भारत महान’’ हमारे कानों में उतार दिया गया। और तो और सलमान खान ने नचनिया बनकर भी ''ईस्ट या वेस्ट, इंडिया इज़ द बेस्ट'' का नारा दिया। मगर, उसके ठीक उलट इंडिया बना परदेसके बैनर तले अब इंपोर्टेड कमरिया लेकर नचनिया कमर मटका रही है। मगर, इत्मीनान रखिए, पिज़्जा-पॉपकॉर्न खाइए, ये कमर ‘’शांघाई’’ की है, भारत माता की नहीं। 
डेंगू, मलेरिया..सोने की चिड़िया...बोलो, बोलो, बोलो...भारत माता की जय...
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 7 अप्रैल 2012

मौत को क़रीब से देखना हो तो ''टाइटैनिक'' देखिए...

मौत को क़रीब से देखना हो तो 'टाइटैनिक' देखिए। थ्रीडी चश्मे से और करीब दिखती है मौत। एकदम माथे को चूमती हुई। सौ साल पुराना एक हादसा। हादसा क्या पूरा का पूरा प्रलय ही।
पिछली बार जब टाइटैनिक देखी थी तो स्कूल में था। कम से कम 14 साल पहले। किताब में टाइटैनिक का नाम सुना था और एक नंबर पाने के लिए इसके डूबने की तारीख भी याद थी। तब न थ्री डी के बारे में कुछ मालूम था और न मॉल या मल्टीप्लेक्स के बारे में। जुगाड़ से कुछ दोस्तों ने फिल्म देखी थी और बताया था कि टाइटैनिक इसीलिए देखनी चाहिए कि फिल्म का हीरो केट विंसलेट को न्यूड पेंट करता है और बहुत बड़े जहाज़ के किनारे समंदर की ऊंचाई पर खड़े होकर कुछ अच्छे रोमांटिक सीन भी हैं। वही सीन जो बाद में शाहरुख  बार-बार बांहें लहराकर बॉलीवुड की फिल्मों में दोहराते हैं और किंग खान बन जाते हैं। इस बार इसके आगे की टाइटैनिक देखने के लिए गया था।

फिल्म देखते हुए कई बार लगा जैसे हम भी सौ साल पहले उस जहाज़ में सवार हों। यही सिनेमा की सफलता है कि आपको किसी दूसरे टाइम और स्पेस से उठाकर अपने मनचाहे स्पेस में थोड़ी देर के लिए फिट कर दे। भोपाल गैस हत्याकांड से लेकर सुनामी, भुज और गोधरा, सब हिंदुस्तान में हुए, मगर मौत का इतना विराट, इतना महीन विश्लेषण अब तक किसी हिंदी (भारतीय) सिनेमा में कम देखा है। एक ऐसी प्रेम कहानी जो मौत की कसौटी पर भी दम नहीं तोड़ती। जेम्स कैमरून की सबसे उदास कविता है टाइटैनिक। दो प्रेमियों को जब सागर आगोश में लेने ही वाला होता है, तब भी वो एक-दूसरे पर भरोसे का वादा दोहराते हैं। ये एक ऐसी अद्भुत कल्पना है जिसे वही महसूस कर सकता है, जिसने शिद्दत से किसी की कमी महसूस की हो। और फिर काले चश्मे के भीतर से इस अहसास को जीने का सबसे बड़ा फायदा ये भी है कि कोई रोते हुए भी नहीं पकड़ सकता।

पूरी फिल्म ही अद्भुत पेंटिंग की तरह है। समंदर की भूख टाइटैनिक को निवाला बनाने ही वाली होती है तो कैमरुन एक बुज़ुर्ग जोड़े को एक साथ लिपटकर रोते दिखलाते हैं। और फिर बच्चों को कहानियां सुनाकर अनंत काल के लिए सुलाती मां। और डूबतेृ-डूबते मौत की आखिरी धुन बजाते वो अमर कलाकार। टाइटैनिक के डूबने से सिर्फ एक जहाज ही नहीं डूबा, 'एलिट' महत्वाकांक्षाओं का वो किला भी डूब गया, जिसपर आज भी पूरी दुनिया ताज्जुब करती है मगर बाज़ नहीं आती।
आपको मौक़ा मिले तो एक बार टाइटैनिक ज़रूर देखिए। अगर पहले देख रखी हो तब भी देखिए। देखिए कि जिन उजालों के भरम में हम जिस रफ्तार से सूरज की तरफ भागते चले जा रहे हैं, वो पलक झपकते अंधा बना सकती हैं।
अच्छा हुआ, थ्रीडी का चश्मा मॉल के भीतर ही वापस रख लिया। बाहर दुनिया की बारीकियां इतनी क़रीब से दिख जाएं तो आदमी सौ बार ख़ुदकुशी कर ले।


चलते-चलते गुलज़ार की ये नज़्म भी गुनगुनाते चलें


मौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको


निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

लेखकों की रचनाओं की चोरी की एफआईआर तक दर्ज नहीं होती...

