शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

लौटना

किसी अनमने दोपहर की
लंबी चुप से निकली कई-कई आवाज़ें
अंतरिक्ष से टकराकर लौट आती हैं
सपनों में प्रवेश कर जाती हैं चुपके से
ऐसे ही लौटना है एक दिन।

जैसे लौटता है पलटू महतो
हर तीन फीट की खुदाई के पास
बहुत सारी सांसे लेकर
एक कश बीड़ी के लिए।

जैसे लौटता है पिटकर
भगीरथ डोम
थाने से हलफनामे के बाद
बीवी-बच्चों के लिए
सूजा हुआ समय लेकर।

लौट आती हैं नानी-दादियां
झुर्रियों से पहले वाले दिनों में
छुट्टियां बिताने आए नाती-पोतों के संग।

लौटते हैं अच्छे मौसम
या जैसे रेलगाड़ियां
बेसुध इंतज़ार के बाद।

जैसे लौटती है पृथ्वी
अपनी धुरी पर
युगों की परिक्रमा के बाद।

प्रेमिकाएं लौट आती हैं
कभी-कभी पत्नियों के चेहरे में ।
किसी अकेले कमरे में
लौट आते हैं चुंबन वाले दिन
आईना निहारती बड़ी बहू के।
लौट आता है उधार गया रुपया
किसी परिचित के बटुए से।

देखना हम लौटेंगे एक दिन
उन पवित्र दोपहरों में
तीन दिन से लापता हुई
अचानक लौट आई बकरी की तरह।

जैसे लौटती है आदिवासी औरत
तेंदु की पत्तियां बेचकर
दिन भर की थकन लेकर
अपने परिवार के पास

और लोकगीत मुस्कुराते हैं।

निखिल आनंद गिरि
(पहल पत्रिका में प्रकाशित)

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

'डॉली की डोली' उर्फ बाबा जी का ठुल्लू


कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन पर लिखा जाना ज़रूरी नहीं होता, फिर भी लिखा जाता है। कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जिन्हें देखा जाना ज़रूरी नहीं होता, फिर भी देखना पड़ता है। डॉली की डोलीदेखने की वजह भी फिल्म से ज़्यादा फिल्म के लेखक उमाशंकर सिंह थे जिन्हें मेरे अलावा हिंदी सर्किल का हर साथी ठीक से जानता है। वो फेसबुक पर मेरे दोस्त हैं और उनकी कुछ कहानियां भी मैंने पढ़ी हैं। एक युवा हिंदी साहित्यकार की लिखी पहली हिंदी फिल्म देखना उसे गुपचुप सम्मान देने जैसा था। इससे ज़्यादा कुछ नहीं। फन सिनेमा में मेरे अलावा सिर्फ सात लोग बैठे थे और ये समझ आ गया था कि फिल्म ने क्या बिजनेस किया है।

डॉली की डोलीजैसी फिल्म 1970 में भी रिलीज़ होती तो भी मूल कहानी में कोई फर्क नहीं आता। डॉली एक लुटेरी दुल्हनहै जो अमीर लड़के फंसाकर शादियां करती है और पहली ही सुबह ससुराल वालों को नशीला दूध पिलाकर सारा माल उड़ा लेती है। यह कहानी फिल्म के पहले बीस मिनट दर्शक को पता नहीं होती, तब तक दर्शक मज़े लेकर फिल्म देखता है। फिर डॉली और उसके गैंग की चालाक एक्टिंग पर आगे की पूरी फिल्म टिकी थी। मगर अफसोस, सोनम कपूर न तो रानी मुखर्जी हैं और न ही विद्या बालन। हम एक बोरिंग होती फिल्म के ख़त्म होने का इंतज़ार करते हैं। दो-चार आइटम नंबर सुनते हैं, तालियां बजने लायक डायलॉग भी, मगर फिल्म कहीं छूट जाती है।

अगर ये किसी किताब में छपी होती तो एक अच्छी कहानी कही जाती। मगर पर्दे पर निर्देशक असल लेखक होता है। फिल्म का स्क्रीनप्ले कई जगह बनावटी, बोवजह, लंबा और बोरिंग भी है। कुल मिलाकर एक ऐसी फॉर्मूला कॉमेडी फिल्म जिसमें सारे मसाले तो हैं, मगर वो बहुत बार चखे जा चुके हैं। डॉली की ख़ासियत है कि उसकी शादियों में उसकी फोटो किसी के पास नहीं आती। दिल्ली जैसे पिद्दी शहर को 10 लाख सीसीटीवी देने वाली राजनैतिक घोषणाओं के युग में बिना कैमरे की शादी बिल्कुल हजम नहीं होती। फिल्म का क्लाइमैक्स बेहद फिल्मी है। जो पुलिस अफसर डॉली और उसके गैंग को पकड़ने में जुटा है, वो डॉली का पहला प्रेमी होता है। मगर डॉली आखिर में उसे भी छोड़ देती है। इसे एक औरत की आत्मनिर्भर और आज़ाद उड़ान के तौर पर भी देखा जा सकता था, मगर डॉली एक बार दे देती यार..’, ‘शादियों के बाद बीवियां तो लूटती ही हैंजैसे कई डायलॉग फिल्म की नीयत वैसी बनने नहीं देते।

अच्छी बात ये है कि इस फिल्म में एक-एक पात्र को पूरा समय दिया गया है। वो किसी लिखी गई कहानी की तरह पूरे-पूरे डायलॉग कहता है और थियेटर की तरह अगले कैरेक्टर के बोलने का इंतज़ार  करता है। एडिटर कट लगाना भूल गया है, मगर ऐसे में पूरी फिल्म में बहुत ज़्यादा उतार-चढ़ाव नहीं हो पाता और हम ऊबने लगते हैं।

इससे ज़्यादा फिल्म पर लिखना ठीक नहीं है। डॉली आखिर में मुंबई की तरफ गई है और उसके हाथ में सलमान खान की फोटो है। मेरी दुआ है कि सलमान को वो सचमुच कंगाल कर डाले ताकि हम कुछ फूहड़ सिनेमा बॉलीवुड से कम कर सकें।
निखिल आनंद गिरि

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