जयप्रकाश चौकसे
सलीम-जावेद की लिखी ‘जंजीर’ ने अमिताभ बच्चन को सितारा बनाया, प्रकाश मेहरा की कंपनी को ठोस आर्थिक आधार दिया और कालांतर में यह कल्ट फिल्म मानी गई। इसी फिल्म से आक्रोश की मुद्रा बॉक्स ऑफिस पर ऐसे सिक्के के रूप में चल पड़ी कि आज तक लोग उसे भुना रहे हैं। इतना ही नहीं, इसी आक्रोश ने अन्य फिल्मकारों को भी एक रास्ता बताया और इसी के विविध रूप हिंदुस्तानी सिनेमा में छा गए हैं। गोविंद निहलानी की ‘अर्धसत्य’ भी इसी का उनका अपना संस्करण है। सच तो यह है कि राजकुमार संतोषी की ‘घायल’, ‘घातक’ ही नहीं, वरन् आज की ‘दबंग’ छवि भी उसी आक्रोश के हंसोड़ संस्करण हैं।
अब प्रकाश मेहरा के सुपुत्र अपूर्व लखिया नामक निर्देशक के साथ ‘जंजीर’ का नया संस्करण बनाने जा रहे हैं। ये तमाम लोग अमिताभ बच्चन और जया से आशीर्वाद लेने जा रहे हैं, जबकि नए संस्करण में अमिताभ के अभिनय को नहीं दोहरा रहे हैं। आप मूल फिल्म की पटकथा पर फिल्म बना रहे हैं और उसमें जो भी परिवर्तन करेंगे, वह मूल की छवि को बिगाड़ देंगे। सारे नए संस्करणों में कलाकार नए होते हैं, उनकी व्याख्या भी अलग होती है और संगीत भी अलग होता है, परंतु पटकथा का आधार नहीं बदलते और सारे पंच संवाद भी दोहराए जाते हैं। आप दर्जन दफा ‘डॉन’ बना लो, परंतु ‘डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है’ संवाद को दोहराते हैं, क्योंकि इस पर हर कालखंड में तालियां पड़ती हैं। इसी तरह ‘देवदास’ को मनके की माला की तरह दोहराइए, परंतु मेरुमणि संवाद, राजिंदर सिंह बेदी का लिखा ‘कौन कम्बख्त बर्दाश्त करने को पीता है..’, दोहराकर गिनेंगे नहीं, जैसे माला में सौ मनके होते हैं, परंतु एक मेरुमणि होता है, जिसे फिराते हैं, परंतु गिनती में शुमार नहीं करते। इसी बात को महान गालिब ने यूं फरमाया है- ‘हम ब आलम बरकिनार कुफनाद अय, चूं इमामे सबह बैंरू अज शुमार ऊफनाद अय’।
यही मेरुमणि की तरह वो तमाम पटकथाएं बना दी गई हैं कि नए संस्करण के लिए कलाकार का आशीर्वाद लेने जा रहे हो और मूल के लेखकों के श्राप से भय नहीं लगता। उनकी इजाजत लेने की भी आवश्यकता नहीं महसूस होती। उनकी गिनती ही नहीं है। यह अन्याय इसलिए हो रहा है कि हमारे कॉपीराइट के नियम लचर हैं और अपना एक्सपायरी समय पार कर चुके हैं और इसका नया स्वरूप संसद की उन अलमारियों में धूल खा रहा है, जहां सरकारों ने अनेक नरकंकाल भी छिपाए हुए हैं।
आज के दौर में सुर्खियों में बने रहने और आशीर्वाद की मुद्रा में फोटो खिंचाने का शौक शायद सबसे बड़ा लालच है और ये वे लोग कर रहे हैं, जिनकी तस्वीरों ने अपनी अधिक संख्या के कारण अलग किस्म का प्रदूषण रचा है। बहरहाल, जावेद साहब के सुपुत्र फरहान अख्तर ने ‘डॉन’ बनाने से पहले सलीम साहब से इजाजत मांगी थी। प्रकाश मेहरा के बेटे सलीम और जावेद से मिलना तक गैरजरूरी समझते हैं। वे किस अहंकार की जंजीर से बंधे हैं। उनके पिता ‘जंजीर’ के पहले मात्र संघर्षरत फिल्मकार थे। यह संभव है कि ‘जंजीर’ की कमाई का दूध उन्होंने बचपन में पिया हो। दूध के कर्ज के रूप में भी मूल के लेखकों से मिला जा सकता है।
हिंदुस्तान में भ्रष्टाचार में पैसा खा जाते हैं, कोयले की खदान खा जाते हैं, धरती की अंतड़ियों से उसकी सदियों की खुराक चुरा लेते हैं और आकाश से परिंदों की उड़ान चुरा लेते हैं, नदियों से पानी और हवा से ऑक्सीजन चुरा लेते हैं और इन सभी चोरियों के खिलाफ आंदोलन है, परंतु लेखकों की रचनाओं की चोरी की एफआईआर किसी थाने में लिखी तक नहीं जा सकती। दरअसल इस मुल्क में मौलिकता का मूल्य नहीं, विचार-संपदा का सम्मान नहीं, भाषा सौंदर्य की कद्र नहीं। मुल्क इस तरह से मरते हैं, क्योंकि उन्हें तो कोई और मौलिक तरह से मरना भी नहीं आता।
(Courtsey : Dainik Bhaskar)