जयप्रकाश चौकसे
सलीम-जावेद की लिखी ‘जंजीर’ ने अमिताभ बच्चन को सितारा बनाया, प्रकाश मेहरा की कंपनी को ठोस आर्थिक आधार दिया और कालांतर में यह कल्ट फिल्म मानी गई। इसी फिल्म से आक्रोश की मुद्रा बॉक्स ऑफिस पर ऐसे सिक्के के रूप में चल पड़ी कि आज तक लोग उसे भुना रहे हैं। इतना ही नहीं, इसी आक्रोश ने अन्य फिल्मकारों को भी एक रास्ता बताया और इसी के विविध रूप हिंदुस्तानी सिनेमा में छा गए हैं। गोविंद निहलानी की ‘अर्धसत्य’ भी इसी का उनका अपना संस्करण है। सच तो यह है कि राजकुमार संतोषी की ‘घायल’, ‘घातक’ ही नहीं, वरन् आज की ‘दबंग’ छवि भी उसी आक्रोश के हंसोड़ संस्करण हैं।


अब प्रकाश मेहरा के सुपुत्र अपूर्व लखिया नामक निर्देशक के साथ ‘जंजीर’ का नया संस्करण बनाने जा रहे हैं। ये तमाम लोग अमिताभ बच्चन और जया से आशीर्वाद लेने जा रहे हैं, जबकि नए संस्करण में अमिताभ के अभिनय को नहीं दोहरा रहे हैं। आप मूल फिल्म की पटकथा पर फिल्म बना रहे हैं और उसमें जो भी परिवर्तन करेंगे, वह मूल की छवि को बिगाड़ देंगे। सारे नए संस्करणों में कलाकार नए होते हैं, उनकी व्याख्या भी अलग होती है और संगीत भी अलग होता है, परंतु पटकथा का आधार नहीं बदलते और सारे पंच संवाद भी दोहराए जाते हैं। आप दर्जन दफा ‘डॉन’ बना लो, परंतु ‘डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है’ संवाद को दोहराते हैं, क्योंकि इस पर हर कालखंड में तालियां पड़ती हैं। इसी तरह ‘देवदास’ को मनके की माला की तरह दोहराइए, परंतु मेरुमणि संवाद, राजिंदर सिंह बेदी का लिखा ‘कौन कम्बख्त बर्दाश्त करने को पीता है..’, दोहराकर गिनेंगे नहीं, जैसे माला में सौ मनके होते हैं, परंतु एक मेरुमणि होता है, जिसे फिराते हैं, परंतु गिनती में शुमार नहीं करते। इसी बात को महान गालिब ने यूं फरमाया है- ‘हम ब आलम बरकिनार कुफनाद अय, चूं इमामे सबह बैंरू अज शुमार ऊफनाद अय’।


यही मेरुमणि की तरह वो तमाम पटकथाएं बना दी गई हैं कि नए संस्करण के लिए कलाकार का आशीर्वाद लेने जा रहे हो और मूल के लेखकों के श्राप से भय नहीं लगता। उनकी इजाजत लेने की भी आवश्यकता नहीं महसूस होती। उनकी गिनती ही नहीं है। यह अन्याय इसलिए हो रहा है कि हमारे कॉपीराइट के नियम लचर हैं और अपना एक्सपायरी समय पार कर चुके हैं और इसका नया स्वरूप संसद की उन अलमारियों में धूल खा रहा है, जहां सरकारों ने अनेक नरकंकाल भी छिपाए हुए हैं।

आज के दौर में सुर्खियों में बने रहने और आशीर्वाद की मुद्रा में फोटो खिंचाने का शौक शायद सबसे बड़ा लालच है और ये वे लोग कर रहे हैं, जिनकी तस्वीरों ने अपनी अधिक संख्या के कारण अलग किस्म का प्रदूषण रचा है। बहरहाल, जावेद साहब के सुपुत्र फरहान अख्तर ने ‘डॉन’ बनाने से पहले सलीम साहब से इजाजत मांगी थी। प्रकाश मेहरा के बेटे सलीम और जावेद से मिलना तक गैरजरूरी समझते हैं। वे किस अहंकार की जंजीर से बंधे हैं। उनके पिता ‘जंजीर’ के पहले मात्र संघर्षरत फिल्मकार थे। यह संभव है कि ‘जंजीर’ की कमाई का दूध उन्होंने बचपन में पिया हो। दूध के कर्ज के रूप में भी मूल के लेखकों से मिला जा सकता है।

हिंदुस्तान में भ्रष्टाचार में पैसा खा जाते हैं, कोयले की खदान खा जाते हैं, धरती की अंतड़ियों से उसकी सदियों की खुराक चुरा लेते हैं और आकाश से परिंदों की उड़ान चुरा लेते हैं, नदियों से पानी और हवा से ऑक्सीजन चुरा लेते हैं और इन सभी चोरियों के खिलाफ आंदोलन है, परंतु लेखकों की रचनाओं की चोरी की एफआईआर किसी थाने में लिखी तक नहीं जा सकती। दरअसल इस मुल्क में मौलिकता का मूल्य नहीं, विचार-संपदा का सम्मान नहीं, भाषा सौंदर्य की कद्र नहीं। मुल्क इस तरह से मरते हैं, क्योंकि उन्हें तो कोई और मौलिक तरह से मरना भी नहीं आता।

(Courtsey : Dainik Bhaskar)

गुरुवार, 29 मार्च 2012

'माय नेम इज़ खान...और मैं हीरो जैसा नहीं दिखता...'

जेएनयू में इरफान खान
इरफान खान का जेएनयू आना ऐसा नहीं था जैसे सलमान खान किसी मॉल में आएं और भगदड़ मच जाती हो। भीड़ थी, मगर अनुशासन भी था। वो ख़ुद चिल्लाने के लिए कम और एक संजीदा एक्टर को सुनने का मूड बनाकर ज़्यादा आई थी। करीब दो घंटे तक इरफान बोलते रहे और एक बार भी धक्कामुक्की या हूटिंग जैसी हरकतें नहीं हुईं। इस भीड़ में मैं इरफान से दस क़दम की दूरी पर अपनी जगह बना पाया था। मैं उस पान सिंह तोमर को नज़दीक से देखने गया था जिसने चौथी पास एक फौजी के रोल में बड़ी आसानी से कह दिया कि ‘सरकार तो चोर है, इसीलिए हम सरकारी नौकरी के बजाय फौज में आए।’ और ये भी कि, ‘बीहड़ में बाग़ी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में’। गर्मी के मौसम में भी गले में मफलर लटकाए इरफान सचमुच बॉलीवुड की भेड़चाल से अलग दिखते हैं। जेएनयू की उस भीड़ में ही मौजूद कुछ लड़कियों की ज़ुबान में कहें तो ‘अरे, ये तो कहीं से भी हीरो जैसा नहीं लगता।’

सचमुच, इरफान हीरो जैसा कम और एक हाज़िरजवाब युवा ज़्यादा लगने की कोशिश कर रहे थे। जेएनयू में पान मिलता नहीं, मगर बाहर से मंगवाकर पान चबाते हुए बात करना शायद माहौल बनाने के लिए बहुत ज़रूरी था। एकदम बेलौस अंदाज़ में इरफान ने लगातार कई सवालों का जवाब दिया। जैसे अपने रोमांटिक दिनों के बारे में, कि कैसे वो दस-पंद्रह दिनों तक गर्ल्स हॉस्टल में रहने के बाद पकड़े गए और उनके खिलाफ हड़ताल हुई। या कि ‘हासिल’ के खांटी इलाहाबादी कैरेक्टर में ढलने के लिए उन्हें कैसे तजुर्बों से गुज़रना पड़ा। हालांकि, राजनीति या सिनेमा पर पूछे गए कई सीरियस सवालों पर अटके भी और हल्के-फुल्के अंदाज़ में टाल भी गए।

हाल ही में रिलीज़ हुई पान सिंह तोमर में इरफान की एक्टिंग ने उन्हें बॉलीवुड के मौजूदा दौर के सबसे बड़े अभिनेताओं में शामिल कर दिया है। वो एक सेलेब्रिटी तो नहीं, मगर आम और खास दोनों तरह के दर्शकों में बेहद पसंद किए जाने लगे हैं। उनकी आवाज़ की गहराई, बोलने का अंदाज़ और हाज़िरजवाबी जैसे जेएनयू की उस शाम दिखी, वो फिल्मी पर्दे से बिल्कुल अलग नहीं लगी। वो हर जगह एक जैसे ही नज़र आते हैं। हद तक नैचुरल दिखने वाले एक एक्टर। माइक बार-बार ख़राब होने, जेएनयू के सिर के ऊपर से दर्जनों बार हवाई जहाज़ के गुज़रने और जैसे-तैसे सवालों से दो घंटे तक टकराते हुए भी चेहरे पर कोई फिज़ूल का उतार-चढ़ाव नहीं था।

इरफान को सिनेमा में पहचान दिलाने वाले आज के दौर के सबसे काबिल निर्देशक तिग्मांशु धूलिया भी यहां पहुंचने वाले थे, मगर किसी वजह से नहीं आ सके। वो आते तो सिनेमा पर कुछ और सवाल सुनने को मिल सकते थे, और सटीक जवाब भी। दरअसल, मेरे वहां पहुंचने की ख़ास वजह तिग्मांशु को ही एक नज़र नज़दीक से देखना था। एक एक्टर से ज़्यादा ज़रूरी मुझे हमेशा से एक निर्देशक लगता है।

बहरहाल, सिर्फ इरफान के साथ भी भीड़ जमी रही, जिन्होंने बड़ी इमानदारी से कई सवालों पर अपनी राय रखी। इरफान ने कहा कि उन्हें अपने साथ लगा ‘ख़ान’ का टैग किसी बोझ जैसा लगता है। उनका बस चले तो वो अपने नाम से इरफान भी हटाना चाहेंगे और उस घास की तरह सूरज की रोशनी महसूस करना चाहेंगे जिसकी पहचान सिर्फ ज़मीन से जुड़ी होती है। आखिर-आखिर तक प्रोग्राम खिंचने लगा था। हालांकि कार्यक्रम के मॉडरेटर और अविनाश दास और प्रकाश सवालों को बढ़िया मिक्स कर रहे थे ताकि भीड़ वहां बनी रहे। हां, एकाध शुद्ध हिंदी में पूछे गए सवालों को मॉडरेटर साहब जिस तरह मज़ाक उड़ाने के अंदाज़ में मज़े ले-लेकर पढ़ रहे थे, वो भीड़ को भले गुदगुदा रहा था, मगर उस सवाल पूछने वाले को बड़ा हिंसक लग रहा होगा, जिसने दिल लगाकर अंग्रेज़ी होते जा रहे सेलिब्रिटी युग में अपनी भाषाई काबिलियत के हिसाब से एक बेहतर सवाल हिंदी में रखने की जुर्रत की थी।  थोड़ा सा अफसोस मुझे भी हुआ था, लेकिन भीड़ में हर एक का ध्यान तो नहीं रखा जा सकता। वो भी तब जब इरफान के पसंदीदा लेखक कोई और नहीं हिंदी साहित्य के सबसे लोकप्रिय नामों से एक उदय प्रकाश रहे हैं।

(प्रोग्राम के ठीक बाद गंगा ढाबा पर तेलुगू दोस्त प्रदीप मिले तो मैंने बड़ी उत्सुकता से बताया कि आज इरफान ख़ान से मिलने-सुनने का मौका मिला। प्रदीप ने कहा, ‘ओके’...फिर कहा, ’लेकिन, ये इरफान ख़ान है कौन??’ मेरी खुशफहमी दूर हो गई कि बॉलीवुड पूरे भारत का सिनेमा है।)
 
निखिल आनंद गिरि

(ये लेख मोहल्लालाइव पर भी प्रकाशित हुआ है...)

रविवार, 4 दिसंबर 2011

हर शरीफ आदमी को 'डर्टी पिक्चर' ज़रूर देखनी चाहिए...

क्या इत्तेफाक है कि 'रॉकस्टार' और 'द डर्टी पिक्चर' के रिलीज़ होने की तारीखें लगभग अगल-बगल थीं। रॉकस्टॉर जहां छूटती है, 'डर्टी पिक्चर' उसी दर्शन (फिलॉसफी) को ठीक से पकड़ लेती है। रॉकस्टार के जनार्दन (रणबीर) को ज्ञान मिलता है कि ज़िंदगी में रॉकस्टार बनना है, बड़ा बनना है तो दर्द पैदा करो, ट्रैजडी से ही मिलेगी कामयाबी। फिर रणबीर जैसे-तैसे एक ट्रैजडी ढूंढ पाते हैं और रॉकस्टॉर बनते हैं। इधर डर्टी पिक्चर में रेशमा (विद्या बालन) को ट्रैजडी ढूंढनी नहीं पड़ती। वो ख़ुद ही एक ट्रैजडी है क्योंकि वो एक औरत है। ग़रीब है, ख़ूबसूरत भी नहीं है और सपने बड़े हैं। रेशमा को मालूम है कि इस 'मर्दाना' समाज की जन्नत अगर है तो औरत के कपड़ों के भीतर है तो वो अपनी ट्रैजडी का जश्न कपड़े उतारकर मनाना शुरू करती है। वो फिल्मी दुनिया के सबसे बड़े सुपरस्टार(नसीरुद्दीन शाह) को साफ कहती है कि अब तक आपने 500 लड़कियों के साथ 'ट्यूनिंग' की होगी, मैं अकेली आपके साथ पांच सौ बार 'ट्यूनिंग' करने को तैयार हूं। फिर रेशमा को सिल्क बनने से कौन रोक सकता है। सिल्क यानी फिल्मी पर्दे पर 'सेक्स की देवी' जिसके दर्शन करने के लिए लोग टिकट ख़रीदते हैं और बाकी फिल्म को उसके हाल पर छोड़ जाते हैं। इंटरवल से पहले तक फिल्म एक तरह से देह का उत्सव है। बगावत का वो फॉर्मूला जो पूरी दुनिया हर दौर में अलग-अलग तरीकों से अपनाती रही है।
इंटरवल से पहले आप उस रेशमा को सिल्क बनते बार-बार देखना चाहेंगे क्योंकि वो एक गहरे दलदल में धंसकर भी कमल की तरह साफ लगती है। वो जो करती है, पूरी ठसक के साथ। मर्दानगी को मुंह चिढ़ाती हुई। जब फिल्म कहती है कि बड़े-बड़ों ने मुंह काला कर के ही नाम कमाया है, तो लगता है ये सिर्फ 80 के किसी संघर्ष की ग्लैमरस दास्तान नहीं, हर दौर का सच है। नैतिकता (MORALITY)के मुंह पर कालिख पोतती हुई फिल्म आगे बढती रहती है। नैतिकता का नारा बुलंद करते एक जुलूस का हिस्सा बनी एक औरत के हाथ में पोस्टर है CINEMA'S LOWEST LOW..और इसका इल्जाम भी एक औरत सिल्क पर! फिल्म का बेहतरीन दृश्य। ऐसे कई सीन हैं, जहां आप लंबी सांसे भरकर फिल्म को आगे बढ़ने देते हैं और यकीन मानिए वो सीन बिस्तर पर फिल्माए नहीं गए।


नसीरुद्दीन साहब जैसे बेहतरीन अभिनेता के लिए एक साधारण फिल्म में भी हमेशा कुछ न कुछ बचा ही रहता है। वो न होते तो विद्या बालन अकेले ही फिल्म की सारी वाहवाही लूट जातीं। विद्या बालन इस दौर की एक ऐसी खोज हैं जिसे हिंदी सिनेमा कई बार इस्तेमाल करना चाहेगा। क्या कमाल की एक्टिंग है। बेशक आप इंटरवल के बाद उठकर चले आइएगा, लेकिन विद्या के लिए ये फिल्म ज़रूर देखें। बिस्तर पर पड़ी सिल्क नसीरुद्दीन शाह के साथ 'ट्यूनिंग' कर रही है और अचानक दरवाज़े पर उनकी बीवी दस्तक देती है। नसीर सिल्क को छिप जाने के लिए कहते हैं। फिर बीवी अंदर आती है। फिर बाथरूम में छिपी सिल्क दरवाज़े के सुराख से झांककर देखती है कि कैसे एक मर्द तुरंत पति बन जाता है और नैतिकता (morality) भोलेपन से बिस्तर पर पड़ी रहती है। 'गंदी' सिल्क के पास अब दुनिया में वापस दाखिल होने के लिए बस एक चोर दरवाज़ा ही होता है। ख़ुद की 'असलियत' पहली बार उस छोटी सी रोशनी से साफ दिखती है और फिर आखिर तक दिखती है। उस अमीर कार के काले शीशे पर भी जब वो एक पॉर्न फिल्म से  बचते-बचाते भाग रही होती है या या फिर जब एक तरफ सिल्क के पीछे पूरा हुजूम होता है और दूसरी तरफ आधे खुले दरवाज़े पर खड़ी मां। सिल्क को भीड़ नहीं मां का प्यार चाहिए, मगर उसे मां नहीं मिलती, सिर्फ भीड़ मिलती है।
ले जाओ सब ये शोहरतें, ये भीड़, ये चमक
रोने के वक्त, हंसने की बेचारगी न हो....
इंटरवल के बाद फिल्म में इमरान हाशमी एक साफ-सुथरे कुएं में भांग की तरह हैं। पूरी फिल्म का ज़ायका ख़राब कर देते हैं। फिर अचानक आपको होश आता है कि धत तेरे की, हम एकता कपूर से किसी मास्टरपीस की उम्मीद कैसे करने लगे थे। इमरान हाशमी 'अच्छी, साफ-सुथरी' फिल्में बनाने वाले डायरेक्टर की भूमिका में वैसे ही लगते हैं जैसे कोई आपसे सरदारों वाला मज़ाक करे और आपको हंसी भी न आए। ऐसा लगता है जैसे इंटरवल के बाद और पहले की फिल्में दो अलग-अलग फिल्में हैं। जैसे फिल्म बनाने वालों को अब भी ये भरोसा नहीं था विद्या और नसीर जो जादू कर चुके हैं, उतना एक फिल्म को हिट करने के लिए काफी होगा। उन्हें अब भी विद्या से ज़्यादा इमरान पर भरोसा है। इस भरोसे से हिंदी सिनेमा जितनी जल्दी उबरेगा, हम एक मुकम्मल फिल्म की उम्मीद कर सकेंगे।

रजत अरोड़ा को आप ONCE UPON A TIME IN MUMBAI में सुन चुके हैं। डायलॉग्स का वही जादू यहां भी होलसेल में मिलता है। आप कौन सा डायलॉग अपने साथ घर लेकर जाएं, समझ नहीं आता। ''जब शराफत अपने कपड़े उतारती है तो सबसे ज़्यादा मज़ा शरीफों को ही आता है।'' हालांकि, रजत को भी अपनी अच्छी कलम पर भरोसा नहीं है, इसीलिए वो 'अगर सिल्क दुनिया की आखिरी लड़की होती, तो मैं नसबंदी करा लेता' जैसे फूहड़ डायलॉग्स का भी सहारा लेते हैं।

पता नहीं हाल की कुछ फिल्मों को क्या हो गया है। वो शुरु होते-होते बहुत ठीकठाक लगती हैं और फिर ख़ुद में ऐसे उलझ जाती हैं कि आखिरी घंटा झेलना मुश्किल हो जाता है। हम सिल्क को 'जीतते' हुए देखना ज़्यादा पसंद करते। ठीक है कि फिल्म किसी पुरानी एक्ट्रेस 'सिल्क स्मिता' की कहानी पर आधारित है जिसने आखिर में खुदकुशी ही की थी। लेकिन क्या हम फिल्म की आज़ादी का इस्तेमाल कर सिल्क को एक औरत की तरह नहीं देख सकते, जिसके लिए खुदकुशी से भी बेहतर रास्ते होते। ग्लैमर क्या हर बार ग्लानि पर ही ख़त्म होता है। क्या सचमुच ये चमचमाती रौशनियां उसी मोड़ पर ले जाकर छोड़ती है जहां सिर्फ मायूसी है और ज़िंदगी महसूसने का आखिरी मौका। सिल्क को फिल्म के ज़रिए एक बेहतर ज़िंदगी मिलती तो शायद ज़्यादा अच्छा लगता। शायद मर्लिन मुनरो, मीना कुमारी, परवीन बाबी, विवेका बाबाजी जैसी कई दर्द भरी कहानियों पर मरहम जैसा असर करतीं।

मगर नही, फिल्म बनाने के लिए जिन तीन चीज़ों की ज़रूरत है, वो ज़रूरत पूरी की जा चुकी है। और वो ज़रूरत है Entertainment, Entertainment और Entertainment। फिल्म बनाने वालों को लगता है कि सिल्क की कहानी में इतना दिमाग खुजाने की ज़रूरत ही क्या है, जब पब्लिक कहीं और खुजाना चाहती है।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 15 अगस्त 2011

प्रकाश झा का 'यूफोरिया' उर्फ आरक्षण...

अंग्रेज़ी में ‘यूफोरिया’ शब्द की तस्वीर में एक तरह के मानसिक उन्माद की स्थिति उभरती है जहां सावन के अंधे को सब हरा ही हरा लगता है...साइंसदानों की भाषा में इस परिस्थिति को Ideal state या आदर्श स्थिति भी कह सकते हैं जो असल में मुमकिन नहीं होती...आरक्षण के निर्देशन में प्रकाश झा फिलहाल उसी स्थिति के मारे दिखते हैं...ऐसी स्थिति तब आती है, जब आप ओशो या किसी और आध्यात्मिक गुरु की शरण में हों । प्रकाश झा शायद किसी ऐसे ही बॉलीवुडिया कहानी क्लब के मेंबर लगते हैं जहां होम्योपैथी की मीठी गोलियों की तरह मीठी-मीठी कहानियां बुनी जाती हैं। ‘राजनीति’ में इस मीठी गोली का असर कम था और ‘आरक्षण’ तक आते-आते साइड इफेक्ट भी ज़ाहिर होने लगे हैं। हालांकि, फिल्म का नाम बदल दिया जाए तो एक बार देखने में बुराई भी नहीं है।

आरक्षण जैसे विकराल, संवेदनशील और जटिलतम मुद्दे का इतना आसान समाधान निकालना प्रकाश झा की फिल्मी मजबूरी भी है और एक हद तक सफलता भी। सफलता इस मायने में कि वो बिना किसी पार्टी या विचारधारा पर चोट किए हुए अपनी कहानी का नाम भर ‘आरक्षण’ रख लेते हैं और इतने भर से उन्हें इतनी बदनामी मिलती है कि फिल्म आपकी-हमारी ज़ुबां पर चढ़ चुकी है। हालांकि, फिल्म रिलीज़ के तीसरे दिन ही हॉल इस क़दर ख़ाली था जैसे दिल्ली में कोई साउथ इंडियन मूवी लगी हो।

फिल्म की कहानी में आरक्षण का मुद्दा नमक जितना ही मौजूद है। बाक़ी तो अमिताभ ही अमिताभ हैं। वो अपने भारी-भरकम आवाज़ में जो भी कहते हैं, सच जैसा लगता है। हालांकि, उन्हें अब किसी सलीम-जावेद की ज़रूरत नहीं, मगर फिल्म में वो ‘एंग्री ओल्ड मैन’ बनकर उभरे हैं और केयरिंग ओल्ड मैन’ भी । उनके पास अब उम्र कम बची है वरना इस रोल की ताज़गी मुझे कई दिनों बाद अच्छी लगी। वैसे फिल्म के पहले हाफ में वो धृतराष्ट्र की तरह दिखते हैं, जहां सब कुछ होता जाता है और वो उसूलों का खूंटा गाड़े रहते हैं।

ख़ैर, प्रकाश झा की ‘आरक्षण’ में कुछ वैसी ही बुनियादी ख़ामिया हैं जैसी मजहर कामरान ‘मोहनदास’ बनाने में कर गए थे। विषय के मर्म से लगाव मेरी तरह का पाठक या छिटपुट कवि बना सकता है, बड़ा फिल्मकार नहीं। उसके लिए लंबा होमवर्क और फिर सही किरदार चाहिए जो मुझे नहीं दिखे। सैफ और दीपिका कहीं से भी इस फिल्म में नहीं लिए जाने चाहिए थे। अजय देवगन तो प्रकाश झा के फेवरेट थे, पर पता नहीं इस बार क्यों नहीं राज़ी हुए। और विद्या बालन की क़ीमत दीपिका से ज़्यादा तो नहीं। ऊपर से प्रतीक की एक्टिंग और उनके हिंदी में बोले डॉयलॉग्स ठीक वैसे ही नकली लगते हैं जैसे आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में ख़ेमों की राजनीति करते नेता। गाने प्रकाश झा की मजबूरी से बन गए हैं। फिल्म की शुरुआत में ज़बरदस्ती दो गाने टपक पड़ते हैं जब आप इसके लिए तैयार नहीं होते। ‘’एक चानस तो दे दे…’’ गाने के भाव गहरे हैं मगर प्रसून जोशी ने इसलिए तो नहीं ही लिखे होंगे कि प्रतीक छिछोरे अंदाज़ में इस जुमले का प्रयोग दीपिका पर लाइन मारने के लिए लुटा दें। हालांकि, छन्नूलाल जी की आवाज़ में ‘’सांस अलबेली..’’ लाजवाब गीत है।

अब कहानी पर आते हैं। ठीक वैसे ही भटकी हुई है, जैसे देश में आरक्षण का मुद्दा भटका हुआ है। फिल्म में बस शिक्षा के बाज़ार बनते जाने के बीच में आरक्षण को लेकर कुछ नाटकीय डायलॉग्स हैं जिन्हें हम बार—बार थियेटर में सुन चुके हैं। दलितों-वंचितों के दुख से अनजाने में आहत और ब्राह्मणवाद से त्रस्त इस पीढ़ी को ही हर क़ीमत चुकानी है और ये हर जाति-वर्ग की त्रासदी है। पटना के सुपर-30 से लेकर रांची, दिल्ली कोटा तक पसरे प्राइवेट कोचिंग संस्थानों के पीछे की दुकानदारी के बीच प्रकाश झा वैसी ही उम्मीद लेकर आए हैं, जैसे मजबूर मनमोहन के अंगूठे की छाप पर यूपीए ‘राइट टू एजुकेशन’ लेकर आई थी। इस बात के लिए प्रकाश झा को दाद मिलनी चाहिए कि उन्होंने अपनी तमाम क्षमताओं के साथ नई पीढ़ी को हर तरह से बराबर एक समाज का सपना दिखाया है। हालांकि, ऐसा उत्थान तो लालू यादव भी चरवाहा विद्यालय खोलकर चाहते थे मगर मंशा ठीक न हो तो फिल्म और हकीकत दोनों ही फालतू लगते हैं। प्रकाश झा को ऐसे मुद्दों पर किसी फिल्मी राइटर से अच्छा किसी पॉलिटिकल या कम से कम साहित्यिक राइटर से कहानी में मदद लेनी चाहिए थी ताकि फिल्म में मसाले के अलावा भी कुछ स्वाद आता।

अब एक सीन देखिए। आरक्षण के नाम पर अचानक बवाल कटा है और माहौल एकदम सीरियस है। इन सबके बीच दीपिका अपने दीपक के साथ मूवी देखने को बेकरार है। ये उतना ही गैर-ज़िम्मेदाराना था जितना उस मीडियाकर्मी का अमिताभ से सवाल कि आप प्रिंसिपल से अपराधी बन गए, क्या कहना चाहेंगे। या फिर उस पंडित छात्र का विशुद्ध हिंदी बोलना और बात-बेबात अमिताभ का फिलॉसॉफी झाड़ना। (दीपिका यूं ही नहीं ऊबकर कह देती है कि डैडी, आई हेट माई लाइफ)। मनोज वाजपेयी फिल्म-दर-फिल्म उम्दा होते जा रहे हैं, इसमें कोई शक नहीं। ठीक उसी स्पीड से जैसे प्रकाश झा स्तर खोते जा रहे हैं।

कुल मिलाकर आरक्षण की मूल व्यवस्था के खिलाफ लगती है प्रकाश झा की ‘आरक्षण’। पूरी तरह से नहीं, मगर इस मायने में कि मुद्दे की नस को समझ ही नहीं पाए प्रकाश झा। कोचिंग संस्थानों के बीच से गुदड़ी के लाल निकालने के लिए ही लड़ते रह गए पूरी फिल्म में। तभी तो हमारी जाननेवाली आंटी से मैंने जब पूछा कि फिल्म देखने क्यों नहीं गईं तो उन्होंने कहा कि मैंने वाशिंग मशीन में कपड़े डाले हुए थे और अगर मैं फिल्म में टाइम ख़राब करती तो कपड़े ख़राब हो जाते !!

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 2 जुलाई 2011

उन्हें गालियां बेचनी हैं, हमें हंसी ख़रीदनी है...

65 साल के  हैं डॉ प्रेमचंद सहजवाला...दिल्ली में मेरे सबसे बुज़ुर्ग मित्र....दिल्ली बेली देखने का मन मेरा भी था, उनका भी...हालांकि, चेतावनी थी कि इसे बच्चों के साथ न देखें...मतलब, 'बूढ़ों' के साथ भी न देखने की छिपी हिदायत भी थी....फिर भी, हमने सपरिवार जाने का रिस्क लिया....मतलब, प्रेमचंद जी, उनकी हमउम्र पत्नी, सुपुत्र कानू और मैं....हॉल की सबसे बुज़ुर्ग ऑडिएंस के साथ कानू और मैं थोड़ा असहज तो थे, मगर अनुभव अलग ही था....ख़ैर, पूरी फिल्म देखने के बाद प्रेम अंकल और आंटी चुपचाप बाहर निकल गए...अंकल ने बिना पूछे कहा,  ये फिल्म आमिर ने बनाई है, ये यक़ीन नहीं होता...और आंटी से मैंने राय मांगी तो उन्होंने कहा, क्या सचमुच इस पर कुछ डिस्कशन की जा सकती है...तो मैंने समीक्षा लिखने का विचार  छोड़कर ये कविता ही लिख डाली..हां, मेरा इतना ही कहना है कि आइंदा समीक्षा पढ़कर फिल्म देखने से पहले दस बार सोचूंगा..आखिर, दो सौ रुपये  (और मेट्रो का किराया अलग से) की भी कोई क़ीमत होती है....

कभी आईने के सामने खड़े होकर

ज़ोर-ज़ोर से बकी हैं गालियां आपने?
बकी तो होंगी कभी किसी पर खीझ से....
मगर हंसी तो नहीं आई होगी ज़रा-सी भी...
अच्छा बताइए,
आप टट्टी देखकर कितनी देर तक खुश हो सकते हैं...


क्या दो सौ रुपये देकर कहा है किसी को आपने,
कि भाई बको गालियां कि हमें हंसना है...
मेरी पीठ के नीचे का जो हिस्सा है...
वहां पटाखे बांध कर जला दो भीड़ में....
थकी-हारी भीड़ खिलखिला ले ज़रा...

क्या मेट्रो में सवार उदास चेहरों को पढ़कर
शर्तिया बता सकते हैं आप,
कि वो किसी ऐसे फ्लैट में रहते हैं,
जिनके मकानमालिक दिखने में शरीफ हों,
और हों एक नंबर के अय्याश?
कि जहां पानी नहीं आए,
तो संतरे के जूस से हगना-मूतना संपन्न होता हो...

खैर छोड़िए, इतना बता दीजिए...
बाज़ार में कब नहीं थी गालियां
या हमारे घर में ही...
इतना तो मानते ही होंगे
कि आदमी के पास जब कुछ कहने को नहीं होता खास..
तभी कुंठा में निकल आती हैं गालियां...

क्या रोग सिर्फ दिल्ली के पेट में होते हैं?
और जहां टिशू पेपर या संतरे नहीं मिलते,
वहां क्या घास की ज़मीन रगड़ने पर भी हंसते हैं लोग?
ख़ैर छोड़िए, हम जादा कहेंगे तो आप कहेंगे
कि कोई शहरी गालियां बेचकर ‘अमीर’ खान बनता है,
तो हमारे भीतर का गंवार मन कुढ़ता है....

शहर की भीड़ में बने रहने के लिए...
हम भी तीन घंटे की मोहलत निकालते हैं,
गालियां सुनकर आते हैं
और लोटपोट हो जाते हैं..

निखिल आनंद गिरि
(‘दिल्ली बेली’ से सही-सलामत लौटकर आनन-फानन में यही लिखना बन पड़ा)

सोमवार, 3 जनवरी 2011

कंपकंपाती ठंड में मल्टीप्लेक्स की 'मिर्च' का मज़ा...

फिल्म की शुरुआत में ही रिलायंस ग्रुप का बोर्ड लगा दिखे तो ये चिंता दूर हो जाती है कि आप जिस फिल्म को देखने जा रहे हैं, वो बेहद तंगहाली में बनाई गई होगी, इसलिए अच्छी हो या बुरी, निर्देशक के साथ सहानुभूति ज़रूर रखी जानी चाहिए। विनय शुक्ला कोई नए डायरेक्टर नहीं हैं...अवार्ड विनिंग फिल्में बनाना उनका मकसद रहा है और इस लिहाज से ये फिल्म भी सफल करार दी जानी चाहिए। ये अलग बात है कि मेरे साथ हॉल में फिल्म देखने वाले सिर्फ चार लोग ही और थे। चार से याद आया, फिल्म का नाम चार कहानियां भी रखा जा सकता था, क्योंकि इसमें क्रेडिट्स आने तक चार अलग-अलग मगर एक जैसी कहानियां चलती हैं।

मुंबई में संघर्षरत एक फिल्म राइटर अपनी गर्लफ्रेंड के संपर्क से एक प्रोड्यूसर से मिलता है और उसे अपनी वो कहानी सुनाता है, जिस पर दो सालों से वो फिल्म बनाने की सोच रहा है....फिल्म में संघर्ष आगे बढ़ना है इसलिए कहानी रिजेक्ट हो जाती है...खैर, वो दूसरी कहानी ढूंढता है, जिसमें प्रोड्यूसर के मनमाफिक बिकाऊ सेक्स भी होता है। इस दूसरी कहानी में चार कहानियां हैं, कुछ औरतें हैं, मर्द हैं और शरीर की हेराफेरी है। जो आदर्शवादी कहानी रिजेक्ट होती है, वो क्या थी, इसका पता ग्यारह मुल्कों की पुलिस भी नहीं लगा सकती। बस, वो अज्ञात कहानी हज़ारों-लाखों फिल्म लेखकों के ज़ख्मों को सहलाने का काम कर जाती है, जो बिहार से लेकर बंबई (वाया दिल्ली) तक एकाध स्क्रिप्ट लिए गुलज़ार बनने का ख्वाब पाले बैठे हुए हैं।

फिल्म में पंचतंत्र से लेकर इटालियन लोककथाओं तक के तमाम रेफरेंसेज़ हैं। यही फिल्म की जान भी हैं। कहानी आगे बढ़ाने का तरीका कहीं से कमज़ोर नहीं है। कहानी के भीतर कई कहानियां चलती हैं और इस तरह से ग्रिप बना रहता है। बेहद खूबसूरत लोकेशन्स और कसे हुए संवादों के बीच कहानी कहीं छूटती नहीं और नारी-विमर्श का सबसे प्रचलित रूप भी ठीकठाक आगे बढ़ता है। जैसा कि विनय कई जगह दावा करते हैं कि ये वुमैनहुड (नारीत्व) का उत्सव है, लगभग सही ही लगती है। मगर, ये उत्सव बौद्धिकता की आड़ में मसाला फिल्म ही बनकर रह जाता है। पंचतंत्र से लेकर राजा-रजवाड़ों और फिर मुंबई की अफरातफरी वाली ज़िंदगी में लड़की के लिए शरीर का जुगाड़ कभी मुश्किल नहीं रहा। ये फिल्म शक, अफवाहों और साज़िशों के बीच हर बार यही बात साबित करती दिखती है। एक कमज़ोर दिल का दर्शक अगर ढंग से ये फिल्म देखना शुरू करें तो बगल में बैठी प्रेमिका उसे मांस के टुकड़ों वाली लड़की से ज़्यादा कुछ नहीं लगेगी, ‘वेश्या’ तक लग सकती है। हर औरत इतनी चालू, चालबाज़ और चालाक लगने लगे कि भोलाभाला दर्शक मान बैठे कि सिर्फ शरीर के उत्सव का जुगाड़ ढूंढने में ही औरत कितनी ओवरस्मार्ट हो सकती है। कम से कम नारी की आज़ादी का उत्सव मनाने का ये मकसद तो नहीं ही होना चाहिए कि हर मर्द को मानसिक रूप से इतना बीमार दिखाया जाए कि उसे अपने होने पर शर्म आने लगे। विभूति नारायण राय को फिल्म दिखाकर नए साल में पूछा जाना चाहिए कि नारी को लेकर उनका संकल्प कुछ बदला कि नहीं।

आखिर तक आते-आते फिल्म थोड़ी लंबी और उबाऊ लगने लगती है। आखिरी कहानी तो बेहद चलताऊ किस्म की है, जिसमें एक अधेड़ पति होटल बुक करता है और लड़की की डिमांड करता है तो उसकी बीवी ही परोस दी जाती है। यहां तक की मजबूर औरतें तो हम पहले भी देख चुके हैं मगर कॉमिक ट्विस्ट ये है कि बीवी एक पेड सेक्स वर्कर होती है और रूमसर्विस वाले लड़के पर झल्लाती है कि साले, क्लाइंट देखने से पहले दिमाग तो लगा लिया कर। बोमन इरानी और कोंकणा सेन के नाम पर ये सीन बिना उल्टी किए हजम कर सकते हैं, वरना सड़क पर बीसियों रसीली कहानियों वाली किताबें पड़ी मिलती हैं।

गाने और एक्टिंग के मामले में पूरी फिल्म में कोई दिक्कत नज़र नहीं आती। जावेद अख्तर आखिर तक अपने लिए गुजाइश निकाल जाते हैं। ये हिंदुस्तानी गीत ही हैं जो तमाम तरह के नकल और इंस्पिरेशन से बनी हुई फिल्मों के दौर में देसी और ओरिजिनल लगते हैं। मंजे हुए एक्टर्स के दम पर ही फिल्म वैसे दृश्य भी आसानी से निकाल ले जाती है जो किसी दबंग या तीसमारखां टाइप निर्देशक के हाथ में पड़कर सचित्र सेक्स कहानी बन सकती थी।

अभिनेत्री इला अरुण यहां भी हैं...उनकी आवाज में गाए गीत नारी मुक्ति के बिंदास स्लोगन की तरह लगते है। फिल्म में इला अरुण के संवाद और गीत से न जाने क्यों खलनायक का वो गीत चोली के पीछे क्या है...याद हो आता है जब माधुरी दीक्षित पहली बार लेडी महानायिका बनकर उभरी थी और सचमुच मर्दप्रधान बॉलीवुड में नारी उत्सव मनाया जाना चाहिए था। खैर, वो उत्सव तो गाने को लेकर मची तोड़फोड़ में भंग हो गया।

बतौर फिल्मकार, विनय शुक्ला का चिंतन सीरियस है। फिल्म में कोई आमिर, शाहरूख या सलमान तक होते तो शर्तिया लाखों दर्शक टूट पड़ते क्योंकि उनके लिए बहुत कुछ तीखा है पूरी फिल्म में। इस तरह कह सकते हैं कि ये अपने दौर से काफी आगे की फिल्म है। ऐसी फिल्में बार-बार बनाई जानी चाहिए कि फैमिली ड्रामा के नाम पर फूहड़ फिल्में देखने का आदी हो चुका हिंदुस्तानी दर्शक अपने भीतर छिपे एक बुद्धिमान दिमाग को ढूंढ निकाले। हिंदुस्तान में मल्टीप्लेक्स तो आ गया है, मगर उस माइंडसेट वाले दर्शक अब भी आने बाक़ी हैं। कम से कम पूरी फैमिली के साथ तो नहीं ही आ सकते। अभी तक तो मल्टीप्लेक्स का दर्शक उसी घिसे-पिटे मर्दाना डायलॉग्स पर तालियां पीटता है, जब बड़े पर्दे का सुपरस्टार और छोटे पर्दे का शेफ ये कहता हुआ ‘तीसमारखां’ बनता है कि उसे पकड़ना और तवायफ की लुटती हुई इज़्ज़त बचाना नामुमकिन है।

निखिल आनंद गिरि
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